कवितावली/ग्रन्थ-प्रशंसा

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ग्रन्थ-प्रशंसा

तुलसीदास के अन्यों में रामचरितमानस को छोड़कर कवितावली को सर्वोच्च नहीं तो एक उच्च पद अवश्य प्राप्त है। छन्दों के बाहुल्य तथा कविता की शैली के कारण वह कविता-प्रेमियों की प्रीति-भाजन तो है ही, परन्तु तुलसीदास के जीवन- [ १८ ]गोस्वामी तुलसीदासजी NAATARNA CARE RAISASA SARoma mreal [ १९ ]
सम्बन्धी और सामयिक घटनाओं के वर्णन से हिन्दी भाषा के इतिहासज्ञों में भी उसका आदर थोड़ा नहीं है। कवितावली की भाषा अधिकतर ब्रजभाषा है। भाषा का माधुर्य उसके छन्दों में भरा पड़ा है। प्राकृतिक वर्णन भी खूब है। इसमें अन्य भाषाओं के शब्दों—फ़ारसी, अरबी, बुन्देलखण्डी आदि— का भी बहुतायत से प्रयोग किया गया है, ग्रामीण भाषा के और खासकर बुन्देलखण्डी ग्रामीण भाषा के शब्द भी पाये जाते हैं जिनका अर्थ लगाना भी कभी-कभी कठिन हो जाता है। जहाँ कविजी को आवश्यक मालूम हुआ है वहाँ उन्होंने अन्य भाषाओं और संस्कृत के शब्दों को मनमाना स्वरूप देकर प्रयुक्त किया है। कवितावली के पढ़ने से यह प्रत्यक्ष भान होता है कि उसके अनेक छन्द तुलसीदासजी ने उस समय रचे थे जिस समय हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण रूप से अधिकार स्थिर नहीं हुआ था। परन्तु अनेक छन्द, जो अतुमानतः प्रौढ़कात के हैं, भाषा के सम्बन्ध से बड़ी उच्च कोटि के हैं। उनमें प्रसाद गुण भरा पड़ा है। उदाहरण के लिए बालकाण्ड के उन छन्दों को देखिए जिनमें रामचन्द्रजी के बाल स्वरूप का वर्णन है। लङ्का-काण्ड और सुन्दर-काण्ड भी ऐसे छन्दों से भरे पड़े हैं। आज गुण भी उनके अनेक छन्दों में मिलेगा।

अलङ्कार

कवितावली में अलङ्कारों की आयोजना भी अच्छी है। रूपक, यमक, उत्प्रेक्षा और उपमा आदि अलङ्कार बहुतायत से हैं। बहुधा स्वाभाविक रूप से अलङ्कारों का प्रभाव दिखाई देता है परन्तु अनेक रूपक ऐसी खींचातानी के साथ बाँधे गये हैं कि बिल्कुल अस्वाभाविक हो गये हैं। उदाहरण के लिए छन्द २८४ देखिए जिसमें चित्रकूट का रूपक अहेरी से बाँधा गया है।

रस

कविता-प्रेमियों को इसमें नव रसों का स्वाद मिलता है। नमूने के लिए निम्नलिखित पद्य उद्धृत किये जाते हैं—

श्रृङ्गार

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछीसी भौंहैं।
तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहि बार सुभाय चितै सुम त्योँ हमरो मन मोहैं।
पूँछति ग्रामवधू सिय सों “कहो साँवरे से, सखि! राबरे को हैं”?॥१॥

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सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सआनी है जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछू मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सवै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै विगसीं मनो मंजुल कंज कली॥२॥
दूसह श्रीरघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि, वेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारति नाहीं॥३॥

करूणा


पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दये सग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर वै॥
फिरि बुझति हैं चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित ह्वै।
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै॥

