सामग्री पर जाएँ

कर्मभूमि/पहला भाग १७

विकिस्रोत से

हंस प्रकाशन, पृष्ठ १३० से – १३७ तक

 

१७

अमरकान्त गली के बाहर निकलकर सड़क पर आया। कहाँ जाय? पठानिन इसी वक्त दादा के पास जायगी। कितनी भयंकर स्थिति होगी! कैसा कुहराम मचेगा? कोई धर्म के नाम को रोयेगा, कोई मर्यादा के नाम को रोयेगा। दगा, फरेब, जाल, विश्वासघात, हराम की कमाई, सब मुआफ़ हो सकती है। नहीं, उसकी सराहना होती है। ऐसे महानुभाव समाज के मुखिया बने हुए हैं। वेश्यागामियों और व्यभिचारियों के आगे लोग माथा टेकते हैं; लेकिन शुद्ध हृदय और निष्कपट भाव से प्रेम करना निन्द्य है, अक्षम्य है। नहीं, अमर घर नहीं जा सकता। घर का द्वार उसके लिये बन्द है। और वह घर था कब ! केवल भोजन और विश्राम का स्थान था। उससे किसे प्रेम है?

वह एक क्षण के लिए ठिठक गया। सकीना उसके साथ चलने को तैयार है, तो क्यों न साथ ले ले। फिर लोग जी भरकर रोयें, सर पीटें और कोसें। आखिर यही तो वह चाहता था; लेकिन पहले दूर से जो पहाड़ी टीला सा नजर आता था, अब वह सामने देखकर उस पर चढ़ने की हिम्मत न होती थी। देश भर में हाहाकार मचेगा। एक म्युनिस्पल कमिश्नर एक मुसलमान लड़की को लेकर भाग गया। हरेक जबान पर यही चर्चा होगी। दादा शायद जहर खा लें। विरोधियों को तालियाँ पीटने का अवसर मिल जायगा। उसे

टालस्टाय की एक कहानी याद आई, जिसमें एक पुरुष अपनी प्रेमिका को लेकर भाग जाता है; पर उसका कितना भीषण अन्त होता है। अमर खुद किसी के विषय में ऐसी खबर सुनता, तो उससे घृणा करता। मांस और रक्त से ढका हुआ कंकाल कितना सुन्दर होता है। रक्त और मांस का आवरण हट जाने पर वही कंकाल कितना भंयकर हो जाता है। ऐसी अफ़वाहें सुन्दर और सरस को मिटाकर वीभत्स को मूर्तिमान कर देती हैं। नहीं, अमर अब घर नहीं जा सकता।

अकस्मात्, बच्चे की याद आ गयी। उसके जीवन के अन्धकार में वही एक प्रकाश था। उसका मन उसी प्रकाश की ओर लपका। बच्चे की मोहिनी मूर्ति सामने आकर खड़ी हो गयी।

किसी ने पुकारा--अमरकान्त, यहाँ कैसे खड़े हो?

अमर ने पीछे फिर कर देखा तो सलीम। बोला--तुम किधर से ?

'जरा चीक की तरफ गया था। यहाँ कैसे खड़े हो। शायद माशूक से मिलने जा रहे हो।'

'वहीं से आ रहा हूँ यार, आज तो ग़जब हो गया। वह शैतान की खाला बुढ़िया आ गयी। उसने ऐसी-ऐसी सलवातें सुनाई कि बस कुछ न पूछो।'

दोनों साथ-साथ चलने लगे। अमर ने सारी कथा कह सुनाई।

सलीम ने पूछा--तो अब घर जाओगे ही नहीं ! यह हिमाकत है। बुढ़िया को बकने दो। हम सब तुम्हारी पाकदामनी की गवाही देंगे। मगर यार हो तुम अहमक़। और क्या कहूँ। बिच्छू का मन्त्र न जाने, साँप के मुंह में उँगली डाले। वही हाल तुम्हारा है। कहता था, उधर ज्यादा न आओ-जाओ। आखिर हुई वही बात। खैरियत हुई कि बुढ़िया ने मुहल्लेवालों को नहीं बुलाया, नहीं खून हो जाता।

अमर ने दार्शनिक भाव से कहा--खैर, जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ। अब तो यही जी चाहता है कि सारी दुनिया से अलग किसी गोशे में पड़ा रहूँ और कुछ खेती-बारी करके गुज़र करूँ। देख ली दुनिया, जी तंग आ गया।

'तो आखिर कहाँ जाओगे?'

