कवि-रहस्य/12 राजा का कर्तव्य

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कवि-रहस्य  (1950) 
द्वारा गंगानाथ झा

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राजा का कर्तव्य यह है कि कवि-समाज का आयोजन करे। इसके अधिवेशन के लिए एक सभा--‘हाल’--बनना चाहिए । जिसमें सोलह खम्भे चार द्वार और आठ मत्तवारणी (अटारियाँ) हों । इसी में लगा हुआ राजा का क्रीड़ा-गृह रहेगा । सभा के बीच में चार खम्भों को छोड़कर एक हाथ ऊँचा एक चबूतरा होगा । उसके ऊपर एक मणि-जटित वेदिका । इसी वेदिका पर राजा का आसन होगा । इसके उत्तर की ओर संस्कृत भाषा के कवि बैठेंगे । यदि एक ही आदमी कई भाषा में कवित्व करता हो तो जिस भाषा में उसकी अधिक प्रवीणता होगी वह उसी भाषा का कवि समझा जायगा । जो कई भाषाओं में बराबर प्रवीण है वह उठ उठकर जहाँ चाहे बैठ सकता है । इनके पीछे वैदिक, दार्शनिक, पौराणिक, स्मृतिशास्त्री, वद्य, ज्योतिषी इत्यादि । पूरब की ओर प्राकृत-भाषा के कवि । इनके पीछे नट, नर्तक, गायन, वादक, वाग्जीवन (‘वाक’ से जिनकी जीविका हो, ‘प्रोफेशनल लेक्चरर’ आजकल के उपदेशक), कुशीलव,

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[ ६८ ]तालावर (ताल देनेवाला--तबला या मृदंगवाला) इत्यादि । पश्चिम

की ओर अपभ्रंश भाषा के कवि--इनके पीछे चित्रकार, लेपकार, मणि जड़नेवाले, जौहरी, सोनार, बढ़ई, लोहार, इत्यादि । दक्षिण की ओर पैशाची भाषा के कवि । इनके पीछे वेश्यालम्पट, वेश्या, रस्सों पर नाचनेवाला, जादूगर, जम्भक (?), पहलवान, सिपाही, इत्यादि ।

इस सभा में काव्यगोष्ठी करके राजा काव्यों की परीक्षा करेगा । वासुदेव, सातवाहन, शूद्रक, साहसाङ्क इत्यादि प्राचीन राजाओं की चलाई हुई व्यवस्था के अनुसार यह परीक्षा होगी । सभा में बैठनेवाले सब हृष्ट-पुष्ट होंगे । सभा ही में पारितोषिक भी दिये जायेंगे । यदि कोई काव्य लोकोत्तर चमत्कार का निकले तो तदनुसार ही उस कवि का सम्मान होगा । ऐसी गोष्ठियाँ लगातार नहीं होंगी । कुछ दिनों के अन्तर पर हुआ करेंगी । दरभंगा के भूतपूर्व महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह प्रति सोमवार पंडितों की ऐसी सभा करते थे । इन गोष्ठियों में काव्य-रचना तथा शास्त्रार्थ हुआ करेंगे । काव्य और शास्त्र की चर्चा समाप्त होने पर विज्ञानियों की बारी आवेगी । देशान्तर से जो विद्वान् आवें उनका शास्त्रार्थ देशी पंडितों के साथ कराकर यथायोग्य पुरस्कार दिये जायँगे। इनमें यदि कोई नौकरी चाहें तो उनको रख लेना उचित है ।

इस व्यवहार का अनुसरण राजकर्मचारी भी यथाशक्ति करेंगे । अकबर के समय में राजा मानसिंह तथा टोडरमल के मकान में पंडितों की सभा हुआ करती थी ।

बड़े-बड़े शहरों में काव्यशास्त्र-परीक्षा के लिए ब्रह्मसभा की जायगी । इनमें जो लोग परीक्षोत्तीर्ण होंगे उनको ‘ब्रह्मरथयान’ तथा ‘पट्टबन्ध’ पारितोषिक मिलेगा । यह सम्मान उज्जयिनी में कालिदास, मेंठ, अमर, रूपसूर, भारवि, हरिचन्द्र, चन्द्रगुप्त--का और उससे भी पहले पाटलिपुत्र में उपवर्ष, वर्ष, पाणिनि, पिंगल, व्याडि, वररुचि, पतंजलि का हुआ था । रथ पर बैठाकर पंडित को राजा स्वयं उस रथ को खींच कर ले जाते थे इसे ‘ब्रह्मरथयान’ कहते हैं । सोने का मुकुट या बहुमूल्य पगड़ी पंडित के सिर पर बाँधी जाती थी--इसे ‘पट्टबन्ध’ कहते हैं ।