रौद्र


गर्भ के अर्भक काटन कों पटु धार कुठार कराल है जाको।
सोई हौं बूझत राजसभा "धनु को दल्यौ," हौं दलिहौं बल ताको॥
लघु आनन उत्तर देत बड़ो लरिहै, मरिहै करिहै कछु साको।
गोरो, गरूर गुमान भरो, कहौ कौसिक छोटो सो ढोटा है काको॥

हास्य


बिंध्य के बासी उदासी तपाब्रत-धारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तीय तरी, तुलसी, सो कथा सुनि भे मुविवृन्द सुखारे॥
ह्वैहैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद-मंजुल-कंज़ तिहारे।
कीन्ही भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे॥

शान्त


न मिटै भवसंकट दुर्घट है तप तीरथ जन्म अनेक अटो।
कलि में न विराग न ज्ञान कहूँ सब लागत फोकट भूँँठ जटो॥
नट ज्यों जनि पेट कुपेटक कोटिक चेटक कौतुक ठाट ठटो।
तुलसी जो सदा सुख चाहिय तो रसना निसि-बासर राम रटो॥

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बोभत्स

लाथिन सों लोहू के प्रवाह चले जहां तहां, मानहुँ गरिन गेरु झरना झरत हैं।
सोनित सरित घोर, कुंजर करारे भारे, कूल ते समूल बाजि-बिटप परत है॥
सुभट सरीर नीर बारी भारी भारी तहां, सूरनि उछाह, कूर कादर डरत हैं।
फेकरि फेकरि फेरु-फारि फारि पेट खात, काक कंक-बालक कोलाहल करत हैं॥१॥

ओझरी की झोरी काँधे, आसवि की सेल्ही वांधे, सूँड़ के कमंडलु, खपर किये कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनी तापसी सी तीर-तीर बैठीं सो समर सरि खोरि कै॥
सोनित सो सानि सानि गूदा खात सतुआ से, प्रेत एक पियत बहारि घोरि घोरि कै।
तुलसी बैताल भूत साथ लिये भूतनाथ हेरि हेरि हँसत हैं हाथ जोरि जोरि कै॥२॥

अद्भुत

बल्कल बसन, धनुबान पानि, नून कटि, रूप के निधान, बन-दामिनी बरन हैं।
तुलसी सुतीय सङ्ग सहज सुहाये अङ्ग, नवल कँवल हू ते कोमल चरन हैं॥
औरै सो घसंत, औरै रति, औरै रतिपति, मूरति बिलोके तन मन के हरन हैं।
तापस वेषै बनाइ, पथिक पथै सुहाइ, चले लोक-लोचननि सुफल करम हैं॥१॥

लीन्हो उखारि पहार बिसाल, चल्यो तेहि काल, विलंब न लायों।
मारुतनंदन भारत को, मन को, खगराज को अंग लजायो॥
तीखी तुरा तुलसी कहो, पै हिये उपमा को समाउ न आयो।
माना प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायो॥२॥

भयानक

जहाँ तहाँ बुत्रुक विलोकि बुवुकारी देत “जरत निकेत धाओ धाओ लागि आगि रे।
कहाँ तात, मात, आत, भगिनी, भामिनी, भाभी, छोटे छोटे छोहरा अभागे भोरे भागि रे॥
हाथी छोरो, घोरा छोरी, महिष वृषम छोरो, छेरी छोरो, सोवै सो जगाओ जागि जागि रे।
'तुलसी' बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं, "वार वार कह्यौ पिय कपि स न लागि रे"॥

वीर

जाकी बाकी बीरता सुनत सहमत सूर, जाकी आँच अजहूँ खसत लंक लाह सी।
खोई हनुमान बलवान बाँके बानइत, जोहि जातुधान-सेना चले लेत थाह सी॥
कंपत अकंपन सुखाय अतिकाय काय, कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह सी।
देखे गजराज मृगराज ज्यों गरजि धायो बीर रघुवीर को समीर-सूनु साहसी॥

