कवि-रहस्य/10 कवि का कर्तव्य

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कविचर्या-राजचर्या

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काव्य करने के पहले कवि का कर्तव्य है उपयोगी विद्या तथा उपविद्याओं का पढना और अनुशीलन करना । नामपारायण, धातुपारायण, कोश, छन्दःशास्त्र, अलंकार-शास्त्र——ये काव्य की उपयोगी विद्याएँ हैं । गीत-वाद्य इत्यादि ६४ कलाएँ ‘उपविद्या’ हैं । इनके अतिरिक्त सुजनों से सत्कृत कवि की सन्निधि (पास बैठना), देशवार्ता का ज्ञान, विदग्धवाद (चतुर लोगों के साथ बातचीत), लोकव्यवहार का ज्ञान, विद्वानों की गोष्ठी और प्राचीन काव्य-निबन्ध——ये काव्य की ‘माताएँ’ हैं । आठ काव्य- माताओं का परिगणन इस पद्य में है——

स्वास्थ्यं प्रतिभाऽभ्यासो भक्तिविद्वत्कथा बहुश्रुतता।

स्मृतिदाढर्चमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य ॥

शरीर स्वस्थ, तीव्र प्रतिभा, शास्त्रों का अभ्यास, देवता तथा गुरु में भक्ति, विद्वानों के साथ वार्तालाप, बहुश्रुतता, (शास्त्रों के अतिरिक्त बहुत कुछ वृद्धजनों से सुन सुनाकर जो ज्ञान उपलब्ध होताहै),प्रबल स्मरणशक्ति,अनिर्वेद (प्रसन्न चित्त-खेद से शून्य)——ये आठ काव्य की माताएँ हैं ।

इसके अतिरिक्त कवि को सदा ‘शुचि’ रहना आवश्यक है। ‘शौच’ तीन प्रकार का है——वाक्शौच, मनःशौच, शरीरशौच । वाणी की शुद्धि और मन की शुद्धि शास्त्रों के द्वारा होती है । शरीर-शुद्धि के सूचक हैं——हाथ पैर के नख साफ़ हों, मुंह में पान, शरीर में चन्दन का लेप, कीमती पर सादे कपड़े, सिर पर माला । कवि का जैसा स्वभाव है वैसा ही उसका काव्य होता है । लोगों में कहावत भी है——‘जैसा मसव्वर वैसी तसवीर’। कवि को स्मितपूर्वाभिभाषी होना चाहिए——जब बोले हँसता हुआ बोले ।

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बातें गंभीर अर्थवाली कहे । सर्वत्र रहस्य, असल तत्त्व का अन्वेषण करता रहे । दूसरा कवि जब तक अपना काव्य न सुनावे तब तक उसमें दोषो-द्भावन न करे--सुनाने पर जो यथार्थ हो सो कह देवे । कवि के लिए घर साफ़ सुथरा--सब ऋतु के अनुकूल स्थान, नाना वृक्ष-मूल-लतादि से सुशोभित बगीचा, क्रीडापर्वत, दीर्घिका पुष्करिणी, नहरें, क्यारियाँ, मयूर, मृग, सारस, चक्रवाक, हंस, चकोर, क्रौंच, कुरर, शुक, सारिका--गर्मी का प्रतीकार, फव्वारे, लता, कुंज, झूला इत्यादि अपेक्षित हैं । काव्य-रचना से थक जाने पर--मन की ग्लानि दूर करने के लिए आज्ञाकारी मूक सेवक सहित या एकदम निर्जन स्थान चाहिए । परिचारक अपभ्रश भाषा-प्रवीण और परिचारिकाएँ मागधीभाषा-प्रवीण हों । कवि की स्त्रियों को प्राकृत तथा संस्कृत भाषा जाननी चाहिए । इनके मित्र सर्व भाषाज्ञाता हों । कवि को स्वयं सर्व-भाषा-कुशल शीघ्रवाक्, सुन्दर अक्षर लिखनेवाला, इशारा समझनेवाला, नानालिपि का ज्ञाता होना चाहिए । उसके घर में कौन सी भाषा लोग बोलेंगे सो उसी की आज्ञा पर निर्भर होगा । जैसे सुना जाता है मगध में राजा शिशुनाग ने यह नियम कर दिया था कि उनके अन्तःपुर में ट, ठ, ड, ढ, ऋ, ष, स, ह, इन आठ वर्णों का उच्चारण

