कर्मभूमि/पहला भाग १०

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१०

सारे शहर में कल के लिये दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं--हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झण्डियाँ भी बनीं और फूलों की डालियां भी जमा की गयीं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है। जज ऐसे मामले में क्या इन्साफ़ करेगा, क्या बेधा हुआ है। शान्तिकुमार और सलीम तो खुल्लम खुल्ला कहते फिरते थे कि जज ने फांसी की सज़ा दे दी। कोई खबर लाता था--फौज की एक पूरी रेजीमेंट कल अदालत में तलब की गयी है। कोई फौज तक न जाकर, सशस्त्र पुलिस तक ही रह जाता है। अमरकान्त को फौज के बुलाये जाने का विश्वास था। [ ६३ ]दस बजे रात को अमरकान्त सलीम के घर पहँचा। अभी यहां से घण्टे ही भर पहले गया था। सलीम ने चिन्तित होकर पूछा--कैसे लौट पड़े भाई, क्या कोई नयी बात हो गयी?

अमर ने कहा--एक बात सूझ गयी। मैंने कहा, तुम्हारी राय भी ले लूँ। फांसी की सजा पर खामोश रह जाना तो बुज़दिली है। किचलू साहब (जज) को सबक़ देने की जरूरत होगी ; ताकि उन्हें भी मालूम हो जाय, कि नौजवान भारत इन्साफ का खुन देखकर खामोश नहीं रह सकता है। सोशल बायकाट कर दिया जाय। उनके महाराज को मैं रख लूंगा, कोचमैन को तुम रख लेना। बचा को पानी भी न मिले। जिधर से निकले उधर तालियां बजें।

सलीम ने मुसकराकर कहा--सोचते-सोचते सोची भी तो वही बनियों की बात।

'मगर और कर ही क्या सकते हो?'

'इस बायकाट से क्या होगा! कोतवाली को लिख देगा, बीस महाराज और कोचवान हाजिर कर दिये जायेंगे।'

'दो-चार दिन परेशान तो होंगे हजरत !'

'बिलकुल फ़जूल सी बात है। अगर सबक़ ही देना है, तो ऐसा सबकः दो जो कुछ दिन हजरत को याद रहे। एक आदमी ठीक कर लिया जाय जो ऐन वक्त, जब हजरत फैसला सुना कर बैठने लगें, एक जूता ऐसे निशाने से चलाये कि मुँह पर लगे।'

अमरकान्त ने कहकहा मारकर कहा--बड़े मसखरे हो यार!

'इसमें मसखरेपन की क्या बात है?'

'तो क्या सचमुच जूते लगवाना चाहते हो!'

'जीहां, और क्या मजाक कर रहा हूँ। ऐसा सबक देना चाहता हूँ कि फिर हज़रत यहां मुँह न दिखा सकें।'

अमरकान्त ने सोचा, कुछ भद्दा काम तो है ही, पर बुराई क्या है। लातों के देवता कहीं बातों से मानते हैं ? बोला--अच्छी बात है, देखा जायगा; पर ऐसा आदमी कहां मिलेगा ?

सलीम ने उसकी सरलता पर मुसकराकर कहा---आदमी ऐसे मिल [ ६४ ]सकते हैं, जो राह चलते गर्दन काट लें। यह कौन-सी बड़ी बात है। किसी बदमाश को दो सौ रुपये दे दो, बस। मैंने तो काले खां को सोचा है।

'अच्छा वह ! उसे तो मैं एक बार अपनी दुकान पर फटकार चुका हूँ।

'तुम्हारी हिमाकत थी। ऐसे दो चार आदमियों को मिलाये रहना चाहिए। वक्त पर उनसे बड़ा काम निकलता है। मैं और सब बातें तय कर लूँगा ; पर रुपये की फ़िक्र तुम करना। मैं तो अपना बजट पूरा कर चका।'

'अभी तो महीना शुरू हुआ है भाई !'

