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कवि-रहस्य/15 देश-विभाग

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कवि-रहस्य
गंगानाथ झा

इलाहाबाद: हिन्दुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ७९ से – ८३ तक

 


कवि को देश, काल के विभागों का ज्ञान आवश्यक है ।

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समस्त जगत् को--और जगत् के भाग को भी--‘देश’ कहते हैं । ‘जगत्’ किसे कहते हैं--इसके प्रसंग में नाना मत हैं--(१) स्वर्ग और पृथिवी दोनों मिलकर ‘जगत्’ है । (२) स्वर्ग एक ‘जगत्’ है पृथिवी दूसरा ‘जगत्’ । (३) जगत् तीन हैं स्वर्ग, मर्त्य, पाताल । इन्हीं के नाम ‘भू’, ‘भुव’, ‘स्व’, भी हैं । (४) जगत् सात हैं, भू, भुव, स्व, मह, जन, तप, सत्य । (५) ये सात और ये हो सात वायुमंडल के--यों १४ ‘जगत्’ हैं । (६) ये १४ सात पातालों के साथ २१ ‘जगत्’ हैं ।

इनमें पृथिवी ‘भू’ लोक है । इसमें सात महाद्वीप हैं, सबके बीच में (१) जम्बूद्वोप, उसको घेरे हुए क्रम से--(२) प्लक्ष, (३) शाल्मल, (४) कुश, (५) क्रौंच, (६) शाक, (७) पुष्कर ।

समुद्र ७ हैं--(१) लवण, (२) रस, (३) सुरोदक, (४) घृत, (५) दधि, (६) जल, (७) दुग्ध । कुछ लोगों का सिद्धांत है कि लवण ही एकमात्र समुद्र है । और लोगों के मत से ३, किसी के मत से ४ ।

जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु-पर्वत है--यह सब औषधियों का निधान है--यहीं सब देवता रहते हैं । यही मेरु पहला वर्षपर्वत है । मेरु की चारों ओर इलावृतवर्ष है । मेरु के उत्तर में नील, श्वेत, शृंगवान् ये तीन वर्षगिरि हैं । इनसे क्रमशः सम्बद्ध तीन वर्ष' हैं रम्यक, हिरण्मय, उत्तरकुरु । मेरु के दक्षिण में भी तीन वर्षगिरि है-निषध, हेमकूट, हिमवान् । इनसे क्रमशः संबद्ध तीन वर्ष हैं-हरि, किम्पुरुष, भारत । यह हमारा देश भारतवर्ष है । इसके ९ प्रदेश हैं--इन्द्रद्वीप, कसेरुमान्, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वरुण, कुमारीद्वीप ।

दक्षिण समुद्र से लेकर हिमालय तक १,००० योजन होता है । इसे जो जीते वह ‘सम्राट्' कहलायेगा । कुमारीपुर से विन्दुसरपर्यत १,००० योजन को जीतने से ‘चक्रवर्ती’ कहलायेगा ।

कुमारीद्वीप के सात पर्वत है--विन्ध्य, पारियात्र, शुक्तिमान्, ऋक्ष, महेन्द्र, सहय, मलय ।

पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र के बीच में, हिमालय--विन्ध्य के बीच में, आर्यावर्त है ।

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इसी देश में चार वर्णों की और चार आश्रमों की व्यवस्था है, तन्मूलक ही सदाचार भी । प्रायः यहाँ के जो व्यवहार हैं वही कवियों का होना चाहिए ।

काशी के पूर्व का भाग ‘पूर्व देश’ है । इसमें इतने जनपद हैं--अंग, कलिंग, कोसल (?), तोराल, मगध, मुद्गर, विदेह, नेपाल, पुण्ड्र, प्राग्-ज्योतिष, ताम्रलिप्तक, मलद, मल्लवर्तक, सुह्म, ब्रह्मोत्तर इत्यादि । [ यहाँ 'कोसल' का नाम लेखप्रमाद से अन्तर्गत हो गया है, किसी भी प्रमाण के अनुसार कोसल देश काशी के पूर्व में नहीं माना गया है । इन नामों में कुछ ऐसे हैं जिनके नाम आजकल भी परिचित मालूम होते हैं परन्तु इसी के बल से दोनों को एक मान लेने में भ्रम की सम्भावना है । जैसे मुद्गर (मुंगेर), ताम्रलिप्तक (तामलूक), मलद (मालदह), मल्लवर्तक (मालवा,) ब्रह्मोतर (ब्रह्मपुत्रप्रान्त)।]--इस प्रांत के पर्वत हैं--बृहद्गृह, लोहितगिरि, चकोर, दर्दुर, नैपाल, कामरूप, इत्यादि । शोण, लौहित्य दो नद हैं । गंगा, करतोया, कपिशा इत्यादि नदियाँ । लवली, ग्रन्थिपर्णक, अगरु, द्राक्षा, कस्तूरिका यहाँ उत्पन्न होते हैं ।

