कवि-रहस्य/काव्य की उत्पत्ति

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काव्य की उत्पत्ति का प्रधान कारण है ‘समाधि’--अर्थात् मन की एकाग्रता । जब तक मन एकाग्र समाहित नहीं होता तब तक बातें नहीं सूझती । दूसरा कारण है ‘अभ्यास’--अर्थात बारम्बार परिशीलन । इसका प्रभाव सर्वव्यापी है । इन दोनों में भेद यह है कि ‘समाधि’ है आभ्यन्तर ( मानसिक ) प्रयत्न और ‘अभ्यास’ है बाहय प्रयत्न । समाधि और अभ्यास——इन दोनों के द्वारा ‘शक्ति’ उद्भासित होती है । ‘शक्ति’ ही एक काव्य का हेतु है––ऐसा ही सिद्धांत माना गया है । मम्मट ने भी काव्यहेतु में पहला स्थान ‘शक्ति’ ही को दिया है।

शक्तिनिपुणता लोककाव्यशास्त्रायवेक्षणात् ।

काव्यज्ञशिक्षयाऽभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥

यहाँ ‘शक्ति’ का अर्थ है ‘कवित्वबीजरूप संस्कारविशेष जिसके बिना काव्य का प्रसार हो ही नहीं सकता--यदि हुआ भी तो हास्यास्पद होगा ।’ इस ‘शक्ति’ का प्रसार, विस्तार, व्यापार होता है ‘प्रतिभा’ और ‘व्युत्पत्ति’ के द्वारा । जिसमें ‘शक्ति’ है उसी की ‘प्रतिभा’ या ‘व्युत्पत्ति’ चरितार्थ होती है ।

‘प्रतिभा’ वह है जिसके द्वारा शब्द-अर्थ-अलंकार तथा और वचन-विन्यास के सम्बद्ध विषय हृदय में भासित हों। जिसे ‘प्रतिभा’ नहीं उसे पद पदार्थों का साक्षात ज्ञान नहीं हो सकता--उसका ज्ञान सदा परोक्ष ही रहेगा । और जिसे ‘प्रतिभा’ है वह जिस पदपदार्थ को नहीं देखेगा उसका भी ज्ञान उसे प्रत्यक्ष ही होगा । इसी ‘प्रतिभा’ के प्रसाद से मेधाविरुद्र-कुमारदास-प्रभृति जन्मान्ध पुरुष भी बड़े कवि हो गये हैं। इसी ‘प्रतिभा’ के प्रसाद से कवियों ने नित्य अदृश्य और अदृष्ट पदार्थों का--तथा देशा-न्तर की परिस्थितियों का भी––बिना साक्षात् देखे भी वर्णन किया है । इसके दृष्टांत में राजशेखर ने कालिदास ही के श्लोक उद्धृत किये हैं ।

(१) प्राणानामनिलेन वृत्तिरुचिता सत्कल्पवृक्षे बने


तोये कांचनपारेणुकपिशे पुण्याभिषेकक्रिया ।

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ध्यान रत्नशिलागृहेषु विजुषस्त्रीसन्निषो संयमो

यत काडक्षन्ति तपोभिरन्यमुनयस्तस्मिस्तपस्यन्त्यमी ॥

शकुन्तला (७।१२)
 

यहाँ कालिदास ने लोकान्तर (स्वर्गलोक) की परिस्थितियों का वर्णन किया है जिसे उन्होंने कभी देखा नहीं ।

(२) अनेन साद्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु ।

द्वीपान्तरानीतलवंगपुष्पेरपाकृतस्वेदलवा मरूद्भिः ॥

रघुवंश (६।५७)
 

यहाँ द्वोपान्तरीय लवंगपुष्प का वर्णन बिना देखे किया गया है ।

(३) हरोऽपि किंचित्परिवृत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः ।

उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि ॥

कुमारसम्भव (३।६७)
 

