कवितावली/तुलसीदास की जीवनी

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कवितावली  (1933) 
द्वारा तुलसीदास
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तुलसीदास की जीवनी

तुलसीदास की जीवनी-सम्बन्धी सामग्री के दो भाग हो सकते हैं। एक तो वह जिसका प्रमाण मौजूद है। दूसरा वह जो प्रचलित किंवदंतियों पर आश्रित हैं। तुलसीदास के जो जीवनचरित अव तक छपे हैं उनका अधिकांश किंवदन्तियों के आधार पर लिखा गया है। उन पर कहाँ तक विश्वास किया जा सकता है, यह प्रत्येक मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। अतः इस सामग्री को छोड़कर हम केवल उसी का उल्लेख यहाँ करेंगे जिसका कुछ न कुछ प्रमाण मिलता है। इसके भी दो भाग हैं—एक अन्तरङ्ग, दूसरा वहिरङ्ग। पहले बहिरङ्ग को लीजिए। उसमें मुख्य ये हैं—

बहिरङ्ग साक्ष्य की समालोचना

(अ) नाभाजी का भक्तमाल और उस पर प्रियादासजी की टीका। नाभाजी ने केवल एक छप्पय तुलसीदासजी की प्रशंसा में लिखा है—


त्रेता काय निबन्ध करी सतकोटि रमायन।
इक अच्छर उद्धरै ब्रह्महत्यादि परायन।
अब भक्तन सुख देन बहुरि लीला बिस्तारी।
राम चरन-रस-मत्त रटत अहनिशि व्रत-धारी।
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लयो।
कलि-कुटिल-जीव-निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो।


इससे यह तो सिद्ध हुआ कि नाभाजी के अनुसार तुलसीदासजी प्रसिद्ध भक्त थे और रामायण बना चुके थे; परन्तु उनका और कुछ पता इससे न चला।

इस पर प्रियादासजी ने सुनी-सुनाई कहावतों के आधार पर अद्भुत टीका रच डाली—

तिया सों सनेह, बिन पूँँछे पिता गेह गई, भूली सुधि देह, भजे वाही ठौर आये हैं।
बंधू अति लाज मई, रिस सों विकस गई, प्रीति राम नई, तन हाड़ चास छाये हैं॥
सुनी जब बात, सब है गयो प्रभात, वह पीछे पछताय, तजि काशीपुरी धाये हैं।
किषो तहँ वास, प्रभु सेवा लै प्रकाश कीनो, लीनो दृढ़ भाव, नैन रूप के सिसाए हैं॥१॥

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शौच जल शेष पाय, भूतहू विशेष कोऊ, बोल्यो सुख मानि, हनुमान जू बताये हैं
रामायन कथा, सो रसायन है कानन कों, आवत प्रथम, पाछे जात, घृणा छाये हैं॥
जाइ पहिचानि, संग चले उर आनि, आये वन मध्य, जानि, धाइ, र्पाव लपिटाये हैं।
करैं तिसकार, कही “सकोगे न टारि, मैं तो जाने रस-सार” रूप धरयो जैसे गाये हैं॥२॥

“माँगि लीजै बर” कही दीजै “राम भूप रूप, अति ही अनूप, नित-नैन अभिलाखिए।”
किए लै संकेत, वाही दिन ही सो लाग्यो हेत, आई सोई समै चेत “कबि छवि चाखिए॥”
आये रघुनाथ, साथ लक्ष्मण, चढ़े घोड़े, पटरङ्गबोरे हरे, कैसे मन राखिए।
पाछे हनुमान आय बोले “देखे प्रानप्यारे” “नेकु न निहारे मैं तो भले फेरि भाखिए॥३॥”

हत्या करि विग्र एक, तीरथ करत आयो, कहै मुख “राम, भिक्षा डारिए हत्यारे को।”
सुनि अभिशम नाम धाम में बुलाय लियो दियो लै प्रसाद कियो शुद्ध गायो प्यारे को॥
भई द्विज-सभा कहि बोलि के पठायो आप “कैसे गयो पाप, संग लैकै जेंये न्यारे को।”
पोथी तुम बाँचो, हिये भाव नाहिं साँचो, अजू ताते मतिकाँचो, दूरि करै अंध्यारे को॥४॥

देखी पोथी बांचि, नाम महिमा हू कही साँच, “ए पै हत्या करै कैसे तरै कहि दीजिए।”
“आवै जो प्रतीत कहो” कही “याके हाथ जेवैं जब शिवजू के बैल तव पंगति में लीजिए॥”
थार में प्रसाद दियो, चले तहाँ पान कियो, बोले “आप नाम के प्रताप मति भीजिए।
जैसी तुम जानौ तैसी कैसे के बखानो हो,” सुनि कै प्रसन्न पायो जै जै धुनि रीझिए॥५॥

