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कर्मभूमि/पहला भाग १६

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कर्मभूमि
प्रेमचंद

हंस प्रकाशन, पृष्ठ १२० से – १३० तक

 

१६

अमरकान्त खादी बेच रहा है। तीन बजे होंगे, लू चल रही है, बगूले उठ रहे हैं, दूकानदार दूकानों पर सो रहे हैं, रईस महलों में सो रहे हैं, मजूर पेड़ों के नीचे सो रहे हैं, और अमर खादी का गट्ठा लादे, पसीने में तर, चेहरा सुर्ख, आँखें लाल, गली-गली घूमता फिरता है।

एक वकील साहब ने खस का पर्दा उठाकर देखा और बोले--अरे यार, यह क्या गज़ब करते हो, म्युनिसिपल कमिश्नरी की तो लाज रखते, सारा भद्द कर दिया। क्या कोई मजूरा नहीं मिलता था?

अमर ने गट्ठा लिये-लिये कहा--मजूरी करने से म्युनिसिपल कमिश्नरी की शान में बट्टा नहीं लगता। बट्टा लगता है--धोखे-धड़ी की कमाई खाने से।

'यहाँ धोखे-धड़ी की कमाई खाने वाला कौन है भाई ? क्या वकील, डाक्टर, प्रोफ़ेसर, सेठ-साहूकार धोखे-धड़ी की कमाई खाते है ?'

'यह उनके दिल से पूछिये। मैं किसी को क्यों बुरा कहूँ ?'

'आखिर आप ने कुछ समझकर ही तो यह फ़िकरा चुस्त किया है ?'

'अगर आप मुझसे कुछ पूछना ही चाहते हैं तो मैं कह सकता हूँ, हाँ खाते हैं ! एक आदमी दस रुपये में गुजर करता है दूसरे को दस हजार क्यों चाहिये ? यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी जब तक जनता की आँखें बन्द हैं। क्षमा कीजिएगा, एक आदमी पंखे की हवा खाये और खसखाने में

बैठे, और दूसरा आदमी दोपहर की धूप में तपे, यह न न्याय है, न धर्म--यह धाँधली है।'

'छोटे-बड़े तो भाई साहब, हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे। सबको आप बराबर नहीं कर सकते।'

'दुनिया का ठेका नहीं लेता। अगर न्याय अच्छी चीज है तो वह इसलिये खराब नहीं हो सकती कि लोग उसका व्यवहार नहीं करते।'

'इसका आशय यह है कि आप व्यक्तिवाद को नहीं मानते, समष्टिवाद के क़ायल हैं !

'मैं किसी वाद का कायल नहीं। केवल न्यायवाद का पुजारी हूँ।'

'तो अपने पिताजी से बिलकुल अलग हो गये?'

'पिताजी ने मेरी जिन्दगी भर का ठेका नहीं लिया।'

'अच्छा, लाइये देखें आपके पास क्या-क्या चीजें हैं ?'

अमरकान्त ने इन महाशय के हाथ दस रुपये के कपड़े बेचे।

अमर आज-कल बड़ा क्रोधी, बड़ा कटुभाषी, बड़ा उद्दण्ड हो गया है। हरदम उसकी तलवार म्यान के बाहर रहती है। बात-बात पर उलझता है। फिर भी उसकी बिक्री अच्छी होती है। रुपया-सवा रुपया रोज मिल जाता है।

त्यागी दो प्रकार के होते हैं। एक वह जो त्याग में आनन्द मानते हैं, जिनकी आत्मा को त्याग में सन्तोष और पूर्णता का अनुभव होता है, जिनके त्याग में उदारता और सौजन्य है। दूसरे वह, जो दिलजले त्यागी होते हैं, जिनका त्याग अपनी परिस्थितियों से विद्रोह-मात्र है, जो अपने न्यायपथ पर चलने का तावान संसार से लेते हैं, जो खुद जलते हैं इसलिए दूसरों को भी जलाते हैं। अमर इसी तरह का त्यागी था।