कोई न करे । शूरसेन के राजा कुविन्द ने भी कटुसंयुक्त अक्षर के उच्चारण का प्रतिषेध कर दिया था । कुन्तलदेश में राजा सातवाहन की आज्ञा थी कि उनके अन्तःपुर में केवल प्राकृत भाषा बोली जाय । उज्जयिनी में राजा साहसांक की आज्ञा थी कि उनके अन्तःपुर में केवल संस्कृत बोली जाय ।

पेटी, पाटी, खड़िया, बन्द करने के लायक दावात, रोशनाई, क़लम, ताडीपत्र या भूर्जपत्र, तालपत्र, लोकंटक, साफ़ मजी हुई दीवार,--इतनी चीजें सतत कवि के सन्निहित रहनी चाहिए ।

सबसे पहले कवि को अपनी योग्यता का विचार कर लेना चाहिए--मेरा संस्कार कैसा है, किस भाषा में काव्य करने की शक्ति मुझमें है, जनता की रुचि किस ओर है, यहाँ के लोगों ने किस तरह की किस सभा में शिक्षा पाई है, किधर किसका मन लगता है, यह सब विचार करके तब किस भाषा में काव्य करेंगे इसका निर्णय करना होगा । पर यह सब भाषा का

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[ ५३ ]विचार केवल उन कवियों को आवश्यक होगा जो एकदेशी आंशिक कवि हैं । जो सर्वतन्त्रस्वतन्त्र हैं उनके लिए जैसी एक भाषा वैसी सब भाषा । पर इनके लिए भी जिस देश में हों उस देश में जिस भाषा का अधिक प्रचार हो उसी भाषा का आश्रयण करना ठीक होगा। जैसे कहा है कि गौडादि देश में संस्कृत का अधिक प्रचार था, लाट देश में प्राकृत का, मरुभूमि में सर्वत्र अपभ्रंश का, अवन्ती, पारियात्र, दशपुर में पैशाची का, मध्यदेश में सभी भाषा का । जनता को क्या पसन्द है क्या नापसन्द है यह भी पता

लगाकर जो नापसन्द हो उसका परित्याग करना । परन्तु केवल सामान्य जनता में अपना अपयश सुनकर कवि को आत्मग्लानि नहीं होनी चाहिए, अपने दोष-गुण को परीक्षा स्वयं भी करना चाहिए । इस पर एक प्राचीन श्लोक है--

धियाऽऽत्मनस्तावदचार नाचरेत् जनस्तु यदि स तद् वदिष्यति ।

जनावनायोद्यमिनं जनार्दनं जगत्क्षये जीव्यशिवं शिवं वदन् ।

अर्थात् “अपनी समझ में अनुचित कार्य नहीं करना । सामान्य जनता को तो जो मन आवेगा कहेगा । जगत् की रक्षा में तत्पर हैं भगवान् विष्णु उनको तो लोग ‘जनार्दन’ (लोगों को पीड़ा देनेवाला) कहते हैं । और जगत के संहारकर्ता हैं महादेवजी उनको ‘शिव’ (कल्याणकारक) कहते हैं ।” खासकर प्रत्यक्ष-जीवित कवि के काव्य का सत्कार बहुत कम होता है ।

प्रत्यक्षकविकाव्यं च रूपं च कुलयोषितः ।

गृहवैद्यस्य विद्या च कस्मैचिद्यदि रोचते ॥

अर्थात् जीवित कवि का काव्य, कुलवधू का रूप और घर के वैद्य की विद्या--कदाचित् ही किसी को भाती है ।

बालकों के, स्त्रियों के और नीच जातियों के काव्य बहुत जल्दी मुख से मुख फैल जाते हैं । परिव्राजकों के, राजाओं के, और सद्यःकवि (तत्क्षण काव्य करनेवाले) के काव्य एक ही दिन में दशोंदिशा में फैल जाते हैं । पिता के काव्य को पुत्र, गुरु के काव्य को शिष्य और राजा के काव्य को उनके सिपाही इत्यादि बिना विचारे पढ़ते हैं और तारीफ़ करते हैं ।

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कवियों के लिए और कई नियम बताये गये हैं । जब तक काव्य पूरा नहीं हुआ है तब तक दूसरों के सामने उसे नहीं पढ़ना । नवीन काव्य को अकेले किसी आदमी के सामने नहीं पढ़ना। इसमें यह डर रहता है कि वह आदमी उस काव्य को अपना कहकर ख्यात कर देगा——फिर कौन साक्षी दे सकेगा कि किसकी रचना है ? अपने काव्य को मन ही मन उत्तम न समझ बैठना, न उसका डींग हाँकना । अहंकार का लेशमात्र भी सभी संस्कारों को नष्ट कर देता है । अपने काव्य को दूसरों से ऊँचवाना । यह बात प्रसिद्ध है कि गुण दोष जैसे पक्षपात-रहित उदासीन पुरुष को जंचते हैं वैसे स्वयं काम करनेवाले को नहीं। जो अपने को बड़ा कवि लगावे उसकी रुचि के अनुसार उसके चित्त को प्रसन्न कर देना ही ठीक है——फिर अपने काव्य को ऐसे कविम्मन्य के सामने नहीं पढ़ना । एक तो वह उसका गुण ग्रहण नहीं करेगा, दूसरा यह भी संभव है कि वह उसे अपना कहकर ख्यात कर दे ।