यहाँ शिवजी और पार्वतीजी का वर्णन है--जिन्हें कवि ने कभी नहीं देखा । ऐसे तो अदृष्ट वस्तु का वर्णन सभी लोग करते हैं । पर चम-त्कार इसमें है कि अदृष्ट वस्तु का वर्णन होते हुए भी वर्णन स्वाभाविक ज्ञात हो और यह न भासित हो कि कवि बिना देखे ही काल्पनिक वर्णन कर रहा है । सच्चे कवि की कल्पना और मामूली पुरुषों की कल्पना में यही भेद है कि कवि की कल्पित वस्तु कल्पित नहीं--तात्त्विक ही––जान पड़ती है । शकुन्तला के अभिनय के समय दर्शक यह भूल जाते हैं कि अभिनय देख रहे हैं--तत्काल उन्हें यही भासित होता है कि साक्षात् शकुन्तला-दुष्यंत ही सामने हैं ।

‘प्रतिभा’ का लक्षण और ग्रन्थों में इससे अच्छा मिलता है–– ‘प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता’। जिस प्रज्ञा के द्वारा नई– नई कल्पना होती है उसे ‘प्रतिभा’ कहते है । प्रायः यह वही शक्ति है जिसे अंगरेजी में ‘इंटुइटिव फै़कल्टो’ ‘पोएटिक सेंस’ ‘इमैजिनेशन’ कहते हैं ।

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प्रतिभा दो प्रकार की मानी गई है––‘कारयित्री’ तथा ‘भावयित्री’ ।

जिस ‘प्रतिभा’ से कवि काव्य करता है वह है ‘कारयित्री’––काव्य करानेवाली । और जिस प्रतिभा से लोग काव्य का आस्वादन करते हैं वह है ‘भावयित्री’--बोध करानेवाली । कारयित्री प्रतिभा तीन तरह की है--सहजा, आहार्या, औपदेशिकी । पूर्व जन्म के संस्कार से जो प्राप्त है सो ‘सहजा’ स्वाभाविकी है । इस जन्म के संस्कार से जो प्राप्त है सो ‘आहार्या’, अर्जिता है । मन्त्र, शास्त्र, आदि के उपदेश से जो प्राप्त है सो‘औपदेशिकी’ उपदेशप्राप्त है । अर्थात् इस जन्म में किञ्चिन्मात्र संस्कार से जो प्रतिभा उद्भूत होती है उसे ‘सहजा’ कहते हैं । यह लगभग पूर्णरूप से पूर्वजन्मसंस्कारद्वारा पुरुष में वर्तमान रहती है, केवल किञ्चिन्-मात्र उद्बोधक की आवश्यकता रहती है । जैसे बैटरी में वैद्युत अग्नि पूर्ण रूप से वर्तमान है--केवल एक धुंडी दबाने ही से पूरी तौर से उद्भूत हो जाता है । जिस प्रतिभा के उद्भुत होने में इस जन्म में अधिक परिश्रम की अपेक्षा हो उसे ‘आहार्या’ कहते हैं--जैसे राखी के ढेर में कहीं एक चिनगारी आग की पड़ी है--उसको प्रज्वलित करने और उसे काम के योग्य बनाने में बड़े परिश्रम की अपेक्षा होती है । और औपदेशिकी प्रतिभा वह है जिसका अंकुर भी पूर्वजन्म सम्पादित नहीं है--इसी जन्म के उपदेश और परिश्रम से जो संस्कार उत्पन्न होता है उसी से यह प्रतिभा उद्भूत होती है--जैसे जहाँ आग का लेश भी नहीं है बड़े परिश्रम से लकड़ी के टकड़ों को रगड़कर अग्निकण उत्पन्न करके आग जलाई जाती है ।

इन तीन तरह की प्रतिभावाले कवि भी तीन तरह के होते हैं-- जिनका नाम है ‘सारस्वत’, ‘आभ्यासिक’, ‘औपदेशिक’ । जन्मान्तरीय संस्कार से जिसकी सरस्वती प्रवृत्त हुई है वह बुद्धिमान् ‘सारस्वत’ कवि है । इसी जन्म के अभ्यास से जिसकी सरस्वती उद्भासित हुई है वह आहार्यबुद्धि ‘आभ्यासिक’ कवि है । जिसकी वाक्यरचना केवल उप-देश के सहारे होती है वह दुर्बुद्धि ‘औपदेशिक’ कवि है । कुछ लोगों का सिद्धांत है कि सारस्वत और आभ्यासिक कवि को शास्त्राभ्यास के पीछे नहीं पड़ना चाहिए । पर यह सिद्धांत ठीक नहीं है । क्योंकि एक ही कार्य