स्वस्थ आदमी अगर नीम की पत्ती चबाता है, तो अपने स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए। वह शौक से पीसता और शौक से पीता है; पर रोगी वही पत्तियाँ पीता है, तो नाक सिकोड़कर, मुँह बनाकर, झुंझलाकर और अपनी तक़दीर को रोकर।

सुखदा जज साहब की पत्नी की सिफ़ारिश से बालिका-विद्यालय में ५०) पर नीकर हो गयी है। अमर दिल खोलकर तो कुछ कह नहीं सकता; पर मन में जलता रहता है। घर का सारा काम, बच्चे को सँभालना, रसोई

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पकाना, जरूरी चीज बाजार से मँगाना--वह सब उसके मत्थे है। सूखदा घर के कामों के नगीच नहीं जाती। अमर आम कहता है, तो सुखदा इमली कहती है। दोनों में हमेशा खट-पट होती रहती है। सुखदा इस दरिद्रावस्था में भी उस पर शासन कर रही है। अमर कहता है, आधा सेर दूध काफ़ी है, सुखदा कहती है, सेर भर आयेगा, और सेर भर ही मँगाती है । वह खुद दूध नहीं पीता इस पर भी रोज़ लड़ाई होती है। वह कहता है, हम गरीब हैं, मजूर हैं, हमें मजदूरों की तरह रहना चाहिए। वह कहती है, हम मजूर नहीं हैं न मजूरों की तरह रहेंगे। अमर उसको अपने आत्मविकास में बाधक समझता है और उस बाधा को हटा न सकने के कारण भीतर-ही-भीतर कुढ़ता है।

एक दिन बच्चे को खाँसी आने लगी। अमर बच्चे को लेकर एक होमियोपंथ के पास जाने को तैयार हुआ। सुखदा ने कहा--बच्चे को मत ले जाओ, हवा लगेगी। डाक्टर को बुला लाओ। फ़ीस ही तो लेगा !

अमर को मजबूर होकर डाक्टर बुलाना पड़ा। तीसरे दिन बच्चा अच्छा हो गया।

एक दिन खबर मिली, लाला समरकान्त को ज्वर आ गया है। अमरकान्त इस महीने भर में एक बार भी घर न गया था। यह खबर सुनकर भी न गया। वह मरें या जियें, उसे क्या करना है। उन्हें अपना धन प्यारा है, उसे छाती से लगाये रखें। और उन्हें किसी की जरूरत ही क्या।

पर सुखदा से न रहा गया । वह उसी वक्त नैना को साथ लेकर चल दी।

अमर मन में जल-भुनकर रह गया।

समरकान्त घरवालों के सिवा और किसी के हाथ का भोजन न ग्रहण करते थे। कई दिन तो उन्होंने केवल दूध पर काटे, फिर कई दिन फल खाकर रहे। लेकिन रोटी-दाल के लिए जी तरसता रहा था । नाना पदार्थ बाजार में भरे थे, पर रोटियाँ कहाँ ? एक दिन उनसे न रहा गया। रोटियाँ पकाई, और हविस में आकर कुछ ज्यादा खा गये। अजीर्ण हो गया। एक दिन दस्त आये। दूसरे दिन ज्वर हो आया। फलाहार से कुछ तो पहले गल चुके थे, दो दिन की बीमारी ने लस्त कर दिया।

सुखदा को देखकर बोले--अभी क्या आने को जल्दी थी बहू, दो-चार

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दिन और देख लेतीं। तब तक यह धन का साँप उड़ गया होता। वह लौंडा समझता है मुझे अपने बाल बच्चों से धन प्यारा है ! किसके लिए उसका संचय किया था? अपने लिए? तो बाल बच्चों को क्यों जन्म दिया? उसी लौंडे को जो आज मेरा शत्रु बना हुआ है, छाती से लगाये क्यों ओझे-स्यानों, वैदों-हकीमों के पास दौड़ा फिरा? खुद कभी अच्छा नहीं खाया अच्छा नहीं पहना, किसके लिए? कृपण बना, वेईमानी की, दूसरों की खुशामद की, अपनी आत्मा की हत्या की, किसके लिए? जिसके लिए चोरी की, वही आज मुझे चोर कहता है ?