आये निशि चोर, चोरी करन, हरन धन, देखे श्यामघन हाथ चाप-सर लिये हैं।
जब-जब आवैं, न साधु डरपावैं, एतो अति मँखरावैं, ए पै बली दूरि किये हैं।
भोर आये पूँँछे “अजू! साँवरो किशोर कान?” सुनिकर मौन रहै, आँसु डारि दिये हैं।
दई सब लुटाय, जानी चौकी रामराय दई, लई सन दिक्षा, शिक्षा शुद्ध भये हिये हैं॥६॥

कियो तनु विप्र त्याग, लागि चली संग तिया, दूर ही तें देखि कियो चरन प्रनाम है।
बौले यों “सुहागवती,” “मरयो पति होहुँ सती” “अब तो निकस गई जाहु सेवो राम है।”
बोलि के कुटुम्ब कही “जो पै भक्ति करौ सही” गही तब बात जीव दियो अभिराम है।
भये सब साधु, न्याधि मेटी लै बिमुखताकी, जाकी वास रहै तो न सूझे श्याम धाम है॥७॥

दिल्लीपति बादशाह अहदी पठप लेन ताकों, सो सुनायो सूबै विप्र ज्यायो जानिए।
देखिबे कों चाहै नीके सुख सो निबाहे, आय कही बहु विनय गही चले मन आनिए ।
पहुँचे नृपति पास, आदर प्रकाश कियो, दियो उच्च आसन लै, बोल्यो मृदु बानिए।
“दीजै करामाति जगख्यात सब मात किए” कही “भूठी बात, एक राम पहिचानिए॥८॥”

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“देखौं राम कैसे” कहि, कैद किये, किये हिये “हूजिए कृपालु, हनुमान जू! दयाल हो।”
ताही समय फैलि गये, कोटि-कोटि कपि नए, लौंचें तन खैंचे चीर, भयो यो विहाल हो॥
फोरैं कोट, मारैं चोट, किये डारैं लोट-पोट, लीजै कौन ओट जाय, मानो प्रलयकाल हो।
भई तब आँखें, दुखसागर को चाखें, अब वेही हमें राखें, भाखैं, वारौं धन माल हो॥९॥

आइ पाइ लिये “तुम दिये हम प्रान पावैं” आपु समुझावैं “करामाति नेक लीजिए।”
लाज दबि गयो नृप, तब राखि लयो, कह्यो “भयो घर राम जू को वेगि छोड़ दीजिए॥”
सुनि तजि दियो और कह्यो लैकै कोट नयो, अबहुँ न रहै कोऊ वामें, तन छीजिए।
कासी जाय, वृन्दावन आप मिले नाभा जू सों, सुन्यो हो कवित्त विज रीझ मत्ति भीजिए॥१०॥

मदनगोपाल जू को दरशन करि कही “सही राम इष्ट मेरे दृग भाव पागी है।”
वैसाई सरूप कियो, दियो लै दिखाह रूप, मनु अनुरूप छवि देखि नीकी लागी है॥
काहू कह्यो “कृष्णा अवतारी जू प्रशंस महा, राम अंस” सुनि बोले “मति अनुरागी है।
दशरथ-सुत जानों, सुंंदर अनुप मानो, ईसता बताई रति कोटि जुग जागी है”॥११॥

इस टीका के पढ़ने और प्रियादासजी के स्वयं लिखने से ज्ञात होता है कि प्रियादासजी ने इन छन्दों में सुनी-सुनाई बातें भर दी हैं। वे स्वयं लिखते हैं—

इनही के दास दास दास प्रियादास जानो तिन लै बखानो मानो टीका सुखदाई है।
गोवर्धननाथ जू के हाथ मन परथो ज्ञाको करयो बास वृन्दावन लीला मिलि गाई है॥
मति अनुसार कह्यो लह्यो मुख सन्तन के अन्त कौन पाचै जोई गावै हिय लाई है।
घट बढ़ि जानि अपराध मेरो क्षमा कीजै साधु गुनग्राही यह मानि कै सुनाई है॥

सन्तों के मुख से जो कुछ सुना था वही प्रियादासजी ने लिख दिया है। साधुओं के सम्बन्ध में ऐसी अनेक गाथाएँ प्रचलित हो जाया करती हैं। उनको कहाँ तक प्रामाणिक माना जा सकता है, यह विचारणीय है। प्रियादासजी के अनुसार ही “भक्ति विश्वास जाके ताही को” इनका प्रकाश होता है। इतिहास या जीवनी के प्रमाण ढूँढ़नेवालों को यह आधार बहुत ही कमजोर दिखाई देता है।

