कवितावली/लंकाकाण्ड

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कवितावली  (1933) 
द्वारा तुलसीदास
[ ८२ ]
लंकाकाण्ड
घनाक्षरी
[८५]


बड़े बिकराल भालु, बानर बिसाल बड़े,
तुलसी बड़े पहार लै पयोधि तोपि हैं।
प्रबल प्रचंड वरिवंड बाहुदंड खंड,
मंडि मेदनी को मंडलीक-लीक लोपि हैं।
लंकदाहु देखे न उछाहु रह्यो काहुन† को,
कहें सब सचिव पुकारि पाँव रोपि हैं।
“बाचि है न पाछे त्रिपुरारि हु मुरारिहू के,
को है रनरारि को जोँ कोसलेस कोपि हैं॥”

अर्थ—हे तुलसी! बड़े कराल और बड़े शरीरवाले रीछ और बन्दर बड़े-बड़े पहाड़ लेकर समुद्र को भर देंगे। बड़े बलवान् और प्रतापशील और कठिन भुजाओं-वाले, पृथ्वी को भूषित करके (भर के) बड़ों-बड़ों का अथवा मण्डलीक रावण का नाम मिटा देंगे। लङ्का का दाह देखे पीछे किसी के मन में उत्साह नहीं रह गया। सब मन्त्री पुकार-पुकार कर कहने लगे कि जब रामचन्द्र पैर रक्खेंगे और क्रोध करेंगे, अथवा मन्त्रियों ने पैर रोपकर कहा कि जब रामचन्द्रजी क्रोध करेंगे तो लड़ाई में महादेव, विष्णु की आड़ लेने पर भी हम लोग न बचेंगे।

[८६]


त्रिजटा कहत बार बार तुलसीस्वरी सों‡,
“राघौ बान एक ही समुद्र सातौ सोषिहैं।



*पाठान्तर—बलबंड।
†पाठान्तर—काहू।


‡पाठान्तर—तुलसी खरी सो। [ ८३ ]

सकुल सँघारि जातुधान धारि, जंबुकादि
जोगिनीजमाति कालिका-कलाप तोषिहैं॥
राज दै निवाजिहैं बजाइ कै बिभीषनै,
बजैंगे व्योम बाजने बिबुध प्रेम पोषिहैं।
कौन दसकंध, कौन मेघनाद बापुरो,
को कुंभकर्न कीट जब राम रन रोषिहैं”॥

'अर्थ―"त्रिजटा बार-बार सीताजी से कहती है कि रामचन्द्रजी एक ही वाण से सातो समुद्रों को सोखेंगे और सकुटुम्ब राक्षसों की सेना को मारकर जम्बुक वगैरह, योगिनियों की जमाति (समूह) कालिका आदि को सन्तुष्ट करेंगे अर्थात् उनको इतना भोजन देंगे कि वह सन्तुष्ट हो जावेंगे और नाद करने लगेंगे। उङ्के की चोट राज देकर विभीषण की सेवा का फल देंगे और आकाश में बाजे बजेंगे और देवगण को प्रेम से पालेंगे। क्या रावण, कहाँ का मेघनाद बेचारा और कहाँ का कुम्भकर्ण, ये सब कीड़े के समान नष्ट होंगे जब रामचन्द्र रण में क्रुद्ध होंगे।

शब्दार्थ―व्योम = आकाश। बापुरो = बेचारा। बिबुध = देवता।

[ ८७ ]

बिनय सनेह सों कहति सीय त्रिजटा सों,
“पाये कछु समाचार आरजसुवन के?”
“पाये जू! बँधायो* सेतु, उतरे† कटक कुलि,‡
आये देखि देखि दूत दारुन दुवन के॥
बदनमलीन बलहीन दीन देखि मानौ,
मिटे घटे तमीचर तिमिर भुवन के।
लोकपतिसोककोक, मूँदे कपिकोकनद,
दंड द्वै रहे हैं रघु-आदित उवन के॥



*पाठान्तर―बँधाये।
†पाठान्तर―आये।
‡पाठान्तर―भानु-कुल-केतु।
[ ८४ ]अर्थ―विनय और प्रीति के साथ सीता त्रिजटा से कहती हैं क्या कुछ समाचार आर्यपुत्र (रामचन्द्र) के तुमचे पायें है? (त्रिजटा ने कहा कि) हाँ पाये हैं कि सेतु बाँधकर रामचन्द्रजी पार पार उत्तर है। (दारुण =) कठिन (दुवन के) दुर्जन के, दारुण-दुवन अर्थात् रावण के, दूत देखि देखि आये है। (उनको) कुम्हलाये मुँह और वलहीन देख देखकर मालूम होता है कि सब भुवनों का राक्षसरूपी अन्धकार मिटा चाहता है, लोकपति (दिग्गजों) रूपी चकवा जो शोक-युक्त है और वन्दररूपी कमल जो अभी बन्द हैं उनको प्रसन्न करने और खोलने को रामचन्द्ररूपी सूर्य्य के उदय होने के केवल दो दण्ड रहे हैं अर्थात् थोड़ी देर बाक़ी है।

झूलना

[ ८८ ]

सुभुज मारीच खर त्रिसिर दूषन बालि
दलत† जेहि दूसरो सर न साँध्यो।
आनि परबाम‡ बिधिवाम तेहि राम सोँ,
सकल संग्राम दसकंध काँध्यो॥
समुझि तुलसीस कपि§, कर्म घर घर घैरु,
बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो।
बसत गढ़ लंक लंकेस नायक अछता‖
लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो॥

अर्थ―सुबाहु, मारीच, खर, त्रिशिरा, दूषण और बालि को मारने में जिसने एक से दूसरा बाण नहीं लगाया; उस राम से रावण ने, जिस पर दूसरे की स्त्री हर लाने से ब्रह्मा भी उलटे हैं, लड़ाई मोल ली है। तुलसी के प्रभु (रामचन्द्रजी) और हनुमान का कर्म समझकर घर घर शोर मच गया है और सब यह सुनकर विकल हैं कि



*पाठान्तर―बली।
†पाठान्तर―बंधन।
‡पाठान्तर―धाम।
§पाठान्तर―कोपि।
‖पाठान्तर―अकृत = न किया हुआ, स्वयं उत्पन्न हुआ अथवा अछत = अक्षत, चिरनीय अथवा देखते हुए, होते हुए। [ ८५ ] समुद्र बाँधा गया है। बड़े दृढ़ किले में नहते हुए भी, और रावण से अद्भुत नायक के होते भी, अथवा लङ्का को अकृत (स्वयं) विश्वकर्मा कृत जालते हुए भी, कोई लङ्का में राँधा भात नहीं खाता है अर्थात् सब अत्यन्त भयभीत हैं।

सवैया

[ ८९ ]

बिवजयी भृगुनायक से बिनु हाथ भये हनि हाथ-हजारी।
बातुल मातुल की न सुनी सिख, का तुलसी कपि लंक न जारी?
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिले, फिरि बूमिहै को गज कौन गजारी।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन बात बड़ो से बड़ोई बजारी॥

अर्थ―विश्व को जीतनेवाले परशुराम से सैकड़ों वीर हाथ मारकर बिना हाथ के बलहीन हुए अथवा हाथ-हजारी (हजार योधाओं के पतियों) को मारनेवाले परशुराम भी बलहीन हुए, अथवा हाथ-हजारी (सहस्रबाहु) को मारनेवाले परशुराम भी बलहीन हुए। वाई के मारे अचेत रावण ने मामा की सीख को न सुना तो क्या बन्दर ने लङ्का को न जला दिया। अब भी राम से मिलने में भलाई है। फिर क्या कोई पूछेगा कि गज कौन था और ग्राह कौन? अर्थात् दोनों के भेद करनेवाले राम ही हैं अथवा फिर कौन पूछेगा कि गज कौन और गजारि कौन? सब छोटे बड़े एक साथ मारे जावेंगे अथवा नहीं तो मालूम पड़ेगा कि गज कौन और गजारि कौन? अर्थात् बड़ा बलवान् दोनों में कौन है। उसकी बड़ी महिमा है, उसके काम बड़े हैं, जन (आदमियों) में उसकी बात बड़ी है, परन्तु वह रावण बजारी (नंगा, बेहया) बड़ा है। अथवा बजारी (दलाल) कोई कितना भी कहे अपना मतलब न छोड़े।

[ ९० ]

जब पाहन भे बनबाहन से, उत्तरे वनरा 'जय*राम' रढ़े।
तुलसी लिये सैल-सिला सब सोहत, सागर ज्यों बलवारि बढ़े॥
करि कोप करैं रघुबीर को आयसु, कौतुक ही गढ़ कूदि चढ़े।
चतुरंग चमू पल में दलिकै रन रावन राढ़† के हाड़‡ गढ़े॥



*पाठान्तर―जै जै।
†पाठान्तर―राड़।
‡पाठान्तर―सुहाढ़।
[ ८६ ]अर्थ—जब पत्थर और लकड़ो (वृक्षों) को बाहन बनाकर अथवा जब पत्थर वनवाहन (नौका) हो गये तो बन्दर राम की जय करते हुए पार उतर आये। हे तुलसी! सब शैल और शिला लिये हुए ऐसे शोभित थे मानो समुद्र के पानी का बल बढ़ रहा अर्थात् समुद्र में ज्वार आ गया अथवा उनका बल ऐसा बढ़ा जैसे समुद्र का पानी। कोप करके बन्दर कहते हैं कि राम की आज्ञा हो तो खेल ही खेल में अर्थात् विना प्रयास कूदकर गढ़ पर चढ़ जायँ और चतुरङ्ग सेना को क्षण भर में मारकर लड़ाई में रावण से राढ़ (हठी व बली) के अथवा रावण को राँड़ (निस्सहाय) करके उसके हाड़ों (हड्डियों) को गढ़ डालें।

