कवितावली/बालकाण्ड

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[ २९ ]श्रीगोस्वामी तुलसीदासकृत कवितावली बालकागड सवैया [१] अवधेस के द्वारे सकारे गई. मुत गोद के भूपति लै निकसे । भयकि होमाच-विमोचन को ठगि सी रही, जे न ठगे, धिक से॥ तुलसी मनरंजन गंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक से। सजनी ससि में समसील उभै नव-नील सरोरुह से विकसे ।। अर्थ-राजा दशरथ के द्वार पर मैं आज सुबह गई, (ता) राजा लड़के को . गोद में लेकर निकले। मैं शोच को छुड़ानेवाले लड़के ( रामचन्द्र ) को देखकर ठगी सी रह गई (चुपचाप रह गई ), ( और क्यों न रह जाती ?) जो न ठगे उसे धिकार है। हे तुलसी ! उसके काजल लगे नैन, मन को प्रसन्न करनेवाले, अच्छे वजन के बच्चे से थे। जैसे है सजनी ! चन्द्र में बराबर के दो नये नीले कमल खिले हों। शब्दार्थ--से = वे। तुलसी मनरञ्जन-हे तुलसीदास ! मन को प्रसन्न करनेवाले, अथवा तुलसी के मन को प्रसन्न करनेवाले। सकारे - सुवह । अवलोकि = देखकर। जातक - बच्चे। स्वसिवइमा। समसील-बराबर के। भै -दो। सरोरुह = कमल। बिकसे = खिले। [२] पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि, मंजु बनी मनिमाल हिये। नव-नील कलेवर पीत मँगा झलक, पुलकै नृप गोद लिये ॥ अरविंद सो अानन, रूपमरंद अनंदित लोचन श्रृंग पिये। मन माँ नबस्यौ अस बालक जौ तुलसी जग में फल कौन जिये? ॥ [ ३० ]अर्थ―कमल से हाथों में पहुँची और पैरों में घुँघुरू थे और हृदय में अच्छी मणियों की माला बनी थी। नये ( कोमल ) नीले अङ्ग पीली मँगुलियाँ में झलकते थे। राजा गोद में लिये अति प्रसन्न हो रहे थे। उसका मुख कमल सा था और रूप ( सुंदरता ) के मकरन्द को आनन्दित होकर नयन रूपी भृङ्ग ( भौरे ) पी रहे थे। यदि ऐसा बालक मन में न वसा, तो हे तुलसी! इस जग में जीने का क्या फल है?

शब्दार्थ―नूपुर = घँघुरू। मरन्द = पुष्पों का रस, मकरन्द। भृङ्ग = भौरा। कंज = कमल। मंजु सुदर। कलेबर = शरीर। अराविंद = कमल।

[ ३ ]

तन की दुति स्याम सरोरुह, लोचन कंज की मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे, छवि भूरि अनंग की दूरि धरैं*॥
दमकैँ दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों, किलकै कल बाल-विनोद करैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं॥

अर्थ―शरीर की ज्योति नीले कमल की सुन्दरता को हरती थी, और नयन कमलों की शोभा को हरते थे। अति सुन्दर धूल-भरे शोभायमान थे और सब कामदेव की छवि को दूर रखते थे, अर्थात् उनकी शोभा कामदेव से भी बढ़कर थी। छोटे छोटे दाँत बिजली की ज्योति से चमकते थे, (लड़के) किलकते थे, और बाल-विनोद (लड़कों का सा खेल) कर रहे थे। (ऐसे) राजा दशरथ के चारों पुत्र तुलसी के मनरूपी मन्दिर में सदा विहार करैं।

शब्दार्थ―तन = शरीर। दुति = प्रकाश। सरोरुह = कमल। मंजुलताई = सुंंदरता। अनंग = कामदेव। कल = मीठा शब्द।

[ ४ ]

कबहूँ ससि माँगत पारि करैं, कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइ कै नाचत, मातु सबै मन मोद भरैं॥
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै, पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी मन मंदिर में बिहरैं॥†

अर्थ―कभी अड़कर चन्द्रमा माँगते हैं, कभी (अपनी) परछाहीं देखकर डरते हैं, और कभी हाथ की ताली बजा-बजाकर नाचते हैं। इससे सब माताओं का मन खुश


