कवि-रहस्य/11 कवित्व-शिक्षा

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क्षेमेन्द्र ने कवित्व-शिक्षा के विषय में एक छोटा सा ग्रन्थ लिख डाला है जिसका नाम ‘कविकण्ठाभरण’ है । इसके अनुसार शिक्षा की पाँच कक्षायें होती हैं--(१) ‘अकवेः कवित्वाप्तिः’ कवित्व शक्ति का यत् किञ्चित सम्पादन । (२) ‘शिक्षा प्राप्तगिरः कवेः’, पदरचनाशक्तिसम्पादन करने के बाद उसकी पुष्टि करना । (३) ‘चमत्कृतिश्च शिक्षाप्तौ’--कविता-चमत्कार । (४) ‘गुणदोषोद्गतिः’ काव्य के गुण-दोष का परिज्ञान ।(५) ‘परिचयप्राप्ति’--शास्त्रों का परिचय ।

(१) अकवि की कवित्वप्राप्ति के लिए दो तरह के उपाय हैं--‘दिव्य’--यथा सरस्वती देवी की पूजा, मन्त्र, जप इत्यादि--तथा ‘पौरुष’ । पौरुष प्रयत्न के संबंध में तीन तरह के शिष्य होते हैं । ‘अल्पप्रयत्नसाध्य’--थोड़े प्रयत्न से जो सीख जाय ‘कृच्छ्रसाध्य’--जिसकी शिक्षा के लिए कठिन परिश्रम की अपेक्षा है ।‘असाध्य’--जिसकी शिक्षा हो ही न सके ।

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अल्पप्रयत्नसाध्य शिष्य के लिए ये उपाय हैं--

(क) साहित्यवेत्ताओं के मुख से विद्योपार्जन करना । शुष्क तार्किक या शुष्क वैयाकरण को गुरु नहीं बनाना । ऐसे गुरुओं के पास पढ़ने से सूक्ति का विकास नहीं होता ।

[शुष्क तार्किक या शुष्क वैयाकरण के प्रसंग कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं । किसी पंडित के पास एक तार्किक और एक वैयाकरण पढ़ता था । दोनों की बुद्धि जाँचने के लिए एक दिन घर में जाकर लेट गये अपनी कन्या से कहा--यदि विद्यार्थी आवे तो कह देना ‘भट्टस्य कट्यां शरटः प्रविष्टः’ (भट्टजी के कमर में छिपकली पैठ गई है) । व्याकरण का विद्यार्थी आया । कन्या की बात सुनकर वाक्य को व्याकरण से शुद्ध पाकर चला गया । न्यायशास्त्र का विद्यार्थी आया--उससे भी कन्या ने वही बात कही । पर उसने विचार करके देखा तो समझ गया कि यह तो असंभव है कि मनुष्य की कमर में छिपकली घुस जाय। गुरुजी बाहर निकले और कहा कि न्याय-शास्त्र ही बुद्धि को परिष्कृत करती है निरा व्याकरण नहीं । एक दिन दोनों विद्यार्थी कहीं जा रहे थे । रास्ते में शाम हो गई--एक वृक्ष के नीचे डेरा डालकर आग जलाकर एक हंडिये में चावल पानी चढ़ा दिया । वैया-करण रसोई बनाने लगा। नैयायिक बाजार से घृत लाने गया । जब चावल आधा पकने पर हुए तो ‘टुभ् टुभ्’ शब्द होने लगा । वैयाकरण ने धातु पाठ का पारायण करके विचारा कि ‘टुभ्’ धातु तो कहीं नहीं है--यह हंडिया अशुद्ध बोल रही है । बस ढेर सा बालू उसमें डाल दिया--बोली बन्द हो गई--वैयाकरण प्रसन्न हो गये--अशुद्ध शब्दोच्चारण अब नहीं होता । उधर नैयायिक महाशय एक दोना में घृत लेकर आ रहे थे तो उनके मन में यह तर्क उठा कि--इन दोनों वस्तुओं में कौन आधार है, कौन आधेय--अर्थात् घृत में दोना है या दोने में घृत । इस बात की परीक्षा करने के लिए उन्होंने दोने को उलट दिया । घृत ज़मीन पर गिर पड़ा--आप बड़े प्रसन्न हुए कि शंका का समाधान हो गया--दोना ही घृत का आधार था । डेरे पर पहुँचे तो हंडिया में बालू भरा पाया । पूछने पर वैयाकरण ने जवाब दिया-- “यह पात्र अशुद्ध बोल रहा था इससे मैंने इसका मुंह बन्द कर दिया–

