कवि-रहस्य/शिष्य भेद

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[ १८ ]शिष्य तीन तरह के होते हैं—(१) बुद्धिमान् (२) आहार्यबुद्धि (३) दुर्बुद्धि। जो स्वभाव ही से बिना किसी की सहायता से बिना अभ्यास के शास्त्रग्रहण कर सके उसे 'बुद्धिमान्' कहते हैं। जिसको शास्त्रज्ञान शास्त्र के अभ्यास से होता है उसे 'आहार्यबुद्धि' कहते हैं। इन दोनों से अतिरिक्त 'दुर्बुद्धि' है। ये सामान्यतः शिष्य के विभाग हैं। काव्यशिष्य के विभागों का निरूपण कविकण्ठाभरण के अनुसार आगे होगा।

बुद्धि तीन प्रकार की होती है—स्मृति, मति, प्रज्ञा। अतीत वस्तु का ज्ञान जिससे होता है वह है 'स्मृति'। वर्तमान वस्तु का ज्ञान जिससे होता है सो है 'मति'। और आगामी (भविष्यत्) वस्तु का ज्ञान जिससे होता है सो है 'प्रज्ञा'। तीनों प्रकार की बुद्धि से कवियों को मदद मिलती है। शिष्यों में जो 'बुद्धिमान्' है वह उपदेश सुनने की इच्छा से—उसे सुनता है—उसका ग्रहण करता है—धारण करता है—उसका विज्ञान (विशेष रूप से ज्ञान) संपादन करता है—ऊह (तर्क) करता है—अपोह (जो बातें मन में नहीं जँचतीं उनका परित्याग) करता है—फिर तत्व पर स्थिर हो जाता है। 'आहार्यबुद्धि' शिष्य का भी यही व्यापार होता है। परन्तु उसे केवल उपदेष्टा की आवश्यकता नहीं है—उसे एक प्रशास्ता (शासन करनेवाला, बराबर देख-भाल करने वाला) की आवश्यकता रहती है। प्रतिदिन गुरु की उपासना दोनों तरह के शिष्यों का प्रकृष्ट गुण समझा जाता है। यही उपासना बुद्धि के विकास में प्रधान साधन होती है। इस तत्वज्ञानप्रक्रिया का संग्रह यों किया गया है—

(१) प्रथयति पुरः प्रज्ञाज्योतिर्यथार्थपरिग्रहे
(२) तदनु जनयत्यूहापोहकियाविशदं मनः ।
(३) अभिनिविशते तस्मात् तत्वं तदेकमुखोदयं
(४) सह परिचयो विद्यावृद्धै: क्रमादमृतायते ॥

(१) पहले अर्थों के यथावत् ज्ञान के योग्य प्रज्ञा उत्पन्न होती है—
(२) उसके बाद ऊहापोह (तर्क-वितर्क) करने की योग्यता मन में [ १९ ]
उत्पन्न होती है-(३) फिर एकान्त वस्तुतत्वमात्र में मन लग जाता है--(४) ज्ञानवृद्ध सज्जनों का परिचय क्रमेण अमृत हो जाता है ।

‘बुद्धिमान्’ शिष्य तत्व जल्दी समझ लेता है । एक बार सुन लेने ही से वह बात समझ लेता है । ऐसे शिष्य को कवि मार्ग की (कवि का क्या रास्ता होना चाहिए इसकी) खोज में गुरु के पास जाना चाहिए ।‘आहार्यबुद्धि’ शिष्य एक तो पहले समझता नहीं--और फिर समझाने पर भी मन में नाना प्रकार के संशय रह जाते हैं । इसको उचित है कि अज्ञात वस्तु को जानने के लिए और संशयों को दूर करने के लिए आचार्य के पास जाय । जो शिष्य ‘दुर्बुद्धि’ है वह सभी जगह उलटा ही समझेगा । इसकी तुलना काले कपड़े के साथ की गई है--जिस पर दूसरा कोई रंग चढ़ ही नहीं सकता । ऐसे आदमी को यदि ज्ञान हो सकता है तो केवल सरस्वती के प्रसाद से ।

