कवितावली/सुन्दरकाण्ड

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[ ६० ]
सुन्दरकाण्ड
घनाक्षरी
[५३]


बासव बरुन बिधि बन तें सुहावनो,
दसानन को कानन बसंत को सिँगार सो।
समय पुराने पात परत डरत बात,
पालत, ललात रतिमार को बिहार सो॥
देखे बर बापिका तड़ाग बाग को बनाव,
राग बस भो बिरागी पवनकुमार सो।
सीय की दसा बिलोकि विटप असोक तर,
तुलसी बिलोक्यो सो तिलोक सोक-सारु सो॥

अर्थ— इन्द्र, वरुण, ब्रह्मा सबके वन से अधिकतर सुन्दर रावण का वन है, मानो वसन्त का श्रृँगार यही है। समय आ जाने पर भी वायु पुराने पत्ते गिराने से डरता है कि कहीं शोर होने से वा पतझाड़ हो जाने से रावण क्रोध न करे इसलिए वहाँ सदा वसन्त रहता है, अथवा समय पर ही पुराने पत्ते गिरते हैं और वायु सदा रावण से डरता है इसलिए हरे पत्ते कभी नहीं गिराता। उस वन का पालन-पोषण ऐसा होता है जैसे रति और कामदेव के बाग़ का। (उस वन में) सुन्दर बावली, बाग़, तालाब की बनावट को देखकर सहज वैरागी हनुमान का चित्त भी रागवश हो गया। परन्तु अशोक के पेड़ के नीचे सीताजी की दशा को देखकर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को तीनों लोकों के शोक के सार सा देखा। अथवा हनुमानजी ने अशोक को तीनों लोक के शोक के सार सा देखा अथवा अशोक के पेड़ के नीचे सीता की दशा देखकर बाग़ को तीनों लोक के शोक का सार देखा।

शब्दार्थ— बांसव= इन्द्र। रतिमार= रति+कामदेव। तिलोक= ति+लोक= तीन लोक। ललात= प्यार करना। विटप= वृक्ष [ ६१ ]
[५४]


माली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट,
नीके सब काल सींचे सुधासार नीर को*।
मेघनाद ते दुलारो प्राण ते पियारो बाग,
अति अनुराग जिय यातुधान धीर को*॥
तुलसी सो जानि सुनि, सीय को दरस पाइ,
पैठो बाटिका बजाइ बल रघुबीर को*।
विद्यमान देखत दसानन को कानन सो,
तहस-नहस कियो साहसी समीर को*॥

अर्थ— उस बाग के माली (पानी देनेवाले) मेघमाल (बादल की माला थीं) और रक्षक बड़े बड़े विकराल योधा थे। बाग सब काल में अमृत के से जल से सींचा जाता था। रावण को वह बाग मेघनाद (पुत्र) और अपने प्राणों से भी अधिक प्यारा था। उस पर रावण की बड़ी प्रीति थी। हे तुलसी! इस बात को सुनकर और जानकर भी सीता का दर्शन करने के पश्चात् रामचन्द्रजी के बल पर (हनुमान) उस बाग में ताल ठोककर (डङ्का बजाकर) घुस गया (और) रावण की मौजूदगी में उसके देखते वन को साहसी वायुपुत्र ने तहस-नहस (नष्ट) कर डाला।

[५५]


बसन बटोरि बोरि बोरि तेल तमीचर,
खारि खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डरात ढीलो गात कै के,
लात के अघात सहै जी में कहै 'कूर हैं'॥
बाल किलकारी कै कै तारी दै दै गारी देत,
पाछे लागे बाजत निसान ढोल तूर हैं।
'बालधी बढ़न लागी, ठौर ठौर दीन्हीं आगि,
बिंध की दवारि कैंधों कोटि सत सूर हैं॥


  • पाठान्तर—के। [ ६२ ]अर्थ―बहुत से लत्ते इकट्ठा करके और तेल में बोर-बोर (डुबा-डुबाकर) राक्षस गली-गली अथवा घर-घर से दौड़े आकर पूँछ में बाँधते हैं। वैसा ही बन्दर भी बड़ा कौतुकी (तमाशा करनेवाला) है। वह (मानो) डरकर ढीला शरीर करता है और लात की मार सहता है और जी में कहता है कि मूर्ख हैं। लड़के खुशी से शोर मचाते हैं और ताली दे देकर गाली देते हैं और पीछे ढोल, निशान और तुरई

बजाते जाते हैं। पूँछ बढ़ने लगी, जगह-जगह पर आग लगा दी गई, मानो विन्ध्याचल की दवाग्नि (वन की आग) है या कराड़ी सूर्य निकल आये हैं।

शब्दार्थ―खोरि = घर, गली। लँगूर = पूँछ। तर = तुरई। दवारि = दावानल। सूर = सूर्य्य ।

[ ५६ ]

लाइ लाइ आगि भागे बाल-जाल जहाँ तहाँ,
लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरु तें बिसाल भो।
कौतुकी कपीस कूदि कनक कँगूरा चढ़ि,
रावन भवन जाइ ठाढ़ो तेहि काल भो॥
तुलसी बिराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,
देखे हहरात भट, काल तें कराल भो।
तेज को निधान मानो कोटिक कृसानु भानु,
नख विकराल, मुख तैसो रिसि लाल भो॥

अर्थ―लड़कों के झुण्ड आग लगा-लगाकर जहाँ-तहाँ भाग गये। हनुमान थोड़ी देर के लिए झुककर छोटा हो गया (और फिर) मेरु पर्वत से भी ऊँचा हो गया। बन्दरों का खिलाड़ी राजा कूदकर सोने के कँगूरे पर चढ़ गया और रावण के महल पर उसी समय जा खड़ा हुआ। हे तुलसी! बन्दर उस समय पूँछ बड़ी लम्बी पसारकर आकाश में ठहरा। उस समय उसे देखकर योधा धबड़ाने लगे। वह काल से भी कठोर, तेज का घर सा उस समय लगता था, मानो करोड़ों अग्नि और सूर्य्य हैं। उसके नख विकराल थे और वैसा ही क्रोध से मुँह लाल था।

