कर्मभूमि/पहला भाग ६

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डा० शान्तिकुमार एक महीने तक अस्पताल में रहकर अच्छे हो गये। तीनों सैनिकों पर क्या बीती, नहीं कहा जा सकता; पर अच्छे होते ही पहला काम जो डाक्टर साहब ने किया, वह तांगे पर बैठकर छावनी में जाना और उस सैनिकों की कुशल पूछना था। मालूम हुआ कि वह तीनों भी कई-कई दिन अस्पताल में रहे, फिर तबदील कर दिये गये। रेजिमेंट के कप्तान ने डाक्टर साहब से अपने आदमियों के अपराध की क्षमा मांगी और विश्वास दिलाया, कि भविष्य में सैनिकों पर ज्यादा कड़ी निगाह रखी जायगी। डाक्टर साहब की इस बीमारी में अमरकान्त ने तन मन से उनकी सेवा की, केवल भोजन करने और रेणुका से मिलने के लिए घर जाता, बाकी सारा दिन और सारी रात उन्हीं की सेवा में व्यतीत करता। रेणुका भी दो-तीन बार डाक्टर साहब को देखने गयी।

इधर से फुरसत पाते ही अमरकान्त कांग्रेस के कामों में ज्यादा उत्साह से शरीक होने लगा। चन्दा देने में तो उस संस्था में कोई उसकी बराबरी न कर सकता था।

एक बार एक आम जलसे में वह ऐसी उद्दण्डता से बोला कि पुलिस के सुपरिटेंडेंट ने लाला समरकान्त को बुलाकर लड़के को सँभालने की चेतावनी दे डाली। लालाजी ने वहाँ वे लौटकर खुद तो अमरकान्त से कुछ न कहा, सुखदा और रेणुका दोनों से जड़ दिया। अमरकान्त पर अब किसका शासन है, वह खूब समझते थे। वह इधर बेटे से स्नेह करने लगे थे। पहले हर महीने पढ़ाई का खर्च देना पड़ता था, तब उसका स्कूल जाना उन्हें ज़हर लगता [ २८ ]था। काम में लगाना चाहते थे और उसके काम न करने पर बिगड़ते थे। अब पढ़ाई का कुछ खर्च न देना पड़ता था इसलिए कुछ न बोलते थे; बल्कि कभी-कभी सन्दुक की कुंजी न मिलने या उठकर सन्दुक खोलने के कष्ट से बचने के लिए, बेटे से रुपये उधार ले लिया करते। न अमरकान्त माँगता, न वह देते।

सुखदा का प्रसवकाल समीप आता जाता था। उसका मुख पीला पड़ गया था, भोजन बहुत कम करती थी और हँसती-बोलती भी कम थी। वह तरह-तरह के दुःस्वप्न देखती रहती थी, इससे चित्त और भी सशंकित रहता था। रेणुका ने जनन-सम्बन्धी कई पुस्तकें उसको मँगा दी थीं। इन्हें पढ़कर वह और भी चिन्तित रहती थी। शिशु की कल्पना से चित्त में एक गर्वमय उल्लास होता था; पर इसके साथ ही हृदय में कम्पन भी होता था--न जाने क्या होगा।

उस दिन सन्ध्या समय अमरकान्त उसके पास आया तो वह जली बैठी थी। तीक्ष्ण नेत्रों से देखकर बोली--तुम मुझे थोड़ी-सी संखिया क्यों नहीं दे देते ! तुम्हारा गला भी छूट जाय, मैं भी जंजाल से मुक्त हो जाऊँ।

अमर इन दिनों आदर्श पति बना हुआ था। रूप-ज्योति से चमकती हुई सुखदा आँखों को उन्मत्त करती थी; पर मातृत्व के भार से लदी हुई यह पीले मुखवाली रोगिणी उसके हृदय को ज्योति से भर देती थी। वह उसके पास बैठा हुआ उसके रूखे केशों और सूखे हाथों से खेला करता। उसे इस दशा में लाने का अपराधी वह है, इसलिए इस भार को सह्य बनाने के लिए वह सुखदा का मुँह जोहता रहता था। सुखदा उससे कुछ फ़रमाइश करे, यही इन दिनों उसकी सबसे बड़ी कामना थी। वह एक बार स्वर्ग के तारे तोड़ लाने पर भी उतारू हो जाता। बराबर उसे अच्छी-अच्छी किताबें सुनाकर उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहता था। शिशु की कल्पना से उसे जितना आनन्द होता था उससे कहीं अधिक सुखदा के विषय में चिन्ता थी--न जाने क्या होगा। घबड़ाकर भारी स्वर में बोला--ऐसा क्यों कहती हो सुखदा, मुझसे ग़लती हुई हो, तो बता दो।

सुखदा लेटी हुई थी। तकिये के सहारे टेक लगाकर बोली--तम आम जलसों में कड़ी-कड़ी स्पीचें देते फिरते हो। इसके सिवा और क्या मतलब है कि तुम पकड़े जाओ और अपने साथ घर को भी ले डूबो। दादा से पुलिस [ २९ ]के किसी बड़े अफसर ने कहा है। तुम उनकी कुछ मदद तो करते नहीं, और उल्टे उनके किये-कराये को धूल में मिलाने को तुले बैठे हो। मैं तो आप ही अपनी जान से मर रही हूँ, उस पर तुम्हारी यह चाल और भी मारे डालती है। महीने भर डाक्टर साहब के पीछे हलकान हुए। उधर से छुट्टी मिली, तो यह पचड़ा ले बैठे। क्यों तुमसे शान्ति-पूर्वक नहीं बैठा जाता ? तुम अपने मालिक नहीं हो, कि जिस राह चाहो, जाओ। तुम्हारे पाँव में बेड़ियाँ हैं; क्या अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलती ?