'कह नहीं सकता। जिधर तक़दीर ले जाय।'

'मैं चलकर बुढ़िया को समझा दूं?'

कर्मभूमि १३१
'फ़जूल है। शायद मेरी तकदीर में यही लिखा था। कभी खुशी न नसीब हुई और न शायद नसीब होगी। जब रो रोकर ही मरना है, तो कहीं भी रो सकता हूँ।'

'चलो मेरे घर, वहाँ डाक्टर साहब को भी बुला लें, फिर सलाह करें। वह क्या कि एक बुढ़िया ने फटकार बताई और आप घर से भाग खड़े हए। यहाँ तो ऐसी कितनी ही फटकारें सुन चुका, पर कभी परवाह नहीं की।'

'मुझे तो सकीना का खयाल आता है कि बुढ़िया उसे कोस-कोसकर मार डालेगी।'

'आखिर तुमने उसमें ऐसी क्या बात देखी, जो लट्टू हो गये ?'

अमर ने छाती पर हाथ रखकर कहा--तुम्हें क्या बताऊँ भाई-जान। सकीना असमत और बफ़ा की देवी है। गूदड़ में यह रत्न कहाँ से आ गया, यह तो खुदा ही जाने पर मेरी गमनसीव ज़िन्दगी में वही चन्द लमहे यादगार हैं, जो उसके साथ गुज़रे। तुमसे इतनी ही अर्ज़ है कि ज़रा उसकी खबर लेते रहना। इस वक्त दिल की जो कैफ़ियत है, वह बयान नहीं कर सकता। नहीं जानता जिन्दा रहूँगा, या मरूँगा। नाव पर बैठा हूँ। कहाँ जा रहा हूँ, खबर नहीं; कब, कहाँ, नाव किनारे लगेगी, मुझे कुछ खबर नहीं। बहुन मुमकिन है मँझधार में डूब जाय। अगर जिन्दगी के तजरबे से कोई बात समझ में आई, तो यह कि संसार में किसी न्यायी ईश्वर का राज्य नहीं है। जो चीज़ जिसे मिलनी चाहिए, उसे नहीं मिलती। इसका उलटा ही होता है। हम जंजीरों में जकड़े हुए हैं। खुद हाथ-पाँव नहीं हिला सकते। हमें एक चीज़ दे दी जाती है और कहा जाता है, इसके साथ तुम्हें जिन्दगी भर निवाह करना होगा। हमारा धरम है कि उस चीज पर कनायत करें। चाहे हमें उससे नफ़रत ही क्यों न हो। अगर हम अपनी जिन्दगी के लिए कोई दूसरी राह निकालते हैं, तो हमारी गरदन पकड़ ली जाती है, हमें कुचल दिया जाता है। इसी को दुनिया इन्साफ़ कहती है। कम-मे-कम मैं इस दुनिया में रहने के काबिल नहीं हूँ।

सलीम बोला--तुम लोग बैठे-बैठाये अपनी जान जहमत में डालने की फ़िक्र किया करते हो, गोया जिन्दगी हजार-दो-हजार साल की है। घर में रुपये भरे हुए हैं, बाप तुम्हारे ऊपर जान देता है, बीबी परी जैसी बैठी हुई

हैं, और आप एक जुलाहे की लड़की के पीछे घर-बार छोड़े भागे जा रहे हैं। मैं तो इसे पागलपन कहता हूँ। दा से ज्यादा यही तो होगा, कि तुम कुछ कर जाओगे, यहाँ पड़े सोते रहेंगे। पर अंजाम दोनों का एक है। तुम रामनाम सत्त हो जाओगे, मैं इन्नल्लाह राजेऊन !