शब्दार्थ―निबुर्कि = मुककर। [ ६३ ]
[५७]


बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानों,
लंक लीलिवे को काल रसना पसारी है।
कैधौं व्योमवीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उधारी है॥
‘तुलसी’ सुरेस-चाप, कैधौं दामिनी-कलाप,
कैधों चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है।
देखैं जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
“कानन उजारयो अब नगर प्रजारी है”॥

अर्थ—पूँँछ से बड़ी विकराल आग की ज्वालाएँ निकल रही हैं, मानो लङ्का लील जाने को काल ने अपनी जीभ निकाली है, या मानो आकाश-मार्ग (आकाशगङ्गा) में बहुत से पुच्छल तारे भरे हैं, या वीररसधारी वीरों ने तलवार म्यान से बाहर कर रक्खी है। हे तुलसी! (यह जान पड़ता है मानो) इन्द्र का धनुष है, वा विजली चमकती है, या मेरु से आग की धार बह निकली है। राक्षस देख रहे हैं और राक्षसियाँ घबराकर कह रही हैं कि तब बाग ही उजाड़ा था अब लंका जला दी।

शब्दार्थ—बालधी= पूँँछ। व्योम= आकाश। बीथिका= रास्ता, गली। धूम-केतु= पुच्छल तारे।

[५८]


जहाँ तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,
“जरत निकेत धाओ धाओ लागि आगि रे।
कहाँ तात, मात, भ्रात, भगिनी, भामिनी, भाभी,
ढोटे छोटे छोहरा अभागे भारे भागि रे॥
हाथी छोरो, घोरा छोरो, महिष वृषभ छोरो,
छेरी छोरो, सोवै सो जगाओ जागि जागि रे”।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं,
“बार बार कह्यो पिय कपि सों न लागि रे”॥

[ ६४ ]अर्थ—जिस-जिस जगह हनुमान् जाके गरजते हैं वहीं-वहीं मकान में आग लग जाती है और लोग चिल्लाते हैं अथवा जगह-जगह लोग आग लगी देखकर रोते और चिल्लाते हैं कि भागो-भागो, आग लगी है, घर जल रहा है। बाप, माँ, भाई, बहन, स्त्री, भाभी, बेटा छोटा लड़का कहाँ है। अरे अभागो! मूर्ख! भागो! हाथी खोल लाओ, घोड़ा निकालो, बैल भैंस खोलो, बकरी लाओ और जो सोता हो उसे जगा दो। अरे! जागा-जागो। हे तुलसी! घबराई हुई मंदोदरी यह (कौतुक) देखकर कहती थी कि पिय (रावण) से पहिले ही बार-बार कहा था कि बन्दर से मत बोलो।

शब्दार्थ—बुबुक= भभक। बुबुकारी= चिल्लाना। निकेत= घर। भामिनी= स्त्री। छोहरा= लड़का। ढोटा= बेटा। महिष= भैंस बृषभ= बैल।

[५९]


देखि ज्वाल*जाल, हाहाकार दसकंध सुनि,
कह्यो ‘धरो धीर’ धाये बीर बलवान हैं।
लिये सूल, सेल, पास, परिघ, प्रचंड दंड,
भाजन समीर†, धीर धरे धनुबान हैं॥
तुलसी समिध सौंज‡ लंक-जज्ञकुंड लखि,
जातुधान पुंगीफल, जब, तिल, धान हैं।
स्त्रुवा सो लंगूल बलमूल प्रतिकूल हवि,
स्वाहा महा हाँकि हाँकि हुने हनुमान हैं॥

अर्थ—आग की लौ को देखकर और हाहाकार को सुनकर रावण ने कहा कि बन्दर को पकड़ो अथवा धैर्य धरो। (यह सुनकर) बलवान् शूर-वीर चले। वायु के से धीर राक्षस शूल, शेल (बरछी), पाश (फाँसी), परिघ, बड़े लट्ट, और धनुष-बाण लिये हैं। हे तुलसी! यह लङ्का रूपो यज्ञकुण्ड, सामग्री रूपी समिधा और राक्षस रूपी सुपारी, जौ, तिल और धान को देखकर, पूँछ रूपी स्त्रुवा से बली वैरी रूपी हवि को हाँक-रूपी स्वाहा कह-कहकर हनुमान ने राक्षसों को आग में हवन कर दिया।



*पाठांतर—ज्वाला।
†पाठांतर—सनीर।
‡पाठांतर—सौंजी।
[ ६५ ]शब्दार्थ—समिध= समिधा, यज्ञ करने की लकड़ी। पूँँगीफल= सुपारी। जव= जौ। सौंज= सामग्री। लंगूर= दुम। प्रतिकूल= वैरी। हुने= आहुति दिये।

[ ६० ]


गाज्यो कपि गाज ज्यों विराज्यो ज्वाल जाल जुत,
भाजे* बीर धीर, अकुलाइ उठ्यो रावनो।
‘धाओ धाओ धरो’ सुनि धाये जातुधान धारि,
बारिधारा उलदैं जलद ज्यों नसावनो†॥
लपट झपट झहराने, हहराने वात,
भहराने भट, परयो प्रबल परावनो।
ढकनि‡ ढकेलि पेलि सचिव चले लै ठेलि,
“नाथ न चलैंगो बल अनल भयावनो॥”

अर्थ—वज्र के समान हनुमान गरजे और अग्नि की ज्वाला सहित अति शोभायमान हुए। बड़े-बड़े धीर-वीर भागने लगे और रावण भी घबरा गया। “दौड़ो! दौड़ो! पकड़ो।” सुनकर राक्षसों की सेना पानी ले-लेकर दौड़ी, मानो सावन का बादल पानी की धारा उलट रहा है अथवा मानो नसावनो (प्रलयकाल का) मेघ है। आग की लपट बढ़ने लगी, हवा बड़े वेग से चलने लगी, योधा भी घबरा गये और सब लोग भागने लगे। धक्के से ज़बरदस्ती मन्त्री लोग (रावण को) ढकेल ले गये (भगा ले गये) और कहने लगे कि हे नाथ! यहाँ कोई बल नहीं चलेगा, अग्नि बड़ी भयङ्कर है।