अमरकान्त ने अपनी सफ़ाई दी--मैंने तो कोई ऐसी स्पीच नहीं दी, जो कड़ी कही जा सके।

'तो दादा झठ कहते थे ?'

'इसका तो यह अर्थ है, कि मैं अपना मुँह सी लूंँ।'

'हाँ, तुम्हें अपना मुँह सीना पड़ेगा।'

दोनों एक क्षण भूमि और आकाश की ओर ताकते रहे। तब अमरकान्त ने परास्त होकर कहा--अच्छी बात है। आज से अपना मुँह सी लूंँगा, फिर तुम्हारे सामने ऐसी शिकायत आये, तो मेरे कान पकड़ना।

सुखदा नर्म होकर बोली--तुम नाराज होकर तो यह प्रण नहीं कर रहे हो ? मैं तुम्हारी अप्रसन्नता से थर-थर काँपती हूँ। मैं भी जानती हूँ, कि हम लोग पराधीन है। पराधीनता मुझे भी उतनी ही अखरती है, जितनी तुम्हें। हमारे पाँवों में तो दोहरी बेड़ियाँ हैं--समाज की अलग, सरकार की अलग; लेकिन आगे - पीछे भी तो देखना होता है। देश के साथ जो हमारा धर्म है, वह और प्रबल रूप में पिता के साथ है, और उससे भी प्रबल रूप में अपनी सन्तान के साथ। पिता को दुःखी और सन्तान को निस्सहाय छोड़कर देशधर्म को पालना ऐसा ही है जैसे कोई अपने घर में आग लगाकर खुले आकाश में रहे। जिस शिशु को मैं अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाल रही हूँ उसे मैं चाहती हूँ तुम भी अपना सर्वस्व समझो। तुम्हारे सारे स्नेह, वात्सल्य और निष्ठा का मैं एक-मात्र उसी को अधिकारी देखना चाहती हूँ।

अमरकान्त सिर झुकाये यह उपदेश सुनता रहा। उसकी आत्मा लज्जित थी और उसे धिक्कार रही थी। उसने सुखदा और शिशु दोनों ही के साथ अन्याय किया है। शिशु का कल्पना-चित्र आँखों में खिंच गया। वह नव[ ३० ]नीत-सा कोमल शिशु उसकी गोद में खेल रहा था। उसकी सम्पूर्ण चेतना इसी कल्पना में मग्न हो गयी। दीवार पर शिशु कृष्ण का एक सुन्दर चित्र लटक रहा था। उस चित्र में आज उसे जितना मार्मिक आनन्द हुआ, उतना और कभी न हुआ था। उसकी आँखें सजल हो गयीं।

सुखदा ने उसे एक पान का बीड़ा देते हुए कहा--अम्माँ कहती हैं, बच्चे को लेकर मैं लखनऊ चली जाऊँगी। मैंने कहा, अम्माँ तुम्हें बुरा लगे या भला, मैं अपना बालक न दूँगी।

अमरकान्त ने उत्सुक होकर पूछा--तो बिगड़ी होंगी ?

'नहीं जी, बिगड़ने की क्या बात थी। हाँ, उन्हें कुछ बुरा जरूर लगा होगा; लेकिन मैं दिल्लगी में भी अपने सर्वस्व को नहीं छोड़ सकती।'

'दादा ने पुलिस--कर्मचारी की बात अम्माँ से भी कही होगी ?'

'हाँ मैं जानती हूँ कही है। जाओ आज अम्माँ तुम्हारी कैसी खबर लेती है।'

'मैं आज जाऊँगा ही नहीं।'

'चलो मैं तुम्हारी वकालत कर दूँगी।'

'मुआफ़ कीजिए। वहाँ मुझे और भी लज्जित करोगी।'

'नहीं, सच कहती हूँ। अच्छा बताओ, बालक किसको पड़ेगा, मुझे या तुम्हें ? मैं कहती हूँ तुम्हें पड़ेगा?'

'मैं चाहता हूँ तुम्हें पड़े।'

'यह क्यों? मैं तो चाहती हूँ तुम्हें पड़े।'

'तुम्हें पड़ेगा, तो मैं उसे और ज्यादा चाहूँगा।'

'अच्छा, उस स्त्री की कुछ खबर मिली, जिसे गोरों ने सताया था?'

'नहीं, फिर तो कोई खबर न मिली।'

'एक दिन जाकर सब कोई उसका पता क्यों नहीं लगाते? या स्पीच देकर ही अपने कर्तव्य से मुक्त हो गये?'

अमरकान्त ने झेंपते हुए कहा--कल जाऊँगा।

'ऐसे होशियारी से पता लगाओ कि किसी को कानों-कान खबर न हो; अगर घरवालों ने उसका बहिष्कार कर दिया हो, तो उसे लाओ। अम्मा को [ ३१ ]उसे अपने साथ रखने में कोई आपत्ति न होगी, और होगी तो मैं अपने पास रख लूँगी।'

अमरकान्त ने श्रद्धापूर्ण नेत्रों से सुखदा को देखा। इसके हृदय में कितनी दया, कितना सेवा-भाव, कितनी निर्भीकता है। इसका आज उसे पहली बार ज्ञान हुआ।

उसने पूछा--तुम्हें उससे जरा भी घृणा न होगी ?

सुखदा ने सकुचाते हुए कहा--अगर मैं कहूँ, न होगी, तो असत्य होगा। होगी अवश्य; पर संस्कारों को मिटाना होगा। उसने कोई अपराध नहीं किया, फिर सजा क्यों दी जाय ?