अमर ने विषाद-भरे स्वर में कहा--जिस तरह तुम्हारी जिन्दगी गुजरी उस तरह मेरी जिन्दगी भी गुजरती, तो शायद मेरे भी यही खयाल होते। मैं वह दरख्त हूँ, जिसे कभी पानी नहीं मिला। जिन्दगी की वह उम्र जब इन्सान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाय, जिन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मज़बूत हो जाती है। उस वक्त खुराक न पाकर, उसकी जिन्दगी खुश्क हो जाती है। मेरी माता का उसी जमाने में देहान्त हुआ और तबसे मेरी रूह को खूराक नहीं मिली। वही भूख मेरी ज़िन्दगी है। मुझे जहाँ मुहब्बत का एक रेजा भी मिलेगा, मैं बेअख्तियार उसी तरफ जाऊँगा। कुदरत का अटल कानून मुझे उस तरफ ले जाता है। इसके लिए अगर मुझे कोई खतावार कहे, तो कहे। मैं तो खुदा ही को जिम्मेदार कहूँगा।

सलीम ने कहा--आओ, खाना तो खा लो। आखिर कितने दिनों तक जला-वतन रहने का इरादा है ?

दोनों आकर कमरे में बैठे। अमर ने जवाब दिया--यहाँ अपना कौन बैठा हुआ है, जिसे मेरा दर्द हो। बाप को मेरी परवाह नहीं, शायद और खुश हों कि अच्छा हुआ बला टली। सुखदा मेरी सूरत से बेज़ार है ! दोस्तों में ले-दे के एक तुम हो। तुमसे कभी-कभी मुलाकात होती रहेगी। माँ होती तो शायद उसकी मुहब्बत खींच लाती। तब जिन्दगी की यह रफ्तार ही क्यों होती! दुनिया में सबसे बदनसीब वह है, जिसकी माँ मर गयी हो।

अमरकान्त माँ को याद करके रो पड़ा। माँ का वह स्मृति चित्र उसके सामने आया, जब वह उसे रोते देखकर गोद में उठा लेती थी, और माता के अंचल में सिर रखते ही वह निहाल हो जाता था।

सलीम ने अन्दर जाकर चुपके से अपने नौकर को लाला समरकान्त के पास भेजा कि जाकर कहना, अमरकान्त भागे जा रहे हैं। जल्दी चलिए। साथ लेकर फ़ौरन आना। एक मिनट की भी देर हुई, तो गोली मार दूँगा। फिर बाहर आकर उसने अमरकान्त को बातों में लगाया--लेकिन तुमने यह भी सोचा है, सुखदा देवी का क्या हाल होगा? मान लो, वह भी अपनी दिलबस्तगी का कोई इन्तजाम कर लें? बुरा न मानना।

अमर ने इसे अनहोनी बात समझते हुए कहा--हिन्दू औरत इतनी बेहया नहीं होती।

सलीम ने हँसकर कहा--बस, आ गया हिन्दूपन। अरे भाई जान इस मुआमले में हिन्दू और मुसलमान की कैद नहीं। अपनी-अपनी तबियत है। हिन्दओं में भी देवियाँ हैं, मुसलमानों में भी देवियाँ हैं। हरजाइयाँ भी दोनों ही में हैं। फिर तुम्हारी बीबी तो नई औरत है, पढ़ी-लिखी, आजाद ख्याल, सैर-सपाटे करनेवाली, सिनेमा देखनेवाली, अखबार और नावेल पढ़नेवाली! ऐसी औरतों से खुदा की पनाह। यह यूरप की बरकत है। आजकल की देवियाँ जो कुछ न कर गुजरें वह थोड़ा है। पहले लौंडे पेशकदमी किया करते थे। मरदों की तरफ से छेड़-छाड़ होती थी। अब जमाना पलट गया है। अब स्त्रियों की तरफ से छेड़-छाड़ शुरू होती है।