'जी हां, यहां भी शुरू ही में खत्म हो जाते हैं। फिर नोच-खसोट पर चलती है। कहीं अम्मा से १०) उड़ा लाये, कहीं अब्बाजान से किताब के बहाने से पांच-दस ऐंठ लिये। पर २००) की थैली ज़रा मुश्किल से मिलेगी। हां तुम इन्कार कर दोगे, तो मजबूर होकर अम्मा का गला दबाऊँगा।'

अमर ने कहा--रुपये का कोई ग़म नहीं। मैं जाकर लिये आता हूँ।

सलीम ने इतनी रात गये रुपये लाना मुनासिब न समझा। बात कल के लिये उठा रखी गयी। प्रातःकाल अमर रुपये लायेगा और काले खां से बातचीत पक्की कर ली जायगी।

अमर घर पहुँचा तो, साढ़े दस बज रहे थे। द्वार पर बिजली जल रही थी। बैठक में लालाजी दो-तीन पण्डितों के साथ बैठे बात कर रहे थे। अमरकान्त को शंका हुई, इतनी रात गये यह जगहग किस बात के लिये है। कोई नया शिगूफा़ तो नहीं खिला?

लालाजी ने उसे देखते ही डांटकर कहा--तुम कहाँ घूम रहे हो जी! दस बजे के निकले-निकले आधी रात को लौटे हो। जरा जाकर लेडी डाक्टर को बुला लो, वही जो बड़े अस्पताल में रहती है। अपने साथ लिये हुए आना।

अमरकान्त ने डरते-डरते पूछा--क्या किसी की तबीयत----

समरकान्त में बात काटकर कड़े स्वर में कहा--क्या बक-बक करते हो। मैं जो कहता हूँ वह करो। तुम लोगों ने तो व्यर्थ ही संसार में जन्म लिया। वह मुक़दमा क्या हो गया, सारे घर के सिर जैसे भूत सवार हो गया। चट-पट जाओ।

अमर को फिर कुछ पूछने का साहस न हुआ। घर में भी न जा सका, [ ६५ ]धीरे से सड़क पर आया और बाइसिकिल पर बैठ ही रहा था कि भीतर से सिल्लो निकल आई। अमर को देखते ही बोली--अरे भैया, सुनो, कहां जाते हो ? बहुजी बहुत बेहाल है, कब से तुम्हें बुला रही हैं। सारी देह पसीने से तर हो रही है। देखो भैया, मैं सोने की कण्ठी लूँगी। पीछे से हीलाहवाला न करना।

अमरकान्त समझ गया। बाइसिकिल से उतर पड़ा और हवा की भांति झपटा हुआ अन्दर जा पहुँचा। वहां रेणुका, एक दाई, पड़ोस की एक ब्राह्मणी और नैना आंगन में बैठी हुई थीं। बीच में एक ढोलक रखी हुई थी। कमरे में सुखदा प्रसव वेदना से हाय-हाय कर रही थी।

नैना ने दौड़कर अमर का हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली--तुम कहां थे भैया, भाभी बड़ी देर से बेचैन हैं।

अमर के हृदय में आंसुओं की ऐसी लहर उठी, कि वह रो पड़ा। सुखदा के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया; पर अन्दर पाँव न रख सका। उसका हृदय फटा जाता था।

सखदा ने वेदना-भरी आंखों से उसकी ओर देखकर कहा--अब नहीं बचूँगी। हाय ! पेट में जैसे कोई बर्छी चुभो रहा है। मेरा कहा-सुना माफ़ करना।

रेणुका ने दौड़कर अमरकान्त से कहा--तुम यहाँ से जाओ भैया! तुम्हें देखकर बह और बेचैन होगी। किसी को भेज दो, लेडी डाक्टर को बुला लाओ। जी कड़ा करो, समझदार होकर रोते हो ?

सुखदा बोली--नहीं अम्माँ, उनसे कह दो जरा यहाँ बैठ जायें : मैं अब न बचूँगी। हाय भगवान !