सुखदा सिर झुकाये खड़ी रोती रही।

लालाजी ने फिर कहा--मैं जानता हूँ, जिसे ईश्वर ने हाथ दिये हैं, वह दूसरों का मुहताज नहीं रह सकता। इतना मूर्ख नहीं हूँ; लेकिन माँ-बाप की कामना तो यही होती है, कि उनकी सन्तान को कोई कष्ट न हो। जिस तरह उन्हें मरना पड़ा उसी तरह उनकी सन्तान को मरना न पड़े। जिस तरह तुम्हें धक्के खाने पड़े, कर्म-अकर्म सब करने पड़े, वे कठिनाइयाँ उनकी सन्तान को न झेलनी पड़ें। दुनियां उन्हें लोभी, स्वार्थी कहती है, उनको परवाह नहीं होती; लेकिन जब अपनी ही सन्तान अपना अनादर करे, तब सोचो, अभागे बाप के दिल पर क्या बीतती है ! उसे मालूम होता है, सारा जीवन निष्फल हो गया। जो विशाल भवन एक-एक ईंट जोड़कर खड़ा किया था, जिसके लिए क्वार की धूप, और माघ की वर्षा सब झेली, वह ढह गया, और उसके ईंट-पत्थर सामने बिखरे पड़े हैं। वह घर नहीं ढह गया, वह जीवन ढह गया। सम्पूर्ण जीवन की कामना ढह गयी।

सुखदा ने बालक को नैना की गोद से लेकर ससुर की चारपाई पर सुला दिया और पङ्खा झलने लगी। बालक ने बड़ी-बड़ी सजग आँखों से बूढ़े दादा की मूँछें देखीं, और उनके वहाँ रहने का कोई विशेष प्रयोजन न देखकर उन्हें उखाड़कर फेंक देने के लिए उद्यत हो गया। दोनों हाथों से मूछें पकड़कर खींची। लालाजी ने 'सी-सी' तो की; पर बालक के हाथों को हटाया नहीं। हनुमान ने भी इतनी निर्दयता से लंका के उद्यानों का विध्वंस न किया होगा। फिर भी लालाजी ने बालक के हाथों से मूंछे नहीं छुड़ाईं। उनकी कामनाएँ जो पड़ी एड़ियाँ रगड़ रही थीं, इस स्पर्श से जैसे संजीवनी

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पा गई। उस स्पर्श में कोई ऐसा प्रसाद, कोई ऐसी विभूति थी। उनके रोम-रोम में समाया हुआ बालक जैसे मथित होकर नवनीत की भाँति प्रत्यक्ष हो गया हो।

दो दिन सूखदा अपने नये घर न गयी; पर अमरकान्त पिता को देखने एक बार भी न आया। सिल्लो भी सुखदा के साथ चली गयी थी। शाम को आता, रोटियाँ पकाता, खाता और काँग्रेस दफ्तर या नौजवान-सभा के कार्यालय में चला जाता। कभी किसी आम जलसे में बोलता, कभी चन्दा उगाहता।

तीसरे दिन लालाजी उठ बैठे। सूखदा दिन भर तो उनके पास रही। सन्ध्या समय उनसे विदा माँगी। लालाजी स्नेह-भरी आँखों से देखकर बोले--मैं जानता कि तुम मेरी तीमारदारी ही के लिए आई हो, तो दस-पाँच दिन पड़ा रहता बहू। मैंने तो जान-बूझकर कोई अपराध नहीं किया; लेकिन कुछ अनुचित हुआ हो, तो उसे क्षमा करो।