घनाक्षरी
[९१]


बिपुल विसाल बिकराल कपि भालु मानौ
काल बहु वेष धरे धाये किये करषा।
लिये सिला सैल, साल लाल औ तमाल तोरि
तोपैं तोयनिधि, सुर को समाज हरषा॥
डगे दिग-कुंजर, कमठ कोल कलमले,
डोले धराधर-धारि, धराधर धरषा।
तुलसी तमकि चलैं, राघौ की सपथ करैं,
को करै अटक कपि-कटक अमरषा॥

अर्थ—अत्यन्त बड़े और विकराल कपि व भालु क्रोध करके दौड़े माना अनेक रूप धारण किये काल हैं और पर्वत और शिला उखाड़कर और साल, ताड़ और तमाल के वृक्ष तोड़कर समुद्र को पाट दिया, सेतु बाँध दिया, जिसे देखकर देवगण अति प्रसन्न हुए। दिग्गज डिग गये, कछुवा, सूकर हिलने लगे, पर्वतों की पाँतिसहित पृथ्वी हिलने लगी, धरा (पृथ्वी) को धारण करनेवाले (शेष) धरषा गये (दंब वा घबरा गये)। हे तुलसी! वानर तेज़ी से चलते थे और रामचन्द्र की क़सम खाते थे। जब बन्दरों की सेना क्रोधित हुई तब उसे कौन रोक सकता था?

शब्दार्थ— करखा= क्रोध। तोप= पाट देना। तोयनिधि= समुद्र। धराधर= शेष, पर्वत।

अमरषे= क्रोधित हुए। [ ८७ ]
[९२]


आये सुक सारन बोलाये ते कहन लागे,
पुलकि सरीर सैना करत फहमही।
‘महाबली वानर बिसाल भालु काल से
कराल हैं, रहे कहाँ, समाहिंगे कहाँ मही’॥
हँस्यो दसमाथ रघुनाथ को प्रताप सुनि,
तुलसी दुरावै मुख सूखत सहमही।
राम के बिरोधे बुरो विधि हरि हरहू को,
सबको भलो है राजा राम के रहमही॥

अर्थ—शुक सारन दूतों को बुलाया तो वह लोग आकर कहने लगे कि वानर सेना की याद करते ही शरीर के रोंगटे खड़े होते हैं। बन्दर बड़े बली हैं, भालु बड़े भारी हैं, काल से भी कठिन हैं, न जाने कहाँ रहते थे, और न जाने पृथ्वी पर कहाँ समायँगे? रामचन्द्र का प्रताप सुनकर रावण हँसा। हे तुलसी! मुँँह सहमकर (घबड़ाकर) सूख गया परन्तु उसे छिपाना चाहता है। रामचन्द्र के वैर से ब्रह्मा-विष्णु-महादेव का भी कल्याण नहीं। सबका भला रामचन्द्र की दया ही से है।

शब्दार्थ—फहम= ससुझ। सहम= डर। रहम= दया।

[९३]


‘आयो आयो आयो साई बानर बहोरि,’ भयो
सोर चहुँ ओर लंका आये जुवराज के।
एक काढ़ै सौज, एक धौंज करै कहा ह्वैहै,
‘पोच भई महा’ सोच सुभट समाज के॥
गाज्यो कपिराज रघुराज की सपथ करि,
मूँँदे कान जातुधान मानौ गाजे गाज के।
सहमि सुखात बातजात की सुरति करि,
लवा ज्यों लुकात तुलसी झपेटे बाज के॥

[ ८८ ]अर्थ—अङ्गद के लङ्का में आने पर चारों और शोर मच गया कि वही बन्दर फिर आया। कोई बटोर-बटोर कर असबाब निकालता था। कोई कहता था कि देखैं अब की क्या करेगा। सब योधागण की मति पोच हो गई अर्थात् सब बड़े-बड़े सुभट घबड़ाने लगे। रामचन्द्र की कसन खाकर अङ्गद गरजा, सब राक्षसों ने अपनी- अपनी आँखें मूँँद ली, मानों बज्र टूट पड़ा हो। वे हनुमान की याद कर सहमकर इस भाँति डरे जैसे लवा वाज़ के झपटने पर छिपता है।

शब्दार्थ—सौज= सामग्री। धौंज= कसम, धौज= दौड़ धूप।

[९४]


तुलसी सबल रघुबीर जू के वालिसुत
वाहि न गनत, बात कहत करेरी सी।
बखसीस ईस जू की खीस होत देखियत,
रिस काहे लागत कहत हौं तो तेरी सी॥
चढ़ि गढ़ मढ़ दृढ़ कोट के कँगूरे कोपि,
नेकु धका दैहैं छैहैं ढेलन की ढेरी सी।
सुनु दसमाथ! नाथ-साथ के हमारे कपि
हाथ लंका लाइहैं तो रहैगी हथेरी सी॥

अर्थ—तुलसी कहते हैं कि सबल (बलवान्) रघुवीर (राम) के दूत बालिसुत (अङ्गद) ने वाहि (रावन) को कुछ नहीं गिना और बड़ी कड़ी बात कही कि शिव जी की बकसीस (दी हुई सम्पदा) नाश होते मुझे दिखाई देती है। क्रोध क्यों करते हो? मैं तुम्हारी सी कहता हूँ। बानर, भालु गढ़ पर चढ़कर जब मज़बूत मकानों और कोट के कँगूरों को नेक धक्का देंगे तब वह (गढ़) ढेलन (ईटों) के ढेर से गिर पड़ेंगे। हे रावण! सुन, हमारे बन्दर जो रधुनाथ के साथ हैं जब लङ्का में हाथ लगावेंगे तो हथेली सी साफ़ रह जावेगी, अर्थात् कुछ बाक़ी न रहेगा।

[९५]


दूषन बिराध खर त्रिसर कबंध बधे,
तालऊ बिसाल बेधे, कौतुक है कालि को।

[ ८९ ]

एक ही बिसिष बस भयो बीर बांकुरो जो,
तोह है बिदित बल महाबली बालि के॥
तुलसी सहत हित, मानतो न नेकु संक,
मेरो कहा जैहै, फल पैहै तू कुचालि को।
बीर-करि-केसरी कुठार-पानि मानी हारि,
तेरी कहा चली, बिड़!* तोसो गनै धालिको॥

अर्थ―जिसने खर-दूषण, विराध, त्रिशिरा, कबन्ध मारे और विकराल तालों को अथवा सप्त तालों को जो बड़े विशाल रहे वेध दिया, यह कल का तमाशा है। एक ही बाण में बड़े-बड़े वीर वश हुए (मारे गये), सो बड़े बली बालि का बल तुझे भी ज्ञात है (उसे भी रामचन्द्रजी ने मार डाला)। तुलसी कहते हैं कि अंगद ने कहा कि मैं भलाई की बात कहता हूँ, पर तू कुछ नहीं डरता, अथवा मैं तेरी भलाई की बात कहता हूँ इसलिए मुझे कुछ भय नहीं है, मेरा क्या जावेगा, तू ही अपनी कुचालि का फल पावेगा। वीर रूप हाथियों को शेर, कुठार हाथ में रखनेवाले (परशुरामजी) ने हार मान ली, तो तेरी क्या गति है। हे मूर्ख! तुम्हारे ऐसों को कौन गिनता है।

शब्दार्थ―विड़ = मूर्ख।

सवैया

[ ९६ ]

तोसों कहौं दसकंधर रे, रघुनाथ-बिरोध न कीजिय बौरे।
बालि बली खरदूषन और अनेक गिरे जेजे भीति में दौरे॥
ऐसिय हाल भई तेहि धौं, नतु लै मिलु सीय चहे सुख जौरे।
राम के रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकर सौरे॥

अर्थ―तुझसे ही कहता हूँ ऐ बावले रावण! राम से वैर न कर; बली बालि और खर-दूषण और बहुत से जो इस डर की जगह दौड़कर गये अथवा दीवाल में दौड़े वह सब गिरे (नाश हो गये)। यही हाल तेरा होगा, नहीं तो जो सुख चाहता है तो सीताजी को लेकर मिल। राम के क्रोध करने पर, तुलसीदास कहते हैं कि, सौ ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं रख सकेंगे।


  • पाठान्तर―बटे = वृक्ष बडे = दब गया। [ ९० ]

[ ९७ ]

तू रजनीवरनाथ महा, रघुनाथ के सेवक कर जन हौं हैं।
बलवान है स्वान गली अपनी, तोहिं लाज न* गाल बजावत सोहौं॥
बीस भुजा दसलील हरौं न डरौं प्रभु आयसु भंग ते जी है।
खेत में केहरि ज्यों गजराज दलौं दल वालि को बालक तौ हौं॥

अर्थ―तू राक्षसों का नाथ अर्थात् राजा है परन्तु मैं रामचन्द्र के दास का दास हूँ। अपनी गली में कुत्ता भी बलवान् होता है। तेरे (तुझे) लाज नहीं है। परन्तु (गाल बजाते) फ़िज़ूल बकवाद करते मुझे शोभा नहीं है, अथवा तेरे सामने मुझे गाल बजाते लाज नहीं है क्योंकि जैसे को तैसा चाहिए, अथवा मेरे सामने तुझे बकवाद करते लाज नहीं आती। अभी बीस भुजा और दसों सिर हर लेता, यदि रामचन्द्र की आज्ञाभङ्ग का उर न होता। जैसे खेत (मैदान) में शेर हाथी को नाश करता है वैसे ही यदि दल को नाश न करूँ तो मैं बालि का बेटा नहीं।