शब्दार्थ—गाज्यो= गरजा। गाज = वज्र। ज्वाल-जाल= अग्नि की किरणें। उलदैं= उलचने लगे। झहराने= झुलसे हुए। वात= वायु। ढकनि= ढक्कों से। पेलि= ज़बरदस्ती पकड़कर। अनल= अग्नि। [६१]


बड़ो बिकराल बेष देखि, सुनि सिंहनाद,
उठ्यो§ मेघनाद, सविषाद कहै रावनो।



* पाठान्तर—भाज्यो।
†पाठान्तर—जौन सावतो।
‡पाठान्तर—हकानि=बुलाकर।


§पाठान्तर—डरयो।
[ ६६ ]


बेग जीत्या* मारुत, प्रताप मारतंड कोटि,
कालऊ करालता बड़ाई जीतो बावनो॥
तुलसी सयाने जातुधाने पछिताने मन,
“जाको ऐसा दूत से साहब अबै आवनो”।
काहे को कुशल रोषे राम बाम-देवहू की,
बिषम बली सों बादि बैर को बढ़ावने॥

अर्थ—बड़े भयङ्कर भेष को देखकर और सिंह के से शब्द को सुनकर मेघनाद उठा और रावण भी दुखी होकर कहने (बोलने) लगा। (इसके) वेग ने वायु को जीत लिया और प्रताप ने कराड़ो सूर्य्य जीत लिये, काल की करालता और वामन की बड़ाई जीत ली। हे तुलसी! जो बुद्धिमान् राक्षस थे वह पछताकर कहने लगे कि जिसका ऐसा दूत है उस मालिक का तो अभी आना बाकी है। रामचन्द्र के गुस्सा करने पर महादेव की भी कुशल नहीं है अथवा शिवजी की दी हुई कुशल रामचन्द्र के गुस्सा होने पर कहाँ रहेगी? बड़े बलवान् से वैर करना फ़िज़ूल है।

शब्दार्थ—वादि= व्यर्थ, फ़िजूल।

[६२]


‘पानी पानी पानी’ सब रानी अकुलानी कहैं,
जाति हैं परानी, गति जानि गजचालि है।
बसन बिसारैं, मनि भूषन सँभारत न,
आनन सुखाने कहैं “क्योंहूँ कोऊ पालि है?”॥
तुलसी मँदोवै मींजि† हाथ धुनि माथ कहै,
“काहू कान कियो न मैं कह्यो केतौ कालि है”।
बापुरो विभीषन पुकारि बार बार कह्यो,
“बानर बड़ी बलाइ धने घर घालि है”॥

अर्थ—सब रानियाँ घबराकर पानी-पानी पुकारने लगीं; रानियाँ, जिनकी चाल मंद मंद गज की भाँति थी वह, अब भागने लगीं अथवा गज-चाल गत जानकर (भूलकर)



*पाठान्तर—जितो।
†पाठान्तर—मींजै। [ ६७ ] भागी जाती हैं। वा छूट गये, मणि और भूषण की भी कोई सँभाल नहीं करता है। मुँह सूखे हैं और कहती हैं कि कोई क्योकर रक्षा करेगा। हे तुलसी! मन्दोदरी हाथ मींजती थी और माथा धुनकर कहती थी कि मैंने कल (पिछले दिनों) कितना कहा था उसे उस समय किसी ने न सुना। बेचारा विभीषण बार-बार पुकारकर कहता रहा कि यह बन्दर बड़ी बला है और बहुत से घरों का नाश करेगा।

शब्दार्थ―अकुलानी = धबड़ाई हुई। परानी = भागी। बिसारैं = छोड़ैं। मंदावै = मंदोदरी, रावण की स्त्री। वापुरो = बेचारा। धालि है = नाश करेगा।

[ ६३ ]

कानन उजास्यो तो उजारयो न विगारेउ कछु,
बानर विचारो बाँधि आन्यो हठि हार सों।
निपट निडर देखि काहू ना लख्यो बिसेषि,
दीन्हों न छुड़ाइ कहि कुल के कुठार सों॥
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
साँपनि से खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।
तुलसी मँदोवै रोइ रोइ के बिगोवै आपु,
“बार बार कह्यो मैं पुकारि दाढ़ीजार सों॥

अर्थ―वन को उजाड़ा था तो उजाड़ा ही था, कुछ ऐसा नहीं बिगाड़ा था कि बेचारे बन्दर को मेघनाद हार से जबरदस्ती बाँध लाये। किसी ने ऐसा बड़ा बेडर देखकर भी ख़ासकर उसे न ताका और उस कुल के कुठार (नाशकर्ता, रावण) से कहकर छुड़ान दिया। मेरे लड़के भी छोटे-बड़े सब अनाड़ी हैं जो साँप से खेलते हैं और छुरा की धार को गले में लगाते हैं। हे तुलसी! मन्दोदरी रो-रोकर आप आँसू बहाती है कि मैंने दाढ़ीजार से पुकार-पुकार कहा था (लेकिन उसने न माना)।

शब्दार्थ―हठहार = हठ जिससे हार गया (मेघमाद)। अथवा हठि = हठ करके+हार = जंगल। अनेरे = अनाड़ी।

[ ६४ ]

रानी अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं,
सके ना विलोकि वेष केसरीकुमार को।

[ ६८ ]


मींजि मींजि हाथ धुनैं माथ दशमाथ-तिय,
तुलसी तिलो न भयो बाहिर अगार को॥
सब असबाब डाढ़ो*, मैं न काढ़ो तैं न काढ़ो†,
जिय की परी सँभार‡ सहन भँडार को? ।
खीझति मँदोवै सविषाद देखि मेघनाद,
“बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजार को”॥