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[ ५९ ]पर तुम घृत कहाँ लाये हो ?” नैयायिक ने कहा, मैंने आज एक बड़े जटिल प्रश्न को हल किया है-“दोना ही घृत का आधार है-घृत दोने का नहीं”। दोनों अपनी-अपनी चतुरता पर प्रसन्न होकर भूखे घर लौट आये ।]

(ख) व्याकरण पढ़कर——नाम, धातु तथा छन्दों में विशेष परिश्रम करके फिर काव्यों के सुनने में यत्न देना । विशेषकर देशभाषा के सरस गीत और गाथाओं को बड़े ध्यान से सुनना । इस तरह सरस काव्यों के सुनने से और उनके रसों में मग्न होने से कवित्व का अंकुर हृदय में उत्पन्न होता है ।

दूसरे दर्जे का शिष्य है ‘कृच्छ्रसाध्य’ । उसके लिए ये उपाय हैं --

कालिदास के सब ग्रन्थों को पढ़ना और उनके एक-एक पद, श्लोक-पाद और वाक्यों का एक चित्त होकर परिशीलन करना। कलिदास के पद्यों का कुछ हेर-फेर कर कुछ पद वा पदांश को छोड़कर अपनी ओर से उनकी पूर्ति करना । छन्द के अभ्यास के लिए पहले-पहल बिना अर्थ के ही वाक्यों की छन्दोबद्ध रचना करना--जैसे--

आनन्दसन्दोहपदारविन्दकुन्देन्दुकन्दोदितबिन्दुवृन्दम् ।

इन्दिन्दिरान्दोलितमन्दमन्दनिष्यन्दनन्दन्मकरन्दवन्धम् ॥

[इस चाल की शिक्षा आजकल के एक परम प्रसिद्ध कवि पण्डित की हुई है । बाल्यावस्था ही में उनके पिता ने उनको सरल छन्दों का ज्ञान करा दिया था--फिर उन्हें कहें ‘श्लोक बना’ । टूटे फूटे शब्दों को जोड़ कर छन्दोबद्ध पद्य बन जाता था--भाषा भी ऊटपटांग ही होती थी । फिर पिताजी उन श्लोकों की टीका बना लेते थे । इस कार्य में पिताजी ऐसे दक्ष थे कि किसी भाषा के कैसे भी वाक्य हों उनका संस्कृत व्याकरण के अनुसार वे अर्थ निकाल लेते थे । रघुवंश के द्वितीय सर्ग की उन्होंने एक टीका लिखी जिसके अनुसार समस्त सर्ग का यह अर्थ निकलता है कि दिलीप वसिष्ठ की गाय को चुरा ले गये । यह टीका सुप्रभात पत्र में छप रही है ।]

इसके अनन्तर प्रसिद्ध प्राचीन श्लोकों में हेर फेर कर उनकी प्रकारान्तर से पूर्ति करना । जैसे रघुवंश का पहला श्लोक है--

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वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥

इसका अनुकरण--

वाण्यर्थाविव संयुक्तौ वाण्यर्थप्रतिपत्तये ।

जगतो जनकौ वन्दे शर्वाणोशशिशेखरौ ॥

तृतीय प्रकार के शिष्य हैं ‘असाध्य’। इसके प्रसंग में क्षेमेन्द्र का सिद्धांत है कि जो मनुष्य व्याकरण या न्यायशास्त्र के पढ़ने से पत्थर के समान जड़ हो गया है--जिसके कानों में काव्य के शब्द कभी नहीं घुसे--ऐसे मनुष्य में कवित्व कभी भी नहीं उत्पन्न हो सकता--कितनी भी शिक्षा उसे दी जाय ।