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के लिए यदि दो उपाय किये जायँ तो कार्य द्विगुण अच्छा होता है । किसी प्रकार का कवि हो जिसमें उत्कर्ष है वही श्रेष्ठ है । और उत्कर्ष एक गुण से नहीं होता--अनेक गुणों के सन्निपातों से होता है । जैसे——

(१) बुद्धिमत्त्वं च--(२) काव्यांगविद्यास्वभ्यासकर्म च ।

(३) कवेश्चोपनिषच्छक्तिस्त्रयमेकत्र दुर्लभम् ॥

अर्थात्--बुद्धिमत्ता--कव्यांगविद्या का अभ्यास--कवि का असल रहस्य शक्ति--ये तीनों एकत्र दुर्लभ हैं । काव्यप्रकाश में ये तीन कहे हैं--

(१) शक्ति :--(२) काव्यशास्त्राद्यवेक्षणात् निपुणता (३) काव्यज्ञशिक्षया अभ्यासः ।

तीनों प्रकार के कवियों में एक प्रकार का और भेद बतलाया है——

एकस्य तिष्ठति कवेगृह एव काव्य-

मन्यस्य गच्छति सुहृद्भवनानि यावत् ।

न्यस्याविदग्धवदनेषु पदानि शश्वत्

कस्यापि संचरति विश्वकुतूहलीव ॥

अर्थात् सबसे न्यून दरजे के कवि का काव्य उसके घर ही में रहता है । मध्यम श्रेणी के कवि का काव्य उसके मित्रों के घर तक पहुँचता है । उत्तम कवि का काव्य संसार भर में फैल जाता है । यह हुई ‘कारयित्री’ प्रतिभा ।

‘भावयित्री प्रतिभा’ वह है जो कवि के परिश्रम और अभिप्राय का बोध करावे । इसी से कवि का व्यापार सफल होता है । यदि समझनेवाला न आ तो काव्य ही क्या, और काव्य समझने के लिए भी लगभग उतनी ही प्रतिभा की आवश्यकता है जितनी काव्य करने के लिए । कुछ लोगों का कहना है कि जो ही भावक है वही कवि भी है । पर यह ठीक नहीं । दोनों का स्वरूप भी भिन्न है विषय भी भिन्न है । इस पर यह श्लोक है--

कश्चिद्वाचं रचयितुमलं, श्रोतुमेवापरस्तं


कल्याणी ते मतिरुभयथा विस्मयं नस्तनोति ।

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नहयेकस्मिन्नतिशयवतां सन्निपातो गुणानाम्


एकः सूते कनकमुपलः, तत्परीक्षाक्षमोऽन्यः ॥

अर्थात्——कोई आदमी केवल वाक्य-रचना ही में समर्थ होता है- कोई उसके सुनने ही में । ये दोनों तरह की बुद्धि हमारे मन में आश्चर्य उत्पन्न करती है । एक ही मनुष्य में अनेक विशिष्ट गुणों का सन्निपात नहीं होता । सोने को उत्पन्न करने वाला पत्थर और होता है और उसकी परीक्षा में समर्थ दूसरा ही ।

भावक चार प्रकार के होते हैं--(१) विवेकी--(२) अविवेकी (३) मत्सरी--(४) तत्त्वाभिनिवेशी । विवेकी भी दो प्रकार के होते हैं--स्वभाव से ही गुण-दोष जानने के सामर्थ्यवाले और विद्या सीखकर गुण-दोष जाननेवाले। मत्सरी भावक को सौंदर्य भासित होने पर भी नहीं भासित सा है क्योंकि वह उसे प्रकाश नहीं करता । ज्ञाता होकर मत्सर-रहित विरले ही होते हैं । जैसा इस श्लोक में कहा है--

कस्त्वं भोः--कविरस्मि--काप्यभिनवा सूक्तिः सखे पठयताम्--

त्यक्ता काव्यकथैव सम्प्रति मया--कस्मादिदं--श्रूयताम्--

यः सम्यग्विविनक्ति दोषगुणयोः सारं स्वयं सत्कविः

सोऽस्मिन् भावक एव नास्त्यथ भवेद्देवान्न निर्मत्सरः ॥

एक कवि से किसी ने पूछा--भाई तुम कौन हो ?