अमरकान्त बेशर्मी से बोला--इसकी चिन्ता उसे हो, जिसे जीवन में कुछ सुख हो। जो ज़िन्दगी से बेजार है, उसके लिए क्या। जिसकी खुशी हो रहे जिसकी खुशी हो जाय। मैं न किसी का गुलाम हूँ, न किसी को अपना गुलाम बनाना चाहता हूँ।

सलीम ने परास्त होकर कहा--तो फिर हद हो गयी। फिर क्यों न औरतों का मिजाज आसमान पर चढ़ जाय। मेरा खून तो इस ख्याल ही से उबल आता है।

'औरतों को भी तो बेवफ़ा मरदों पर इतना ही क्रोध आता है !'

'औरतों और मरदों के मिजाज में, जिस्म की बनावट में, दिल के जज़बात में फर्क है। औरत एक की होकर रहने के लिए बनाई गयी है। मर्द आजाद रहने के लिए बनाया गया है।'

'यह मर्दो की खुदगरजी है।'

'जी नहीं, यह हैवानी जिन्दगी का उसूल है।'

बहस में शाखें निकलती गयीं। विवाह का प्रश्न आया, फिर बेकारों की समस्या पर विचार होने लगा। फिर भोजन आ गया। दोनों खाने लगे।

१३४
कर्मभूमि
 
अभी दो-चार कौर ही खाये होंगे, कि दरबान ने लाला समरकान्त के आने की खबर दी। अमरकान्त झट मेज पर से उठ खड़ा हआ, कुल्ला किया, प्लेट मेज़ के नीचे छिपाकर रख दिये और बोला--इन्हें कैसे मेरी खबर मिल गई ? अभी तो इतनी देर भी नहीं हुई। जरूर बुढ़िया ने आग लगा दी।

सलीम मुसकरा रहा था।

अमर ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा--यह तुम्हारी शरारत मालूम होती है ! इसलिये तुम मुझे यहाँ लाये थे ? आखिर क्या नतीजा होगा। मुफ्त की ज़िल्लत होगी मेरी। मुझे ज़लील कराने से तुम्हें कुछ मिल जायगा ? मैं इसे दोस्ती नहीं, दुश्मनी कहता हूँ।

ताँगा द्वार पर रुका और लाला समरकान्त ने कमरे में कदम रखा।

सलीम इस तरह लालाजी की ओर देख रहा था, जैसे पूछ रहा हो, मैं यहाँ रहूँ या जाऊँ। लालाजी ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा--तुम क्यों खड़े हो बेटा, बैठ जाओ। हमारी और हाफ़िजजी की पुरानी दोस्ती है। इसी तरह तुम और अमर भाई-भाई हो। तुमसे क्या पर्दा है ? मैं सब सुन चुका हूँ लल्लू। बुढ़िया रोती हुई आई थी। मैंने बुरी तरह फटकारा ! मैंने कह दिया, मुझे तेरी बात का विश्वास नहीं है। जिसकी स्त्री लक्ष्मी का रूप हो, वह क्यों चुड़ैलों के पीछे प्राण देता फिरेगा; लेकिन अगर कोई बात ही है, तो उसमें घबड़ाने की कोई बात नहीं है बेटा ! भूल-चूक सभी से होती है। बुढ़िया को दो-चार सौ रुपये दे दिये जायेंगे। लड़की की किसी भले घर में शादी हो जायगी। चलो झगड़ा पाक हुआ। तुम्हें घर से भागने और शहर भर में ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रूरत है। मेरी परवाह मत करो; लेकिन तुम्हें ईश्वर ने बाल-बच्चे दिये हैं। सोचो, तुम्हारे चले जाने से कितने प्राणी अनाथ हो जायेंगे। स्त्री तो स्त्री ही है, बहन है, वह रो-रोकर मर जायगी। रेणुका देवी हैं, वह भी तुम्हीं लोगों के प्रेम से यहाँ पड़ी हुई हैं। जब तुम्हीं न होगे, तो वह सुखदा को लेकर चली जायेंगी, मेरा घर चौपट हो जायगा। मैं घर में अकेला भूत की तरह पड़ा रहूँगा। बेटा सलीम, मैं कुछ बेजा तो नहीं कह रहा हूँ ? जो कुछ हो गया सो हो गया। आगे के लिए एहतियात रखो। तुम खुद समझदार हो, मैं तुम्हें क्या समझाऊँ। मन को कर्तव्य की डोरी से बाँधना पड़ता है; नहीं तो उसकी चंचलता आदमी को न जाने कहाँ लिये-