कवि के लिए काल केहिसाब से कार्यक्रम के भी नियम बनाये गये हैं । दिन को और रात को चार-चार पहरों में बाँटना । प्रातःकाल उठकर सन्ध्या-पूजा करके सारस्वतसूक्त पढ़ना । फिर एक पहर तक विद्याभवन में आराम से बैठ कर काव्योपयोगी विद्या और उपविद्याओं का अनुशीलन करना । ताज़ा संस्कार से बढ़कर प्रतिभा का उद्बोधक दूसरा नहीं है । दूसरे पहर में काव्य की रचना करना । मध्याह्न के लगभग जाकर स्नान करके शरीर के अनुकूल भोजन करना । भोजन के बाद काव्यगोष्ठी का अधिवेशन । प्रश्नों के उत्तर--समस्या-पूर्ति-मातृकाभ्यास और चित्रकाव्य प्रयोग इत्यादि तीसरे पहर तक करना । चौथे पहर में अकेले या परिमित पुरुषों के सङ्ग बैठकर प्रातःकाल जो काव्य रचा है उसकी परीक्षा करना । रस के आवेश में जो काव्य रचा जाता है उस समय गुण-दोष-विवेक करने की बुद्धि नहीं चलती । इसलिए कुछ समय बीतने ही पर स्वरचित काव्य की परीक्षा हो सकती है । परीक्षा करने पर यदि कुछ अंश अधिक भासित हो तो उसे हटाना——जो कमी हो उसकी पूर्ति करना——जो उलटा पलटा हो उसका परिवर्तन करना——जो भूल गया हो उसका अनुसन्धान करना । सायंकाल

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सन्ध्या करना और सरस्वती की पूजा । इसके बाद दिन में जो काव्य परीक्षित और परिशोधित हो चुका है उसको प्रथम पहर के अन्त तक लिखवाना । द्वितीय तृतीय पहर में सुख से सोना । सुचित्त सोने से शरीर नीरोग रहता है । चतुर्थ पहर में जागना और ब्राह्ममुहूर्त में प्रसन्न मन से सब पुरुषार्थों का परिचिन्तन करना ।

काल के हिसाब से भी चार प्रकार के कवि होते हैं (१) ‘असर्यम्पश्य’--जो गुफाओं के भीतर या भीतर घर में बैठकर ही काव्य करता है और बड़ी निष्ठा से रहता है--इसकी कविता के लिए सभी काल हैं। (२) ‘निषण्ण’ जो काव्य-रचना में तन्मय हो ही कर रचना करता है पर उतनी निष्ठा से नहीं रहता है--इसके लिए भी सभी काल हैं । (३) ‘दत्तावसर’--जो स्वामी की आज्ञानुसार ही काव्य रचना करता है--इसके लिए नियमित काल हैं । जैसे रात के द्वितीय पहर का उत्तरार्ध (जिसे सारस्वत मुहूर्त कहते हैं)। (४) ‘प्रायोजनिक’--जो प्रस्ताव विशेष पाकर प्रस्तुत विषय लेकर काव्य-रचना करता है । इसके लिए काल का नियम नहीं हो सकता । जभी कोई विषय प्रस्तुत होगा तभी वह काव्य करेगा ।

पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी कवि हो सकती हैं । कारण इसका स्पष्ट है । बुद्धि, मन इत्यादि का संस्कार आत्मा में होता है, और आत्मा में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है । कितनी राज-पुत्रियाँ, मन्त्रि-पुत्रियाँ, वेश्याएँ शास्त्रों में पण्डिता और कवि हो गई हैं । शीलाभट्टारिका, विकट-नितम्बा, विजयांका तथा प्रभुदेवी--इन चार स्त्रीकवियों के नाम प्रसिद्ध हैं ।

जब प्रबन्ध तैयार हो गया तो उसकी कई प्रतियाँ करा लेनी चाहिए । क्योंकि काव्य-प्रबन्धों के पाँच नाशकारण और पाँच महापद होते हैं । (१)निक्षेप--किसी दूसरे के पास धरोहर रखना । (२) विक्रय-बेचना । (३) दान--किसी को दे डालना । (४) देशत्याग--स्वयं कवि देश छोड़कर देशान्तर चला जाय । (५) अल्पजीविता--अल्प ही अवस्था में कवि का मर जाना । ये पांच काव्य के नाश के कारण होते हैं ।