कवि——मैं कवि हूँ ।

पुरुष--कोई नई कविता पढ़ो ।

कवि--अब तो मैंने काव्य की चर्चा ही छोड़ दी है ।

पुरुष--यह क्यों ?

कवि--सुनो । जो सत् कवि स्वयं दोष गुण के सार की विवेचना कर सकता है सो भावक नहीं होता ! यदि होता भी है तो निर्मत्सर नहीं होता । तत्त्वाभिनिवेशी भावक तो हज़ार में एक मिलते हैं । बिना भावक के काव्य भी नीरस और निष्फल रह जाता है । वैसे तो घर-घर काव्य पड़े हैं । काव्य वही है जो भावकों के हृदय में अंकित हो गया है ।

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[ २६ ]एक दिन राजा भोज के दर्बार में एक कवि और भावक (टीकाकार) में विवाद हुआ । भावक ने कहा “काव्य को भावक ही चमत्कारक और सरस बनाता है ।" कवि ने इसे स्वीकार नहीं किया, कहा “यदि काव्य को कवि ने सरस नहीं बनाया तो भावक उसे कैसे सरस बना सकता है ।" भावक ने कहा--“अच्छा कुछ काव्य कहिए” । शाम को बाग मे लोग टहल रहे थे--हवा चल रही थी । आम का वृक्ष हवा में डोल रहा था ।

इसी पर कवि ने कहा––

इयं सन्ध्या, दूरादहमुपगतो हन्त मलयात्

तवैकान्ते गेहे तरुणि वत नेष्यामि रजनीम् ।

समीरेणोक्तवं नवकुसुमिता चूतलतिका

धुनाना मूर्धानं नहि नहि नहीत्येव कुरुते ।

अर्थात् वायु ने आम्रलतिका से कहा--'सन्ध्या हो गई है मैं दूर मलय-गिरि से आ रहा हूँ--तुम्हारे घर में, हे तरुणि, मैं रात भर विश्राम करूँगा । इस प्रकार वायु के कहने पर नई फूली हुई चूतलतिका ने सिर हिलाकर कहा नहीं नहीं नहीं ।'

भावक ने पूछा--यहाँ आपने तीन बार ‘नहि’ पद का प्रयोग क्यों किया ?

कवि ने उत्तर दिया--"यदि मैं तीन बार नहि-पद का प्रयोग न करता तो छन्द में कमी रह जाती "।

भावक--“जी नहीं । तीन बार नहिपद के प्रयोग करने में कवि का आशय यह है कि चूतलतिका का तात्पर्य यह है कि तीन दिन तक तुम मेरे घर न ठहरो । ऐसा गढ़ आशय समस्त पद्य का है सो ‘नवकुसुमिता’ तथा ‘एकान्त’ इन दोनों विशेषणों से भासित होता है ।”

यह उदाहरण तो हुआ सरसहृदय भावक का । कुछ भावक तो अपनी भावकता के मद में मत्त होकर शब्दों का ऐसा तोड़-मरोड़ करते हैं कि चित्त को विरक्त कर देते हैं । बिहारी का दोहा है--

मानहु मुखदिखरावनी दुलहिन करि अनुराग ।


सास सदन मन ललन हूँ सौतिन दियो सुहाग ॥

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इसका यथार्थ अर्थ रत्नाकरजी ने यों बतलाया है--नई दुलहिन विवा-हित होकर आई है । आते ही उसकी सुघराई तथा शील पर रीझ कर सासु ने घर का प्रभुत्व, नायक ने उसके रूप तथा गुणों पर अनुरक्त होकर अपना मन, एवं सौतों ने अपने को उसके बराबर न समझकर प्रियतम का प्यार दे दिया । यह सब उसको ऐसे अल्पकाल ही में प्राप्त हो गया-मानो मुखदिखाई में मिल गया ।