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कवितावली संग्रहमान

किसी किसी ने लिखा है कि कवितावली में सवैया, झूलना और घनाक्षरी के अतिरिक्त और छन्द नहीं है। परन्तु इसमें कुछ छप्पय भी मिलते हैं। इसी प्रकार कहीं कहीं इसमें कवित्त, घनाक्षरी, सवैया और छप्पय होना लिखा है। वास्तव में झूलना भी इसमें हैं।

कवितावली के संबंध में किसी-किसी का मत है कि वह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। समय-समय पर जो कवित्त तुलसीदास ने कहे और जो समस्यापूर्तियाँ उन्होंने कीं, उन्हीं का संग्रह-मांत्र यह ग्रन्थ है। इसका प्रमाण यह बतलाया जाता है कि कवितावली में, काण्डों के विस्तार में, बहुत असमानता है। यथा-आरण्य और किष्किन्धा एक ही एक छन्द में समाप्त हो गये हैं। परन्तु यदि यह मत ठीक है तो उत्तरकाण्ड को छोड़कर, जिसमें दुनिया भर के विषयों पर कविता है, शेष काण्डों के छन्दों की रचना का कारण-विशेष होना चाहिए। सम्भव है, रामचरित-मानस में यथास्थान रखने के लिए कुछ छन्दों का निर्माण किया गया हो और अच्छे न जान पड़ने से या अन्य किसी कारण से उनका परित्याग कर दिया गया हो। (तुलसीदास ने दोहा आदि में ही रामचरितमानस रचा है।) यह भी सम्भव है कि पहले उन्होंने इसी प्रकार का छोटा रामायण बनाने का सङ्कल्प किया हो और जैसे-जैसे कवित्व-शक्ति बढ़ती गई हो वैसे-वैसे कथा बढ़ते देख रामचरित-मानस का निर्माण कर दिया हो।