इसके प्रसंग में एक कथा कालिदास की मिथिला में प्रसिद्ध है । कालि-दास उन्हीं शिष्यों में से थे जिनका परिगणन ‘दुर्बुद्धि’ की श्रेणी में होता है । गुरु के चौपाड़ पर रहते तो थे पर बोध एक अक्षर का नहीं था । केवल खड़िया लेकर ज़मीन पर घिसा करें--अक्षर एक भी न बने । मिथिला में एक प्राचीन देवी का मन्दिर उचैठगाँव में है। वहाँ अब तक जंगल-सा है । कालिदास जहाँ पढ़ने को भेजे गये थे वह चौपाड़ इसी मन्दिर के कोस दो कोस के भीतर कहीं था । एक रात को अन्धकार छाया हुआ था, पानी जोर से बरस रहा था । विद्यार्थियों में शर्त होने लगी कि यदि इस भयंकर रात में कोई देवीजी का दर्शन कर आवे तो उसे सब लोग मिलकर या तो स्याही बना देंगे या काग्रज़ बना देंगे । [स्याही बनाने की प्रक्रिया तो अब भी देहातों में चलती है सो तो सभी को ज्ञात होगा । विद्यार्थी लोग काग्रज कैसे बनाते थे सो प्रक्रिया अब इधर ३०, ४० वर्षों से लोगों ने नहीं देखी होगी । नेपाल में बाँस से एक प्रकार का काग़ज़ बनता है । यह बड़ा पतला होता है यद्यपि बड़ा ही मजबूत । पतला बहुत होने के कारण पुस्तक लिखने के योग्य नहीं होता । यद्यपि और सब तरह की काग्रजी़ काररवाई अब तक भी नेपाल में उसी से चलती है । इस काग्रज़ को पुस्तक लिखने

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[ २० ]के योग्य बनाने की प्रक्रिया यह थी । बाल्यावस्था में मैं भी इस प्रक्रिया में मदद किया करता था इसी से अच्छी तरह स्मरण है । चावल का मांड बना कर काग्रज़ उसमें डाल दिया जाता है-अक्सर मांड में हरताल छोड़ देते हैं––जिससे काग़ज़ का रंग सुन्दर पीला हो जाता है और काग्रज़ में कीड़े लगने की सम्भावना भी कम हो जाती है । मांड में थोड़ी देर रखने के बाद काग्रज़ धूप में फैलाया जाता है । अच्छी तरह सूख जाने पर काग़ज़ मोटा हो जाता है पर खुरखुरा इतना रहता है कि लिखना असम्भव होता है । इसका उपाय कठिन परिश्रमसाध्य होता है । एक जंगली वस्तु काली सी होती है––प्रायः किसी बड़े फल का बीज है--जिसे मिथिला में ‘गेल्ही’ कहते हैं। पीढ़े पर काग्रज़ को फैला कर इसी गेल्ही से घंटों रगड़ने से काग्रज़ खुब चिकना हो जाता है । किसी भी विद्यार्थी को इस शर्त के स्वीकार करने का साहस न हुआ । कालिदास उजड्ड तो थे ही--कहा मैं जाऊँगा । फिर मन्दिर में गया-इसका प्रमाण क्या होगा इसका यह निश्चय हुआ कि जो जाय सो स्याही लेता जाय मन्दिर की दीवार में अपने हाथ का छापा लगा आवे । कालिदास गये । पर मन्दिर के भीतर जाने पर उन्हें यह सन्देह हुआ कि दीवार में हाथ का छापा लगावें तो कदाचित् पानी के बौछार से मिट जाय । इस डर से उन्होंने यही निश्चय

किया कि देवी की मूर्ति के मुंह में ही स्याही का छापा लगाया जाय तो ठीक होगा । ज्योंही हाथ बढ़ाया त्यों ही मूर्ति खिसकने लगी । कालिदास नेी छा किया । अन्ततोगत्वा देवी प्रत्यक्ष हुई और कहा ‘तू क्या चाहता है ?’भगवती के दर्शन से कालिदास की आँखें खुलीं, उन्होंने कहा——‘मुझे विद्या दो मैं यही चाहता हूँ ।’ देवी ने कहा––‘अच्छा——तू अभी जाकर रात भर में जितने ग्रन्थ उलटेगा सभी तुम्हें अभ्यस्त हो जायेंगे ।’ कालिदास ने जाकर विद्यार्थियों के तो सहज ही गुरुजी की भी जितनी पुस्तकें थीं सबके पन्ने उलट डाले । और परम पण्डित हो गये ।

दुर्बुद्धि के लिए इसी तरह यदि सरस्वतीजी की कृपा हो सो छोड़ कर और उपाय नहीं है ।

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