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पेशवाओं के समय में जिस पंडित पर पेशवा अधिक प्रसन्न होते थे उसे एक लाख दक्षिणा देकर पालकी पर बिठाकर उसमें स्वयं अपना कंधा लगाकर विदा करते थे । ऐसा सत्कार मैथिल-नैयायिक सचल मिश्र का पूना में हुआ था । इनके प्रपौत्र अभी वर्तमान हैं। जबलपुर जिला में भूमि भी इनको दी गई जो अब तक इनके सन्तान के हाथ में है ।

यह तो हुआ राजा-द्वारा पंडित-परीक्षा की व्यवस्था । जनताकृत पांडित्य-परीक्षा की प्रथा मिथिला में १५०, २०० वर्ष पहले तक थी । जब कोई पंडित देश-देशान्तर से धन प्रतिष्ठा लाभकर अपने देश लौटता था तब यदि वह अपने को तद्योग्य समझता था तो अपने देशवालों को कहता था--अब मैं सर्वत्र से प्रतिष्ठा लाभ कर आया हूँ । पर ‘किं तया हतया राजन् विदेशगतया श्रिया अरयो यां न पश्यन्ति यां न भुञ्जन्ति बान्धवाः’

उन्नति जो परदेश में सो उन्नति केहि काज ।

जाको शत्रु न देखिहैं बन्धु न आवत काज ॥

इसलिए मुझे अपने देश की प्रतिष्ठा की लालसा है। इस देश की सब से ऊँची प्रतिष्ठा ‘सरयन्त्र’ की है । यह परीक्षा मेरी हो यह मेरी अभिलाषा है । इस परीक्षा का क्रम यह था । पहले तो देशभर के पंडित कठिन से कठिन प्रश्न पूछते थे——केवल एक शास्त्र का नहीं सभी शास्त्रों का । इन सब प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देना पड़ता था । पंडित लोगों के सन्तुष्ट हो जाने पर सामान्य जनता प्रश्न पूछती थी । जिसके जो मन आता था पूछता था । सभों का संतोषजनक उत्तर करना पड़ता था । सभी लोग एक एक कर सन्तुष्ट हो गए तब यह प्रतिष्ठा मिलती थी । इस ‘सरयन्त्र’ पद का अर्थ क्या है सो अब किसी को मालूम नहीं है । पर प्रथा का नाम अब तक भी प्रसिद्ध है । दो सौ बरस हुए गोकुलनाथ उपाध्याय एक बड़े पंडित हुए——उनके रचित ग्रन्थ——न्याय, वेदान्त, साहित्य, काव्य, ज्योतिष, कर्मकांड के अब तक मिलते हैं——यहाँ तक कि एक ग्रन्थ इनका पारसी-प्रकाश’ नाम का है, जिसमें फारसी शब्दों के अर्थ संस्कृत में दिये हैं । इनकी सरयन्त्र परीक्षा हुई । इसमें इनसे पूछा गया——‘विष्ठा का स्वाद कैसा है ?

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[ ७० ]कुछ विचार कर इन्होंने उत्तर दिया ‘कटु’—— । ‘यह कैसे विश्वास करूँ ? प्राश्निक ने पूछा । उत्तर मिला, ‘सूअर जब विष्ठा खाता है तब उसकी आँखोंसे आँसू बहता है, यह केवल कटु पदार्थ ही के खाने से होता है’ । पूछनेवाला संतुष्ट हो गया ।

मिथिला में जब से पंडिताई की दक्षिणा में राज्य मिला तब से पंडितों की परीक्षा महाराज के दरबार में होती है । दरबारी प्रधान पंडित परीक्षा लेते हैं——उत्तीर्ण पंडितों को महाराज के सामने शास्त्रार्थ करना पड़ता है । पारितोषिक में प्रतिष्ठासूचक एक जोड़ा धोती का मिलता है——और महाराज की ओर से या और मिथिलास्थ धनियों की ओर से जब कभी पंडितों का निमंत्रण होगा तो इन्ही धोतीवालों की होगा । यह प्रथा अब तक जारी है ।