कवितावली का निर्माण-काल संवत् १६६६ से १६७१ तक लोगों ने माना है। इसके प्रमाण में यह अवतरण दिया जाता है-'एक तो कराल कलिकाल सूल-मूल तामें, कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की' इत्यादि। कहा जाता है कि जिस समय यह छन्द कहा गया होगा उस समय शनैश्चर मीन के रहे होंगे। बैजनाथदास ने यह काल संवत् १६३५ से १६३७ तक ठहराया है और लिखा है कि रामचरितमानस के पीछे पहला ग्रन्थ यही बना काशी-नागरीप्रचारिणी सभा के छपाये हुए रामचरित-मानस की भूमिका में यह काल अर्थात् जब शनैश्चर मोन के थे संवत् १६४० से १६४२ तक और संवत् १६६६ से १६७१ तक लिखा है। परन्तु रुद्रबीसी १६६६ से १६७१ तक होने से कवितावली का रचना-काल संवत् १६६६ से १६७१ तक माना है। यदि कवितावली एक संग्रह-मात्र है तो क्या यह सम्भव है कि उसमें के सब छन्दों का रचना-काल वही था जो इस एक कवित्त का रचना-काल (सं० १६३५ से १६३७ तक अथवा १६६६ से ७१ तक) रहा हो? एक कवित्त के काल से संग्रह के समस्त कवितों का रचना-काल निर्धारित नहीं हो सकता। हमें कवितावली के [ २३ ]सब छन्द मानस के पीछे के बने नहीं प्रतीत होते । एक तो यही समझ में नहीं प्राता कि मानस के बन चुकने के पीछे ऐसे छोटे ग्रन्थ के रचने ही से तुलसीदास का क्या प्रयोजन था। मानस जैसे अन्य से उनका यश दूर दूर तक फैल चुका था। फिर उनके होते हुए कवितावली ऐसे अन्य का निर्माण करके क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? हाँ, यह समझ में आ सकता है कि जब कवितावली आदि छोटे प्रन्थों से तुलसीदास की तृप्ति न हुई होगी तब अपनी शान्ति स्थिर करने को उन्होंने मानस का निर्माण किया हो। कवितावली के निम्नलिखित छन्द से भी यही अनुमान किया जा सकता है। पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तानी, न लही करनी न कर की। राम कथा घरनी न बनाइ, सनी न कथा प्रहलाद न ध्र की ।। अब जोर जरा जरि गात गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी । नीके के ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर श्राखर दू की । पढ़ने से रामचरितमानस प्रौढ़ अवस्था का अन्ध और कवितावली के अनेक छन्द उससे बहुत पहले के मालूम होते हैं। उदाहरणार्थ केवट के नाव लाने और बिना पग धोये उतारने से इनकार करने के अवसर पर रामचरित मानस और कवितावली में कही हुई कविता को देखिए । कवितावली में लिखा है- x x बरु मारिए मोहिं, बिना पग धोये है नाथ न नाव चढ़ाइहौ जू । यह रामचन्द्र से केवट ने कहा है कि चाहे आप मार ही क्यों न डालें परन्तु बिना पग धोये नाव पर न चढ़ाऊँगा, परन्तु रामचरित-मानस में जब तुलसीदास में अनन्य भक्ति स्थिर हो चुकी थी तब अपने इष्टदेव की शान में केवट से ऐसी कड़ी बात कहलवाना उन्हें अनुचित प्रतीत हुआ। मानस में यही बात लक्ष्मण की ओर इंगित करके लिखी गई है- बरु तीर मारहु लखनु पै जब लगि म पाथ पखारिह, तब लगि न तुलसीदास माथ कृपालु पार उतारिहरें । यही गति परशुराम की कथा में है। यही बात 'नवरत्न' के रचयिताओं ने लङ्का- काण्ड में देखी है, जहाँ हनुमान की लड़ाई का ब्यौरेवार वर्णन है और श्रीरामचन्द्र की लड़ाई थोड़े ही में लिखी है। भरत की महिमा का वर्णन कवितावली में नहीं है। इस पर किसी-किसी को भ्रम हुआ कि कदाचित यह तुलसीदास का ग्रन्थ ही नहीं है। परन्तु यदि हमारा अनु[ २४ ]
मान सही है कि इसके छन्द केवल मानस में सम्मिलित करने के लिए बनाये गये थे तो कुछ कथाओ पर छन्द न मिलने में कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि तुलसीदास को उनकी कथा चौपाई में ही लिखना मञ्जूर रहा होगा, इसलिए इस कथा के छन्द नहीं लिखे गये। अथवा जो छन्द लिखे गये होंगे वे रामचरित-मानस में ले लिये गये होंगे और कवितावली के लिए बाकी नहीं रहे।

रामचरित मानस और कवितावली की भाषा पर विचार करने से भी हमारे अनुमान की पुष्टि होती है। कवि की प्रारम्भिक अवस्था में शब्दाडम्पर पर उसका विशेष ध्यान रहा करता है। वह बड़े-बड़े क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया करता है या भाषा पर पूर्ण अधिकार न होने से शब्दों को तोड़-मरोड़कर उनका प्रयोग करता है। परन्तु जब उसका शब्द-कोष बढ़ जाता है, भाषा पर अधिकार जम जाता है तब वह शब्दों को छोड़कर भावों की ओर ध्यान देता है। इसी लिए प्रौढ़ावस्था की कविता में उच्च भाव और अर्थ-गाम्भीर्य्य पाये जाते हैं। कवितावली में शब्द बहुत तोड़े-मरोड़े हुए, अनेक भाषाओं से भरे गये हैं। उसके कवि का शब्द-कोष सङ्कीर्ण था। वह भाषा को बना-बनाकर लिखता था। तुकबन्दी और समस्यापूर्ति की ओर भी उसका ध्यान जाता था। मानस के तुलसीदास का शब्द-कोष विस्तीर्ण था। वे भाषा पर अधि- कार जमा चुके थे। शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की आवश्यकता उन्हें नहीं थी। समस्यापूर्ति से उनका ध्यान हट चुका था। रूपक बाँधने के लिए प्राकृतिक निरीक्षण से काम लिया जाता था न कि मनगढन्त ख़यालों से।