(आ) संवत् १६६९ में तुलसीदासजी ने एक टोडर नामी व्यक्ति के पौत्रों के झगड़े की पञ्चायत की थी। इससे यह सिद्ध है कि संवत् १६६९ में तुलसीदासजी विद्यमान थे।

अन्तरङ्ग वर्णन

तुलसीदासजो विरक्त थे। उन्होंने नरकाव्य नहीं रचा। न तो आपने किसी राजा का आश्रय लिया, न किसी आश्रयदाता का वर्णन ही किसी भाँति किया, यद्यपि [  ]उस समय के कवियों में कविवंश और राजवंश निरूपण की प्रथा प्रचलित थी। उदाहरण के लिए केशवदास का नाम लिया जा सकता है। परिणाम यह हुआ कि गोस्वामीजी की जीवनी का अधिकांश सन्दिग्ध अवस्था में है। कवितावली में जोवन-सम्बन्धी कुछ बातों का उल्लेख है। निनलिखित छन्दों में ऐसा उल्लेख पाया जाता है- पातक पीन, कुदारिद दीन, मलीन धरै कथरी करवा है। लोक कहै विधिहू न लिख्यो, सपनेहू नहीं अपने बरवा है। राम को किंकर सो सुलसी समुझेहि भला कहियो न रवा है। ऐसे को ऐसो भयो कबहूँ न भजे बिनु वानर के चरवाहै ॥ १॥ मातु पिता जग जाय तज्यो, बिधिह न लिखी कछु भाल भलाई । नीच, निरादर भाजन, कादर, कूकर टुक्रन लागि ललाई ॥ राम-सुभाउ सुन्यो तुलसी, प्रभु से कह्यो धारक पेट खलाई। स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहम खोरि न लाई ॥ २ ॥ पाप हरे, परिसाप हरे, तन पूजि भी हीसल सीतलताई। चार ते सँवारि के पहार हू ते भारी कियो, गारो भयो पंच में पुनीत पच्छ पाइकै । हो तो जैसो तब तैसो अब, अधमाई के के पेट भरौ राम रावरोई गुन गाइकै ॥ ४ ॥ अपत, स्तार, अपकार. को अगार जग, जाकी छाँह छुए सहमत व्याध बाधको । पातक पुहुमि पालिबे को सहसानन सो, कानन कपट को, पयोधि अपराध को ॥ ५ ॥ तुलसी से बाम को भी दाहिनी दयानिधान, जाति के, सुजाति के, कुजाति के, पेटागि बस, खाए हूँक सब के भिदित बात दुनी सो। राम नाम को प्रभाव पाड, महिमा प्रताप, तुलसी से जग मानियत महामुनी सो ॥६॥ [ १० ]जायो कुल मंगन, बधावनी बजायो सुनि, भयो परिताप पाप जननी जनक को। बारे ते ललात बिललात द्वार द्वार हीन, जानत है। चारि फल चारि ही चनक को ॥ साहिय सुजान जिन स्वान हूँ को पच्छ किया, रामबोला नाम, हैं। गुलाम राम सहकी ॥ ॥ धूत कही, अवधूत कही, रजपूत कही, जोलहा कहै। फोऊ । काहू की बेटी सो बेटा न व्याहव, काहू की जाति विगार न खाऊ ॥॥ मौगिक खैबो मसीत को साइनो मेरे ज्ञाति पानि, न चहैं। कार की ज्ञाति पति, ** अति ही अयाने उपखाना नहि बूझै लेग, साहही को गात गात होत है गुलाम को ॥ १०॥ बाल्यावस्था उपर्युक्त अवतरणों के पढ़ने से स्पष्ट विदित होता है कि तुलसीदास बालकपन से ही अति दरिद्र थे। उनकी सम्पदा कथरी ( फटा लिहाफ और बिछौना ) और करवा (मिट्टो का लोटा) ही भर थी। विधि ने भी कोई और सम्पत्ति-जैसे बिरवा (वृक्ष) इत्यादि-उनके भाल में न लिखी थी। यहाँ तक कि 'बरवा' (बाल ) तक भी वे अपने न समझते थे। माता-पिता ने उन्हें उत्पन्न होते ही छोड़ दिया था। वे रोटी के टुकड़े द्वार-द्वार माँगते फिरते थे। उसी समय राम का नाम उन्होंने सुना (कदा- चित् राम-मन्त्र लिया अथवा किसी राम-नामी साधु का नाम सुना), जिसके द्वारा स्वार्थ और परमार्थ होने की प्राप्ति सनको हो गई। 'जन्मवे ही छोड़ जाने से दो प्रकार के अर्थ लगाये जाते हैं:- (१) कुछ लोग कहते हैं कि तुलसीदास अभुक्त मूल में उत्पन्न हुए थे, अतएष मुहूर्व-चिन्तामणि के निम्नलिखित वचन के अनुसार तुलसीदास के माता-पिता ने उन्हें फेंक दिया था[ ११ ]“जात शिशु तत्र परित्यजेता मुखं पिताश्याष्ट समा २ पश्येत्।। मुहूर्त- चिन्तामणि तुलसीदास का इस-कालीन अन्य कहा जाता है। यही क्यों, इस कथन के अनुमोदन में बिलानि का "जननि जनक तज्यौ, जनमि' भी पेशा किया जाता है। 