रेणुका ने अमर को डाँटकर कहा--मैं तुमसे कहती हूँ, यहाँ से चले जाओ, और तुम खड़े रो रहे हो। जाकर लेडी डाक्टर को बुलाओ।

अमरकान्त रोता हुआ बाहर निकला और जनाने अस्पताल की ओर चला ; पर रास्ते में भी रह-रहकर उसके कलेजे में हूक सी उठती रही। सुखदा की वह वेदना-मय मूर्ति आँखों के सामने फिरती रही।

लेडी डाक्टर मिस हूपर को अकसर कुसमय बुलावे आते रहते थे। रात की उसकी फीस दुगुनी थी। अमरकान्त डर रहा था, कि कहीं बिगड़े न कि [ ६६ ]इतनी रात गये क्यों आये; लेकिन हूपर ने सहर्ष उसका स्वागत किया और मोटर लाने की आज्ञा देकर उससे बातें करने लगी।

'यह पहला ही बच्चा है ?'

'जी हाँ।

'आप रोयें नहीं। घबड़ाने की कोई बात नहीं। पहली बार ज्यादा दर्द होता है। और बहुत दुर्बल तो नहीं हैं ?'

'आज-कल तो बहुत दुबली हो गयी है।'

'आप को और पहले आना चाहिए था।'

अमर के प्राण सूख गये। वह क्या जानता था, आज ही यह आफ़त आने वाली है, नहीं कचहरी से सीधे घर आता।

मेम साहब ने फिर कहा--आप लोग अपनी लेडियों को कोई एक्सरसाइज नहीं करवाते। इसलिये दर्द ज्यादा होता है। अन्दर के स्नायु बँधे रह जाते हैं न !

अमरकान्त ने सिसककर कहा--मैडम, अब तो आप ही की दया का भरोसा है।

'मैं तो चल ही रही हूँ; लेकिन शायद सिविल सर्जन को बुलाना पड़े।"

अमर ने भयातुर हो कर कहा--कहिये तो उनको भी लेता चलूँ ?

मेम ने उसकी ओर दयाभाव से देखा--नहीं, अभी नहीं। पहले मुझे चलकर देख लेन दो।

अमरकान्त को आश्वासन न हुआ। उसने भय-कातर स्वर में कहा--मैडम, अगर सुखदा को कुछ हो गया, तो मैं भी मर जाऊँगा।

मेम ने चिन्तित होकर पूछा--तो क्या हालत अच्छी नहीं है ?

'दर्द बहुत हो रहा है।'

'हालत तो अच्छा है।'

'चेहरा पीला पड़ गया है , पसीना ...'

'हम पूछते हैं हालत कैसी है ? उनका जी तो नहीं डूब रहा है ? हाथ-पाँव तो ठण्डे नहीं हो गये हैं ?'

मोटर तैयार हो गयी। मेम साहब ने कहा--तुम भी आकर बैठ जाओ। साइकिल हमारा आदमी दे आयेगा। [ ६७ ]अमर ने दीन आग्रह के साथ कहा--आप चलें मैं जरा सिविल सर्जन के पास होता आऊँ। बुलानाले पर लाला समरकान्त का मकान ....

'हम जानते हैं !'

मेम साहब तो उधर चली, अमरकान्त सिविल सर्जन को बुलाने चला। ग्यारह बज गये थे। सड़कों पर भी सन्नाटा था। और पूरे तीन मील की मंजिल थी। सिविल सर्जन छावनी में रहता था। वहां पहुंचते-पहुंचते बारह का अमल हो आया : सदर फाटक खुलवाने, फिर साहब को इत्तिला कराने में एक घंटे से ज्यादा लग गया। साहब उठे तो; पर जामे से बाहर। गरजते हुए बोले--हम इस वक्त नहीं जा सकता।

अमर ने निश्शंक होकर कहा--आप अपनी फीस ही तो लेंगे?

'हमारा रात का फीस १०० ) है।'

'कोई हरज नहीं है।'

'तुम फीस लाया है ?'

