कवि-रहस्य/9 साहित्य का विषय
साहित्य का विषय अनन्त तथा निस्सीम है । पर दो प्रभेद में सभी अन्तर्गत होते हैं—'विचारितसुस्थ' तथा 'अविचारितरमणीय'। विचारितसुस्थ' दल में सभी शास्त्र हैं और 'अविचारितरमणीय' दल में काव्य—ऐसा उद्भट का सिद्धांत है। पर तत्त्व यह है कि शास्त्र हो या काव्य, निबन्धन में वही उपयोगी होगा जो जैसा प्रतिभासित (ज्ञात) होगा।
और काव्यों में रसयुक्त ही विषय होना चाहिए--नीरस या विरस नहीं । यह अनुभव की बात है कि कई विषय रस को पुष्ट करते हैं और कई उसे बिगाड़ते हैं । पर काव्यों में कवियों की उक्तियों में रसवत्ता शब्दों में है या अर्थों में सो अन्वयव्यतिरेक ही
से ज्ञात हो सकता है । अर्थात् किसी काव्य को देखने या सुनने
पर यदि हम देखें कि जो शब्द इनमें हैं ये जहाँ-जहाँ रहते हैं तहाँ तहाँ ही रस है--जहाँ ये शब्द नहीं हैं तहाँ रस नहीं हैं--तो ऐसे स्थल में शब्द ही से रस माना जायगा । जहाँ अर्थ ही के प्रसंग में ऐसा भान होगा तहाँ अर्थ ही से रस माना जायगा । कुछ लोगों का मत है कि बर्णित वस्तु कैसी भी हो--रस का होना या न होना वक्ता के स्वभाव पर निर्भर होता है । जैसे अनुरागी पुरुष जिसी पदार्थ की प्रशंसा करेगा विरक्त पुरुष उसी की
निंदा करेगा । वस्तु का स्वभाव स्वतः नियत नहीं है चतुर वक्ता की
वाक्यशैली पर बहुत कुछ निर्भर रहता है । ऐसा मत अवन्तिसुन्दरी
का है ।
इनका कहना है--
वस्तु स्वभावोऽत्र कवेरतन्त्रो गुणागुणावुक्तिवशेन काव्ये ।
स्तुवन्निबध्नात्यमृतांशुमिन्दुं निन्दंस्तु दोषाकरमाह धूर्तः ॥
कवि वस्तु स्वभाव के अधीन नहीं है । काव्य में वस्तुओं के गुण या दोष कवि की उक्ति पर ही निर्भर रहता है । चन्द्रमा एक ही बस्तु है । पर चतुर कवि जब उसकी प्रशंसा करता है तो उसको अमृतांशु (अमृतमय किरणवाला) कहता है--और जब उसी की निन्दा करता है तो दोषाकर (दोषों का आकर) कहता है ।’
पर असल में दोनों पक्ष ठीक है । काव्य का चमत्कार वर्णित वस्तु के स्वभाव पर भी निर्भर होता है और वस्तुओं के दोष-गुण कविकृत वर्णन पर भी निर्भर होते हैं ।
काव्य का विषय दो प्रकार का होता है--मुक्तकविषय तथा प्रबन्ध-
विषय । इन दोनों के प्रत्येक पाँच-पाँच प्रभेद हैं--शुद्ध, चित्र, कथोत्थ,
(१) मुक्तक-शुद्ध--जिसमें शुद्ध एकमात्र वृत्तांत है--जैसे
गरभनिवास त्रास हम विसरल पसरल विषयकप्रीति ।
(२) मुक्तक-चित्र--जिसमें वृत्तांत प्रपंच सहित है--
बाँधल छलहुँ गरभघर, जे प्रभु कयल उधार ।
तनिक चरण नहिं अरचह, की गुनि गरब अपार ॥
कोन छन की गति होएत, से नहिं हृदय विचार ।
एक रूप नहि थिररह, विषम विषय संसार ॥