4.२) कुछ लोगों का कथन है कि तुलसीदास के माता-पिता उनकी बाल्यावस्था ही में मर गये थे। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इन दोनों कथनों में से कौन अधिक माननीय है ? यह कि अभुक्त मृल में उत्पन्न होने के कारण तुलसीदास के माता-पिता ने उन्हें छोड़ दिया था अथवा यह कि तुलसीदास की बाल्यावस्था ही में उनके माता-पिता का स्वर्ग- वास हो गया था। यदि स्वर्गवास की बात सही है तो प्रश्न यह होता है कि यह बात तुलसीदास ने स्पष्ट क्यों नहीं लिखी ? "मातु पिता जग जाय तज्यो" ही लिखकर क्यों मौनावलम्बन किया १ तुलसीदास ने कलि-वर्णन करते समय अनेक बुरी प्रथाओं का वर्णन किया है। सभी वर्णों और आश्रमों को अनेक स्थानों पर फटकारा है । गोरख- नाथ पर कठिन भाक्षेप किया है। बाहुपीड़ा का विस्तृत वर्णन किया है। अपने कैद होने पर छन्द रचे हैं। महामारी का भी वर्णन किया है। यदि अभुक्त मूल वाली बात सच्ची है तो फिर क्या कारण है कि ऐसी बुरी प्रथा के प्रतिकूल या अनु- कूल उन्होंने कुछ भी नहीं कक्षा, जिसकी बदौलत वे "द्वार-द्वार बिललात फिरे । इस विषय में ध्यान देने योग्य एक बात और भी है। मुहूर्तचिन्तामणि से उद्धृत श्लोक में कंवल पिता ही से तजे जाने की व्यवस्था है-'मुख पिताऽस्याष्ट समा न पश्येत्'-, क्योंकि यही 'पिता' 'त्यजेतू' क्रिया का कर्ता है। परन्तु तुलसीदास तो माता-पिता दोनों ही से अपना छोड़ा जाना बतलाते हैं; सो क्यों ? यदि यह मानें कि उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था, तो उनसे 'तजा जाना' उन्होंने क्यों लिखा ? उनके स्वर्गवास का पल्लेख करना तो उचित और स्वाभाविक होता। अतः यही कहना पड़ता है कि कवितावली से, उपर्युक्त दोनों कथनों में से, एक का भी समर्थन नहीं होता। कुल-जाति 'जायो कुल मंगन, बधावनो वजायो सुनि, भयो परिताप पाप जननी जनक को' को यदि "मात पिता जग जाय तज्यो' के साथ रख कर पढ़े तो अर्थ निक[ १२ ]
लता है कि माता-पिता को, जो मंगन कुल के थे, बधावा बजता सुन अर्थात् पुनोत्पत्ति की ख़बर पाकर पाप का परिताप हुआ और उन्होंने बालक को जन्मते ही छोड़ दिंया। इममें तुलसीदास ने अपने छोड़े जाने का कारण स्पष्ट ‘पाप परिताप जननी जनक को’ बताया है। हरिहर प्रसाद की कवितावली में पहली पंक्ति का पाठ यों है—“जायो कुल मंगन बधाओ ऩ बजायो” आदि। इससे और भी स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि पुत्रोत्पत्ति से तुलसीदास के माता-पिता को ‘पाप का परिताप’ ऐसा हुआ कि बधाँँवा तक न बजाया और पुत्र को छोड़ दिया, जिससे पुत्रोत्पत्ति की ख़बर तक किसी को न हो। इससे यह नतीजा निकल सकता है कि तुलसीदास किसी ‘पाप’ कर्म की संतान थे। और पाप भी ऐसा घोर जिससे उनके माता-पिता को उन्हें छोड़ देना पड़ा और जिसके स्पष्ट लिखने में तुलसीदास स्वयं समर्थ न हुए। अमुक्त मूल में जन्म होना ऐसा ‘पाप’ नहीं हो सकता जिसके लिखने में तुलसीदास को अथवा किसी को संकोच होता। बाल्यावस्था में माता-पिता की मृत्यु ही कोई ऐसा पाप नहीं है जिसको लिखने में कोई हिचके। इसमें यह आपत्ति बताई जाती है कि यदि तुलसीदास के माता-पिता ने उन्हें जन्मते ही छोड़ दिया था तो उन्हें यह ज्ञान कैसे हुआ कि वे अपने माता-पिता से छोड़े गये थे या यह कि उनके जन्म-काल में बधावा नहीं बजा था। परन्तु बड़े होने पर इसका ज्ञान होना कोई कठिन बात नहीं। जिस किसी ने उन्हें पाला हो अथवा जहाँ वे वालपन में रहे हों वहाँ यह बात आसानी से प्रचलित हो गई होगी और तुलसीदास को भी बड़े होने पर उसका ज्ञान हुआ होगा।