[ ९८ ]

कोसलराज के काज हौं आज त्रिकूट उपारि लै बारिधि बोरौं।
महाभुज-दंड द्वै† अंडकटाह चपेट की चोट चटाक दै फोरौं॥
आयसु भंग ते जौ न डरौं सब मींजि सभासद सोनित खोरौं।
बालि को बालक जौ तुलसी दसहू मुख के रन में रद तोरौं।

अर्थ―रामचन्द्र के काम के लिए मैं आज त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर समुद्र में डुबा सकता हूँ। अपने दोनों बाहुओं में ब्रह्माण्ड को दबाकर झट से फोड़ सकता हूँ। सब सभासदों को मींजकर लोहू से स्नान करा सकता हूँ यदि रामजी की आज्ञा के टूटने से न डरूँ। हे तुलसी! मैं तब बालि का पुत्र कहाऊँ जब लड़ाई में दसो मुँह के दाँत तोड़ूँ।

सवैया

[ ९९ ]

अति कोष सौ रोप्यो है पाँव सभा, सब लंक ससंकित सोर मचा।
तमके घननाद से बीर पचारि कै, हारि निशाचर सैन पचा॥



*पाठान्तर―है बलवान गली निज श्वान न लाजन।


†पाठान्तर―द्वै भुजदण्ड से।
[ ९१ ]


न टरै पग मेरुहु ते गरु भो, सा मनों महि संग बिरंचि रचा।
तुलसी सब सृर सराहत हैं “जग में बलसालि है बालिबचा”।

अर्थ—बड़े क्रोध से सभा में पैर रोपा, सब लङ्का में डर से शोर मच गया, मेघनाद से योधा बड़े वेग से उठे, और कुल निशाचर-सेना प्रचार के (कोशिश करके) हार गई अथवा मेघनाद से वीर गुस्से में होकर उठे मगर पैर मेरु से भी भारी हो गया, उठाये नहीं उठता, मानो ब्रह्मा ने पृथ्वी के सङ्ग बनाया है अर्थात् पृथ्वी का एक भाग हैं उससे अलग हो ही नहीं सकता। हे तुलसी! सब वीर अङ्गद की प्रशंसा करने लगे कि ज़ग में बालि का बेटा बड़ा वीर है।

घनाक्षरी
[१००]


रोप्यौ पाँव पैज कै बिचारि रघुवीरबल,
लागे भट सिमिटि न नेकु टसकतु है।
तज्यौ धीर धरनि, धरनिधर धसकत,
धराधर धीर भार सहि न सकतु है॥
महाबली बालि को दबत दलकतु भूमि,
तुलसी उछरि सिंधु मेरु मसकतु है।
कमठ कठिन पीठि, घठा परो मंदर को,
आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है॥

अर्थ—अङ्गद ने रामचन्द्र के बल को विचारकर, प्रण करके, पैर को रक्खा, जिसे बड़े बड़े बली मिल-मिलकर उठाने लगे परन्तु वह ज़रा नहीं हिला। पृथ्वी ने भी धैर्य्य छोड़ दिया, सुमेरु धसकने लगा और धीर शेषनाग भी भार न सह सके। बलवान् अङ्गद के दबाने से पृथ्वी पसीज गई। हे तुलसी! माना मेरु के मसकने (दवाने) से सिन्धु उछलने लगा अथवा मेरु मसक (फट) गया। कच्छप

की पीठ पर मन्दर (पर्वत) का जो घट्ठा पड़ा था वह तो काम आया, परन्तु कलेजा कसकता है। [ ९२ ]
झूलना
[१०१]


कनक गिरि सृंग चढ़ि देखि मर्कट कटक,
बदत मंदोदरी परम भीता।
“सहसभुज मत्त-गजराज-रनकेसरी
परसुधर-गर्व जेहि देखि बीता॥
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी
ख्याल ही बालि बलसालि जीता।
रे कंत! तृन दंत गहि सरन श्रीराम कहि,
अजहुँ यहि भाँति लै सौंपु सीता॥”

अर्थ—तुलसीदास कहते हैं कि सोने के पहाड़ की चोटी पर चढ़कर और बन्दरों की सेना को देखकर बहुत डरी हुई मन्दोदरी कहने लगी कि सहस्रबाहु से मस्त हाथो के लिए सिंह के समान परशुराम का ग़रूर जिसे देखकर जाता रहा, लड़ाई में बलवान् जिन कोसल के प्रभु ने ख्याल ही में (बात की बात में) बली बालि को जीत लिया, हे कन्त! तिनका दाँतों में पकड़कर ऐसे श्रीरामचन्द्र की शरण लो और सीता को सौंप दो। (दाँतों में तिनका दबाने से अर्थ शरण लेने से है।)

[१०२]


“रे नीच! मारीच बिचलाइ, हति ताड़का,
भंजि सिवचाप सुख सबहि दीन्ह्यो।
सहस-दसचारि खल सहित खरदूषनहि,
पठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यो॥
मैं जु कहौं कंत! सुनु, संत* भगवंत सों
बिमुख ह्वै बालि फल कौन लीन्ह्यो?
बीस भुज सीस दस खीसि गये तबहिं
जब ईस के ईस सों बैर कीन्ह्यो॥”


* पाठान्तर—मंत= मंत्र, सलाह। [ ९३ ]अर्थ―हे नीच! जिसने मारीच को विकल करके, ताड़का को नारकर, शिव के धनुष को तोड़कर सबको सुख दिया; खरदूषण के साथ १४ सहस्र राक्षसों को मार डाला; उसे तूने तब भी न जाना। मैं जो कहती हूँ उसे सुन, संत और भगवान् से लड़कर बालि ने कौन फल पाया? तेरे बीस भुजाओं सहित दसों शिर तभी नष्ट हो गये जब तूने महादेव के प्रभु (रामचन्द्र) से वैर किया।

[ १०३ ]

"बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किय,
कंत! भगवंत तैं तउ* न चीन्हें।
बिपुल बिकराल भटभालु कपि काल से
संग तरु तुंग गिरिसृंग लीन्हें॥
आइगे कोसलाधीस तुलसीस जेहि
छत्र मिसि मौलि† दस दरि कीन्हें।
ईस-बकसीस जनि खीस करु, ईस! सुनु,
अजहुँ कुल कुसल बैदेहि दीन्हें॥"

अर्थ―हे कन्त! बालि को मारकर जब कल ही पत्थरों को नौका (सेतु) बना दिया तब भी तूने भगवान् को न पहचाना। बड़े विकराल वीर बन्दर और भालू उनके सङ्ग हैं जो काल के समान हैं और बड़े वृक्ष और पहाड़ों के श्रृङ्ग लिये हैं। तुलसी के प्रभु रामचन्द्र आ गये जिन पर महादेव का छत्र है जिनके लिए तुमने दस सिर दूर किये (अर्थात् जिन महादेव पर तुमने अपने सिर चढ़ा दिये थे वही रामचन्द्र पर छत्र किये हैं), अथवा जिन्होंने छत्र के बहाने दस सिरों को गिराया था। हे कन्त! महादेव के दिये हुए वर के बल पर मत हँसी कर अथवा महादेव की दी लङ्का को मत नाश कर, सुन अब भी सीताजी के देने से कुल की कुशल है।

शब्दार्थ―दश मलि = दश शिर।

[१०४ ]

"सैन के कपिन कों को गनै अर्बुदै,
महाबल-बीर हनुमान जानी।



*पाठान्तर―तब।


†पाठान्तर–शशिमौलि = महादेव।
[ ९४ ]

भूलिहैं दस दिसा, सेस* पुनि डोलिहैं,
कोपि रधुनाथ जब वान तानी॥
बालि हू गर्व जिव माहिं ऐसे कियो,
मारि दहपट किया जम की घानी†।"
कहत मन्दोदरी सुनहि, रावन! मतो,
"बेगि लै देहि वैदेहि रानी॥"

अर्थ―उनकी सेना के वानरों को कौन गिन सकता है, वह तो अर्बुद (बड़ी संख्यावाले, असंख्य) हैं और समझ लो कि हनुमान से महावली वीर हैं। दसों दिसा भूल जायँगी, (अर्थात् तू ज्ञानशून्य हो जायगा) और शेषजी हिलने लगेंगे जब रामचन्द्र क्रोध करके बान तानेंगे। बालि ने अपने मन में ऐसा ही गरूर किया था (कि मेरा कोई क्या कर सकता है) उसे मार चौपट कर यमराज की राजधानी को भेज दिया अथवा कोल्हू में पेर दिया। मंदोदरी ने रावण से कहा कि यह मता सुन कि जल्दी सीता को लौटा दे।

[ १०५ ]

“गहन उज्जारि पुर जारि सुत मारि तब,
कुसल गो कीस बरबेर जाको।
दूसरो दूत पन रोपि कोप्यो सभा,
खर्ब कियो सर्ब को गर्व थाको॥”
दास तुलसी समय बदति मयनंदिनी,
'मंदमति कंत! सुनु मंत म्हाको।
तौलौं मिलु बेगि नहि जौलौं रन रोष भये,
दासरथि बीर बिरुदैत बाँको'॥

अर्थ―वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर, तुम्हारे लड़के को मारकर, जिसका बड़ा बली बन्दर साफ़ निकल गया; दूसरे दूत ने क्रोध से सभा में प्रण करके पैर को रोपा और तुम सबको छोटा कर दिया, सबका ग़रूर लचा दिया। तुलसीदास कहते