दृीष्टांत--

न गर्दभो गायति शिक्षितोऽपि सन्दर्शितं पश्यति नार्कमन्धः।

(२) पद-रचना-शक्ति-सम्पादन करने के बाद उसके उत्कर्ष-सम्पा- दन के उपाय यों हैं--गणपतिपूजन, सारस्वतयाग करना, तदनन्तर छन्दो-बद्ध पद्यरचना का अभ्यास, अन्य कवियों के काव्य को पढना, काव्यांग विद्याओं का परिशीलन, समस्यापूर्ति, प्रसिद्ध कवियोंका सहवास, महाकाव्यों का आस्वादन, सौजन्य, सज्जनों से मैत्री, चित्त प्रसन्न तथा वेषभूषा सौम्य रखना, नाटकों के अभिनय देखना, चित्त शृंगाररस में पगा हो, अपने गान में मग्न रहना, लोकव्यवहार का ज्ञान, आख्यायिका तथा इतिहासों का अनुशीलन, सुन्दर चित्रों का निरीक्षण, कारीगरों की कारीगरी को मन लगाकर देखना, कवियों को यथाशक्ति दान देना, वीरों के युद्ध का निरीक्षण, सामान्य जनता के वार्तालाप को ध्यान से सुनना, श्मशान तथा जंगलों में घूमना, तपस्वियों की उपासना, एकान्तवास, मधुर तथा स्निग्ध भोजन, रात्रिशेष में जागना, प्रतिभा तथा स्मरणशक्ति का समुचित उद्बोधन, आराम से बैठना, दिन में कुछ सोना, अधिक सरदी तथा गरमी से बचना, हास्यविलास, जानवरों के स्वभाव का परिचय, समुद्र, पर्वत, नदी इत्यादि की स्थिति (भूगोल) का ज्ञान, सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रादि (खगोल) का ज्ञान, सब ऋतुओं के स्वभाव का ज्ञान, मनुष्य-मंडलियों में जाना, देशी

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[ ६१ ]का ज्ञान, पराधीनता से बचना, यज्ञमंडपों में. सभागृहों में तथा विद्या-शालाओं में जाना, अपनी उन्नति की चिंता न करना, दूसरों ही की उन्नति की चिंता करना, अपनी तारीफ़ में संकोच, दूसरों की तारीफ़ का अनुमोदन, अपने काव्यों की व्याख्या करना (“जीवत्कवेराशयो न वर्णनीयः”), किसी से वैर या डाह न करना, व्युत्पत्तिसम्पादन के लिए सभी लोगों का शिष्य

होना, किस समय कैसा काव्य पढ़ा जाय अथवा कैसे श्रोताओं को कैसा काव्य रुचिकर होता है इत्यादि ज्ञान--अपने काव्यों का देशान्तर में प्रचार, दूसरों के काव्यों का संग्रह, सन्तोष, याचना नहीं करना, कहा भी है--

विद्यावतां दातरि दीनता चेत् किं भारतीवैभवविभ्रमेण ।

वैन्यं यदि प्रेयसि सुन्दरीणां धिक् पौरुषं तत् कुसुमायुधस्य ॥

ग्राम्य (गॅवार) भाषा का प्रयोग नहीं करना--काव्य-रचना में खूब परिश्रम करना, पर बीच बीच में विश्राम अवश्य करना, नये-नये भावों और विचारों के लिए प्रयत्न, कोई अपने ऊपर आक्षेप करे तो उसे गंभीरता से सह लेना, चित्त में क्षोभ नहीं लाना, ऐसे पदों का प्रयोग करना जिनका समझना सुलभ हो, समस्त तथा व्यस्त पदों का यथोचित यथावसर प्रयोग--जिस काव्य का आरंभ किया उसे पूर्ण अवश्य करना ।

