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कर्मभूमि/पहला भाग १४

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कर्मभूमि
प्रेमचंद

हंस प्रकाशन, पृष्ठ १०१ से – १०७ तक

 

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अमरकान्त के जीवन में एक नयी स्फूर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी

लगाम खींचते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह; लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावे देता था, उसकी गरदन पर हाथ फेरता था। जहाँ उपेक्षा, या अधिक-से-अधिक, शुष्क उदासीनता थी, वहां अब एक रमणी का प्रोत्साहन था, जो पर्वतों को हिला सकता है, मुर्दो को जिला सकता है। उसकी सावना, जो बन्धनों में पड़कर संकुचित हो गयी थी, प्रेम का आश्रय पाकर प्रबल और उग्र हो गयी। अपने अन्दर ऐसी आत्मशक्ति उसने कभी न पायी थी। सकीना अपने प्रेमस्रोत से उसकी साधना को सींचती रहती है। वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती; पर उसका प्रेम उस ऋषि का वरदान है, जो आप भिक्षा मांगकर भी दूसरों पर विभूतियों की वर्षा करता है। अमर बिना किसी प्रयोजन के सकीना के पास नहीं जाता। उसमें वह उद्दण्डता भी अब नहीं रही। समय और अवसर देखकर काम करता है। जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती। वह जमीन से ही आर्द्रता खींचकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है। उसे सजग रखने के लिय बार-बार मिलने की जरूरत नहीं।

डिग्री की परीक्षा हुई पर अमरकान्त उसमें बैठा नहीं। अध्यापक को विश्वास था, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी। यहां तक कि डाक्टर शान्तिकुमार ने भी उसे बहुत समझाया; पर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा। जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है--हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागरित नहीं हुई, तो कागज की डिग्री व्यर्थ है। उसे इन शिक्षाओं से घृणा हो गई थी। जब वह अपने अध्यापकों को फैशन की गुलामी करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम काम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी। और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट्र की बागडोर है। यही कौम के विधाता है। इन्हें इसकी परवाह नहीं कि भारत की जनता दो आने पैसों पर गुजर करती है। एक साधारण आदमी को साल-भर में पचास रुपये से ज्यादा नहीं मिलते। हमारे अध्यापकों को पचास रुपये रोज चाहिए। जब अमर को उस अतीत की याद आती, जब हमारे गुरुजन झोपड़ों में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्विक जीवन के

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आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट्र से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे। और एक यह अध्यापक है, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज्य कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दम्भ है, वहीं धन-मद है, वही अधिकार मद है। हमारे विद्यालय क्या है राज्य के विभाग हैं, और हमारे अध्यापक उसी राज्य के अंग हैं। ये खुद अन्धकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलायेंगे। वे आप अपने मनोविकारों के कैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के गुलाम है, और अपने शिष्यों को भी उसी कैद और गलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना फिर अतीत का स्वप्न देखती। परिस्थितियों को वह बिलकूल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट्र के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अध्यापक झोपड़ी में रहनेवाले, वल्कलधारी, कंदमूल फल भोगी संन्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित; न यह आये दिन के टंटे न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरत क्या ? यह बड़े-बड़े महकमे किस लिए ? ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिद्धों का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानों लोभ और स्वार्थ ही विद्वत्ता का लक्षण है ! गरीबों को रोटियां मयस्सर नहीं, कपड़ों को तरसते हों; पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बँगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है, तो वह अन्यायी है; ईश्वर ने रचा है, तो उसे क्या कहें !

यही भावनाएँ अमर के अन्तस्तल में लहरों की भाँति उठती रहती थीं।

वह प्रातःकाल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुँच जाता और दोपहर तक वहाँ लड़कों को पढ़ाता रहता। शाला डाक्टर साहब के बँगले में थी। नौ बजे तक डाक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फीस बिल्कुल न ली जाती थी, फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहाँ फीस और जुरमाने और चन्दों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहाँ कोई झाँकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोट भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो, कैसे वे साहसी, सन्तोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौन्दर्य बोध जो मानव प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दुषित वातावरण से

अलग रह कर अपनी पूर्णता पाये, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रख कर ही वह साधनों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएँ, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द संन्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे। दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी थी।

एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा--आप आखिर कब तक प्रोफेसरी करते चले जायेंगे ? जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता।

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा--मैं खुद यही सोच रहा हूँ भाई; पर सोचता हूँ, रुपये कहाँ से आयेंगे। कुछ खर्च नहीं है, तो भी पांच सौ में तो सन्देह है नहीं।

'आप इसकी चिन्ता न कीजिए ! कहीं-न-कहीं से रुपये आ ही जायँगे। फिर रुपये की जरूरत क्या है?'