सुखदा का जी हुआ मान त्याग दे; पर इतना कष्ट उठाने के बाद जब अपनी गृहस्थी कुछ-कुछ जम चली थी, यहाँ आना कुछ अच्छा न लगता था। फिर, वहाँ वह स्वामिनी थी। घर का संचालन उसके अधीन था । वहाँ की एक-एक वस्तु में अपनापन भरा हुआ था। एक-एक तृण में उसका स्वाभिमान झलक रहा था। एक-एक वस्तु में उसका अनुराग अंकित था। एक-एक वस्तु पर उसकी आत्मा की छाप थी, मानो उसकी आत्मा ही प्रत्यक्ष हो गयी हो। यहाँ की कोई वस्तु उसके अभिमान की वस्तु न थी; उसकी स्वामिनी कल्पना सब कुछ होने पर भी तुष्टि का आनन्द न पाती थी। पर लालाजी को समझाने के लिए किसी युक्ति की जरूरत थी। बोली--यह आप क्या कहते हैं दादा, हम लोग आपके बालक हैं। आप जो कुछ उपदेश या ताड़ना देंगे, वह हमारे ही भले के लिए देंगे। मेरा जी तो जाने को नहीं चाहता; लेकिन अकेले मेरे चले आने से क्या होगा। मुझे खुद शर्म आती है कि दुनिया क्या कह रही होगी। में जितनी जल्द हो सकेगा, सबको घसीट लाऊँगी। जब तक आदमी कुछ ठोकरें नहीं खा लेता, उसकी आँखें नहीं खुलती। मैं एक बार रोज आकर आपका भोजन बना जाया करूँगी। कभी बीबी चली आयँगी, कभी मैं चली आऊँगी।

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उस दिन से सुखदा का यही नियम हो गया। वह सबेरे यहाँ चली आती और लालाजी को भोजन कराके लौट जाती। फिर खुद भोजन कर के बालिका विद्यालय चली जाती। तीसरे पहर जब अमरकान्त खादी बेचने चला जाता, तो वह नैना को लेकर फिर आ जाती, और दो-तीन घन्टे रहकर चली जाती। कभी-कभी खुद रेणुका के पास जाती, तो नैना को यहाँ भेज देती। उसके स्वाभिमान में कोमलता थी, अगर कुछ जलन थी, तो वह कब की शीतल हो चुकी थी। वृद्ध पिता को कोई कष्ट हो, यह उससे न देखा जाता था।

इन दिनों उसे जो बात सबसे ज्यादा खटकती थी, वह अमरकान्त का सिर पर खादी लाद कर चलना था। वह कई बार इस विषय पर उनसे झगड़ा कर चुकी थी; पर उसके कहने से वह और जिद पकड़ लेते थे। इसलिए उसने कहना-सुनना छोड़ दिया था; पर एक दिन घर जाते समय उसने अमरकान्त को खादी का गट्ठर लिये देख लिया। उस समय महल्ले की एक महिला भी उसके साथ थी। सूखदा मानों धरती में गड़ गयी।

अमर ज्यों ही घर आया, उसने यही विषय छेड़ दिया--मालूम तो हो गया, कि तुम बड़े सत्यवादी हो। दूसरों के लिए भी कुछ रहने दोगे, या सब तुम्हीं ले लोगे। अब तो संसार में परिश्रम का महत्त्व सिद्ध हो गया। अब तो बकचा लादना छोड़ो। तुम्हें शर्म न आती हो; लेकिन तुम्हारी इज्जत के साथ मेरी इज्जत भी तो बँधी हुई है। तुम्हें कोई अधिकार नहीं है, कि तुम यो मुझे अपमानित करते फिरो।

अमर तो कमर कसे तैयार था ही। बोला--यह तो मैं जानता हूँ कि मेरा अधिकार कहीं कुछ नहीं है; लेकिन क्या यह पूछ सकता हूँ कि तुम्हारे अधिकारों की भी सीमा कहाँ है, या वह असीम है ?

'मैं ऐसा कोई काम नहीं करती, जिसमें तुम्हारा अपमान हो!'

'अगर मैं कहूँ कि जिस तरह मेरे मजदूरी करने से तुम्हारा अपमान होता है, उसी तरह तुम्हारे नौकरी करने से मेरा अपमान होता है, तो शायद तुम्हें विश्वास न आयेगा।'

'तुम्हारे मान-अपमान का काँटा संसार-भर से निराला हो, तो मैं लाचार हूँ।'

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'मैं संसार का गुलाम नहीं हूँ। अगर तुम्हें वह गुलामी पसन्द है, तो शौक से करो। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकतीं।'

'नौकरी न करूँ, तो तुम्हारे रुपये-बीस आने रोज में घर का खर्च निभेगा?