(३) इस तरह जो कवि शिक्षित हो चुका उसके काव्य में चमत्कार या रमणीयता परम आवश्यक है । बिना रमणीयता के काव्य में काव्यत्व नहीं आता । पंडितराज जगन्नाथ ने इसीलिए काव्य का लक्षण ही ऐसा किया है--‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ । यह रमणीयता दस प्रकार की होती है,

(१) अविचारित-रमणीय, जिस काव्य के आशय समझने या उसके अन्तर्गत रस के आस्वादन में विशेष सोचने की जरूरत नहीं होती--जैसे श्रीकृष्ण की मूर्ति के प्रति तुलसीदास की उक्ति--

सीस मुकुट कटि काछनी भले बने हो नाथ ।

तुलसी माथा तब नमै धनुष बाण लेहु हाथ ॥

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इसके आशय तथा अन्तर्गत भक्ति-भाव के समझने में विलम्ब नहीं होता ।

(२) विचार्यमाण रमणीय--जिसके रसास्वादन में कुछ सोचने की जरूरत होती है । जैसे बिहारी की उक्ति--

मानहु मुख दिखरावनी दुलहिन करि अनुराग ।

सासु सदन मन ललनहुँ सौतिन दियो सुहाग ॥

इसमें कुछ विचारने ही से अन्तर्गत भाव का बोध होता है । अथवा––

नयना मति रे रसना निज गुण लीन्ह ।

कर तू पिय झझकारे अपयस लीन्ह ॥

(३) समस्तसूक्तव्यापी--जो सम्पूर्ण कविता में है--उसके किसी एक आध खण्ड में नहीं । जैसे उक्त बिहारी का दोहा । अथवा तुलसी-दासजी का दोहा--

उदित उदयगिरिमंच पर रघुवर बालपतंग ।

विकसे सन्तसरोजवन हरष लोचनभंग ॥

यहाँ समस्त दोहा में भाव व्याप्त है––किसी एक खंड में नहीं ।

(४) सूक्तैकदेशदृश्य--जो कविता के किसी एक अंश में भासित हो । जैसे कुमारसम्भव के श्लोक में ।

द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः ।

कला च सा चान्द्रमसी कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी॥

पार्वतीजी से बटु कहता है--‘कपाली शिव जी के साथ रहने की इच्छा करती हुई तू तथा चन्द्रमा की कला दोनों शोचनीय दशा को प्राप्त हुई ।’ इस पद्य का समस्त भाव ‘कपालिनः’ पद में हैं । शिवजी का सहवास शोचनीय क्यों है ?--क्योंकि वे कपाली हैं, भिखारी हैं । जैसा साहित्य ग्रन्थों में लिखा है ‘कपालिनः’ पद के स्थान में यदि उसी अर्थ का पद ‘पिनाकिनः’ होता तो भाव पुष्ट नहीं होता । हिन्दी में यह एकदेशरमणीयता कवित्तों में अधिक पाई जाती है । यथा--एक कवित्त के पूर्वार्द्ध

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[ ६३ ]में विरहिणी वसन्त की शोभा का वर्णन करती हुई अन्त में कहती है--‘बिन प्यारे हमें नहिं जात सही’। इसका उत्तरार्द्ध यों है--(यह कविता मेरे भाई की है)--पूर्वार्द्ध मुझे स्मरण नहीं है ।

यदुनन्दन आयो अरी सजनी एक औचक में सखि आय कही।

सुनि चौकि चको उझको हरखाय उठी मुसुकाय लजाय रही।

अथवा पद्माकर का कवित्त--

लपटै पट प्रीतम को पहिरचौ पहिराय विये चुनि चूनर खासी....