'मकान का किराया है, लड़कों के लिए किताबें हैं, और बीसों ही खर्च हैं। क्या-क्या गिनाऊँ ?'

'हम किसी वृक्ष के नीच दो लड़कों को पढ़ा सकते हैं।'

'तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का बिलकुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद, खयाली पुलाव है।'

अमर ने चकित होकर कहा--मैं तो समझता था, आप भी आदर्शवादी हैं।

शान्तिकुमार ने मानों इस चोट को ढाल पर रोककर कहा--मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता का भी स्थान है।

'इसका अर्थ यह है कि आप गुड़ खाते हैं, गुलगुले से परहेज करतें हैं।'

'जब तक मुझे रुपये कहीं से मिलने न लगें, तुम्हीं सोचो मैं किस आधार पर नौकरी का परित्याग कर दूं। पाठशाला मैंने खोली है। इसके संचालन का

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दायित्व मुझपर है। इसके बन्द हो जाने पर मेरी बदनामी होगी। अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थाई प्रबन्ध कर सकते हो, तो मैं आज इस्तीफ़ा दे सकता हूँ; लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इतना पक्का आदर्शवादी नहीं।

अमरकान्त ने अभी सिद्धांत से समझौता करना न सीखा था। कार्यक्षेत्र में कुछ दिन रह जाने और संसार के कड़वे अनुभव हो जाने के बाद हमारी प्रकृति में जो ढीलापन आ जाता है, उस परिस्थिति में वह न पड़ा था। नवदीक्षितों को सिद्धांत में जो अटल भक्ति होती है, वह उसमें भी थी। डाक्टर साहब में उसे जो श्रद्धा थी, उसमें जोर का धक्का लगा। उसे मालूम हआ, वह केवल बातों के वीर हैं, कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, जिसका खुले शब्दों में यह आशय है, कि वह संसार को धोखा देते हैं। ऐसे मनुष्य के साथ वह कसे सहयोग कर सकता है ?

उसने जैसे धमकी दी--तो आप इस्तीफा नहीं दे सकते?

'उस वक्त तक नहीं, जब तक धन का कोई प्रबन्ध न हो।'

'तो ऐसी दशा में मैं यहाँ काम नहीं कर सकता।'

डाक्टर साहब ने नम्रता से कहा--देखो अमरकान्त, मुझे संसार का तुमसे ज्यादा तजरबा है, मेरा इतना जीवन नये-नये परीक्षणों में ही गुजरा है। मैंने जो तत्व निकाला है, यह है कि हमारा जीवन समझौते पर टिका हुआ है। अभी तुम मुझे जो चाहे समझो; पर एक समय आयेगा, जब तुम्हारी आँखें खुलेंगी और तुम्हें मालूम होगा कि जीवन में यथार्थ का महत्व आदर्श से जी-भर भी कम नहीं।

अमर ने जैसे आकाश में उड़ते हए कहा--मैदान में मर जाना मैदान छोड़ देने से कहीं अच्छा है। और उसी वक्त वहाँ से चल दिया।

पहले सलीम से मुठभेड़ हुई। सलीम इस शाला को मदारी का तमाशा कहा करता था, वहाँ जादू की लकड़ी छुआ देने से ही मिट्टी सोना बन जाती है। वह एम० ए० की तैयारी कर रहा था। उसकी अभिलाषा थी कि कोई अच्छा सरकारी पद पा जाय और चैन से रहे। सुधार और संगठन और राष्ट्रीय आन्दोलन से उसे विशेष प्रेम न था। उसने यह खबर सुनी तो खुश होकर कहा--तुमने बहुत अच्छा किया, निकल आये। मैं डाक्टर साहब को

खूब जानता हूँ, वह उन लोगों में हैं जो दूसरों के घर में आग लगाकर अपना हाथ सेंकते हैं। कौम के नाम पर जान देते हैं, मगर जबान से।

सुखदा भी खुश हुई। अमर का शाला के पीछे पागल हो जाना उसे न सुहाता था। डाक्टर साहब से उसे चिढ़ थी। वही अमर को उँगलियों पर नचा रहे हैं। उन्हीं के फेर में पड़कर अमर घर से फिर उदासीन हो गया है।