कर्मभूमि १३५

लिये फिरे। तुम्हें भगवान् ने सब कुछ दिया है। कुछ घर का काम देखो, कुछ बाहर का काम देखो। चार दिन की ज़िन्दगी है, इसे हँस-खेलकर काट देना चाहिए। मारे-मारे फिरने से क्या फ़ायदा।

अमर इस तरह बैठा रहा, मानो कोई पागल बक रहा है। आज तुम यह चिकनी-चुपड़ी बातें करके मुझे फँसाना चाहते हो ? मेरी ज़िन्दगी तुम्ही ने खराब की। तुम्हारे ही कारण मेरी यह दशा हुई। तुमने मुझे कभी अपने घर को घर न समझने दिया-- तुम मुझे चक्की का बैल बनाना चाहते हो। वह अपने बाप का अदब उतना न करता था, जितना दबता था, फिर भी उसकी कई बार बीच में टोकने की इच्छा हई। ज्यों ही लालाजी चुप हुए, उसने धृष्टता के साथ कहा--दादा, आपके घर में मेरा इतना जीवन नष्ट हो गया, अब मैं उसे और नष्ट नहीं करना चाहता। आदमी का जीवन केवल जीने और मर जाने के लिए नहीं होता, न धन-संचय उसका उद्देश्य है। जिस दशा में मैं हूँ, वह मेरे लिए असहनीय हो गयी है। मैं एक नये जीवन का सूत्रपात करने जा रहा हूँ, जहाँ मजदूरी लज्जा की वस्तु नहीं, जहाँ स्त्री पति को केवल नीचे नहीं घसीटती, उसे पतन की ओर नहीं ले जाती; बल्कि उसके जीवन में आनन्द और प्रकाश का संचार करती है। मैं रूढ़ियों और मर्यादाओं का दास बनकर नहीं रहना चाहता। आपके घर में मुझे नित्य बाधाओं का सामना करना पड़ेगा और उसी संघर्ष में मेरा जीवन समाप्त हो जायगा। आप ठण्डे दिल से कह सकते हैं, आपके घर में सकीना के लिए स्थान है ?

लालाजी ने भीत नेत्रों में देखकर पूछा--किस रूप में ?

'मेरी पत्नी के रूप में।'

'नहीं एक बार नहीं और सौ बार नहीं !'

'तो फिर मेरे लिए भी आपके घर में स्थान नहीं है।'

'और तो तुम्हें कुछ नहीं कहना है ?'

'जी नहीं।'

लालाजी कुरसी से उठकर द्वार की ओर बढ़े। फिर पलटकर बोले---बता सकते हो, कहाँ जा रहे हो?

'अभी तो कुछ ठीक नहीं है।'

१३६
कर्मभूमि
 

'जाओ, ईश्वर तुम्हें सुखी रखे। अगर कभी किसी चीज़ की जरूरत हो, तो मुझे लिखने में संकोच न करना।'

'मुझे आशा है, मैं आपको कोई कष्ट न दूँगा।'

लालाजी ने सजल नेत्र होकर कहा--चलते-चलते घाव पर नमक न छिड़को, लल्लू ! बाप का हृदय नहीं मानता। कम-से-कम इतना तो करना कि कभी-कभी पत्र लिखते रहना। तुम मेरा मुंह न देखना चाहो लेकिन मुझे कभी-कभी आने-जाने से न रोकना। जहाँ रहो, सुखी रहो, यही मेरा आशीर्वाद है।