मरमबेधि सहि वेदन, आस तदपि विसतार ।
विषय मनोरथ नव नव करम क गति के टार ॥
(३) मुक्तक-कथोत्थ-जहाँ एक वृत्तान्त से उत्थित दूसरा वृत्तान्त है——
हे शिव छुटल हमर मन त्रास ।
गिरिजावल्लभ चरणक भेलहुँ अन्तिम वयस में दास ॥
जनम जनम कुकरम जत अरजल--से सभ होइछ हरास ।
हमरहु हृदय भक्ति सुरलतिका, अविचल लेल निवास ॥
भन कविचन्द शिवक अनुकम्पा, सब जग शिवमय भास ।
उतपति पालन प्रलय महेश्वर, सभ तुअ भृकुटिविलास ॥
(४) मुक्तक-सँविधानकभू--जहाँ वृत्तान्त सम्भावित है--
भारी भरोस अहाँक रखैछी, कहैछी महादेव सत्य कथा क
दान कहाँ सकरू कर द्रव्य न, एको देखैछी न पुण्य कथा ॥
अपने दयाक दरिद्र वनी तँ, छूटै कहाँ लोकक आधिव्यथा ।
यदि नाथ निरंजन सर्व अहाँ, दुखभार पड़े किए मोर मथा ॥
(५) मुक्तक-लोकाख्यानकवान्--जिसमें वृत्तान्त परिकल्पित है--
आएल वसन्त वनिजार--पसरल प्रेम पसार
युवयुवती जन आव--हृदय अरपि रस पाव ।
(१) निबन्ध-शुद्ध--
कत कत हमर जनम गेल-कयल न सत उपचार ।
तकर पराभव अनुभव-भेलहुँ जगत के भार ॥
सेवलहुँ हम ने उमावर, केवल छल व्यवहार ।
करुणाकर दुख सुनथि न, दुस्सह दुख के टार ॥
(२) निबन्ध-चित्र--
अनकर अनुचर बनि हम रहलहुँ, सहलहुँ शिव हे नित अपमान ।
अनुचित करम उचित के जानल, आनल शिव हे पतितक दान ।
घरम सनातन एक न मानल, ठानल शिव हे मलिन प्रमान ।
चन्द्र विकल मन पतित के मोर सन-कर जनु शिव हे हृदय पखान ।।
(३) निबन्ध-कथोत्य--
भल भेल भल भेल त्यागल वास
छुटिगेल मोर मन दुरजन त्रास ।
भल भल लोकक वैसव पास
सपनहुँ सुनब न खल उपहास ।
मन न रहत मोर कतहु उदास
‘शिव’ ‘शिव’ रटब जखनधरि श्वास ।
(४) निबन्ध-संविधानकभू--
शिव प्रिय अभिनव गोति प्रीति सँ रचितहुँ
शिवतट विगतविकार भक्ति सँ नचितहुँ ।
महोदार करुणावतार को यचितहुँ
अन्त समय हम काल कराल सं बचितहुँ ।
अछि भरोस मन मोर दया प्रभु करता
शरणागत जन जानि सकल दुख हरता ।
४ (५) निबन्ध-आख्यानकवान्--
सखि सखि ललित समय लखु भोर--
नागर नागरि रैनि रंग करि सयन करै पिअ कोर ।
धीवर अंक मयंक तरणि चढ़ि शशिकर जाल पसार
उडुगण मीन बझाय चलल जनि गगनपयोनिधिपार ।
काव्य सभी भाषाओं में हो सकता है । भाव चाहिए । कोई एक हीभाषा में काव्य कर सकता है--कोई अनेक भाषाओं में--संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश, पैशाची इत्यादि ।
एकोऽर्थः संस्कृतोक्त्या स सुकविरचनः प्राकृतेनापरोऽस्मिन्
अन्योऽपन्भ्रशगीर्भिः किमपरमपरो भूतभाषाक्रमेण ।
द्वित्राभिः कोऽपि वाग्भिर्भवति चतसृभिः किञ्च कश्चिद् विवेक्तुं
यस्येत्थं धीः प्रपन्ना स्नपयति सुकवेस्तम्य कीर्तिर्जगन्ति ॥
_______