पर जब संध्या समय अमर ने सकीना से ज़िक्र किया, तो उसने डाक्टर साहब का पक्ष लिया--मैं समझती हूँ, डाक्टर साहब का खयाल ठीक है। भखे पेट ख़ुदा की याद भी नहीं हो सकती। जिसके सिर रोजी की फ़िक्र सवार है, वह क़ौम की क्या खिदमत करेगा, और करेगा तो अमानत में ख़यानत करेगा। आदमी भूखा नहीं रह सकता। फिर मदरसे का खर्च भी तो है। माना कि दरख़तों के नीचे ही मदरसा लगे; लेकिन वह बाग कहाँ है ? कोई ऐसी जगह तो चाहिए ही जहाँ लड़के बैठकर पढ़ सकें। लड़कों को किताबें, कागज़ चाहिए, बैठने को फ़र्श चाहिए, डोल-रस्सी चाहिए। या तो चन्दे से आये, या कोई कमाकर दे! सोचो, जो आदमी अपने उसूल के खिलाफ नौकरी करके एक काम की बुनियाद डालता है, वह उसके लिए कितनी बड़ी कुरबानी कर रहा है। तुम अपने वक्त की कुरबानी करते हो। वह अपने ज़मीर तक की कुरबानी कर देता है। मैं तो ऐसे आदमी को कहीं ज्यादा इज्ज़त के लायक समझती हूँ।

पठानिन ने कहा--तुम इस छोकरी की बातों में न आओ बेटा, जाकर घर का धन्धा देखो, जिससे गृहस्थी का निवाह हो। यह सैलानीपन उन लोगों को चाहिए, जो घर के निखट्टू हैं। तुम्हें अल्लाह ने इज्जत दी है, मरतबा दिया है, बाल-बच्चे दिये हैं। तुम इन खुराफातों में न पड़ो।

अमर को अब टोपियाँ बेचने से फुर्सत मिल गई थी। बुढ़िया को रेणुका देवी के द्वारा चिकन का काम इतना ज्यादा मिल जाता था कि टोलियाँ कौन काढ़ता। सलीम के घर से भी कोई-न-कोई काम आता ही रहता था। उनके ज़रिये से और घरों से भी काफ़ी काम मिल जाता था। सकीना के घर में कुछ खुशहाली नज़र आती थी। घर की पुताई हो गयी थी,द्वार पर नया परदा पड़ गया था, दो खाटें नई आ गई थीं, खाटों पर दरियाँ भी नई थीं, कई बरतन नये आ गये थे। कपड़े-लत्ते की भी शिकामत न थी। उर्दू का एक

अख़बार भी खाट पर रखा हुआ होता था। पठानिन को अपने अच्छे दिनों में भी इससे ज़्यादा समृद्धि न हुई थी। बस उसे अगर कोई गम था तो यह कि सकीना शादी पर राज़ी न होती थी।

अमर यहाँ से चला तो अपनी भूल पर लज्जित था। सकीना के एक ही वाक्य ने उसके मन की सारी शंका शान्त कर दी थी। डाक्टर साहब में उसकी श्रद्धा फिर उतनी ही गहरी हो गई थी। सकीना की बुद्धिमत्ता, विचार-सौष्ठव, सूझ और निर्भीकता ने उसे चकित और मुग्ध कर दिया था। सकीना से उसका परिचय जितना ही गहरा होता था, उतना ही उसका असर भी गहरा होता था। सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे अप्रिय था। सकीना अपती नम्रता और मधुरता से उस पर शासन करती थी। यह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकीना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुद्धिमान और कुशल समझती थी। सकीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या हूँ ?

डाक्टर साहब ने मुस्कराकर पूछा--तो तुम्हारा यही निश्चय है कि मैं इस्तीफा दे दूँ ? वास्तव में मैंने इस्तीफ़ा लिख रखा है और कल दे दूँगा। तुम्हारा सहयोग मैं नहीं खो सकता। मैं अकेला कुछ भी न कर सकूँगा। तुम्हारे जाने के बाद मैंने ठण्डे दिल से सोचा, तो मालूम हुआ, मैं व्यर्थ के मोह में पड़ा हुआ हूँ। स्वामी दयानन्द के पास क्या था जब उन्होंने आर्य-समाज की बुनियाद डाली ?

अमरकान्त भी मुसकराया--नहीं, मैंने ठण्डे दिल से सोचा, तो मालूम हुआ कि मैं गलती पर था। जब तक रुपये का माकूल इन्तज़ाम न हो जाय, आपको इस्तीफ़ा देने की ज़रूरत नहीं।

डाक्टर साहब ने विस्मय से कहा--तुम व्यंग्य कर रहे हो ?

'नहीं, मैंने आपमे बेअदबी की थी। उसे क्षमा कीजिए।'