*पाठान्तर―करैं। †कुछ प्रतियों में यह चन्द नहीं मिलता है। [ ३१ ]होता है। कभी हठ करके ख़फ़ा होकर कुछ कहते हैं फिर वही लेते हैं कि जिसके लिए अड़ करते हैं। दशरथ के एसे चारो लड़के तुलसीदास के मन में सदा बिहार करते रहें।

शब्दार्थ―आरि करै, अरै = हठ करते हैं। प्रतिबिंब = परछाहीं

[ ५ ]

बर दंत की पंगति कुन्दकली, अधराधर-पल्लव खोलन की।
चपला चमकै घन बीच जगै छवि मोतिन माल अमोलन की॥
घुँँघुरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर, कुंडल लोल कपोलन की।
निवछावरि प्रान करैं तुलसी, बलि जाउँ लला इन बोलन की॥

अर्थ―अच्छे दाँतों की पाँति कुन्दकली सी है और ओठों के खालने से ऐसा प्रतीत होता है मानों बादलों के बीच में बिजली चमकती है, अथवा, अधर खोलने से दाँत कुंदकली से दिखाई देते हैं और अमूल्य मोतियों की माला ऐसी सुन्दर है मानों बादल के बीच में बिजली चमकती है। घुँघुरारी लटैं मुख के ऊपर लटकती हैं। कुण्डल कपोलों पर शोभायमान हैं ( हिल रहे हैं )। तुलसी इन पर अपने प्राण न्योछावर करता है और इन बालों की बलैयाँ लेता है।

शब्दार्थ―पंगति = पंक्ति, लकीर। अधर = ओठ। चपला = बिजली।

[ ६ ]

पद कंजनि मंजु बनी पनहीं, धनुहीं सर पंकजपानि लिये।
लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजूतट चौहट हाट हिये॥
तुलसी अस बालक सों नहिं नेह कहा जप जोग समाधि किये?।
नर ते खर सूकर स्वान समान, कहौ जग में फल कौन जिये॥

अर्थ―कमल से पैरों में सुन्दर पनही बनी (पहने) हैं और कमल से हाथों में तीर कमान लिये हुए लड़कों के सङ्ग सरजू के किनारे चौहट हाट हिये (चौराहे व बाज़ार व हृदय) में खेलते फिरते हैं। हे तुलसी! यदि ऐसे बालक से प्रीति नहीं है, तो जप योग व समाधि करने से क्या लाभ? वे मनुष्य गधे, सुअर व कुत्ते के समान हैं। कहा उनके जीने से इस संसार में कौन लाभ है, अर्थात् उनका जीना वृथा है।

[ ७ ]

सरजू बर तीरहि तीर फिरैं रघुबीर, सखा अरु बीर सबै।
धनुहीं करतीर, निषंग कसे कटि, पीत दुकूल नवीन फबै॥

[ ३२ ]

तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन इकील सबै।
मति भारति पंगु भई जो निहारि, विचारि फिरी उपमा न पवै॥

अर्थ―श्रेष्ठ सरजू के दीर पर रघुबीर, और उनके सब वीर सखा फिर रहे हैं। हाथ में छोटे-छोटे धनुफ और बाण हैं और कमर पर तरकस कसे हैं। नये पीत पट शोभायमान हैं। ह तुलसी! दश, चारि, नौ, तीन, इक्कीस सबमें सरस्वती की मति उस समय की शोभा की उपमा के लिए विचारते और देखते फिरते लँगड़ी हो गई और उपमा न मिली।

शब्दार्थ―दश = दिशा। बारि = चार युग। नौ = नौ खण्ड। तीन = तीनी काल। इक्कीस = ७ लोक+११ भुवन। भारत्ति = सरस्वती।

घनाक्षरी

[ ८ ]

छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्हैं छत्र छाया
छोनी छानी छाये छिति आये निमिराज के।
प्रबल प्रचंड बरिवंड बरबेष बपु,
बरिबे को बोले बयदेही बरकाज के
बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ,
बाजे बाजे बीर बाहु धुनत समाज के।
तुलसी मुदित मन पुरनर-नारि जेते
बारवार हेरैं मुख औध मृगराज के॥