अर्थ—रानियाँ सब पुकारती रोती घबड़ाई हुई भागी जाती थीं और हनुमानजी के वेष (रूप) को देख नहीं सकती थीं। हे तुलसी! हाथ मल-मलकर और माथा धुन-धुनकर रावण की स्त्रियाँ कहती थीं कि सामने (घर) का असबाब तिल भर (थोड़ा सा भी) बाहिर न हुआ (निकल न सका)। सब असबाब पड़ा है, न मैंने निकाला, न तूने निकाला। जी की सँभाल पड़ गई, असबाब कौन सँभालता। अथवा वह रानियाँ हाथ मलती थीं जो तिल भर भी (ज़रा भी) अगारी (पहिले) पर्दे से बाहर न हुई थीं अथवा अगार (महल) के बाहर न हुई थीं। मन्दोदरी खिसियाकर दुःख सहित मेघनाद की ओर देखकर कहती थी कि सब कुछ इसी दाढ़ीजार का किया है। अब उसे क्यों नहीं काटता (अर्थात् जैसा बीज बोया है वैसा फल पावेगा) अथवा सब कुछ इसी दाढ़ीजार का बोया काटना पड़ता है।

[ ६५ ]


रावन की रानी जातुधानी विलखानी कहैं,
“हा हा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथ सों।
काहे मेघनाद, काहे काहे रे महोदर! तू
धीरज न देत, लाइ लेत क्यों न हाथ सों?॥
काहे अतिकाय, काहे काहे रे अकंपन!
अभागे तिय त्यागे भोंड़े भागे जात साथ सों?।



* पाठांतर— डाढ।
†पाठांतर—काढे।


‡पाठांतर—सँभारे। [ ६९ ]


तुलसी बढ़ाय वादि सालतें विसाल बाहैं,
याही बल, बालिसो*! विरोध† रघुनाथ सों!”॥

अर्थ—रावण की राक्षसी रानियाँ रो-रोकर कहने लगीं कि हा-हा कोई बीस बाहुवाले और दस माथेवाले रावण से जाकर कहे। क्यों रे मेघनाद और महोदर! तू भी धैर्य्य नहीं बँधाता, अब हाथ क्यों नहीं पकड़ लेता है। क्यों रे अतिकाय और अकम्पन! अरे अभागे! औरतों को छोड़े जाते हो और आप साथ छोड़कर भागे जाते हो? हे तुलसी! वाद बढ़ाकर (फ़िजूल) बड़ो बाहुओं को सालते (नष्ट कराते) हो, अथवा साल सी बड़ी बाहें व्यर्थ बढ़ाई हैं। इसी बल पर मूर्खो! रामचन्द्र से झगड़ा बढ़ाया है।

शब्दार्थ—बिलखानी= राती हुई। लाइ लेत= पकड़ लेता। बालिसा- मूर्खो, छोकड़ो।

[६६]


हाट, बाट, कोट, ओट, अट्टिनि‡, अगार, पौरि,
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हीं अति आगि है।
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू,
ब्याकुल जहाँ सोँ तहाँ लोग§ चले भागि है॥
बालधी फिरावै, बार वार झहरावै, झरैं
बूँँदिया सी, लंक पधिलाइ पाग पागि है।
तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं,
“चित्र हु के कपि सोँ‖ निसाचर न लागिहै”॥

अर्थ—[हनुमानजी ने] बाज़ार में, रास्ते में, कोट में, शहर-पनाह में, अट्टालिकाओं में, महल में, पौरि में और गली-गली में दौड़-दौड़कर बड़ी आग दे दी है। दुखी होकर सब पुकार रहे हैं और कोई किसी की सँभाल नहीं करता। सब लोग जो जहाँ हैं वे वहीं से व्याकुल होकर भागे जा रहे हैं। पूँछ घुमाता है और बार-बार



* पाठांतर—बालि सों।
†पाठांतर—वैर।
‡पाठान्तर—अटनि।
§पाठान्तर—लोक।
‖पाठान्तर—से। [ ७० ]
उसे झाड़ता है। उसमें से बूँँदी सी (चिनगारियाँ) झरती हैं मानो लङ्का को पिघला-पिघलाकर पाग रहा है, अर्थात् लङ्का को पिघला-पिघलाकर मानो चाशनी बना रहा है जिसमें आग की चिनगारी की बूँँदी पाग रहा है। है तुलसी! राक्षसियाँ घबराकर कह रही हैं कि तसवीर के बन्दर की बराबरी भी राक्षस नहीं कर सकेंगे।

[६७]


‘लागि लागि आगि’,भागि भागि चले जहाँ तहाँ,
धीय को न माय, बाप पूत न सँभारहीं।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम धुंध अंध,
कहैं बारे बुढ़े ‘बारि बारि’ बार बारहीं॥
हर हिहिनात भागे जात, घहरात गज
भारी भीर ठेलि पेलि रौँदि खौंदि डारहीं।
नाम लै चिलात, बिललात, अकुलात अति,
“तात तात! तौंसियत, झौंसियत झारहीं”॥

अर्थ—“आग लगी है, आग लगी है” कहते हुए सब लोग जहाँ-तहाँ भाग चले। माँ बेटी को और बाप बेटे को भी नहीं सँभालता है। बाल विखरे और नङ्गे बदन धुएँ की धुन्ध से अन्धे होकर छोटे-बड़े सब बार-बार पानी-पानी पुकार रहे हैं। घोड़े हिन-हिनाते हैं और भागे जाते हैं और हाथी चिंबाड़कर भारी भीड़ को पेलकर रौंदे डालते हैं। लोग नाम लेकर चिल्ला रहे हैं, व्याकुल हो रहे हैं और अति घबड़ा रहे हैं। हे तात! ताव खाये जाते हैं और अग्नि की लपट से झुलसे जाते हैं अथवा सब झुलसे जाते हैं।