८ वें अवतरण के आधार पर तुलसीदास का जन्म-नाम ‘रामबोला’ बतलाया जाता है। परन्तु यदि “मातु पिता जग जाय तव्यो” सत्य है, यदि अभुक्त मूल के कारण माता-पिता ने तुलसीदास को जन्मते ही छोड़ दिया था, तो उनका नाम-करण किसने किया? मा-बाप ने मुँह न देखा होगा। फिर ‘रामबोला’ नाम भी अद्भुत है। गृहस्थों में ऐसा नाम कम सुनने में आता है।

नाम से तो जान पड़ता है कि बालक तुलसी के मुँह से पहले ‘राम’ शब्द निकला होगा, जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। अथवा तुलसी राम-नाम लेकर भीख माँगता रहा है, जिससे ‘रामबोला’ नाम से प्रसिद्ध हो गया। परन्तु १० वें अवतरण से यह अवश्य जान पड़ता है कि तुलसीदास को स्वयं अपनी ‘जाति-पाँति’ का कुछ पता न था। “मेरे जाति पाँति, न चहौं काहू की जाति पाँति” और “साहही को गात गोत होत है गुलाम को” स्पष्ट बताते हैं कि अपनी जाति-पाँति और गोत्र का उनको कुछ पता न था। यदि जन्म ही से वे माता-पिता से परित्यक्त थे, “बारे तेँ [ १३ ]
ललात बिललात द्वार द्वार दीन” रहे, यदि “चारि फल चारि ही चनक को” जानते रहे और उन्होंने “जाति के, सुजाति के, कुजाति के” (चांडाल के) “टूक” “पेटागि बस” खाये थे, तो उनकी जाति-पाँँति और गोत्र हो ही क्या सकते थे। हिन्दी-नव-रत्न के लेखकों ने तुलसीदास को ब्राह्मण मानकर उनके कान्यकुब्ज अथवा सरयूपारीण ब्राह्मण होने के विषय में अच्छा तर्क किया है। वह पढ़ने योग्य है। उसमें निर्णय किया गया है कि तुलसीदास कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उनके ब्राह्मण होने के तीन प्रमाण प्रायः दिये जाते हैं—(१) तुलसीदास ने स्वयं “जायो कुल मंगन” और (२) “सुकुल जन्म” लिखा है तथा (३) तुलसीदास ने ब्राह्मणों की बड़ी प्रशंसा हर जगह की है। अंतिम प्रमाण तो निरर्थक है। क्योंकि भारतवर्ष में, अद्यावधि, कदाचित् ही कोई हिन्दू होगा, जो ब्राह्मणों की बड़ाई न करता हो। फिर तुलसीदास तो वर्णाश्रम-धर्म के बड़े पक्षपाती मालूम होते हैं। ब्राह्मणों की क्यों, उन्होंने तो कुल वर्णाश्रम-प्रणाली की बड़ाई की है और उसके नष्ट हो जाने पर शोक प्रकट किया है। यदि ऐसा कहनेवालों का कहना सत्य है तो अपने कुल को उन्होंने “मंगन कुल” भी तो बतलाया है। कोई ब्राह्मण अपने कुल को “मंगन कुल” न कहेगा। “मंगन” तो ब्राह्मणों को अन्य कुल के लोग अनादरार्थ कहने लगे हैं। कोई ब्राह्मण अपने आपको मंगल-कुल का नहीं कह सकता। ब्राह्मण स्वभावतः कुलाभिमानी होते हैं। ‘सुकुल’ से अर्थ किसी जाति के ‘सु’ (अच्छे) ‘कुल’ से हो सकता है। यदि ऐसे कुल की खोज करना है जो ‘सुकुल’ भी हो, ‘मंगन कुल’ भी और जिसमें “जाति-पाँति” न हो, बल्कि जिस “अपत, उतार” की “छाँह छुए” “जग” “ब्याध बाधको” सहमत है, जिसमें “पेटागि बस” “जाति के, सुजाति के, कुजाति के” “टूक” खाये जा सकते हैं तो ब्राह्मयों में ऐसी जाति का मिलना कठिन है। कौन ब्राह्मण ऐसा होगा जिसे परवा न हो कि “धूत कही, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ”? इससे और अधिक प्रमाण इस बात का क्या हो सकता है कि उनकी जाति-पाँँति का कुछ पता न था? कोई उन्हें जुलाहा, कोई राजपूत और कोई अवधूत बताता था। कहीं जगह न मिलने पर मसज़िद तक में उनको सोना पड़ा— “माँगि के खैबो मसीत को सोइबो” −अर्थात् जब उन्हें कोई धर्मशाला इत्यादि में भी घुसने नहीं देता था सब वे मसजिद ही में पड़े रहते थे। जन्म से जिसने सब प्रकार के लोगों के ‘टूक’ खाये हों वह अपने को ‘मंगन-कुल’ का अवश्य बतलावेगा।