अर्थ―सब पृथ्वी पर के राजा, जिन्हें छत्र की छाया जगह-जगह छाये रहती है अर्थात् जिन पर सब जगह छत्र लगा रहता है, वह मिथिला के राजा की सब भूमि पर (देश में) छावनी-छावनी में, जगह-जगह, छा गये। बड़े प्रतापवान्, तेजवाले, बरिवण्ड (बलवान्), अच्छे शरीर और वेषवाले, वैदेही के स्वयंवर में बरने को बुलाये हैं। बन्दीजन बोले विरद (प्रण) बजाकर (अर्थात् ज़ोर से पुकारकर) अथवा विरुदावली कहकर, अच्छे-अच्छे बाजे भी बजे और उस समाज के बाजे-बाजे वीर अपने बाहु घुनने लगे अर्थात् सीता ब्याहने के लिए बाहें फुलाने लगे, ताल ठोकने लगे। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय जनकपुर के जितने पुरुष और स्त्रियाँ थीं वह सब अवध के सिंह अर्थात् राजा राम के मुख को बार-बार देखते थे। [ ३३ ]शब्दार्थ―छोना, छिति = पृथ्वी। बाले = बुलाये आये हैं। बरकाज = स्वयंवर। छोनी = छावनी, डेरा।

[ ९ ]

सीय के स्वयंवर समाज जहाँ राजनि को,
राजनि के राजा महाराजा जानै नाम को?।
पवन, पुरदर, कृसानु, भानु, धनद से,
गुन के निधान रूपधाम सेाम काम को?॥
वान बलवान जातुधानप सरीखे सूर
जिन्हके गुमान सदा सालिम संग्राम को।
तहाँ दसरस्थ के समर्थ नाथ तुलसी के
चपरि चढ़ायो चाप चन्द्रमा ललाम को॥

अर्थ―सीताजी के स्वयंवर में जहाँ राजाओं का समाज था, और राजाओं के राजा और महाराजा अनेक विद्यमान थे, जिनके नाम कौन जानता है (अर्थात् इतने राजा और महाराजा थे जिनके नाम तक कोई नहीं जानता था)। (वह राजा लोग) पवन, इन्द्र, अग्नि, सूर्य, कुवेर और चन्द्र से गुण के समुद्र और रूप के घर कामदेव की सी शोभावाले थे। वली बाण और रावण सरीखे शुर वहाँ थे, जिन्हें सदा रण का सालिम (पृरा) गुमान (घमण्ड) था। वहाँ दशरथ के समर्थ (लायक) बेटे तुलसीदास के नाथ (रामचन्द्र) ने चपरि (बढ़कर) चन्द्रमा-ललाम (महादेव) के चाप (धनुष) को चढ़ा दिया।

शब्दार्थ―चंद्रमा-ललाम = जिनके माथे पर चंद्रमा है अर्थात् महादेव।

[ १० ]

मयनमहन पुर-दहन गहन जानि
आनि कै सबै को सारु धनुष गढ़ायो है।
जनक सदसि* जेते भले भले भूमिपाल
किये बलहीन, बल आफ्नो बढ़ायो है॥


*पाठांतर-सदृश। [ ३४ ]

कुलिस कठोर कूर्म-पीठतेँ कठिन अति,
हठि न पिनाक काहू चपरि चढ़ायो है।
तुलसी सो राम के सरोज-पानि परसत हीं,
टूट्यौ मानों बारे ते पुरारि ही पढ़ाया है॥

अर्थ―कामदेव के नाशक, पुर (त्रिपुरासुर) के दहन करनेवाले, महादेवजी ने जानि (जान-बूझकर) सब गहन अस्त्रों का सार लाकर, अथवा कामदेव के नाशक महादेव ने पुर के मारने का काम कठिन जानकर, जिस धनुष को सब चीज़ों का सार लेकर बनवाया है। जनक मदसि (सभा) में जितने बड़े-बड़े भले-भले राजा हैं उन सबको बलहीन करके अर्थात् मानों उनका बल अपने में खींचकर अपना बल बढ़ाया है। बज्र से भी कठोर, कछुए की पीठ से भी कड़ा ऐसे ही धनुष को किसी ने भी आगे बढ़कर नहीं चढ़ाया अथवा न हठ करके और न भूलकर भी धनुष को किसी ने चढ़ाया। सो धनुष हे तुलसी! रामचन्द्रजी के कमल से हाथ छूते ही टूट गया मानो बचपन से महादेवजी ने उसे यही पढ़ाया था कि रामचन्द्रजी छुवैं तब ही तू टूट जाना।