शब्दार्थ—तौंसियत= ताब खाना, तप जाना। झौंसियत= झुलसना। झारहीं= सब, लपट।

[६८]


लपट कराल ज्वाल जाल माल दहूँ दिसि,
धूम अकुलाने पहिचानै कौन काहि रे?।
पानी को ललात, बिललात, जरे गात जात,
परे पाइमाल जात, “भ्रात! तू निबाहि रे॥

[ ७१ ]


प्रिया तू पराहि, नाथ नाथ! तू पराहि, बाप
बाप! तू पराहि, पूत पूत! तू पराहि रे”।
तुलसी बिलोकि लोक ब्याकुल बिहाल कहैं,
“लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे”॥

अर्थ—अग्रि की ज्वाला बड़ो विकराल है, भयङ्कर लपटें दसों दिशाओं में छा गई हैं, धुआँ छाया है जिससे सब घबड़ा रहे हैं। (ऐसी दशा में) कौन किसको पहिचाने। पानी को तरसते और पानी पानी चिल्ला रहे हैं। सब अङ्ग जले जाते हैं, और दबे जाते हैं भाई! बचाओ। स्त्री पति से कहती है कि भागो, पति स्त्री से, पिता पुत्र से और पुत्र पिता से कहता है कि भागो। तुलसी सब दुनिया को व्याकुल देखकर बेहाल होकर कहते हैं कि रावण को अब बीस आँखों से देखकर बचाना चाहिए। अथवा हे रावण! अब बीसों आँखों से देख ले।

शब्दार्थ—लेहि= लेना, बचाना।

[६६]


बीथिका बजार प्रति, अटनि अगार प्रति,
पँवरि पगार प्रति बानर बिलोकिए।
अध ऊर्द्ध बानर, बिदिसि दिसि बानर है,
मानहु रह्यो है भरि बानर तिलोकिए॥
मृँदे आँखि हीय में, उधारे आँखि आगे ठाढ़ो,
धाइ जाइ जहाँ तहाँ और कोऊ को किए?।
“लेहु अब लेहु, तब कोऊ न सिखाओ मानो,
सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकिए”॥

अर्थ—हर एक गली, बाज़ार, अटा, महल, पौरि, घर, द्वार सबमें बन्दर ही बन्दर दिखाई पड़ता है। नीचे ऊपर दिशा विदिशा सबमें बन्दर ही बन्दर दिखाई पड़ता है मानो तीनों लोक बन्दर ही से भरे हुए हैं। आँख मूँँदने से हृदय में और खोलने से बाहर वह खड़ा दिखाई पड़ता है और जहाँ कोई भागकर जाता है, वहाँ भी दिखाई पड़ता है और कोई क्या करै अथवा किसी के पुकारने पर जहाँ तहाँ भाग जाता है। अथवा जहाँ जाओ वहाँ और किसी को पुकारो, बन्दर ही बन्दर दिखाई देता है। [ ७२ ] लो, अब लो, तब तो किसी ने कहना न माना, जिस जिसको रोकना चाहो वही ऐंठा जाता था।

शब्दार्थ―कोकिये―को (कौन) + किये (करै) अथवा पुकारना। सतराए = ऐंठ जाना।

[ ७० ]

एक करै धौंज, एक कह काढ़ो सौँज,
एक औँजि पानी पी कै कहै 'बनत न आवनो'।
एक परे गाढ़े, एक डाढ़त हीं काढ़े,
एक देखत हैं ठाड़े, कहें 'पावक भयावनो'॥
तुलसी कहत एक "नीके हाथ लाये कपि,
अजहूँ न छाँड़ै बाल गाल को बजावनो"
"धाओ रे, बुझाओ रे" कि "बावरे हो रावरे,
या और आगि लागी, न बुझावै सिन्धु सा वनो"॥

अर्थ―एक दौड़ा जा रहा है, एक कहता है कि सब बटोरकर निकाल लो, एक अँजुरी भर पानी पीकर कहता है कि अब तो नहीं आया जाता। कोई बड़ी भीड़ में पड़ गया है, कोई जलता हुआ निकाला गया। कोई खड़ा देख रहा है और कहता है कि अग्नि बड़ी विकराल है। हे तुलसी! कोई कह रहा है कि बन्दर ने अच्छे हाथ लगाये परन्तु (रावण) लड़को की सी शेखी मारना अब भी नहीं छोड़ता। अथवा मेघनाद अच्छे हाथों बन्दर को लाया था और देखा तो लड़का अब भी शेखी मारना नहीं छोड़ता। दौड़ो रे, बुझाओ रे, क्या आप बावले हो गये हैं यह और ही तरह की आग लगी है जो समुद्र और सावन की वर्षा से भी नहीं बुझती।

शब्दार्थ―धौंज = दौड़ना। सौंज = बटोरकर, अलबाम। डाढ़त = जलता हुआ।

[ ७१ ]

कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोले,
रावन-रजाइ धाइ आये जूथ जोरिकै।
कह्यो लंकपति “लंक बरत बुताओ बेगि,
बानर* बहाइ मारी महा बारि बोरिके"॥


*पाठांतर―वारन = हाथी, वार न―देर न। [ ७३ ]
बात को सुनकर मन्त्रियों ने सिर धुने और वे रावण से कहने लगे कि यह ईश्वर के टेढ़े होने का विकार है।

शब्दार्थ—युगपट= २×६= १२। सर्पी= घी।

[७३ ]


“पावक, पवन, पानी, भानु, हिमवान, जम,
काल, लोकपाल मेरे डर डावाँडोल हैं।
साहिब महेस सदा, संकित रमेस मोहि,
महातप-साहस बिरंचि लीन्हें* मोल हैं॥
तुलसी तिलोक आजु दूजो न बिराजै राजा,
बाजे बाजे राजनि के बेटा बेटी ओल† हैं।
को है ईस नाम?‡ को जो बाम होत मोहू सो को§?
मालवान! रावरे के बावरे से बोल हैं”॥