अमर ने डांट बताई.---आप हरेक से पेशगी फीस नहीं लेते। लाला समरकान्त उन आदमियों में नहीं हैं जिनपर १०० ) का विश्वास न किया जा सके। वह इस शहर के सब से बड़े साहूकार हैं। मैं उनका लड़का हूँ।

साहब कुछ ठंडे पड़े। अमर ने उनको सारी कैफियत सुनाई, तो चलने पर तैयार हो गये। अमर ने साइकिल वहीं छोड़ी और साहब के मोटर में जा बैठा। आध घंटे में मोटर बुलानाले जा पहुंची। अमरकान्त को कुछ दूर से शहनाई की आवाज सुनाई दी। बन्दूकें छूट रही थीं। उसका हृदय आनन्द से फूल उठा।

द्वार पर मोटर रुकी, तो लाला समरकान्त ने डाक्टर को सलाम किया और बोले--हुजूर के इकबाल से सब चैन-चान है। पोते ने जन्म लिया है।

डाक्टर और लेडी हूपर में कुछ बातें हुई, डाक्टर साहब ने फीस ली और चल दिये।

उनके जाने के बाद लाला जी ने अमरकान्त को आड़े हाथों लिया--मुफ्त में १०० ) की चपत पड़ी।

आमरकान्त ने झल्लाकर कहा--मुझसे रुपये ले लीजियेगा। आदमी से भूल हो ही जाती है। ऐसे अवसर पर मैं रुपये का मोह नहीं देखता।
[ ६८ ]किसी दूसरे अवसर पर अमरकान्त इस फटकार पर घण्टों बिसूरा करता; पर इस वक्त उसका मन उत्साह और आनन्द में भरा हुआ था। भरे हए गद्दे पर ठोकरों का क्या असर। उसके जी में तो आ रहा था, इस वक्त क्या लुटा दूँ। वह अब एक पुत्र का पिता है। अब उससे कौन हेकडी जता सकता है ? वह नवजात शिशु जैसे स्वर्ग से उसके लिये आशा और अमरता का आशीर्वाद लेकर आया है। उसे देखकर अपनी आंखें शीतल करने के लिए वह विकल हो रहा था। ओहो ! इन्हीं आँखों से वह उस देवता के दर्शन करेगा!

लेडी हूपर ने उसे प्रतीक्षा-भरी आंखों से ताकते देखकर कहा--बाबजी आप यों बालक को नहीं देख सकेंगे। आपको बड़ा-सा इनाम देना पड़ेगा।

अमर ने संपन्न नम्रता से कहा--बालक तो आपका है। मैं तो केवल आपका सेवक हूँ। जच्चा की तबीयत कैसी है ?

'बहुत अच्छी है। सो गयी।'

'बालक खूब स्वस्थ है?'

'हां, अच्छा है । बहुत सुन्दर। गुलाब का पुतला-सा।'

यह कहकर सीरगृह में चली गयी। महिलाएँ तो गाने बजाने में मगन थीं। महल्ले की पचासों स्त्रियां जमा हो गयी थीं और उनका संयुक्त स्वर एक रस्सी की भांति स्थूल होकर अमर के गले को बांधे लेता था। उसी वक्त लेडी हूपर ने बालक को गोद में लेकर उसे सौरगृह की तरफ आने का इशारा किया। अमर उमंग से भरा हुआ चला; पर सहसा उसका मन एक विचित्र भय से कातर हो उठा। वह आगे न बढ़ सका। वह पापी मन लिये हुए इस वरदान को कैसे ग्रहण कर सकेगा। वह इस वरदान के योग्य है ही कब ? उसने इसके लिये कौन-सी तपस्या की है ? यह ईश्वर की अपार दया है, जो उन्होंने यह विभूति उसे प्रदान की। तुम कैसे दयालु हो भगवान!