कान्ह के कान में आँगुरि नाय रही लपटाय लवंगलता सी।

(५) शब्दगतरमणीयता । इसके उदाहरण पद्माकर के काव्य में अधिक पाये जाते हैं--यथा वसन्त-वर्णन--

कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में

क्यारिन में कलिन कलीन किलकंत है ।

कहै पदमाकर परागन में पानहूँ में

पानन में पीक में पलाशन पतंग है ।

द्वार में दिशान में दुनी में देश देशन में

देखो दीप दीपन में दीपत दिगंत है ।

बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में

बनन में बागन में बगरयो बसंत है ।

(६) अर्थगतरमणीयता——(रामायण)

तन सकोच मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेम लखि परै न काहू ॥

जाइ समीप राम छवि देखी । रहि जनु कुँवरि चित्र अवरेखी ॥

पद्माकर--

जैसी छवि श्याम की पगी है तेरी आँखिन में


ऐसी छवि तेरी श्याम आँखिन पगी रहै ।


कह पदमाकर ज्यों तान में पगी है त्योंही


तेरी मुसकानि कान्ह प्राण में पगी रहै ।

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धीर धर धीर घर कीरति किशोरी भई


लगन इतै उतै बराबर जगी रहैै ।


जैसी रटि तोहि लागी माधव की राधे ऐसी


राधे राधे राधे रट माधव लगी रहै ॥

यहाँ न शब्द की छटा है न अलंकार का चमत्कार--पर भाव कैसा प्रगाढ़ है !

(७) शब्दार्थोभयगतरमणीयता । (बिहारी ३२)

समरस समर-सकोच-बस विबस न ठिकु ठहराय ।

फिर फिर उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति जाय ॥

यहाँ समानलज्जामदना मध्या का स्वाभाविक चित्र हृदयग्राही है । साथ साथ शब्द-लालित्य भी है । तथा पद्माकर--

औरे रस औरे रीति औरे राग औरे रंग

औरे तन और मन औरे वन ह गये ॥

(८) अलंकारगत रमणीयता--

कहँ कुम्भज काँलेज सिन्धु अपारा । सोखेउ सुयश सकल संसारा।

रवि मंडल देखत लघु लागा। उदय तासु त्रिभुवन तम भागा॥

मन्त्र परम लघु तासु बस विधि हरि हर सुर सर्व ।

महामत्त गजराज कहँ वश कर अंकुश खर्व ॥

कैसी उपमाओं की शृंखला है ! फिर व्यतिरेक और उत्प्रेक्षा की छटा रामायण ही में--

गिरामुखर तनु अर्ध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ।


विष वारुनी बन्धु प्रिय जेही । कहिय रमासम किमु वैदेही ॥


जो छविसुधापयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥


शोभा रजु मन्दर शृंगारू । मथै पाणिपंकज निज मारू ॥


एहि विधि उपजै लच्छि सब सुन्दरता सुखमूल ।


तदपि सकोच समेत कवि कहहिं सीय समतूल ॥

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(९) रसगत रमणीयता । (बिहारी १४)

स्वेद सलिल रोमांच कुस गहि दुलहिन अरु नाथ ।

दियो हियो सँग नाथ के हाथ लिये ही हाथ ।

आत्मसमर्पण का वैसा सुन्दर चित्र है !

पद्माकर--

चन्दकला चुनि चूनरि चारु दई पहिराय सुनाय सुहोरी

बेंदी विशाखा रची पदमाकर अंजन आँजि समारि के गोरी ।

लागी जबै ललिता पहिरावन कान्ह को कंचुकि केसर बोरी

हेरि हरे मुसकाय रही अंचरा मुख दै वृषभान-किसोरी॥

हास्य का भी रमणीय वर्णन पद्माकर ने किया है--

हँसि हँसि भजै देखि दूलह दिगम्बर को

पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में ।

कहै पदमाकर सुकाहूसौं कहै को कहा

जोई जहाँ देखै सो हँसेई तहाँ राह में ।

मगन भयेई हँसै नगन महेश ठाढ़े

औरे हंसेऊ हँसो हँस के उमाह में

शीश पर गंगा हँसै भुजनि भुजंगा हँसै

हास ही को दंगा भयो नंगों के विवाह में ॥

(१०) रसालंकारोभयगतरमणीयता--के भी ये ही उदाहरण हैं ।

(४) कवि शिक्षा की चौथी शिक्षा है गुण-दोष-ज्ञान । यहाँ (१) शब्दवैमल्य (२) अर्थवैमल्य (३) रसवैमल्य ये तीन ‘गुण’ हैं, और (१) शब्दकालुष्य (२) अर्थकालुष्य (३) रसकालुष्य--ये तीन ‘दोष’ हैं ।