*पाठान्तर―सीस।
†पाठान्तर―धानी = राजधानी।
[ ९५ ]हैं कि डर सहित मन्दोदरी कहती है कि हे मन्दमति पति! मेरी सलाह मान, तब तक जाके जल्दी से मिल जब तक दशरथकुमार रामचन्द्र विरदवाले बाँके वीर रण में क्रोध नहीं करते हैं।

घनाक्षरी

[ १०६ ]

'कानन उजारि, अच्छ मारि, धारि धूरि कीन्हीं,
नगर प्रजारयो सो बिलोक्यो बल कीस को।
तुम्हें विद्यमान जातुधान मंडली में
कपि कोपि राप्यो पाँउ, सो प्रभाव तुलसीस को॥
कंत! सुनु मंत, कुल अंत किये अंत हानि,
हातो* कीजै हीय तें भरोसो भुज बीस को।
तै लौं मिलु बेगि जौलौं चाप न चढ़ायो राम,
रोषि बान काढ़यो ना दलैया दससीस को'॥

अर्थ―बन को उजाड़कर अक्ष को मारकर सेना को धूल सा उड़ा दिया, मगर को जला दिया वह बल बन्दर का देखा। तुम्हारे होते हुए राक्षसों की सभा में बन्दर ने क्रोध से पैर रोपा। यह प्रभाव भी तुलसी के प्रभु (रामचन्द्र) का था। हे कन्त! मन्त्र (सलाह) सुन, कुल का अन्त करने से अन्त में हानि ही होगी। हाय तात! बीस भुजाओं का बल आप हृदय में किये हैं? अथवा बीस भुजाओं का बल हृदय से निकाल डालिए अर्थात् यह प्रापका भ्रम है। तब तक जल्दी से जाकर मिलिए जब तक रामचन्द्र ने क्रोध करके धनुष नहीं चढ़ाया है और रावण को मारनेवाला बाण नहीं निकाला है।

[ १०७ ]

“पवन को† पूत देखौ, दूत बीर बाँकुरो, जो
बंक गढ़ लंक से ढका ढकेलि ढाहिगो।



*पाठान्तर―हातो कीजै हिये ते। (२) हाय तात न कीजै।


†पाठान्तर―के।
[ ९६ ]


बालि बलसालि को, सो काल्हि दाप दलि, कोपि
रोप्यो पाँउ, चपरि चमू को चाउ चाहिगो॥
साई रघुनाथ कपि साथ पाथनाथ वाँधि,
आये* नाथ! भागे तें खिरिरि† खेह खाहिगो”।
तुलसी “गरव तजि मिलिबे को साज सजि,
देहि सीय न तो पिय! पाइमाल जाहिगो॥”

अर्थ—रामचन्द्र के बली दूत पवनसुत हनुमान् को देखा जो लङ्का से बड़े गढ़ को धक्कों से ढकेलि के गिरा गया। बालि का पुत्र जो बली है उसने कल तुम्हारे घमण्ड को दबाकर क्रोध से पैर रोपा। तुम्हारी सब सेना का चाव भाग गया। वही रघुनाथ बन्दरों के साथ समुद्र बाँधकर आये हैं। हे नाथ! भागने से घसिट-घसिटकर मट्टी खानी होगी। तुलसीदास कहते हैं कि घमण्ड छोड़ मिलने का सामान करो, सीता को दो, नहीं तो हे पिय पायमाल (नष्ट) हो जाओगे।

शब्दार्थ—खेह= राख, मिट्टी। खिरिर= घसिट घसिटकर। पाइभाल= पाँयमाल, पैर से मला, नष्ट।

[१०८]


“उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार,
केसरीकुमार सो अदंड कैसो डाँड़िगो।
बाटिका उजारि अच्छ रच्छकनि मारि, भट
भारी भारी रावरे के चाउर से काँडिगो॥
तुलसी तिहारे बिद्यमान जुवराज आजु
कोपि, पाँव रोपि बस कै छोहाइ छाँडिगो।
कहे की न लाज, पिय! अजहूँ न आये बाज,
सहित समाज गढ़ राँड़ कैसा भाँडिगो॥”

अर्थ—जिसे अपार समुद्र के पार उतरते देरी नहीं लगी, वह अदंड (जिसे कोई दंड नहीं दे सका) पवनसुत सबको कैसा दण्ड दे गया। अथवा



*पाठान्तर— आयो।
†पाठान्तर—खिरि
[ ९७ ]
वह पवनसुत तुमसे अदण्ड को भी कैसा डाँडि गया। फुलवारी को उजाड़-कर, अक्ष और बाग़ के रक्षकों को मारकर जो तुम्हारे बड़े भारी-भारी योधा थे उन्हें चावल की भाँति काँड़ि गया (छिलका उतार गया, कूट गया)। तुलसीदास कहते हैं कि तुम्हारे होते हुए भी अङ्गद ने आज क्रोध करके पाँव रोपा और सबको छुँछा करके छोड़ गया अथवा वश में करके रहम से छोड़ गया अथवा तुम्हें अपने पैर छुलाकर छोड़ गया। कहने की तुम्हें कुछ शर्म नहीं है, अब भी तुम बाज नहीं आते हो। सब समाज सहित लङ्का राँड़ के भण्डार की सी लुट गई, अर्थात् ऐसी लुटी मानों उसकी रखवाल राँड़ (असहाय बलहीन स्त्री) थी अथवा विधवा के गढ़ की तरह धूमधूमकर देख गया।

[१०९]


“जाके रोष दुसह त्रिदोष दाह दूरि कीन्हें,
पैयत न छत्री-खोज खोजत खलक में।
महिषमती को नाथ*, साहसी सहसबाहु,
समर समर्थ, नाथ! हेरिए† हलक में॥
सहित समाज महाराज सो जहाज राज
बूड़ि गयो जाके बलबारिधि-छलक में।
टूटत पिनाक के मनाक वाम राम से, ते
नाक बिनु भये भृगुनायक पलक में॥”

अर्थ—जिसके असह्य क्रोध ने त्रिदोष के दाह को भी दूर (मात) कर दिया था कि जिससे संसार में क्षत्रियों का खोज ही नहीं मिलता था, माहिषमती का राजा, साहसी सहस्रबाहु, जिसकी रण में सामर्थ्य को, हे नाथ! हलक में (मन में) सोचिए अर्थात् जिसका बल आप खूब जानते हैं, हे महाराज! समाज के साथ वह सहस्र- बाहुरूपी जहाज़ जिसके बल रूपी समुद्र की छलक में डूब गया (अर्थात जिसने ऐसे बली को भी नष्ट कर दिया था), सो परशुराम धनुष के टूटने से राम से कुछ टेढ़े होने पर पलक में (क्षण भर में) बिना नाक के हो गये अर्थात् उनकी सब शेखी जाती रही।



*पाठान्तर—नाह।


†पाठान्तर—हरषे।
[ ९८ ]
[११०]


“कीन्हीं छानी छत्री विलु, छोनिप-छपनहार,
कठिन कुवार-पालि बीर बानि जानिकै।
परमकृपाल जो नृपाल लोकपालन पै,
जब धनुहाई ह्वैहै मन अनुमानि कै॥
नाक में पिनाक मिसि बामता बिलोकि राम,
रोक्यो परलोक, लोकभारी भ्रम भानि* के।
नाइ दशमाथ महि, जारि बीसहाथ, पिय!
मिलिए पै नाथ रघुनाथ पहिचानि कै॥"

अर्थ—जिन्होंने पृथ्वी को बिना क्षत्रिय के किया था, जिनके हाथ में राजाओं को मारनेवाला कठिन कुठार था, उनकी वीर बानि को जानकर और मन में यह समझ कर भी कि जब इनके पास धनुष होगा तब क्या गति होगी रामचन्द्र ने, जो राजाओं और लोकपालों पर बड़ी दया करनेवाले हैं, पिनाक (महादेव के धनुष) के बहाने से परशुराम की नाक में टेढ़ापन देखकर संसार के भारी भ्रम को मिटा दिया और परलोक की गति को रोक दिया, अथवा जिन्होंने पृथ्वी को बिना क्षत्रिय के कर दिया था जो राजाओं के नाशक थे, बड़े बड़े कुठार को हाथ में लिये थे उनकी वीरगति को जानकर और यह समझकर राम ने, जो राजाओं और लोकपालों पर दया करते हैं, उनका धनुष भी हर लिया था और पिनाक के बहाने से परशुराम की नाक में टेढ़ापन देखकर उनकी गति को रोक दिया था, अथवा जिन्होंने पृथ्वी को बिना क्षत्रियों के कर दिया था ऐसे परशुराम की वीरगति को जानकर उनकी गति को रोक दिया था, ऐसे राजाओं और लोकपालों पर दया करनेवाले रामचन्द्र की जब धनुहाई होगी तब क्या गति होगी, उसका अनुमान करके अर्थात् बिना धनुहाई (धनुष से बाण चलाये) यदि परशुराम की यह गति हुई तो जब तेरे ऊपर वाण चलेंगे तो क्या गति होगी इसका अनुमान करके और लोक के भारी भ्रम को मिटाकर दशों सिर पृथ्वी पर नवाकर और बीसों हाथ जोड़कर निश्चय उनसे मिलिए और रघुनाथ को अपना नाथ पहचानिए अथवा हे नाथ रामचन्द्रजी को पहचान कर उनसे मिलिए।


*पाठान्तर—मानि कै। [ ९९ ]
[१११]


“कह्यौ मत मातुल बिभीषनहु बार बार,
आँचर पसारि पिय पाँय लै लै हौं परी।
बिदित बिदेहपुर, नाथ! भृगुनाथ गति,
समय सयानी कीन्ही जैसी आय गौं परी॥
बायस, बिराध, खरदूषन, कबंध, बालि,
बैर रघुबीर के न पूरी काहु की परी।
कंत बीस लोचन बिलोकिए कुमंत-फल,
ख्याल लंका लाई कपि राँड़ की सी झोपरी॥”