अर्थ—अग्नि, वायु, पानी, सूर्य, चन्द्रमा, यम, काल, दिक्पाल सब मेरे डर से डरते हैं। महादेवजी मेरे प्रभु हैं, विष्णु सदा मुझसे डरते रहते हैं, और तप करके साहस करके मैंने ब्रह्मा को मोल ले लिया है (जो वर चाहा उनसे माँग लिया)। तुलसी तीनों लोकों में कोई दूसरा आज राज्य नहीं है; बाजे-बाजे राजाओं के बेटी-बेटा ओल (जमानत) में हैं। वामदेव नामी ईश (देवता) कौन हैं जो मुझसे भी टेढ़े होते हैं अर्थात् मुझसे वाम होते वामदेव का नाम ईश न रहेगा, उनका प्रभुत्व जाता रहेगा। हे मालवान! तेरी बातें तो बावोंलों की सी हैं।

शब्दार्थ—ओल= कर के बदले में हैं।

[७४]


“भूमि भूमिपाल, ब्यालपालक पताल,
नाकपाल लोकपाल जेते सुभट समाज हैं।



*पाठान्तर—लिये।
†पाठान्तर—बोल।
‡पाठान्तर—बाम।


§पाठान्तर—सन । [ ७४ ]


कहैं मालवान “जातुधानपति राघरे को
मनहूँ अकाज आनै ऐसा कौन आज है?॥
राम-कोह पावक, समीर सीय-स्वाँस, कीस
ईस-बामता बिलोकु, वानर को ब्याज है।
जारत प्रचारि फेरि फेरि सो निसंक लंक,
जहाँ बाँको वीर तोसो सूर सिरताज है”॥

अर्थ—मालवान कहते हैं कि हे रावण! पृथ्वी के राजा, नाग (पाताल के रक्षक), स्वर्ग के रक्षक (देवता), लोकपाल और जितने योधागण हैं, उनमें ऐसा जगत् में कौन है जो आपका मन में अथवा मन से भी बुरा (हानि) चाहे अर्थात् कोई नहीं। रामचन्द्र का गुस्सा अग्नि है, सीताजी की श्वास वायु है, ईश्वर का उलटापन बन्दर है, सो खूब देख ले। बंदर का तो बहाना है, यही अग्नि जलाकर फेर-फेरकर निडर होकर उस लङ्का को जला रही है जहाँ तुझसा बाँका वीर राजा है।

[ ७५ ]


पान, पकवान विधि नाना को ,सँधानो, सीधो,
बिबिध विधान धान बरत बखारहीं।
कनक-किरीट कोटि, पलँग, पेटारे, पीठ
काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं॥
प्रबल अनल बाढ़ै, जहाँ काढ़ै तहाँ डाढ़ै,
झपट लपट भरै भवन भँडारहीं।
तुलसी अगार न पगार न बजार बच्यो,
हाथी हथसार जरे, घोरे घोरसारहीं॥

अर्थ—तरह-तरह की पीने और खाने की चीज़ें, सामान और सीधा, तरह-तरह के धान बखारों में जल रहे हैं। करोड़ों सोने के किरीट, पलँग और पिटारे, और पीढ़े, सब जली हुई चीज़ों के भार के भार भरकर कहार निकाल रहे हैं। भारी अग्नि बढ़ रही है। जहाँ से निकालते हैं वहीं जल रहे हैं। लपट बड़े वेग से [ ७५ ]मकानों में और भंडारों में भरी है। हे तुलसी! महल घर बाजार कुछ न बचा, हाथी हथसार में और घोड़े घुड़सार (अस्तबल) में जल गये।

[७६]


हाट बाट हाटक पघिल चलो घीसो घनो,
कनक-कराहीं लंक तलफति ताय सों*।
नाना पकवान जातुधान बलवान सब,
पागि पागि ढेरि कीन्हीं भली भाँति भाय सों॥
पाहुने कृसानु पवमान† सौँ परोसो,
हनुमान सनमानि कै जेंवाये चित चाय सों।
तुलसी निहारि अरि नारि दै दै गारि कहैं,
“बावरे सुरारि बैर कीन्हों राम राय से”॥

अर्थ—हाट और बाजा़रों में सोना घी सा पिघल चला मानो सोने की लङ्का कड़ाही है और ताव से जल रही है अथवा सोने की कड़ाही में लङ्का ताई जाती है। बली राक्षसगण तरह-तरह के पकवान हैं। उनको मानो अच्छी तरह से पाग-पाग के ढेर किये हैं। अतिथि अग्नि को मानो पवन से आदर करके यह पकवान परोस कर बड़े चाव से हनुमान ने जिंवाया है। हे तुलसी! बैरी की स्त्रियाँ गाली दे-देकर कहती हैं बावले ने रामचन्द्र से वैर किया है।

[७७]


रावन सो राजरोग बाढ़त बिराट उर,
दिन दिन बिकल सकल सुखराँक‡ सो।
नाना उपचार करि हारे सुर सिद्ध मुनि,
होत न बिसोक ओत पावै§ न मनाकसो॥



* पाठान्तर-जायसों।
†पिवमान के स्थान पर पकवान अच्छा पाठ है।
‡रॉक= रंक= भिखारी, मट्टी, क्षीण।
§पाठान्तर= औ तपावै।


॥मनाक= जरा सा भी। [ ७६ ]

राम की रजाय तें रसायनी समीरसूनु
उतरि पयोधि पार सोधि सरवाँक सो।
जातुधान बुट* पुटपाक लंक जातरूप,
रतन जतन† जारि किया है मृगाँक सो॥

अर्थ―विराट के उर में रावण का सा राजरोग दिन प्रति बढ़ते देखकर सब (देवता) विकल थे और सब सुख रंचक सा (न कुछ) था। सुर, सिद्ध और मुनि भाँति भाँति का उपाय करके हार गये परन्तु शोक न मिटा, न रोग किंचित् मात्र भी घटा। राम की आज्ञा से रसायन बनानेवाले हनुमान ने समुद्र पार करके और चारों ओर से शोध के राक्षसों की बूटी से पुटपाक में सुवर्ण और रमजटित लङ्का को यन से जलाकर मृगाङ्क बना दिया।