शब्दार्थ―सयन = कामदेव। महन = नाश करनेवाले। गहन = बोर, कठिन। कुलिस = बज्र।

छप्पय

[ ११ ]

डिगति उबि अति गुर्बि, सर्ब पब्बै समुद्र सर।
ब्याल बधिर तेहि काल, विकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकंठ मुक्खभर।
सुर बिमान, हिमभानु, भानु संघटित परस्पर॥
चौंके बिरंचि संकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनि, जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥

अर्थ―अति भारी पृथ्वी भी सब समुद्रों पर्वतों और तालाबों सहित हिलने लगी। शेषजी उस समय बहिरे हो गये। दिकपाल और सब चर व अचर व्याकुल हो गये। दिशाओं के हाथी लरखरा गये (हिलने लगे) और रावण मुहँ के बल गिर पड़ा। देवताओं के विमान, सूर्य्य और चन्द्रमा एक दूसरे में मिल गये। ब्रह्मा [ ३५ ]
और महादेव चौंक उठे; वराह, कछुवा और शेप सबके सव हिलने लगे। जब रामचन्द्रजी ने शिव का धनुष तोड़ा तो ऐसी भारी आवाज़ हुई कि ब्रह्माण्ड फट गया॥

शब्दार्थ—भुवि= भारी। पब्बै= पर्वत। हिमभानु= चन्द्रमा। चण्ड= तीक्ष्ण।

घनाक्षरी
[१२]


लोचनाभिराम घन-स्याम रामरूप सिसु,
सखी कहैं सखी सों तू प्रेम पय पालि,री।
बालक नृपालजृ के ख्याल ही पिनाक तोंर्यो,
मंडलीक-मंडली-प्रतापदाप दालि री॥
जनक को, सिया को, हमारो, तेरो, तुलसी को,
सबको भावतो ह्वैहै मैं जो कह्यौ कालि री।
कौसिला की कोखि परतोषि तन वारिए री,
राय दसरत्थ की बलैया लीजै आलि री॥

अर्थ—सखी सखी से कहती है कि तू लोचन-अभिराम (नेत्रों को सुख देनेवाले) बादल से श्याम रूप-वाले राम बालक को प्रेम के दूध से पाल। इस राजा के बालक ने सहज ही में धनुष तोड़ डाला और बड़े बड़े राजाओं की मण्डली के बल के गर्व को नाश कर दिया। जनक, सीता, हमारा, तुम्हारा और तुलसीदास सबका प्यारा होगा, यह मैंने तो कल ही कहा था। कौशल्या की कोख पर खुश होकर अपने तन को निछावर करना चाहिए, और हे आली! राजा दशरथ की बलैया लेनी चाहिए (जिन्होंने ऐसा पुत्र उत्पन्न किया)।

शब्दार्थ—मंडलीक= राजा। पिनाक= धनुष। दाप= गरूर, गर्व। वोषि= प्रसन्नता।

[१३]


दूब दधि रोचना कनकथार भरि भरि,
आरती सँवारि बर नारि चलीं गावतीं।
लीन्हें जयमाल करकंज सोहैं जानकी के,
“पहिराओ राघो जू को” सखियाँ सिखावतीं॥

[ ३६ ]


तुलसी मुदितमन जनक नगरजन,
झाँकतीं, झरोखे लागीं सोभा रानी पावतीं।
मनहुँ चकोरीं चारु बैठीं निज निज नीड़,
चंद की किरन पीवैं पलकैं न लावतीं॥

अर्थ—सोने के थारों में दूब, दही, गोरोचन भर-भर के आरती बना-बनाकर सुन्दर स्त्रियाँ गाती हुई चली। जानकी के कमल से हाथ जयमाल लिये शोभायमान थे। और सखियाँ सिखाती थीं कि रामचन्द्रजी को पहिनावो। तुलसीदासजी कहते हैं कि जनक नगर के लोग मन में प्रसन्न थे, और रानी झरोखों में लगी (खड़ी) झाँकती शोभा पा रही थीं, मानों सुन्दर चकोरी अपने अपने नीड़ (अड्डे) पर बैठी हुई चन्द्रमा की किरण पी रही थीं और पलक भी नहीं झपकाती थीं।