संक्षेपतः शब्दाडम्बर से हटकर मन अर्थ-गाम्भीर्य्य, उच्च भावों और शिलष्ट भाषा से महाकाव्य बनाने में लगा हुआ था। कवि की हीन दशा की गाथा समाप्त हो चुकी थी। समाज-सुधार ही लक्ष्य था। बुरा कहनेवालों को भी नमस्कार था। उन पर क्रोध न था। मन को पूर्ण शान्ति मिल चुकी थी। कवितावली में भी इन लक्षणों से युक्त छन्द मिलते हैं। ये प्रौढ़ावस्था के बने हैं। कदाचित मानस के साथ या उसके पीछे लिखे गये हों। परन्तु भाषा के देखने से इसमें कुछ सन्देह नहीं रह जाता कि कवितावली का एक बड़ा भाग मानस के पूर्व का है। वह कवि की प्रारम्भिक नहीं तो मध्यावस्था का अवश्य द्योतक है। अपने इस कथन के समर्थन में हम निम्न उदाहरण देते हैं—

उत्तरकाण्ड के छन्द नं० ११३, १५४, १५५, १५७, १५८, १६१, १६४, १६५, १६६, २३१, २३६।

उर्दू के शब्द—फ़हम, ख़लक़, जहाज़, फौ़ज, क़हर, निवाज़, दगा़बाज़, ,ग़ुलाम, खा़स, ख़सम, जहान इत्यादि। [ २५ ]प्रामीण भाषा के शब्द,-कांडिगो, नाई, साड़े, झुकर, खपुआ, फङ्ग, चटकन, विसाहे, मजक इत्यादि। तोड़े-मरोड़े हुए शब्द-~-तिच्छन, नच्छन, माहली, लसम, जरणी, जानपनी, उम्पम इत्यादि- कवितावली में सामयिक वर्णन कवितावली में सामयिक अवस्था का वर्णन अनेक छन्दों में किया गया है- (१) जाहिर जहान में जमाना एक भांति भयो, बेंचिये विवुध-धेनु रासभी बेसाहिए । ऐसेऊ कशल कलिकाल में कृपालु x x x (२) स्वारथ सयानप, प्रपंच परमारथ, कहायो राम रावरी है', जानम जहानु है। नाम के प्रताप, बाप! अाज ला निवाही नीके, धागे को गोसाई दामी सबल सुजानु है ॥ कलि की कुचालि देन्त्रि दिन दिन दूनी देव ! पाहरूई चार हरि हिय हहरानु है । तुलसी की, बलि, बार बार ही संभार कीबी जबपि कृपानिधान सदा सावधान है। (३) दिन दिन दूनो देखि दारिंद दुकालदुख हुरित दुराज, सुख सुकृत संकोचु है। मांगे पैंत पाबत प्रचारि पातकी प्रचंड काल की कसलता मले को हात पोचु है । श्रापमे तो एक x x x xx (.) राजा रत, नागी श्री निरागी, भूरि भागी ये अभागी जीव जरत, प्रभाव कलि बाम को। xx (५) बरन-धरम गयो, प्रास्रम निवास तज्यो, घासन चकित सो परावना परो सो है। करम उपासना कुबासना बिनास्या, ज्ञान बचन, विराग बेष जगत हरी सो है ॥ गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग, निगम नियोग ते सो केलही छरो सो है। काय मन बचन सुभाय तुलसी है जाहि राम नाम को भरोसो ताहि को भरोसा है। (६) बेद पुरान बिहाइ सुपंथ कुमारग कोटि कुचाल चली है। काल कराल नेपाल कृपाल न राज-समाज बढाई छली है। वन-विभाग न शास्रम-धर्म, दुनी दुख-दोष-दरिद्र-दली है।