अर्थ—मामा और विभीषन ने बार-बार सलाह दी और मैं भी अञ्चल पसारकर बार-बार पैरों पर पड़ी। जनकपुर में हे नाथ! परशुराम की अथवा जनकपुरी में तुम्हारी और परशुराम की जो गति हुई सो विदित है। उन्होंने होशियारी की। जैसा समय था वैसा किया। जयन्त, विराध, खर-दूषण, कबन्ध, बालि किसी की भी पूर राम के वैर से न पड़ी। हे कन्त! बुरी सलाह का फल बीसों आँखों से देखो, कि कपि ने लङ्का को राँड़ की सी अर्थात् अनाथ की सी झोपड़ी समझा अर्थात् उसे नष्ट कर दिया, जला दिया।

सवैया
[११२]

‘राम सों साम किये नित है हित, कोमल काज न कीजिए टाँठे।
आपनि सूझि कहाँ, पिय! बूझिए, जूझिवे जोग न ठाहरु नाठे॥
नाथ! सुनी भृगुनाथ-कथा, बलि बालि गये चलि बात के साँठे।
भाइ बिभीषन जाइ मिल्यो प्रभु आइ परे सुनी सायर-काँठे*॥’

अर्थ—रामचन्द्र से सलाह करने से रोज हित है। सीधे काम को टेढ़ा मत करो। हे पिय समझिए, अपनी समझ कहती हूँ कि ठौर ही नाश है, हम लड़ने योग्य नहीं है। हे नाथ! परशुराम की कथा सुनी होगी और बालि बात की बात में साँठे (सेंठे की तरह) चले गये, अथवा अपनी बात साठे रहे अर्थात् पकड़े रहे और


* पाठान्तर—ठाढे, नाढे, साँँहे, काँँटे। आइ परे पुवि सायर काढ़े। [ १०० ]
चले गये। विभीषण भाई जा मिला, हे प्रभु! आ पड़ने पर वैर निकालेगा, अथवा सायर जो समुद्र है उसके किनारे पर प्रभु आ गये हैं।

[११३]

पालिबे को कपि-भालु-चमू जमकाल करालहु को पहरी है।
लंक से बंक महागढ़ दुर्गम ढाहिबे दाहिबे को कहरी है॥
तीतर-तोम तमीचर-सेन समीर को सूनु बड़ो बहरी है।
नाथ भलो रघुनाथ मिले, रजनीचर-सेन हिये हहरी है॥

अर्थ—पालने को बन्दर और भालुओं की सेना है जो यम और कराल काल के भी कोप को हरनेवाली है, अथवा बन्दर और भालु सेना को पालने के लिए हनुमान पहरी (पहरेवाले) की तरह है। लङ्का से बड़े दुर्ग को गिरा देने के लिए और जला देने को कहर (महामारी) है। राक्षसों की सेना तीतरों के समूह के समान है और हनुमान बहरी (शिकारी) है। हे नाथ! भला यह है कि राम से मिलो। राक्षसों की सेना हृदय में काँप रही है।

शब्दार्थ—तोम= समूह। तमीचर= राक्षस। समीर को सूनु= हनुमान्। बहरी= शिकारी पक्षी विशेष। हहरी घबड़ा रही है।

घनाक्षरी
[११४]


रोष्यो रन रावन, बोलाए बीर बानइत,
जानत जे रीति सब संजुग समाज की।
चली चतुरंग चमू, चपरि हने निसान,
सेना सराहन जोग रातिचर-राज की॥
तुलसी बिलोकि कपि भालु किलकत,
ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाज की।
राम रुख निरखि हरषे हिय हनुमान,
मानो खेलवार खोली सीस ताज बाज की॥*


*हरिहरप्रसाद कृत कवितावली में इस प्रकार है—
राम रुख निरखि हरष्यो हिय हनुमान,
'मानो खेलवार खोल सीस ताज बाज की॥

[ १०१ ]अर्थ—रावण रण के लिए गुस्सा हुआ। उसने बाने-वाले वीरों को बुलाया जो युद्ध के सब समाज को संयुक्त करने को रीति को जानते हैं (अर्थात् ब्यूह इत्यादि रचकर लड़ना जानते हैं)। चतुरङ्ग सेना बढ़ चली और जल्दी से निशान बजने लगे, रावण

की सेना सराहने योग्य थी। उसे देखकर बन्दर और भालु किलकारी मारने लगे और ऐसे आगे बढ़े जैसे कंगाल अच्छे भोजनी की थाली को देखकर बढ़ता है। रामचन्द्र के रुख को देखकर हनुमानजी प्रसन्न होकर इस भाँति झपटे जैसे शिकार के लिए बाज़ का सिर खोल दिया गया हो (बाज़ का सिर और आँखें कपड़े से ढकी रहती हैं और जब शिकार होता है तो खोलकर उसे दिखा देते हैं तो वह उस पर झपटता है)।

[११५]


साजि कै सनाह गजगाह स उछाह* दल,
महाबली धाये बीर यातुधान धीर के।
इहाँ भालु बंदर बिसाल मेरु मंदर से,
लिये सैल साल तोरि नीरनिधि तीर के॥
तुलसी तमकि ताकि भिरे भारी जुद्ध क्रुद्ध,
सेनप सराहैं निज निज भट भीर के।
रुंडन के झुंड झूमि झूमि झुकरे से नाचैं,
समर सुमार सूर मारे रघुवीर के॥

अर्थ—बख़तर अङ्ग में पहनकर और घोड़ो को साजकर बड़े उत्साह के साथ बड़े बलवान् धीर रावण के वीर धाये। दूसरी ओर मेरु और मन्दर से भालू और बन्दरों ने समुद्र के किनारे के पहाड़ और साल वृक्ष उखाड़ लिये। तुलसीदासजी कहते हैं कि युद्ध में क्रोधित होकर दोनों तमककर और एक दूसरे को देखकर भिड़ गये। दोनों ओर के सेनापति अपनी-अपनी फ़ौज के योधाओं को सराहते थे। रुण्ड के झुण्ड झूम-झूमकर क्रोधित से अथवा अधजले से नाचते थे। रामचन्द्र के मारे वह शूर भी, जिनकी लड़ाई में बड़ी गिनती थी अर्थात् जो प्रख्यात योधा थे, नाच रहे थे।

शब्दार्थ—झुकरे= क्रोधित वा झुलसे।


*पाठान्तर—से उछाह। [ १०२ ]

सवैया

[ ११६ ]

तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि साजि चढ़े छँटि छैल छबीले।
भारी गुमान जिन्हैं मन में कबहूँ न भये रन में तनु ढीले॥
तुलसी गज से लखि केहरि लौं*, झपटे पटके सब सूर सलीले।
भूमि परे भट घूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले॥

अर्थ―छवीले छैल जिनको बड़ा गर्व था कि रण में कभी भी उनकी देह ढीली नहीं पड़ी है, छटक कर (तेज़ी से) मृग के समान तेज़ सुन्दर रंगवाले घोड़ों पर चढ़े। तुलसीदास कहते हैं कि जैसे हाथी को देखकर शेर झपटता है इसी तरह पानीवाले शूर पटके। भूमि पर पड़े-पड़े योधा कराह रहे थे जिनको हठीले हनुमान ने भगाकर मारा था।

शब्दार्थ―तुरंग = घोड़े। कुरंग = मृग। कोहरि = शेर। ललीले = पानीवाले अथवा लीला (खेल) ही में।

[ ११७ ]

सूर सजाइल साजि सुबाजि, सुसेल धरे बगमेल चले हैं।
भारी भुजा भरी, भारी सरीर, बली बिजयो सब भाँति भले हैं॥
तुलसी जिन्हैं धाये धुकै धरनीधर, धौर† धकानि सों मेरु हले हैं।
ते रन-तीर्थनि लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं॥

अर्थ―सजोइल अर्थात होशियार होकर अथवा हथियार सजकर पल भर में अच्छे-अच्छे घोड़ों को सजाकर अच्छे-अच्छे सेल (वर्छी) धारण करके शूर बगमेल चले। वे भारी भुजावाले और भारी शरीरवाले बलवान्, विजयी और सब भाँति अच्छे थे। तुलसीदास कहते हैं कि जिनके चलने से पृथ्वी हिलती थी और सफ़ेद (बर्फ़वाले, ऊँचे) पहाड़ जिनके चलने के धक्के से हिलते थे उनमें से लाखों तीखे वीरों को लक्ष्मण ने दबाकर मार डाला जैसे दरिद्र को दानी नाश कर देता है।


  • पाठान्तर―तुलसी लखि के हरि केहरि अथवा तुलसी लखि के करि केहरि।
†पाठान्तर―घोर।
[ १०३ ]

[ ११८ ]

गहि मंदर बंदर भालु चले सो मनो उनये घन सावन के।
तुलसी उत झुंड प्रचंड झुके, झपटैं* भट जे सुरदावन के॥
बिरुझे बिरुदैत जे खेत अरे, न टरे हठि बैर बढ़ावन के।
रन मारि मची उपरी उपरा, भले बोर रघुप्पति रावन के॥