शब्दार्थ—रोचना= गोरोचन। कनक= सोना। कंज= कमल। घारु= सुदर।

[१४]


नगर निसान बर बाजैं, ब्योम दुंदुभी,
बिमान चढ़ि गान कै कै सुरनारि नाचहीं।
जय जय तिहूँ पुर, जयमाल रामउर,
बरसैं सुमन सुर, रूरे रूप राचहीं॥
जनक को पन जयो, सबको भावतो भयो,
तुलसी मुदित रोम रोम मोद माचहीं।
साँवरो किसोर, गोरी सोभा पर तृन तोरि,
“जोरी जियो जुग जुग” सखोजन जाँचहीं॥

अर्थ—नगर में सुन्दर नगाड़े बज रहे थे और आकाश में दुन्दुमियाँ बजती थीं। देवताओं की स्त्रियाँ विमानों पर चढ़ीं गा-गाकर नाच रही थीं। तीनों लोकों में जय-जय मच गया; जयमाल रामचन्द्र के गले में शोभायमान थी; देवता लोग सुन्दर रूप धरे फूलों की वर्षा कर रहे थे। जनकजी का प्रण रह गया; सबके मन की हो गई। तुलसीदास प्रसन्न थे। उनके रोम-रोम में हर्ष भरा था। साँवले लड़के और गोरी वधू पर तिनका वोड़ (नज़र न लगने देने के लिए) स्त्रियाँ यही माँगती थीं कि यह जोड़ी जुग-जुग जिये। [ ३७ ]शब्दार्थ—व्योम= आकाश। रूर= सुंदर। राचहीं= रचना, बनाना। भावतो= मन का चाहा।

[१५]


भले भूप कहत भले भदेस भूपनि सों,
“लोक लखि बोलिए पुनीति रीति मारखी”।
जगदम्बा जानकी, जगत पितु रामभद्र,
जानि, जिय जोवो, जौन लागे मुँँह कारखी॥
देखे हैं अनेक व्याह, सुने हैं पुरान वेद,
वृझे हैं सुजान साधु नर नारि पारखी।
ऐसे सम समधी समाज ना विराजमान,
राम से न वर, दुलही न सीय सारखी॥

अर्थ—अच्छे राजा लोग भोंड़े गजाओं से वचन कहते थे कि लोक को देखकर प्रेम की पवित्र रीति को कहिए। हृदय से श्रीजानकी को जगदम्बा और श्रीराम को जगत्-पिता जान कर देखा जिससे मुँँह में कालौंच न लगे। बहुत से ब्याह देखे हैं, पुराण वेदों में सुने हैं और पण्डितगण, साधु मनुष्य, स्त्री और पारिषदों से बूझे हैं (जाने हैं)। परन्तु ऐसे समान समधी किसी समाज में विद्यमान नहीं हुए; न राम सा दुलहा न जानकी सी दुलहिन, देखी, न सुनी।

[१६]


बानी, विधि, गौरी, हर, सेस हूँ, गनेस कही,
सही भरी लोमस, भुसुण्डि बहु बारिखो।
चारि दस भुवन निहारि नर नारि सब,
नारद को परदा न नारद सो पारिखो॥
तिन कही जग मैं जगमगाति जारी एक,
दूजो को कहैया औ सुनैया चष चारिखो।
रमा, रमारमन, सुजान हनुमान कही,
“सीय सी न तीय, न पुरुष राम सारिखो”॥

[ ३८ ]अर्थ―सरस्वती, ब्रह्मा, गौरी, महादेव, शेष और गणेश ने कहा और लोमश व बहुत पुराने भुशुण्डि ने भी उसकी सही की; चौदह भुवन के पुरुषों और स्त्रियों को देखकर नारद―जिनसे किसी का परदा नहीं है और न जिनसा पारिषद (परखैया, जाननेवाला) है उन्होंने भी कहा कि संसार में एक ही जोड़ी जगमगा रही है। दूसरी बात का कहनेवाला व सुननेवाला और दूसरा कौन हुआ है? रमा, व रमारमण (विष्णु), सुजान (जाननेवाले) हनुमान ने यही कहा कि सीताजी सी स्त्री और रामचन्द्र सा पुरुष नहीं है।