मेरा खयाल है, कि इस मुल्क में नब्बे फ़ी-सदी आदमियों को इससे भी कम में गुजर करना पड़ता है।'

'मैं उन नब्बे फ़ी-सदी वालों में नहीं शेष दस फ़ी-सदी वालों में हूँ। मैंने तुमसे अन्तिम बार कह दिया कि तुम्हारा बकचा ढोना मुझे असह्य है और अगर तुमने न माना तो मैं अपने हाथों वह बकचा जमीन पर गिरा दूंगी। इससे ज्यादा मैं कुछ कहना या सुनना नहीं चाहती।'

इधर डेढ़ महीने से अमरकान्त सकीना के घर न गया था। याद उसकी रोज आती; पर जाने का अवसर न मिलता। पन्द्रह दिन गुजर जाने के बाद उसे शर्म आने लगी, कि वह पूछेगी--इतने दिनों क्यों नहीं आये, तो क्या जवाब दूँगा। इस शर्मा-शर्मी में वह एक महीना और न गया। यहाँ तक कि आज सकीना ने उसे एक कार्ड लिखकर खैरियत पूछी थी और फुरसत हो, तो दस मिनट के लिए बुलाया था। आज अम्माजान बिरादरी में जानेवाली थीं। बात-चीत करने का अच्छा मौका था। इधर अमरकान्त इस जीवन से ऊब उठा था। सुखदा के साथ जीवन कभी सुखी नहीं हो सकता, इधर इन डेढ़-दो महीनों में उसे काफी परिचय मिल गया था। वह जो कुछ है, वही रहेगा, ज्यादा तबदील नहीं हो सकता। सुखदा भी जो कुछ है, वही रहेगी। फिर सुखी जीवन की आशा कहाँ? दोनों की जीवन-धारा अलग, आदर्श अलग, मनोभाव अलग। केवल विवाह प्रथा की मर्यादा निभाने के लिए वह अपना जीवन धूल में नहीं मिला सकता, अपनी आत्मा के विकास को नहीं रोक सकता। मानव-जीवन का उद्देश्य कुछ और भी है, खाना कमाना और मर जाना नहीं।

वह भोजन करके आज काँग्रेस-दफ्तर न गया। आज उसे अपनी ज़िन्दगी की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या को हल करना था। इसे अब वह और नहीं टाल सकता। बदनामी की क्या चिन्ता। दुनिया अन्धी है और दूसरों को अन्धा बनाये रखना चाहती है। जो खुद अपने लिए नयी राह निकालेगा, उस पर संकीर्ण विचारवाले हँसे तो क्या आश्चर्य।

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उसने खद्दर की दो साड़ियाँ उसे भेंट देने के लिए ले लीं और लपका हुआ जा पहुँचा।

सकीना उसकी राह देख रही थी। कुण्डी खटकते ही द्वार खोल दिया और हाथ पकड़कर बोली--तुम तो मुझे भूल ही गये। इसी का नाम मुहब्बत है?

अमर ने लज्जित होकर कहा--यह बात नहीं है सकीना। एक लमहे के लिए भी तुम्हारी याद दिल से नहीं उतरती; पर इधर बड़ी परेशानियों में फँसा रहा।

'मैने सुना था। अम्मा कहती थीं। मुझे यक़ीन न आता था, कि तुम अपने अब्बाजान से अलग हो गये। फिर यह भी सुना, कि तुम सिर पर खद्दर लादकर बेचते हो। मैं तो तुम्हें कभी सिर पर बोझ न लादने देती। मैं गठरी अपने सिर पर रखती और तुम्हारे पीछे-पीछे चलती। मैं यहाँ आराम से पड़ी थी और तुम इस धूप में कपड़े लादे फिरते थे। मेरा दिल तड़प तड़पकर रह जाता था।'