कोई-कोई कहते हैं कि तुलसीदास ने अपने लिए अहंकार-रहित होने से, ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु यदि ऐसा होता तो वे हर जगह ऐसा न लिख- [ १४ ][ ] कर कहीं तो अपने को ब्राह्मय लिखते। जो अपने कुल को 'सुकुल' बतला सकता है वह अहंकार-रहित होते हुए भी अपने आपको ब्राह्मध लिखने में न चूकता, बशने कि उसे अपने ब्राह्मण्य होने का पूर्ण ज्ञान होता। तुलसीदास को तो अपने कुल्ल का पता ही न था। वे केवल इतना सुना-सुनाया जानते रहे होंगे कि किसी भले घर की सन्तान हैं, इसी लिए सुकुलता कहा; परन्तु स्पष्ट कह दिया कि हमारी कोई जाति-पाति नहीं है। खेद है, बाबू शिवनन्दन सहाय जैसे विद्वान ने, जिन्होंने तुलसीदासजी की निष्पक्ष वृहत् जीवनी लिखी है, यह आदि ही से मान लिया कि वे ब्राह्मण थे। वे लिखते हैं कि "गोस्वामीजी ने जन्म ग्रहण कर किसी ब्राह्मण-कुल को ही पवित्र किया था, इसमें तो सन्देह नहीं।” यह कहकर फिर उन्होंने यह निश्चय करने की चेष्टा की है कि वे कान्यकुब्ज थे या सरयूपारीण। हमें तो कवितावली पढ़कर तुलसीदास के 'ब्राह्मणकुल' में उत्पन्न होने में बड़ा सन्देह हो गया। जन्म ही से जिसने “जाति के कुजाति के प्रजाति के दूक खाकर अपना पेट भरा हो वह अपने आपको "जायो कुल मंगना अवश्य कहेगा। दोनो से यही ज्ञात होता है कि तुलसीदास को अपनी जाति का कुछ पता स्वयं न था। अत: अब उसकी तलाश शश-विषाण की सी खोज है। तुलसीदास की जाति के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण दिये जाते हैं- (अ) काष्ठजिह्वा स्वामी--"तुलसी पराशर गात्र दुवे पत्यौजा के।" (पा) तुलसीराम अगरवाला-कृत्त उर्दू 'भक्तमाल'. कान्यकुब्ज होना बताते हैं। (इ) राजा प्रतापसिंह कृत 'भक्तकल्पद्रुम' " (ई) ठाकुर शिवसिंह । (उ) पण्डित रामगुलाम द्विवेदी सरयूपारीय मानते हैं । (अ ) डाकृर ग्रियर्सन __इन सबकी युक्तियों और उनके खण्डन के लिए बाबू शिवनन्दन सहाय कृत श्रीगोस्वामी तुलसीदास देखना चाहिए। बाबू साहब ने इस झंझट को मिटाने के लिए एक नई युक्ति निकाली है कि सरवरिया ब्राह्मण भी अपने आपको कान्यकुब्ज कहते हैं, इसलिए इनको सरवरिया कान्यकुब्ज कहना चाहिए। हमारी समझ में तो यह सब झंझट मात्र है। जब तक कोई पूरा प्रमाण किसी एक बात के निश्चय करने को न मिले, तुलसीदास को किसी जाति का न मानकर