शब्दार्थ―सही भरी = उस पर सही की अर्थात् उसका समर्थन किया। चख चारिखो = चारि आँखवाले कौन हैं अर्थात् कोई नहीं है।

सवैया

[ १७ ]

दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि, वेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकी कंकन के नग की परछाहीं।
यातेँ सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारति नाहीं॥

अर्थ―श्री रघुनाथजी दूलह और सुन्दर सीताजी घर में दुलहिन बनीं। सब सुन्दर स्त्रियाँ मिलकर गीत गाती हैं और युवा (जवान) मिलकर वेद-पाठ करते हैं। कङ्कण के नग में परछाहीं से सीताजी रामचन्द्रजी का रूप देखती हैं। इससे सब सुधि भूल गई हाथ टेककर रह गई और पल भी नहीं हिलाती हैं।

शब्दार्थ―जुवा = युवा, अथवा जुआ, विवाह में वर-दुलहिन को जुआ खिलाने की रीति अब भी अनेक जातियों में प्रचलित है।

घनाक्षरी

[ १८ ]

भूप मंडली प्रचंड चंडीस-कोदण्ड खंड्यौ,
चंड बाहु-दंड जाको ताही सों कहतु हौं।
कठिन कुठार धार धारिबे की धीरताहि,
वीरता विदित ताकी देखिए चहतु हौं॥

[ ३९ ]


तुलसी समाज राज तजि सा विराजै आजु,
गाज्यौ, मृगराज गजराज ज्यों गहतु हौं।
छोनी में न छाँड्यो छप्यौ छोनिप को छोना छोटो,
छोनिय छपन बाँको विरुद बहतु हौं॥

अर्थ—राजाओं की मण्डली में शिव के प्रचण्ड धनुष को तोड़ा, ऐसी कड़ी बाहु जिसकी हैं, उसी से मैं कहता हूँ। कठिन कुठार धरिवे के (सहने के) धैर्य्य को और उसके प्रख्यात बल को मैं देखना चाहता हूँ। हे तुलसीदास, वह राजाओं की समाज को छोड़कर आज विराजै अर्थात् बाहर हो जावे। ऐसा कहकर वह (परशुराम) गरजे। जैसे शेर हाथियों के राजा को पकड़ता है वैसे ही उसे पकड़ूँगा। पृथ्वी पर किसी राजा के छिपे हुए छोटे बच्चे को भी मैंने नहीं छोड़ा, मैं राजाओं के नाश करने का वाँका प्रण रखता हूँ।

शब्दार्थ—प्रचंड= कठिन। चंडीम= शिवनी। कोदंड= धनुष। छप्यौ= छिपा हुआ। छोना= बच्चा। छपन= नाश करने का। विरुद= प्रण। बहतु हौं= धारण करता हूँ।</small}}

[१६]


निपट निदरि बोले वचन कुठारपानि,
मानि त्रास औनिपन मानौ मौनता गही।
रोखे माखे लषन अकनि अनखौहीं वातैं,
तुलसी विनीत बानी विहँसि ऐसी कही॥
“सुजस तिहारो भरो भुवननि, भृगुनाथ!
प्रगट प्रताप आप कह्यो सो सबै सही।
टूट्यो से न जुरैगो सरासन महेशजू को,
रावरी पिनाक मैं सरीकता कहा रही॥”

अर्थ— कुठार हाथ में धारण करनेवाले (परशुरामजी) का निरादर करकें केंवल लक्ष्मणजी बोले और अन्य राजा तो मानों भय से चुप हो रहे। तुलसीदासजी कहते हैं कि लक्ष्मणजी को परशुरामजी की अनखौही बातें सुनकर गुस्सा आया परंतु विनीत भाव से हँसकर बोले कि हे परशुरामजी, तुम्हारा सुन्दर यश तो सब भुवनों में भरा है और जो कुछ आपने अपना प्रताप अब प्रकट रूप से कहा सो सब बिलकुल सही है, [ ४० ]
परन्तु महादेवजी का धनुष जो टूट गया है सो इससे न जुड़ेगा। क्या आपकी शराकत धनुष में रही— अर्थात् क्या आपका सलमें साझा था अथवा ('कहाँ' पाठ होने से) आपको सरीकत (बराबरी) धनुष कैसे कर सकता है, धनुष का टेढ़ापन तो टूटने से निकल गया किन्तु आपका टेढ़ापन अभी बाकी है।