अर्थ―पहाड़ी को लेकर बन्दर और भालु चले सो ऐसा मालूम होता था कि मानों सावन के बादल घिरे हैं। हे तुलसी! उधर भारी-भारी झुण्ड इकट्ठा हुए और बड़े-बड़े भट सुरों को ड़रानेवाले (रावण के) झपटे यानी आगे बढ़े। बड़े विरदवाले एक दूसरे से उलझ गये (भिड़ गये) और बैर बढ़ानेवाले योधा हठ से न टले। अथवा हठि-बैर-बढ़ावन (ज़बरदस्ती बैर बढ़ानेवाले रावण) के जो विरदवाने वीर थे वह खेत में अड़ गए और न हटे। चढ़ा उपरी रण में मार-मार मची, रामचन्द्र और रावण दोनों के वीर भले थे अथवा रण में चढ़ा ऊपरी अर्थात बारी-बारी से राम और रावण के भले (अच्छे) वीरों में मार-मार मची।

[ ११९ ]

सर तोमर सेल समूह पँवारत, मारत बीर निसाचर के।
इततेँ तरु ताल तमाल चले, खर खंड प्रचंड महीधर के॥
तुलसी करि केहरि नाद भिरे, भट खग्ग†खिगे खपुवा खरके।
नख दंतन सों भुजदंड बिहंडत, मुंड सों मुंड परे झरके॥

अर्थ―वीर राक्षस लोग बाय तोमर सेल (लाँग) फेंककर मारते थे। इधर से (रामचन्द्र की ओर से) पेड़ तमाल और बड़े-बड़े पहाड़ों के टुकड़े फेंके जाते थे। हरि का नाम लेकर अथवा केहरि (सिंह) कैसा नाद (गरज) करके वीरों के झुण्ड भिड़े अथवा भट खग्ग (खङ्ग, तलवार) से स्वर्ग (मारे गये) और कायर लोग भागे। (राक्षस हरि को वैरी मानकर मारने के लिए नाम लेते थे और बंदर अपना मालिक जान कर) नख और दाँतो से भुजाओं को काट डालते थे और धड़ से सिर अलग हो होकर गिर रहे थे।

शब्दार्थ―खग्ग = तलवार। खगे = खँग गये, अड़ गये अथवा मारे गये। खपुवा = कायर। खरके = खिसके।



*पाठान्तर―झपटे।


†पाठान्तर―खङ्ग।
[ १०४ ]
[ १२० ]

रजनीचर मत्तगयंद-घटा विघटै, मृगराज के साज लरै।
झपटै, भट कोटि माही पटकै, गरजै रघुवीर की सौंह करै॥
तुलसी उत हाँक दसानन देत, अचेत भे बीर, को धीर धरै?।
विरुझो रन मारुत को बिरुदेंत, जो कालहु काल सो बूझि परै॥

अर्थ—(हनुमान्) राक्षसों की मस्त-हाथी-रूपी घटा को नाश कर रहे थे और शेर की तरह लड़ते थे। झपटते थे और करोड़ों वीर राक्षसों को पृथ्वी पर दे मारते थे। रामचन्द्र की सौगन्द खा-खाकर गरजते थे। तुलसीदास कहते हैं कि दूसरी ओर से रावण बढ़ाता था। (यह देख) वीरों को होश न रहा। कोई किसी को न सँभालता था। विरुदैत (विरुदवाले) हनुमानजी रण में विरुझे अर्थात् बिगड़े और काल को भी काल से दिखाई देने लगे।

[१२१]

जे रजनीचर बीर बिसाल कराल बिलोकत काल न खाये।
ते रनरौर कपीस-किसोर, बड़े बरजोर परे फंग* पाये॥
लूम लपेटि अकास निहारिकै, हाँकि हठी हनुमान चलाये।
सूखि गे गात चले नभ जात, परे भ्रम-बात न भूतल आये॥

अर्थ—जो राक्षस बड़े बली देखने में कराल (डरावने) थे, जिनके देखते ही मानो काल ग्रस लेता था या जिनको काल भी न खाता था, अथवा जिनको काल भी विकराल देखता था कि खा न जाय, उन लड़ाके तेज बलवानों को हनुमान ने फँसाया अथवा अपने बस में पड़ा पाया। उनको पूँछ में लपेटकर आकाश की ओर देखकर हठी हनुमान ने फेंक दिया। उनके बदन सूख गये, वह आकाश की और चले गये और हवा के चक्कर में फँसकर फिर पृथ्वी पर न आये।

शब्दार्थ—फंग= फंदा।

[ १२२ ]

जो दससीस महीधर-ईस को बीस भुज
लोकप दिग्गज दानव देव सवै सहमैं


* पाठान्तर—फल। [ १०५ ]कवितावली बीर बड़ो विरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पवारो। सो हनुमान हनी मुठिका, गिरिगो गिरिराज ज्यों गाज को मारो ॥ अर्थ-जिस रावण ने कैलास पर्वत को बीस भुजाओं पर रखकर खेल समझा, जिसका भारी साहस सुनकर लोकपाल और दिकपाल ; देव और दानव सबही सहम (डर ) आते थे, जो बड़ा बाँका वीर और बली था, जिसका नाम अब तक जग गाता है, सो हनुमान की मुष्टिका मारने से ऐसा गिर गया जैसे पर्वतों का राजा बन का मारा हुआ। शब्दार्थ-चारो = लम्बो कहानी ।। दुर्गम दुर्ग पहार ते भारे प्रचंड महा भुजदंड बने हैं। लक्ख में पक्खर तिक्खन तेज जे सूर समाज में गाज गने हैं। ते विरुदैत बली रन-बाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं। नाम लै राम देखावत बंधु को, धूमत घायल घाय घने हैं । अर्थ-पहाडी किलों से भी ज़्यादह कठिन अथवा किलों से कठिन और पहाड़ों से भी भारी जिसकी भुजाएं हैं, जो लाखों को कवच-स्वरूप हैं, जिनका तेज तीक्ष्ण है, शुर-समाज जिन्हें गाज (व) समान जानता है, उन बाँके वीरों को हठो हनुमान ने भगा-भगाकर मारा । नाम लेकर श्रीरामजी लक्ष्मणजी को दिखाते हैं कि हनुमान के मारे बहुत से घाय (घाव ) लगे हुए घायल घूम रहे हैं। घनाक्षरी [ १२४ ] हाथिन से हाथी मारे, घोरे घोरे से सँहारे, रथनि सो.. रथ, बिदरनि बलवान की । चलो चोट चरन चकोट चाहे, नी फौजें भहरानी जातुधान की ॥ इक सराहना करत राम,

की सराहै रीति साहेब सुजान की । [ १०६ ]

लाँबी लम लसत लपेटि पटकत भट,
देखौ देखौ लखन! लरनि हनुमान की॥

अर्थ―हाथियों से हाथी और घोड़ों से घोड़े, रथों से रथ लड़ाकर नष्ट किये, बलवान् (हनुमान्) की ऐसी विदरन (नाश करने की क्रिया) है। तेज चपेटों की चोट से और लातों के प्रहार से घबड़ाई हुई राक्षसों की फ़ौजें भागने लगीं। रामजी बारम्बार अपने सेवक की सराहना करते हैं। तुलसीदास अपने सुजान साहब (रामचन्द्रजी) की रीति की सराहना करते हैं। लम्बी पूँछ से लपेट-लपेट कर वीरों को पटक रहा है, हे लक्ष्मण! हनुमान की लड़ाई को देखा।

[ १२५ ]

दबकि दबारे एक बारिधि में बोरे, एक
मगन मही में, एक गगन उड़ात हैं।
पकरि पछारे कर, चरन उखारे एक,
चीरि फारि डारे, एक मींजि मारे लात हैं॥
तुलसी लखत राम, रावन बिबुध, विधि,
चक्रपानि, चंडोपति, चंडिका सिहात हैं।
बड़े बड़े बानइत, बीर बलवान बड़े,
जातुधान जूथप निपाते बातजात हैं॥

अर्थ―झपटकर किसी को दाब देता है, किसी को समुद्र में डुबो देता है, एक पृथ्वी ही पर पड़ा है, दूसरा आसमान में उड़ रहा है। किसी को हाथ पकड़कर दे मारता है। किसी का पैर उखाड़ डालता है। किसी का कपड़ा फाड़ डालता है अथवा किसी को चीड़ फाड़ डालता है। किसी के कसकर लात मारता है वा लात से मींज डालता है। तुलसीदास कहते हैं कि (हनुमान् की) लक्ष्मण, राम, रावण, देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चण्डी सबके सब सराहना करते हैं। बड़े-बड़े बाँके बानेवाले बलवान् वीर राक्षसों के सेनापतियों को हनुमान् ने मार डाला

[ १२६ ]

प्रबल प्रचंड बरिवंड बाहुदंड बीर,
धाये जातुधान हनुमान लियो घेरि कें

[ १०७ ]


महाबल-पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट
जहाँ तहाँ पटके लँगृर फेरि फेरि कै॥
मारे लात, तोरे गात, भागे जात, हाहा खात,
‘कहैं तुलसीस राखि राम की सौं’ टेरि कै।
ठहर ठहर परे कहरि कहरि उठैं,
हहरि हहरि हर सिद्ध हँसे हेरि कै॥

अर्थ—बड़े तेजवाले बली (बलवान्ट्) भुजावाले वीरों ने (राक्षसों ने) हनुमान् को दौड़ कर घेर लिया। बड़े बल के ढेर हनुमान् ने भुजाओं से और पूँँछ घुमा-घुमाकर योधाओं को जहाँ-तहाँ पटक दिया और वह शेर की तरह गरजने लगा। लात मारता था, देह तोड़ डालता था जिससे राक्षस हाहा खाते हुए भागे जाते थे और पुकार-पुकार कर कहते थे कि हे तुलसीस, (हनुमान्) तुझे राम की क़सम है, हमें रखले। ठहर-ठहर की पुकार पड़ी थी परन्तु कहर सा पड़ गया था अथवा ठौर-ठौर पर (कहीं कहीं) कराह उठते थे। हर और सिद्ध लोग देख-देखकर हहर-हहर अर्थात् ठट्ठा मारकर हँसते थे।