(१) दरिद्रता । (२) व्यसनासक्ति--द्यूत आदि व्यसनों में लगा

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रहना । (३) अवज्ञा--(४) मन्द भाग्य--(५) दुष्ट और द्वेषियों पर विश्वास--ये पाँच महापद हैं ।

‘अभी रहने दें फिर समाप्त कर लूंगा’--‘फिर से इसे शुद्ध करूँगा’--‘मित्रों के साथ सलाह करूँगा’--इत्यादि प्रकार की यदि कवि के मन में चंचलता हो तो इसमें भी काव्य का नाश होता है ।

[कवियों को तर्कादिशास्त्र का ज्ञान भी आवश्यक है--ऐसा सिद्धांत राजशेखर का है । ठीक भी यही है । पर कुछ लोगों का कहना है कि तर्का-दिशास्त्र का परिशीलन कवित्वशक्ति का बाधक होता है । इसके प्रसंग में एक कथा पंडितों में प्रसिद्ध है । एक बड़े कवि थे--कहने पर तत्क्षण ही श्लोक बना लेते थे । काग़ज़ क़लम की आवश्यकता नहीं होती थी । अभी भी ऐसे कवि हैं जिन्हें ‘घटिकाशतक’ की उपाधि है--अर्थात एक़ घंटा में १०० श्लोक बना लेते हैं । उक्त कवि ने किसी राजा के दरबार में जाकर अपने आशक वित्व के द्वारा बड़ी प्रतिष्ठा पाई । राजा के सभापंडित से पूछा गया--आप लोग इतना शीघ्र श्लोक क्यों नहीं बना सकते ?’ पंडित ने कहा--‘जो पंडित शास्त्र पढ़ेगा वह इतना शीघ्र श्लोक नहीं बना सकेगा । इन कवि महाशय को भी यदि शास्त्र पढ़ाये जायँ तो यही दशा होगी । राजा ने कवि से कहा--‘आप कुछ दिन शास्त्र पढ़कर फिर आइए’ । कवि पंडित जी के पास गये । पंडित जी ने उन्हें तत्व-चिन्तामणि का प्रामा-ण्यवाद पढ़ाने लगे । दस दिन के बाद राजसभा में गये--समस्या दी गई । तो आप लगे सिर खुजलाने--और कुछ सोच विचार कर क़लम काग़ज़ मांगने लगे । किसी तरह श्लोक बनाया--अच्छा बना । दस दिन के बाद फिर आये तो बहुत देर तक प्रयत्न करने पर भी प्रस्तुत विषय पर श्लोक नहीं बन सका । बड़ी देर में केवल आधा अनुष्टुप् बना सके ।

नमः प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे--

“मेरी कवित्वशक्ति के नाश करने वाले प्रामाण्यवाद को नमस्कार”

तार्किक कवियों में सबसे प्रसिद्ध प्रसन्नराघवनाटककर्ता जयदेव हैं । तार्किक कवि कम होते हैं इस विश्वास को दूर करने के उद्देश्य से इस नाटक

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[ ५७ ]में परिपार्श्वक के द्वारा यह प्रश्न है कि ‘ये कवि तार्किक होते हुए भी कवि हैं यह आश्चर्य है’ । इस पर सुत्रधार कहता है--इसमें आश्चर्य क्या है--

येषां कोमलकाव्यकौशलकलालीलावती भारती

तेषां कर्कशतर्कवकरचनोद्गारेऽपि किं हीयते ।

यैः कान्ताकुचकुड्मले कररुहाः सानन्दमारोऽपिता

स्तैः किं मतकरीन्द्रकुम्भशिखरे नारोपणीयाः शराः॥

तात्पर्य यह है कि ‘जो कवि कोमल काव्य-कला में निपुण है सो क्या कठिन तर्क में निपुण नहीं हो सकता। जो पुरुष अपने हाथों से कोमल केलि करता है सो क्या उन्हीं हाथों से वाण नहीं चला सकता’ । इन्हीं जयदेव की एक और गौरवोक्ति मिथिला में प्रसिद्ध है--

तर्केषु कर्कशधियो वयमेव नान्यः ।

काव्यष कोमलधियो वयमेव नान्यः ॥

कान्तासुरंजितधियो वयमेव नान्यः ।

कृष्णे समर्पितधियो वयमेव नान्यः ॥