शब्दार्थ— अकनि= सुनकर। सरीकता= बराबरी, साझा।

सवैया
[२०]

गर्भ के अर्भक काटन कों पटु धार कुठार कराल है जाको।
सोई हौं बूझत राजसभा “धनु को दल्यौ,” हौं दलिहौं बल ताको॥
लघु आनन उत्तर देत बड़ो, लरिहै, मरिहै, करिहै कछु साको।
गोरो, गरूर गुमान भरो, कहौ कौसिक छोटो सो ढोटो है काको॥

अर्थ—गर्भ के बच्चों को मारने के लिये जिसका कराल फरसा तेज़ घारवाला है वही, मैं राजसभा में पूछता हूँ कि धनुष किसने तोड़ा है। मैं उसके बल को तोड़ूँगा। छोटे मुँह बड़ा जवाब देता है, लड़ैगा, मरैगा और कुछ साका (कहानी) छोड़ैगा। हे कौशिक! कहो, यह गोरा, गरूर और घमण्ड से भरा हुआ छोटा सा लड़का किसका है?

शब्दार्थअर्भक= बञ्चा। साको= वह बातें जो वीर पुरुषों की प्रशंसा में कही जाती हैं, प्रशंसा।

घनाक्षरी
[२१]


मख राखिबे के काज राजा मेरे संग दये,
जीते जातुधान, जे जितैया विबुधेस के।
गौतम की तीय तारी, मेटे अघभूरि भारी,
लोचन अतिथि* भये जनक जनेस के॥
चंड-बाहु-दंड बल चंडीस-कोदंड खंड्या,
ब्याही जानकी, जीते नरेस देस देस के।


*पाठान्तर-अथित। [ ४१ ]

साँवरे गोरे सरीर, धीर महा वीर दोऊ,
नाम राम लपन, कुमार कोसलेस के॥

अर्थ―मेरे साथ यज्ञ की रक्षा के लिये राजा ने इन्हें भेजा है। इन्होंने इन्द्र के जीतनेवाले राक्षसो को मार डाला, अहिल्या (गौतम की स्त्री) को तार दिया और उसके भारी सब पापों को नाश कर दिया, राजा जनक के नैन अतिथि हुए अर्थात् उनके पास गये अथवा राजा जनक के नैन अथित हो गये (स्थिर हो गए, देखते ही रह गये), इन्होंने अपने प्रचण्ड बाहुवल से शिवजी का धनुष तोड़ा और देश देश के राजाओं को जीतकर सीताजी को व्याहा। साँवले और गोरे शरीरवाले, धीर, बड़े वीर राम लक्ष्मण दोनों दशरथ के लड़के हैं।

शब्दार्थ―अघ = पाप। भूरि = ढेर। मख = यज्ञ।

सवैया

[ २२ ]

काल कराल नृपालन के धनुभंग सुने फरसा लिये धाये।
लक्खन-राम विलोकि सप्रेम, महारिसि ते फिरि आँखि देखाये॥
धीर सिरोमनि बीर बड़े, विनयी, विजयी, रघुनाथ साहाये।
लायक हे भृगुनायक, सो धनुसायक सौंपि सुभाय सिधाये॥

अर्थ―राजाओं के भयानक काल, परशुरामजी, धनुष टूटा सुनकर फरसा लेकर दौड़ आये। राम लक्ष्मण को उन्होंने प्रेम से देखा और फिर क्रोधित होकर आँखें दिखाई। फिर धीरों में श्रेष्ठ बड़े वीर विनय करनेवाले और सबको जीतनेवाले रामचन्द्रजी से प्रसन्न हुए। परशुरामजी जो बड़े लायक थे सो धनुष-वाण रामचंद्रजी को देकर सहज ही में चल दिये।


इति वालकाण्ड


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