इनके लिखने को हो सार्थक करना चाहिए । [ १५ ]
भाता-पिता, पुत्र आदि

लोग तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी बताते हैं। कवितावली के निम्नलिखित छन्द से ‘रामबोला’ नाम होने का पता तो चलता है, परन्तु माता-पिता के नाम का कुछ पता नहीं चलता—

“साहिब सुजान जिन स्वानहू को पच्छ कियो ‘रामबोला’ नाम हौं गुप्ताम राम साहि को।”

माता का नाम हुलसी होने का प्रमाण यह कहा जाता है कि तुलसीदास ने लिखा है कि “शम्भु प्रसाद सुमति हिय हुलसी” अथवा अब्दुर्रहीम खानखाना ने कहाँ लिखा है कि “गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सो सुत हाय”। परन्तु इन दोनों अवतरणों से हुलसी माता का नाम होने का पता नहीं चलता। दोनों में हुलसी से ‘प्रसन्न’ होने का अर्थ स्पष्ट निकलता है। अपनी माता का नाम कोई नहीं लिखता, फिर जिसने पिता का नाम कहीं न लिखा हो वह माता का नाम क्यों लिखता? दोनों (माता और पिता) ही ने तो ‘जग जाय’ तज दिया था, फिर उनका ज्ञान ही तुलसीदास को क्योंकर होता?

पिता, पुत्र आदि कुटुम्बियों के प्रमाण में डाकृर ग्रियर्सन ने निम्नलिखित दोहे दिये हैं। परन्तु किसी प्रामाणिक प्रति में उनका पता नहीं चलता, अत: वे प्रामाणिक नहीं माने जा सकते। न मालूम किसने कब बनाये और यदि तुलसीदास ने स्वयं रचे तो उनके ग्रन्थों में उनका पता क्यों नहीं है।

दुबे आत्माराम है पिता-नाम जग जान।
माता हुलसी कहत सब तुलसी के सुन कान॥
प्रहलाद उधारन नाम है गुरु का सुनिए साध।
प्रगट नाम नहि कहत जो कहत होय अपराध॥
दीनबंधु पाठक कहत ससुर-नाम सब कोह।

रत्नवलि तिय–नाम है सुत तारक गति होइ॥
विवाह

तुलसीदास के विवाह के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक अवतरण ऊपर दिया गया है, जिसमें उनके ससुर का नाम दीनबन्धु पाठक और उनकी स्त्री का नाम रत्नावली दिया है। दूसरा प्रियादासजी वाला अवतरण है जिसमें उनकी स्त्री का घर जाना और तुलसीदास का पीछा करना, फिर उसके ताने पर वैराग्य होना

आदि अनेक दन्त-कथाएँ मिलेंगी। तीसरे महादेवप्रसाद कृत भक्ति-विलास में आगे दी हुई कहानी मिलेगी। [ १६ ]

इहि बिधि कछुक काल सुख पाये, मातु पिता परलोक सिधाए।
तिनके कर्म कीन्ह बहु भाँती, मन में सोच करत दिन-राती॥
तहँ गुरु कही पुनि कथा पुरानी, नरहरिदास मनोहर बानी।
सुन सुलसी अब सोच विहाई, सबके मातु-पिता रघुराई।
सो तुम मानहु विप्रवर, राजापुर को जाहु।
चेतहु मेरे बचन अब, करहु आपनो व्याहु॥
यह सुनि नुरत चले ननियावर, पहुँचे गृही भरे सब चाँवर।
पुनि सुन्दर कुल देख बराबा, मातुल ने त्यहि व्याह करावा॥

करहि रमन गुरु-ज्ञान भुलाना, पत्नी सहित परम सुख माना।

इन्हीं कथाओं के ऊपर युक्ति जमाकर लोगों ने अनेक ऐसी ही बातें जोड़ ली हैं। परन्तु तुलसीदास के समकालीन किसी ग्रन्थ में इनकी चर्चा अभी तक नहीं मिली है। कदाचित् प्रियादास वाली बात की पुष्टि में ही यह सब लिखा और कहा गया है। प्रियादास वाली बात पर हम पहले ही कह चुके हैं कि वह कोई प्रमाण नहीं कहा जा सकता। हमारी समझ में तो इन सबके स्थान में तुलसीदास का लिखना कि 'व्याह न बरेपी' ही को प्रामाणिक मानना चाहिए।