शब्दार्थ―राँक = रंक, भिखारी, मिट्टी, रंचक। मनाक = ज़रा सा भी। सर्व आंक = सब तरह। जातरूप = सोना। मुगाङ्क = सोने की भस्म, प्रायः राजरोगों में दी जाती है।

[ ७८ ]

जारि बारि कै विधूम, बारिधि बुताइ लूम,
नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़े कर जोरि कै।
"मातु! कृपा कीजै, सहिदानि दीजै", सुनि सीय
दीन्ही है असीस चारु चूड़ामनि छोरि कै॥
"कहा कहौं, तात! देखे जात ज्यों बिहात‡ दिन,
बड़ी अवलंब ही सो चले तुम तोरि कै"।
तुलसी सनीर नैन, नेह सों सिथिल बैन,
बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै॥

अर्थ―लङ्का को जलाकर धुँवा से रहित कर (कोयला करके), पूँछ को समुद्र में बुझाकर [ सीता के ] पैरों पर माथा नवाकर के हनुमान हाथ जोड़ कै खड़ा हुआ। हे माँ, कृपा करो, कोई चिन्हारी (निशानी) दो। यह सुनकर सीता ने आशीष दी और



*पाठान्तर―बुट-भूप बुट पुटपाक।
†जिटित
‡पाठान्तर―विहान।
[ ७७ ] सुन्दर चूड़ामणि उतार दी। हे प्यारे! तुमसे क्या कहूँ, देखे जाते हो कि दिन कैसे कटते हैं। तुम्हारा बड़ा सहारा था सो उसे भी तुम तोड़ चले। हे तुलसी! आँखो में आँसू भरे और प्रेम से शिथिल वाणी और विकल सीताजी को देखकर हनुमानजी ने उनसे निहोर के कहा।

[ ७९ ]

'"दिवस छ सात जात जानिवे न, मातु धरु
धीर, अरि अंत की अवधि रही थोरि कै।
बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानु-कुल-केतु,
सानुज कुसल कपि-कटक बटोरि कै"॥
बचन बिनीत कहि सीता को प्रबोध करि,
तुलसी त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै।
"जै जै जानकीस दससीस करि केसरी"
कपीस कूद्यो बात घात वारिधि* हलोरि कै॥

अर्थ―छ सात दिन बीतते हुए न जान पड़ेंगे, हे माता! धीर धर, वैरी के अन्त की अवधि अब थोड़ी रह गई है। भाई सहित रामचन्द्रजी और बन्दरों की फौज बटोर के समुद्र पर पुल बाँधकर आवैंगे। नम्र वचन कहकर सीता को इतमीनान कराके हे तुलसी! त्रिकूट पर्वत पर चढ़कर डङ्का की चोट हनुमान ने यह कहा―"जय रामचन्द्र, रावण से हाथी को सिंह रूप जय" यह कहकर हनुमान बात घात अर्थात् हवा के ज़ोर से अथवा बात जात बात के कहने में (बहुत थोड़े समय में) समुद्र हिलोरि के पार कूद गया अथवा बात-जात (हनुमान) कूद गया।

शब्दार्थ―डफोरि कै = डङ्का की चोट, चिल्लाकर। बात धात = हवा के ज़ोर से अथवा बात-जात = पवन पुत्र वा बात जाते हुए अर्थात् बहुत ही थोड़ी देर में, बिना प्रयास।

[ ८० ]

साहसी समीर-सूनु नीरनिधि लंघि, लखि
लंक सिद्धपीठ निसि जागा है मसान सो।


*पाठान्तर―उदधि। [ ७८ ]

तुलसी बिलोकि महा साहस प्रसन्न भई,
देवी सीय सारषी, दियो है वरदान सो॥
बाटिका उजारि अच्छ-धारि मारि, जारि गढ़,
भानु-कुल-भानु को प्रताप-भानु भानु सो।
करत विसोक लोककोकनद, कोक-कपि,
कहैं जामवंत आयो आयो हनुमान सो॥

अर्थ―साहसी हनुमान समुद्र पार करके लङ्का को सिद्ध पीठ पाकर रात को मसान जगाने लगा। हे तुलसी! उनका महा साहस देखकर सीताजी सी देवी प्रसन्न हुई अथवा देवी सी सीता प्रसन्न हुई और उनको वरदान दिया। बाग को उजाड़कर, अक्ष और सेना को संहार कर, गढ़ (लङ्का) को जलाकर रामचन्द्रजी का प्रताप रूपी भानु, सूर्य की तरह, सकल जगतरूपी कमल और चक्रवाक को प्रसन्न करता हुआ कपि (हनुमान्) आया। जामवन्त प्रादि कपि यह देखकर कहने लगे कि हनुमान से आ रहे हैं।

शब्दार्थ―समीर-सुनु = वायुपुत्र, हनुमान्। नीर-निधि = समुद्र। निशि = रात। जागो है = जगाया है। सारषी = सरीखी = सी। धारि = सेना। भानु-कुल-भानु = सूर्य्यकुल के भानु, राम- चंद्र। कोकनद = कमल।

[ ८१ ]

गगन निहारि, किलकारी भारी सुनि,
हनुमान पहिचानि भये सानंद सचेत हैं।
बूड़त जहाज बच्यो पथिक समाज मानो,
आजु जाये जानि सब अंकमाल देत हैं॥
"जै जै जानकीस जै जै लखन कपीस" कहि
कूदैं कपि कौतुकी, नचल रेत रेत हैं।
अंगद मयंद नल नील बलसील महा,
बालधी फिराबैं मुख नाना गति लेत हैं॥