शब्दवैमल्य । यथा पद्माकर--

राधामयी भई श्याम की मूरत श्याममयी भई राधिका डोलें ।

शब्दकालुष्य----के उदाहरण वे होंगे जहाँ शृंगार या करुणरस के वर्णन में विकट वर्गों का प्रयोग होगा--या वीररस के वर्णन में कोमल

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[ ६६ ]वर्णों का प्रयोग । इस शब्दवैमल्य का विलक्षण उदाहरण भवभूति के उत्तररामचरित में मिलता है——

यथेन्दावानन्दं व्रजति समुपोढे कुमुदिनी

तथैवास्मिन् दृष्टिर्मम (यहाँ तक मैत्री भाव है इसलिए कोमल शब्द है । इसके आगे वीररस है तदनुकूल उद्भटवर्णन हैं )--

कलहकामः पुनरयम्

झणत्कारक्रूरक्वणितगुणगुंजद्गुरुधनुधूँत-

प्रेमा बाहुर्विकचविकरालोल्वणरसः॥

अर्थवैमल्य——(रामायण)--

भोजन समय बुलावत राजा। नहि आवत तजि बालसमाजा॥

कौशिल्या जब बोलन जाई । ठुमुकि ठुमुकि प्रभु चहिं पराई॥

निगम नेति शिव अन्त न पाई । ताहि धरै जननी हठि धाई॥

धूसर धूरि भरे तनु आये । भूपति बिहँसि गोद बैठाये ।

गृहस्थ सुख का कैसा हृदयग्राही चित्र है ।

अर्थकालुष्य--इसी वर्णन में यदि यह कहा होता कि ‘भागते--बालक को पकड़ कर माता ने दो थप्पड़ लगाया——जिस पर बालक चिल्लाने लगा--और पिताजी क्रुद्ध होकर पत्नी को भला बुरा कहने लगे’--तो चित्र बिलकुल कलुषित हो जाता ।

रसवैमल्य--बिहारी (७०१)-

ज्यौं है हौं त्यों होउँगो हौं हरि अपनी चाल ।

हठु न करो, अति कठिनु है मो तारिबो गुपाल ।

इसी के सदृश पंडितराज जगन्नाथ की उक्ति गंगाजी के प्रति है--

बधान द्रागेव द्रढिमरमणीयं परिकरं


किरीटे बालेन्दु निगडय दृढं पन्नगगणः ।


न कुर्यास्त्वं हेलामितरजनसाधारणधिया


जगन्नाथस्यायं सुरधुनिसमुद्धारसमय: ।

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(३) रसकालुष्य——यथा

काज निबाहे आपनो फिरि आवेंगे नाथ।

बोते यौवन ना कभी फिर आवत है हाथ ॥

यौवन की अस्थिरता का वर्णन शृंगाररस को कलुषित कर देता है ।

(५) कवि शिक्षा की पांचवीं कक्षा है ‘परिचय’ । ‘परिचय’ से यह तात्पर्य है कि कवि को इतने शास्त्रों का परिचय (ज्ञान) आवश्यक है--न्याय, व्याकरण, भरतनाट्यशास्त्र, चाणक्यनीतिशास्त्र, वात्स्यायनकाम-शास्त्र, महाभारत, रामायण, मोक्षोपाय, आत्मज्ञान, धातुविद्या, वादशास्त्र,रत्नशास्त्र,वैद्यक, ज्योतिष्, धनुर्वेद, गजशास्त्र, अश्वशास्त्र, पुरुषलक्षण, द्यूत, इन्द्रजाल, प्रकीर्णशास्त्र ।

अर्थात् बिना सर्वज्ञ हुए कवि होना असंभव है ।

यह तो हुआ राजशेखर तथा क्षेमेन्द्र के अनुसार कवियों की शिक्षा और उनके कर्त्तव्य ।