श्यामल क्षितिज के गर्भ से निकलनेवाली लाल ज्योति की भांति अमरकान्त को अपने अन्तःकरण की सारी भद्रता, सारी कलुपता के भीतर से एक प्रकाश-सा निकलता हुआ जान पड़ा, जिसने उसके जीवन को रजतशोभा प्रदान कर दी। दीपकों के प्रकाश में, संगीत के स्वरों में, गगन की [ ६९ ]तारिकाओं में, उसी शिशु की छवि थी, उसी का माधुर्य था, उसी का नृत्य था।

सिल्लो आकर रोने लगी। अमर ने पूछा--तुझे क्या हुआ है ? क्यों रोती है?

सिल्लो बोली--मेम साहब ने मुझे भैया को नहीं देखने दिया, दुत्कार दिया। क्या मैं बच्चे को नजर लगा देती ? मेरे बच्चे थे, मैंने भी बच्चे पाले हैं, जरा देख लेती तो क्या होता !

अमर ने हँसकर कहा--तू कितनी पागल है सिल्लो--उसने इसलिये मना किया होगा कि बच्चे को हवा न लग जाय। इन अंग्रेज डाक्टरनियों के नखरे भी तो निराले होते हैं। समझती-समझाती नहीं, तरह-तरह के नखरे बधारती हैं, लेकिन उनका राज तो आज ही के दिन है न ? फिर तो अकेली दायी रह जायगी। तू ही तो बच्चे को पालेगी। दूसरा और कौन पालने वाला बैठा हुआ है।

सिल्लो की आंसू--भरी आंखें मुसकरा पड़ीं। बोली-–मैंने दूर से देख लिया। बिलकुल तुम को पड़ा है। रंग बहूजी का है। मैं कण्ठी ले लूँगी।

दो बज रहे थे। उसी वक्त लाला समरकान्त ने अमर को बुलाया और बोले--नींद तो अब क्या आयेगी। बैठकर कल के उत्सव का एक तखमीना बना लो। तुम्हारे जन्म में तो कारबार फैला न था, नैना कन्या थी। ३५ वर्ष के बाद भगवान ने यह दिन दिखाया है। कुछ लोग नाच-मुजरे का विरोध करते हैं। मुझे तो इसमें कोई हानि नहीं दीखती। खुशी का यही अवसर है, चार भाई-बन्द, चार दोस्त आते हैं, गाना-बजाना सुनते हैं, प्रीति-भोज में शरीक होते हैं। यही जीवन के सुख हैं। और इस संसार में क्या रखा है।

अमर ने आपत्ति की--लेकिन रंडियों का नाच तो ऐसे शुभ अवसर पर कुछ शोभा नहीं देता !

लालाजी ने प्रतिवाद किया--तुम अपना विज्ञान यहां न घुसेड़ो। मैं तुमसे सलाह नहीं पूछ रहा हूँ। कोई प्रथा चलती हैं, तो उसका आधार भी होता है। श्रीरामचन्द्र के जन्मोत्सव में अप्सराओं का नाच हुआ था। हमारे समाज में इसे शुभ माना गया है। [ ७० ]अमर ने कहा--अँग्रेजों के समाज में तो जलसे नहीं होते।

लालाजी ने बिल्ली की तरह चूहे पर झपटकर कहा--अंग्रेजों के यहां रंडियां नहीं, घर की बहू-बेटियां नाचती हैं, जैसे हमारे चमारों में होता है। बहूबेटियों को नचाने से तो यह कहीं अच्छा है कि रडियां नाचें। कम-से-कम मैं और मेरी तरह के और बुड्ढे अपनी बहू-बेटियों को नचाना कभी पसन्द न करेंगे।

अमरकान्त को कोई जवाब न सूझा। सलीम और दूसरे दोस्त आयेंगे। खासी चहल-पहल रहेगी। उसने ज़िद भी की लो क्या नतीजा। लालाजी मानने के नहीं। फिर एक उसके करने से तो नाच का बहिष्कार हो नहीं जाता।

वह बैठकर तखमीना लिखने लगा।