यह तो है सीधा और अत्यंत सरस अर्थ । एक टीकाकार इस अर्थ का ऐसा अनर्थ करते हैं--विदग्धा नायिका अपनी दशा अनागत नायक को सूचित करती है--‘मानहु’--मेरी प्रार्थना मान जाओ--‘अनुराग करि’ प्रेम करके--‘मुख दिखराव’ अपना मुँह मुझे दिखाओ--‘क्योंकि ‘नींदु लहि न’ रात मुझे नींद नहीं आई--आज आने में बाधा नहीं है--क्योंकि सासु सदन मन’ मेरी सास घर में नहीं है और ‘ललन हूँ मेरे स्वामी ने भी--‘सौतिन दियो सुहाग’ मेरी सौत के पास गये हैं ।

भावक सज्जन स्वयं समझ लें इन दोनों में कौन सा अर्थ हृदय- ग्राही है ।

एक उदाहरण टीकाकारों के मौलिमाणिक्य मल्लिनाथ का लीजिए।

दुर्योधन पांडवों को वनवास दिला कर भी सदा उनके डर से चकित रहता है--इस बात का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है--

कथाप्रसंगेन जनरुदाहृतादनुस्मताखण्डलसूनुविक्रमः ।

तवाभिधानाव्यथते नताननः सुदुस्सहान्मन्त्रपदादिवोरगः ॥

इसका सीधा अर्थ यों है--वनेचर युधियष्ठर से कहता है--“आपस में बातचीत करते हुए लोग जब कभी आपका नाम लेते हैं तब दुर्योधन अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करके सिर नीचा कर लेता है--जैसे प्रबल मन्त्र के प्रभाव से सर्प की फणा गिर जाती है ।”

टीकाकार ने इस श्लोक में जितने विशेषण हैं सभों को उपमान-उप-मेय दोनों में लगाने की गरज से सर्पपक्ष में विशेषण पदों का अर्थ यों करते हैं ।

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[ २८ ](१) 'मन्त्रपदात् उरगः नताननः'—सप मन्त्र के प्रभाव से सिर नीचा करता है'—यह मुख्य वाक्य हुआ।

अब विशेषणों को 'मन्त्रपदात्' में लगाता है—पहला विशेषण है 'कथाप्रसंगेन जनैदुराहृतात्'—अर्थात् मन्त्रउच्चारित होता है उन लोगों से—'जनैः'—जो 'कथाप्रसंगों में'—विषवैद्यों में—'इन' श्रेष्ठ हैं। दूसरा विशेषण है 'तवाभिधानात्' अर्थात् जिस मन्त्र में 'त' (तक्षक) तथा 'व' (वासुकि) के 'अभिधान' नाम हैं। अब एक पद बाकी रहा 'अनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः'। इसका 'उरगः' के साथ लगता हुआ अर्थ है—'अनुस्मृत' है—'आखण्डलसूनु' (इन्द्र के छोटे भाई विष्णु) के 'वि' (पक्षी—गरुड़) का 'क्रम' (चलना) जिसको।

ऐसी टीका टीकाकर के पाण्डित्य को अवश्य सूचित करती है—पर सहृदयहृदयग्राहक नहीं होती।

शक्ति से प्रतिभा और व्युत्पत्ति उत्पन्न होती है। इनमें प्रतिभा का विवरण हो चुका। 'व्युत्पत्ति' का विचार बाक़ी है। उचित अनुचित के विवेक को 'व्युत्पत्ति' कहते हैं। प्रतिभा और व्युत्पत्ति में आनन्द ने प्रतिभा को प्रधान माना है। अव्युत्पत्तिकृतदोष तो प्रतिभा के बल से ढक जाते हैं—अप्रतिभाकृतदोष बहुत जल्द व्यक्त हो जाता है। पर मंगल ने व्युत्पत्ति ही को प्रधान माना है। पर असल बात यह है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों परस्पर मिल ही कर प्रधान होती हैं। जैसे बिना लावण्य के केवल शरीर सौष्ठव—अथवा बिना शरीर सौष्ठव के केवल लावण्य—सच्चा सौंदर्य नहीं होता।