कितने प्यारे मीठे शब्द थे ! कितने कोमल, स्नेह से डूबे हुए ! सुखदा के मुख से भी कभी यह शब्द निकले? वह तो केवल शासन करना जानती है ! उसको अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ, कि वह उसका चौगुना बोझ लेकर चल सकता है, लेकिन वह सकीना के कोमल हृदय को आघात नहीं पहुँचायेगा। आज से वह गट्ठर लादकर नहीं चलेगा। बोला--दादा की खुदग़रज़ी पर दिल जल रहा था सकीना ! वह समझते होंगे, मैं उनकी दौलत का भूखा हूँ। मैं उन्हें और उनके दूसरे भाइयों को दिखा देना चाहता था, कि मैं कड़ी-से-कड़ी मेहनत कर सकता हूँ। दौलत की मुझे परवाह नहीं है। सुखदा उस दिन मेरे साथ आयी थी; लेकिन एक दिन दादा ने झूठ-मूठ कहला दिया, मुझे बुखार हो गया है। बस वहाँ पहुँच गई। तब से दोनों वक्त उनका खाना पकाने जाती है।

सकीना ने सरलता से पूछा--तो क्या यह भी तुम्हें बुरा लगता है ? बूढ़े आदमी अकेले घर में पड़े रहते हैं। अगर वह चली जाती है, तो क्या बुराई करती है। उनकी बात से तो मेरे दिल में उनकी इज्जत हो गई।

अमर ने खिसियाकर कहा--यह शराफ़त नहीं है सकीना, उनकी दौलत

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है; मैं तुमसे सच कहता हूँ। जिसने कभी झूठों मुझसे नहीं पूछा, तुम्हारा जी कैसा है, वह उनकी बीमारी की खबर पाते ही बेक़रार हो जाय, यह बात समझ में नहीं आती। उनकी दौलत उसे खींच ले जाती है, और कुछ नहीं। मैं अब इस नुमाइश की जिन्दगी से तंग आ गया हूँ सकीना। मैं सच कहता हूँ, पागल हो जाऊँगा। कभी-कभी जी में आता है, सब छोड़-छाड़कर भाग जाऊँ, ऐसी जगह भाग जाऊँ, जहाँ लोगों में आदमियत हो। आज तुम्हें फ़ैसला करना पड़ेगा सकीना। चलो, कहीं छोटी-सी कुटी बना लें और खुदग़रजी की दुनिया से अलग मेहनत-मजदूरी करके जिन्दगी बसर करें। तुम्हारे साथ रहकर फिर मुझे किसी चीज़ की आरजू नहीं रहेगी। मेरी जान मुहब्बत के लिए तड़प रही है, उस मुहब्बत के लिए नहीं, जिसकी जुदाई में भी विसाल है बल्कि जिसकी विसाल में भी जुदाई है। मैं वह मुहब्बत चाहता हूँ, जिसमें ख्वाहिश है, लज्ज़त है। मैं बोतल की सुर्ख शराब पीना चाहता हूँ, शायरों की खयाली शराब नहीं।'

उसने सकीना को छाती से लगा लेने के लिए अपनी तरफ़ खींचा। उसी वक्त द्वार खुला और पठानिन अन्दर आई। सकीना एक क़दम पीछे हट गयी। अमर भी जरा पीछे खिसक गया।

सहसा उसने बात बनाई--आज कहाँ चली गई थीं अम्मा? मैं यह साड़ियाँ देने आया था। तुम्हें मालूम तो होगा ही, मैं अब खद्दर बेचता हूँ।

पठानिन ने साड़ियों का जोड़ा लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। उसका सूखा, पिचका हुआ मुँह तमतमा उठा। सारी झुर्रियाँ, सारी सिकुड़ने जैसे भीतर की गर्मी से तन उठीं। गली-बुझी हुई आँखें जैसे जल उठीं। आँखें निकाल कर बोली--होश में आ छोकरे। यह साड़ियाँ ले जा अपनी बीबी-बहन को पहना, यहाँ तेरी साड़ियों के भूखे नहीं हैं। तुझे शरीफ़जादा और साफ़दिल समझकर तुझसे अपनी ग़रीबी का दुखड़ा कहती थी। यह न जानती थी, कि तू ऐसे शरीफ बाप का बेटा होकर शोहदापन करेगा। बस अब मुँह न खोलना, चुपचाप चला जा, नहीं आँख निकलवा लूंगी। तू है किस घमण्ड में? अभी एक इशारा कर दूँ, तो सारा महल्ला जमा हो जाय। हम गरीब हैं, मुसीबत के मारे हैं, रोटियों के मुहताज हैं। जानता है क्यों? इसलिए