स्वास्थ को परमारथ को कलि राम को नाम-प्रताप बली है। [ २६ ]

[ २० ]

(७) खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, वनिक को बविज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीधमान सोच बस, कहैं एक एकन सौ "कहाँ जाइ, का करी"।
बेद हूँ पुरान कही, लोकहू बिलोकियत, साकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु ! दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥

(क) कुल, करसूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन जोवन जुर जरत, परै न कल कही।
राज काज कुपथ कुसाज, भोग रोग ही के, वेद-बुध विद्या पाइ विवश बलकही।
गति तुलसीस की लखै न कोउ जो करत, पब्बइते छार, छारै पब्बइ पलकहीं।
कासों कीजै रोष ? दोष दीजै काहि ? पाहि राम ! कियो कलिकाल कुलि खलल खलकहीं ॥

(१) बबुर बहेरे को बनाइ बाग बाइयत, सँधिबे को साइ सुरतरु काटियत है।
गारी देत नीच हरिचन्द हू दधीचि हूँ को, आपने धना चबाइ हाथ चाटियत है।
श्राप महापातकी हँसत हरि हरहू को, आयु है प्रभागी भूरिभागी डाटियत है।
कलि को कलुष मन मलिन किये महत मसक की पांसुरी पयोधि पाटियत है।

उपर्युक्त सामान्य व्यवस्था के वर्णन के अतिरिक्त तुलसीदास ने कवितावली के उत्तर-काण्ड में १५ कवित्तों में काशी में महामारी का वर्णन किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि संग्रह संवत् १६७५ के पश्चात् किया गया है। आगरे में सन् १६१८ ईसवी अर्थात् संवत् १६७५ में महामारी थी और उसी समय के लगभग वह काशी में रही होगी।

उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उस समय समाज की बड़ी दीन और हीन अवस्था थी। न वर्णाश्रम-धर्म का पालन होता था और न कर्म था। प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना पंथ चलाने को उतारू था। कोई किसी का आदर नहीं करता था। बदमाशों का ज़ोर था, धनवानों को शोच था। जीविका तो एक और रही, लोगों को भीख भी न मिलती थी। पण्डित लोग विवाद में समय बिताते थे। अकाल बारम्बार पड़ते थे। दरिद्रता संसार में छाई हुई थी। राजा कृपालुन था, राज-समाज छली था। बैरागी वेश-धारी रागी थे, गृहस्थों को भोग प्राप्त नहीं था।

समाज की ऐसी हीन दशा में यदि तुलसीदास को भीख के लिए भी कष्ट उठाना पड़ा तो क्या आश्चर्य है?

समाज-वर्णन के अतिरिक्त कवितावली में अन्य विषयों का भी वर्णन है―

(अ) मूर्ति-पूजा का वर्णन सीन छन्दों में किया गया है। एक छन्द में मूर्तिपूजा की उत्पत्तियाँ दी गई हैं― [ २७ ][२१] कादि कृपान, कृपा न कहूँ, पिनु काल अराल शिक्षाकि न भागे । 'सम कहा सब है, बम मैं' 'हो' पनि हुांक नृक नि जारी ॥ वैरि विदारि भये विगल, क मादा के अनु। ग्रीनि प्रतीति बड़ी तुलसी तक्ते पर पाहन पूनम लागे । (आ) क्षेमकरी शकुन वर्शन- छन्द (इ) प्रहलाद चरित्र-- ४ " (ई) उद्धव-गोपी-संवाद- ३ " (3) चित्रकूट-वन- (अ) बाहु-पीडा-वर्णन- २ " [ २८ ]विषय-सूची विपय • बालकाण्ड • अयोध्याकाण्ड . भारण्यकाण्ड • किष्किन्धाकाण्ड सुन्दरकाण्ड • लङ्काकाण्ड उत्तरकाण्ड टिप्पणी अनुक्रमणिका -