अर्थ―आसमान को देखकर और भारी किलकारी सुनकर हनुमान् को पहचानकर (सब कपि) सचेत और आनन्दित हो गये। मानो डूबते हुए जहाज का समाज [ ७९ ]
बच गया, आज फिर से उत्पन्न हुए, यह जानकर सब हनुमान के गले में हाथ डाल मिलने लगे। “जय रामचन्द्र, जय लक्ष्मण, जय कपीश” (ऐसा) कहकर खिलाड़ी बंदर कूदने लगे और रेत-रेत में (अर्थात् रेत में प्रत्येक जगह) नाचने लगे। अङ्गद, मयन्द, नल, नील यह सब बलवान कपि बड़ी बड़ी पूँछ फिराते थे और भाँति भाँति के मुख बनाते थे।

[८२]


आयों हनुमान प्रान-हेतु, अंकमाल देत,
लेत पगधूरि एक चूमत लँगूल हैं।
एक बूझै बार बार सीय-समाचार कहे,
पवनकुमार भो विगत स्त्रम सूल हैं॥
एक भूखे जानि आगे आने कंद मूल फल,
एक पूजै बाहुबल तोरि मूल फूल हैं।
एक कहैं ‘तुलसी’! सकल सिधि ताके, जाके
कृपा-पाथ नाथ सीता-नाथ सानुकूल हैं’॥

अर्थ—प्राणों के आधार हनुमान् लौट आये, कोई उनको गले से लगाते हैं, कोई उनके पैर की धूल माथे पर लेते हैं, कोई उनकी पूँछ को चूमते हैं। (कोई) बार-बार सीता के समाचार पूछते हैं, हनुमान भी समाचार कहकर श्रम-रहित हुए। अथवा (कहे के स्थान पर कहौ और कहे के पश्चात् जो, है वह समाचार के बाद होने से) कोई पूछता है कि हे हनुमान कहो थकावट दूर हुई? कोई भूखा जानकर कन्दमूल फल सामने रखता है। कोई मूल (कंद) और फूल तोड़ लाकर उनके बाहुबल की पूजा करता है अथवा (मूल तोरि पाठ होने से) कोई फूल तोड़ लाकर बल की मूल बाहुओं की पूजा करता है। कोई कहता है कि हे तुलसी! उसको सब सिद्ध है जिस पर कृपासिन्धु रामचन्द्र प्रसन्न हैं।

[८३]


सीय को सनेहसील, कथा तथा लंक की*,
चले कहत चाय सों, सिरानो† पथ‡ छन में।



* पाठान्तर—लङ्क कर चले जात।
†पाठान्तर—सिरानी।


‡पाठान्तर—पंध। [ ८० ]


कह्यो जुवराज बोलि वानर समाज आजु,
खाहु फल" सुनि पेलि पैठे मधुबन में॥
मारे बागवान, ते पुकारत दिवान गे,
'उजारे बाग अंगद' दिखाये घाय तन में।
कहैं कपिराज 'करि काज* आये कीस,
तुलसीस† की सपथ महामोद मेरे मन में'॥<

अर्थ— सीताजी का स्नेह और शोल व लङ्का की कथा कहते बड़े चाव से रास्ते में चले जाते हैं, रास्ता क्षण भर में (न कुछ देर में) कट गया। युवराज अङ्गद ने सब बन्दरों को बुलाकर कहा कि आज "फल खाओ"। यह सुनकर सब मधुवन में घुस गये। बागवानों को मारा जो रोते हुए राज्य में गये और यह चिल्लाकर कहने लगे कि अङ्गद वगैरह ने बाग उजाड़ दिया, और बदन की चोट दिखाने लगे। सुग्रीव ने कहा कि बन्दर कार्य्य कर आये, महाराज रामचंद्र की कसम मेरे मन में बड़ी ख़ुशी है।

[८४]


नगर कुबेर को सुमेरु की बराबरी,
विरंचि बुद्धि को बिलास लंक निरमान भो।
ईसहि चढ़ाय सीस बीस बाहु बीर तहाँ,
रावन सो राजा रज‡ तेज को निधान भो॥
तुलसी त्रिलोक की समृद्धि सौज संपदा,
सकेलि चाकि राखी रासि, जाँगर§ जहान भो।
तीसरे उपास बनवास सिंधु पास सो,
समाज महराज जू को एक दिन दान भो॥



* पाठान्तर— करि आये कीश काज।
†पाठान्तर— महाराज।
‡पाठान्तर— राज।
§पाठान्तर-जागर— उजागर, प्रकाश, जाहिर, जाँगर, जँबरा, दाना निकाल लेने पर जो डण्ठल बचता है। [ ८१ ]अर्थ―कुबेर की नगरी और सुमेरु के समान (अर्थात् सोने की) लङ्का जो ब्रह्माजी की बुद्धि का विलासस्थान है अर्थात् जहाँ रहकर ब्रह्माजी अपनी बुद्धि की विलक्षणता दिखलाते हैं अथवा ब्रह्मा की जितनी बुद्धि थी वह सब खर्च करके बनी है। जिसने महादेवजी को शिर चढ़ाये हैं ऐसा बीस बाहुओंवाला वीर रावण तेज का निधान जिस नगर का राजा है, हे तुलसी! जहाँ तीनों लोक की सामग्री और सम्पदा समेटकर इकट्ठी कर रक्खी है, जिससे संसार सूना हो गया अथवा जो सब दुनिया में ज़ाहिर हैं, वह नगर और उसका सब समाज अर्थात् सब समृद्धि सहित लङ्का को तीसरे उपास अर्थात् तीन दिन भूखे रहकर वन में सिन्धु के किनारे महाराजा रामचन्द्रजी ने एक ही दिन में अथवा एक दिन दान में दे दिया अर्थात् विभीषण को दे डाला।


इति सुन्दरकाण्ड


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*पाठान्तर―राज।

†पाठान्तर―जागर = उजागर प्रगट, ज़ाहिर। जाँगर = जंगरा, दाना निकल जाने पर जो डण्ठल वचता है।