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कि हमें आबरू प्यारी है। खबरदार जो इधर का रुख किया। मुँह में कालिख लगाकर चला जा !

अमर पर फ़ालिज गिर गया, पहाड़ टूट पड़ा, वज्रपात हो गया। इन वाक्यों से उसके मनोभावों का अनुमान हम नहीं कर सकते। जिनके पास कल्पना है, वही कुछ अनुमान कर सकते हैं। वह जैसे संज्ञा-शून्य हो गया, मानो पाषण-प्रतिमा हो। एक मिनट तक वह इसी दशा में खड़ा रहा। फिर दोनों साड़ियाँ उठा ली और गोली खाये जानबर की भाँति सिर लटकाये, लड़खड़ाता हुआ द्वार की ओर चला।

सहसा सकीना ने उसका हाथ पकड़कर रोते हुए कहा--बाबूजी, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ। जिन्हें अपनी आबरू प्यारी है, वह अपनी आबरू लेकर चाटें। मैं बे-आबरू ही रहूँगी।

अमरकान्त ने हाथ छुड़ा लिया और आहिस्ता से बोला--जिन्दा रहेंगे, तो फिर मिलेंगे सकीना! इस वक्त जाने दो। मैं अपने होश में नहीं हूँ।

यह कहते उसने कुछ समझकर दोनों साड़ियाँ सकीना के हाथ में रख दी और बाहर चला गया।

सकीना ने सिसकियाँ लेते हुए पूछा--तो आओगे कब?

अमर ने पीछे फिरकर कहा--जब यहाँ मुझे लोग शोहदा और कमीना न समझेंगे।

अमर चला गया और सकीना हाथों में साड़ियाँ लिये द्वार पर खड़ी अन्धकार में ताकती रही।

सहसा बुढ़िया ने पुकारा--अब आकर बैठेगी कि वहीं दरवाजे पर खड़ी रहेगी? मुँह में कालिख तो लगा दी। अब और क्या करने पर लगी हुई है?

सकीना ने क्रोध-भरी आँखों से देखकर कहा--अम्मा, आक़बत से डरो, क्यों किसी भले आदमी पर तोहमत लगाती हो। तुम्हें ऐसी बात मुँह से निकालते शर्म भी नहीं आयी! उनकी नेकियों का यह बदला दिया है तुमने ? तुम दुनिया में चिराग़ लेकर जाओ, ऐसा शरीफ़ आदमी तुम्हें न मिलेगा।

पठानिन ने डाँट बताई--चुप रह बेहया कहीं की! शर्माती नहीं, ऊपर से ज़बान चलाती है। आज घर में कोई मर्द होता, तो सिर काट लेता।

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में जाकर लाला से कहती हूँ। जब तक इस पाजी को शहर से न निकाल दूँगी, मेरा कलेजा न ठंडा होगा। मैं उसकी जिन्दगी गारत कर दूँगी।

सकीना ने निश्शंक भाव से कहा--अगर उनकी जिन्दगी गारत हुई, तो मेरी ग्रारत होगी। इसको समझ लो।

बुढ़िया ने सकीना का हाथ पकड़कर इतने जोर से अपनी तरफ़ घसीटा कि वह गिरते-गिरते बची और उसी दम घर से बाहर निकलकर द्वार की जंजीर बन्द कर दी।

सकीना बार-बार पुकारती रही, पर बुढ़िया ने पीछे फिरकर भी न देखा। वह बेजान बुढ़िया, जिसे एक-एक पग रखना दूभर था, इस वक्त आवेश में दौड़ी लाला समरकान्त के पास चली जा रही थी।