[१२७]


जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर,
जाकी आँच अजहूँ* लसत लंक लाहसी।
सेई हनुमान बलवान बाँके बानइत,
जोहि जातुधान-सेना चले लेत थाहसी॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय,
कुम्भऊकरन आइ रह्यो पाइ आहसी।
देखे गजराज मृगराज ज्यों गरजि धायो
बीर रघुबीर को समीर-सूनु साहसी॥

अर्थ—जिसकी बाँकी वीरता को सुनकर शूर सहम जाते हैं, जिसकी आँच से जली आज भी लंका को लाह सी लगी दिखाई पड़ती है, वही बलवान् बाँके हनुमान् राक्षसों की सेना की थाह सी लेते हुए फिर रहे हैं। अकम्पन काँप


*पाठान्तर—अबहूँ। [ १०८ ] रहा है। अतिकाय का शरीर सूख गया। कुम्भकर्ण भी आकर आह सी करके रह गया। गजराज को देख जैसे शेर गरजकर दौड़ता है वैसे ही कुम्भकर्ण को देखकर रामचन्द्र का साहसी वीर हनुमान् दौड़ा।

झूलना

[ १२८ ]

मत्तभट-मुकुट-दसकंध-साहस-सइल-
सृंग-बिद्दरनि जनु बज्रटाँकी।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठ
सेष संकुचित, संकित पिनाकी॥
चलित महि मेरु, उच्छलित सायर*[१] सकल,
बिकल बिधि बधिर दिसि विदिसि झाँकी।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्त्रवत
सुनत हनुमान की हाँक बाँकी॥

अर्थ―मस्त योधाओं के मुकुट, रावण, के साहस रूपो पहाड़ की चोटी को तोड़ने के लिए हनुमान् ऐसे हैं जैसे वज्र की टाँकी (कुल्हाड़ी)। उनकी ललकार सुनकर पृथ्वी को दाँतों से दबाकर दिग्गज चिंघाड़ने लगे, कमठ और शेष सकुच गये और महादेव भी शंका करने लगे। पृथ्वी के मेरु हिलने लगे, सब समुद्र उछलने लगे। ब्रह्मा बहिरे होकर चारों ओर झाँकने लगे। राक्षसों के घर औरतों के गर्भपात हो गये जैसे ही बाँके हनुमान् की हाँक (आवाज़) अथवा उनकी बाँकी ललकार उन्होंने सुनी।

[ १२९ ]

कौन की हाँक पर चौंक चंडीस बिधि,
चंडकर थकित फिरि तुरँग†[२] हाँके।
कौन के तेज बलसीम भट भीम से,
भीमता निरखि कर नयन ढाँके॥


[ १०९ ]

दास तुलसीस के बिरुद बरनत बिदुष,
बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत
किन कहाँ हनुमान से बीर बाँके॥

अर्थ―किसकी आवाज़ पर चण्डीश (शिव) विधि (ब्रह्मा) चौंक पड़े थे और चण्डकर (सूर्य) ने थककर फिर घोड़ों को चलाया था? किसके बल को देखकर भीम से योधाओं ने आँखें बन्द कर ली थीं? वह कौन तुलसीदास के प्रभु (रामचन्द्र) का सेवक है जिसका विरुद (यश) पण्डित लोग वर्णन करते हैं? किस विरद रखने- वाले वीर की बड़े बड़े वैरियों पर धाँक (रौब) है? पृथ्वी, आकाश और पाताल में हनुमान् से वीर कहाँ हैं? कोई कहता क्यों नहीं।

[ १३० ]

जातुधानावली-मत्त-कुंजर-घटा निरखि
मृगराज* जनु गिरि तें टूट्यौ।
विकट चटकन चपट, चरन गहि पटक महि,
निघटि गये सुभट, सत सब को छूट्यौ॥
दास तुलसी परत धरनि, थरकत, झुकत
हाट सी उठति जम्बुकनि लूट्यौ।
धीर रघुवीर को बीर रन-बाँकुरो।
हाँकि हनुमान कुलि कटक कूट्यौ॥

अर्थ―राक्षसों के समूह की मस्त-हाथी-रूपी घटा सी (आती) देखकर हनुमान् शेर की तरह पर्वत से (उसपर) झपटा। बेढब चपेटों की चोट से और पैर पकड़-पकड़कर ज़मीन पर पटक देने से सुभट (योधा) निघटि गये (निःशेष हो गए अथवा बेदिल हो गये, हिम्मत हार गये)। और सबका सत्त छूट गया। तुलसीदास कहते हैं कि (हनुमान् के डर से योधा) ज़मीन पर गिर पड़ते थे अथवा (हनुमान् के मारे) पृथ्वी पर गिर रहे थे और धड़कते थे अथवा वीर गिर रहे थे और उनके गिरने से पृथ्वी धड़क (हिल) रही थी। ( हनुमान् के) झुकत


  • पाठान्तर―गजराज। [ ११० ]

कूदत कबंध के कदंव बबली करत,
धावत दिखावत है लाघौ राघौ बान के।
तुलसी महेस, विक्षि, लोकपाल, देवगन
देखत बिमान चढ़े कौतुक मसान के॥

अर्थ―जिनके अंग अंग दले हुए हैं, जो किंशुक (पलास) के फूल कैसे लाल लाल खिले हैं वह रावण के लाखों योधा लक्ष्मण के मारे हुए हैं। जो मारे और पछाड़े हुए हैं, जिनकी भुजाएँ उखड़ी हुई हैं और जो टुकड़े-टुकड़े करके नष्ट किये हुए हैं वे हनुमान् के विदारे हुए हैं। जो धड़ों के समूह उछल रहे हैं, बम्ब सी कर रहे हैं, वे रामचन्द्र जी के बाणों की तेज़ी को दिखा रहे हैं अर्थात् श्री रामचंद्र जी के मारे हुए हैं। तुलसीदास कहते हैं कि ब्रह्मा, लोकपाल, महादेव, देवता लोग विमानों पर चढ़े श्मशान के तमाशे को (लड़ाई में) देख रहे हैं।

[ १३३ ]

लोथिन से लोहू के प्रवाह चले जहाँ तहाँ,
मानहुँ गिरिल गेरु-झरना झरत हैं।
सोनित सरित* धोर, कुंजर करारे भारे,
कूल ते समूल बाजि-बिटप परत हैं॥
सुभट सरीर नीर चारी भारी भारी तहाँ,
सूरनि उछाह, कूर कादर डरत हैं।
फेकरि फेकरि फेरु फारि फारि पेट खात,
काक कंक-वालक† कोलाहल करत हैं॥

अर्थ―लोथों से जहाँ तहाँ लोहू की नदियाँ बह चलीं, मानों पहाड़ों से गेरू के झरना झर रहे हैं। इस लोहू की घोर नदी के भारी-भारी हाथी करारे हैं, और घोड़ा मानो किनारे के पेड़ हैं जो समूत उखड़कर गिर रहे हैं। बड़े बड़े योधाओं के शरीर मानों भारी भारी जलजन्तु हैं। शूरों के मन में उत्साह है और कायर डर रहे हैं। फेंक (सियार) पेट फाड़-फाड़ कर खा रहे हैं, कौआ और कंक (गिद्ध) के बालक शोर मचा रहे हैं।



*पाठान्तर―सहित, भरत।


†पाठान्तर―बकुल।
[ १११ ]

[१३४]



ओझरी की झोरी काँधे, आँतान की सेल्ही* बाँधे,
मुँँड़† के कमंडलु, खपर किये कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड वनी तापसी सी
तीर-तीर बैठीं सो समर सरि खोरि कै॥
सोनित सों सानि सानि गूदा‡ खात सतुआ से,
प्रेत एक पियल बहोरि घोरि घोरि कैं।
तुलसी बैताल भूत साथ लिये भूतनाथ
हेरि हेरि हँसत हैं हाथ जोरि जोरि कै॥

अर्थ— आँतों की थैली की झोरी कन्धे पर डाले, आँतों की सेल्ही बाँधे, सिरों का कमण्डल लिये, खोदकर खोपड़ी का बना खप्पर लिये योगिनियाँ इकट्ठी होकर, झुण्ड बाँधकर, तपसी की भाँति उस युद्धरूपी नदी में नहाकर किनारे किनारे बैठी हैं। गूदे को लोहू से सान सानकर सतुआ की तरह खाती हैं। कोई-कोई प्रेत (झुटंग) (एक प्रकार को योगिनी) घोर-घोर कर पीती है। तुलसीदास कहते हैं कि भूतनाथ (भैरव) बैताल और भूतों को साथ लिये हाथ मिल्वा-मिलाकर अथवा रामचन्द्र की ओर देख-देखकर हाथ जोड़ जोड़कर हँसते थे।

सवैया
[ १३५]

राम सरासन तें चले तीर, रहे न सरीर, हड़ावरि फूटी।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खप्पर जोगिनि जूटी॥
सोनित छींटि-छटानि-जटे तुलसी प्रभु सोहैं, महाछवि छूटी।
मानौ मरक्कत सैल बिसाल में फैलि चली बर वीर-बहूटी॥



*पाठान्तर—थैली।
†पाठान्तर—सुंंड।
‡पाठान्तर—गुदा। [ ११२ ]अर्थ—श्रीराम के धनुष से तीर चले जो हाड़ों में से निकल-निकल गये, शरीर में न रहे। धीर रावण ने पीर को कुछ न गिना। रुधिर देखकर योगिनियाँ खप्पर ले लेकर इकट्ठा हो गई। रुधिर के छोंटे प्रभु के खूबसूरत बदन पर पड़े हुए महाछबि दे रहे थे, मानो मरकत मणि के पर्वत पर चारों ओर से अच्छी बीरबहूटियाँ फैल रही हैं।