बाज लोगों ने यह कहकर प्रियादासवाली बात को सच मान लिया है कि यदि तुलसीदास को गृहस्थ अवस्था का अनुभव न हुआ होता तो वे उसका ऐसा अच्छा वर्णन न कर सकते। यह कोई बात नहीं। तुलसीदास ने अनेक बातों का ऐसा उत्कृष्ट वर्णन किया है जो उन्होंने प्राकृतिक चक्षु से तो कभी न देखा होगा, यथा रावण का अखाड़ा अथवा जनक की राजसभा आदि। कवि को मानसिक प्रज्ञा होती है और उसी धारणा से वह अनेक चीजों का अनुभव कर लेता है। परन्तु जब तक वे बाते न बताई जायँ जो तुलसीदास बिना गृहस्थावस्था का अनुभव किये नहीं लिख सकते थे तब तक उनके सम्बन्ध में क्या कहा जाय। हमारी समझ में तो 'क्याह न बरेषी' अथवा "ब्याहे न बरात गये" उन्हीं के लिए कहा जायगा जिनका ब्याह न हुआ हो। यह कहना कि कवि अनेक बातें अपने ऊपर रखकर संसार की कहता है अथवा संसार को सम्मुख रखकर कहता है, एक ऐसी बात है जो अपनी बातों के सब प्रमाण को झूठा कर सकती है। जो बाते स्पष्ट कवि के लिए कही हुई दिखाई देती हैं उन्हें कवि के लिए ही मानना चाहिए और जो आम मालूम होती हैं उनको आम समझना चाहिए ।

गुरु

तुलसीदास के गुरु नरहरिदास बताये जाते हैं। इसका आधार उनका यह दोहा है—

बैदौं गुरु-पद-कंज कृपासिन्धु नररूप हरि।
[ १७ ]परन्तु यह कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। नररूप हरि गुरु का विशेषण माना जा सकता है। कवितावली से तो केवल इतना पता चलता है कि इनके गुरु कोई रामानन्दी थे। तुलसीदास अपने गुरु के पास बालकपन ही में पहुँच गये थे। माता-पिता से तजे जाने पर जिस समय "नीच, निरादर-भाजन, कादर कूकर टूकनि लागि" लालायित फिरते थे उसी समय "राम सुभाउ सुन्यो तुलसी" अर्थात् बालकपन ही में 'रामचर्चा' इनको सुनाई पड़ गई थी। उसी समय 'प्रभु सों' 'बारक पेट खलाई 'कह्यौं' से तात्पर्य मालूम होता है कि पेट के अर्थ भीख माँगने गये थे, पर वहीं रह गये। क्योंकि 'रघुनाथ से साहब' ने स्वार्थ (भोजन) और परमार्थ (राम-भक्ति) दोनों के देने में 'खोरि न लाई'। माँगने गये थे भीख, पा गये स्वार्थ और परमार्थ दोनों।

कदाचित् किसी बड़े रामानन्दी साधु के यहाँ बालकपन ही में जाने से साधु की कृपा से वहीं रहने और रामकथा सुनने लगे, जिससे अनन्य भक्त होकर इतना बड़ा यश प्राप्त किया। यही अभिप्राय मानस में यह लिखने से ज्ञात होता है कि "मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सु सूकरखेत, समुझि परी नहिँँ बालपन तब अति रहेउँ अचेत"। अब प्रश्न होता है कि यह 'रघुनाथ' से 'साहब' रामानन्दी साधु कौन और कहाँ के थे और तुलसीदास से उनसे कहाँ भेट हुई। कवितावली में इन प्रश्नों के उत्तर के लिए कुछ सामग्री नहीं है। कोई-कोई लोग 'सूकरखेत' को सोरों बताकर बड़ी व्याख्या करते हैं। परन्तु यदि 'मणिकर्णिका घाट' 'नीमसार' में और 'हरिद्वार' 'काशी' में और 'सीता-कुण्ड' 'खेरी' में हो सकता है तो कहीं पर भी 'सूकरखेत' होना सम्भव है। घाटों के नाम से स्थानों का नाम निश्चित नहीं हो सकता।

कुछ हो, जब तक कोई और अच्छा प्रमाण नहीं मिलता तब तक तुलसीदासजी की जीवनी ऐसी ही संदिग्ध अवस्था में रहेगी। जो जिसको सूझता है वही वह लिखता है और फिर एक बात की पुष्टि के लिए अनेक कथाएँ खोज निकालता या पैदा करता है। हमारी समझ में तो सबको छोड़कर तुलसीदास के अपने कहे हुए पर ही उसे आश्रित रखना चाहिए, जब तक कुछ प्रमाण और न मिले।