घनाक्षरी
[१३६]


मानी मेघनाद सों प्रचारि भिरे भारी भट,
आपने अपने पुरुषारथ न ढील की।
घायल लषनलाल लखि बिलखाने राम,
भई आस सिथिल जगन्निवास दील* की॥
भाई को न मोह, छोह सीय को न, तुलसीस
कहैं "मैं बिभीषन की कछु न सबील की।"
लाज बाँह बोले की, नेवाजे की सँभार सार,
साहेब न राम से, बलैया लेउँ सील की॥

अर्थ— मानी मेघनाद से बड़े-बड़े वीरों को साथ लेकर (लक्ष्मण भिड़ें) अथवा ललकारके बड़े-बड़े वीर मेघनाद से भिड़ गये। और किसी ने भी अपने-अपने बल में कमी नहीं की। लक्ष्मणजी को घायल सुनकर रामचन्द्र को शोक हुआ और उनके डील (शरीर) वा दील (दिल) को आशा जाती रही। भाई का कुछ मोह न था, न सीता का शोच। वह यही कहते थे कि मैंने विभीषण का कुछ प्रबंध न किया। जो वचन दिया है और विभीषण की बाँह पकड़ो है उसी का शोच था— अपने विरद की सँभाल में पड़े थे। राम से कहाँ साहब हैं, उनके शील की बलाय लूँ।


नोट—कहीं कहीं इस कवित्त को सवैया नं० १३७ अर्थात् कानन वास इत्यादि के पीछे लिखा है। और उसको १३५ के बाद।

* पाठान्तर— डील की।

†पाठान्सर— भील की। [ ११३ ]

सवैया

[ १३७ ]

कानन बास, दसानन सो रिपु, आनन-श्री ससि जीति लियो है।
बालि महाबलसालि दल्यो, कपि पालि, बिभीषन भूप किया है॥
तीय हरी, रन बँधु पर्यो, पै भर्यो सरनागत-सोच हियो है।
चाँह पगार उदार कृपालु, कहाँ रघुबीर सो वीर बियो है?॥

अर्थ―

वन के रहते हुए और रावण का सा वैरी होते भी जिसके मुख की श्री (कान्ति) ने चन्द्रमा को भी जीत लिया है; महाबली बालि को मारकर सुग्रीव को और विभीषण को जिसने राजा किया है; स्त्री हरी गई, भाई भी मूर्च्छित हुआ परन्तु शरणागत का सोच जिस के मन में भरा है; ऐसा रामचन्द्र सा बाँह की आड़ देनेवाला, दया करनेवाला, उदार वीर पृथ्वी पर और कौन उत्पन्न हुआ
अथवा दूसरा है?

[ १३८ ]

लीन्हो उखारि पहार बिसाल, चल्यो तेहि* काल, बिलंब न लायो।
मारुतनंदन मारुत को, मन को, खगराज को बेग लजायो॥
तीखी† तुरा तुलसी कहतो, पै हिये उपमा को समाउ न आयो।
मानौ प्रतच्छा‡ परब्बत की§ नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायो॥

अर्थ―हनुमान् ने बड़े पर्वत को उखाड़ लिया और उसी क्षण चल दिया, कुछ देर न की। हनुमान् ने (उस समय) वायु का, मन का और गरुड़ का भी वेग जीत लिया। तुलसीदास कहते हैं कि वे उस समय की अच्छी शीघ्रता की उपमा कहते परन्तु उपमा कोई भी ध्यान में न आई, मानो पहाड़ों की प्रत्यक्ष लीक सी आकाश में दिखाई पड़ी, हनुमान् ऐसे वेग दौड़े।



*पाठान्तर―त्यहि।
†पाठान्तर―तीखो।
‡पाठान्तर―प्रतक्षण पर्वत की नम।


§कीन्ह भलीक।
[ ११४ ]

घनाक्षरी
[१३६]


चल्यो हनुमान सुनि जातुधान कालनेमि
पठयो सो मुनि भयो, पायो फल छलि के।
सहसा उखारो है पहार बहु जोजन को,
रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै॥
बेग बल साहस सराहत कृपानिधान,
भरत की कुसल अचल ल्यायो चलि कै।
हाथ हरिनाथ के बिकाने रघुनाथ जनु*
सील सिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै॥

अर्थ—हनुमान् चला (संजीवनी लेकर) यह ख़बर सुनकर रावण ने कालनेमि को भेजा। वह (कपटी) मुनि बन गया। परन्तु उसने छल करने का फल पाया। सहज ही बहुत योजन का पहाड़ उखाड़कर सब रखवालों और योधाओं को हनुमान ने मार डाला (नष्ट कर दिया)। हनुमान् के वेग, बल और साहस की प्रशंसा श्री रामचन्द्रजी करने लगे कि भरत की कुशल को और पहाड़ को जाकर ले आये। शील के समुद्र रामजी मानो हनुमान् के हाथ बिक गये और उन्होंने भले प्रकार हनुमान् का बहुत कुछ भला माना।

[१४०]


बापु दियो कानन भो आनन सुभानन सो,
बैरि भो दसानन सो तीय को हरन भो।
बालि बलसालि दलि, पालि कपिराज को,
विभीषन नेवाजि†, सेत सागर तरन भो॥
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि बिधि हारे हिये,
घायल लखन बोर बानर बरन भो।



*पाठान्तर—जन।
†पाठान्तर—निवाजि। [ ११५ ]ऐसे ताक में निलो रूई में, सकहो न सुहाली र वाहिन्या । अर्थ-आप से कालवासादिक परन्तु मुला मुलाना ( "अन्न साता रहा, यद्यपि रावण सा वैरी हुमा और को हरी गई हलो बालि के बरता को ना करके, सुग्रीव की रक्षा करके और विभीषण शर कमा सरको सेतु (पुल) द्वारा मागन कोजार किया। बड़े घोर संग्राम को देखकर शिव और ब्रह्मा मन में हारे और वीर लक्ष्मगा घायल होकर बन्दरों के से (रुधिर से सनकर लाल) वर्णवाला हो गया। ऐसे शोक में तीनों लोकों को शोक-रहित करके (लक्ष्मण को जिलाकर ) पल ही में सवक और तुलसी- दास के साहब (मालिक रामचंद्र ) के शरम (हनुमान) गये ! अथवा सम त्रिलोक के ही (हृदय) को पल में शोक से रहित करके रामचन्द्र सरन ( रणसहित) हुए अर्थात् स्वयं लड़ने चले । अथवा रामचंद्रजी रावण को मारकर सबको शरण देनेवाले हुए । सवैया [ १४१ ] कुंभकरन्न हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधर, कंधर तोरे । पूषन-बस-विभूषन-पूषन तेज प्रताप गरे अरि-गोरे ॥ देव निसान बजावत गावत, सावत गोग, मन भावत भो रे! नाचत बानर भालु सबै तुलसी कहि “हारे! हहा भइया हो रे॥ अर्थ-रामचन्द्रजी ने कुम्भकर्ण को लड़ाई में मारा और रावण के सिर तोड- वोड़कर मारा। पूषण (सूर्य) वंश के अलंकार श्रीराम के सूर्य कैसे प्रताप के तेज के प्रागे परिरूपी ओले गल गये । देवता लोग निशान बजाते गाते हैं कि हमारा सामन्तपन गया ( हम स्वतन्त्र हुए ) अथवा धावत गो ( बन्दीखाने ) से छूटकर भागे और कहने लगे कि मन भावत हुआ (मन का चाहा हो गया)। बन्दर और मालु सभी नाचते थे। तुलसीदास कहते हैं कि सब 'वाह भाई !' कहते-कहते हार गये अर्थात् थक गये अथवा एक दूसरे को "हो रे हो रे" कहकर बुलाय और हाहा-हाहा हँसकर माहा रे आहा रे कह-कहकर सब वानर भालु नाचने लगे।

    • पाठान्तर-त्रिका

पाठान्तर-धावत गो।

  • पाठान्तर--हहा, भय हारे। [ ११६ ]
    घनाक्षरी

[१४२]


मारे रन रातिचर, रावन सकुल दल,
अनुकूला देव मुनि फूल बरषतु हैं।
नाग नर किन्नर विरंचि हरि हर हेरि,
पुलक सरीर, हिये हेतु, हरषतु हैं॥
बाम ओर जानकी कृपानिधान के बिराजैं,
देखत बिषाद मिटे मोद करषतु हैं।
आयसु भो लोकनि सिधारे लोकपाल सबै,
तुलसी निहाल कै कै दिये सरषतु हैं॥

अर्थ—रण में राक्षस मारे, और रावण को कुल समेत और सेना सहित नष्ट किया। देवता लोग अनुकूल होकर फूल बरसाते हैं। नाग, मनुष्य, किन्नर, ब्रह्मा, महादेव, विष्णु सब देखकर पुलकायमान शरीर होकर मन में कारण सोचकर हँसते हैं। सीताजी कृपानिधान रामचन्द्र के बाई ओर बिराज रही हैं जिसके देखते ही दुःख नाश होकर हर्ष उमगने लगता है। लोकपालों को आज्ञा मिली और सब अपने-अपने लोक को गये। तुलसीदास कहते हैं कि सबको निहाल करके सर्टीफ़िकट राम ने दिये।


इति लंकाकाण्ड


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  1. * पाठान्तर―सागर।
  2. † पाठान्तर―तुरग।