माहिष्मती (मंडला) से दक्षिण का देश दक्षिणापथ (दकन) है । इसके अन्तर्गत ये जनपद हैं--महाराष्ट्र, माहिषक, अश्मक, विदर्भ, कुन्तल, क्रथकैशिक, सूपरिक, कांची, केरल, कावेर, मुरल, वानवासक, सिंहल, चोल, दंडक, पांड्य, पल्लव, गांग, नाशिक्य, कोंकण, कोल्लगिरि, वल्लर इत्यादि । यहाँ के पर्वत हैं--विन्ध्य का दक्षिण भाग, महेन्द्र, मलय, मेकल, पाल, मंजर, सहय, श्रीपर्वत इत्यादि । नदियाँ--नर्मदा, तापी, पयोष्णी, गोदावरी, कावेरी, भैमरथी, वेणा, कृष्णवेणा, वञ्जरा, तुंगभद्रा, ताम्रपर्णी, उत्पलावती, रावणगंगा इत्यादि ।

देवसभा के पश्चिम ‘पाश्चात्यदेश’ है । इसके जनपद हैं--देवसभ, सुराष्ट्र, दशेरक, श्रवण, भृगुगच्छ, कच्छीय, आनर्त, अर्बुद, ब्राह्मणवाह, यवन इत्यादि । नदियाँ--सरस्वती, श्वभ्रवती, वार्तध्नी, मही, हिडिम्बा इत्यादि । करीर, पीलु, गुग्गुल, खर्जूर, करभ यहाँ उत्पन्न होते हैं ।

पर्वत यहाँ के-गोवर्धन, गिरनार, देवसम, माल्यशिखर, अर्बुद इत्यादि ।

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पृथूदक के उत्तर ‘उत्तरदेश’ है । इसके जनपद है——शक, केकय, बोक्काण, हूण, बाणायुज, काम्बोज, बाह्लीक, वह्लव, लिम्पाक, कुलूत, कीर, तंगण, तुषार, तुरुष्क, बर्बर, हरहूव, हूहुक, सहुड, हंसमार्ग, रमठ, करकंठ इत्यादि । पर्वत--हिमालय, कलिन्द, इन्द्रकील, चन्द्राचल इत्यादि नदियां--गंगा, सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु, चन्द्रभागा, यमुना, इरावती, वित- स्ता, विपाशा, कुहू, देविका इत्यादि । यहाँ उत्पन्न होते हैं--सरल, देवदारु, द्राक्षा, कुंकुम, चमर, अजिन, सौवीर स्रोतोंजन, सैन्धव, वैदूर्य, तुरंग इत्यादि ।

इन सभों के बीच में, अर्थात् काशी से पश्चिम, माहिष्मती से उत्तर, देवसभा से पूरब, और पृथूदक से दक्षिण, जो देश है उसे ‘मध्यदेश’ कहते हैं । ऐसा कवियों का व्यवहार है । शास्त्र के अनुसार ही यह व्यवहार मालूम होता है । क्योंकि मनुस्मृति में लिखा है--

हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये यत् प्राग् विनशनादपि ।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ।।

विनशन (कुरुक्षेत्र) और प्रयाग--गंगा, यमुना के बीच का देश ‘अन्तर्वेदि’ है । इसी को केन्द्र मानकर दिशाओं का विभाग करना ऐसा आचार्यों का सिद्धांत है । इसमें भी विशेष करके महोदय को केन्द्र मानना । इसके प्रसंग कई तरह के मत हैं । पौराणिक मत है--इन्द्र देवता से अधि-ष्ठित दिशा पूर्व', अग्नि देवता की आग्नेय, यम की दक्षिण, नैऋति की ‘नैऋत्य’, वरुण की ‘पश्चिम’, वायु की 'वायव्य', कुवेर की ‘उत्तर’, ईशान की 'ऐशान', ब्रह्मा की ‘ऊर्ध्व’, नाग की ‘अधः’। वैज्ञानिक सिद्धांत में ताराओं के अनुसार यों है--चित्रा, स्वाती के बीच ‘पूर्व’ उसके सामने (पश्चिम), ध्रुव तारा की ओर 'उत्तर', उसके सामने ‘दक्षिण’। इनके बीच में अवान्तर दिशाएँ हैं । कवियों में ये सब व्यवहृत हैं ।

जिस देश की जैसी स्थिति, पर्वत, नदी इत्यादि हैं वैसा ही वर्णन करना उचित है ।

भिन्न-भिन्न देशवासियों के शरीर के रंग के प्रसंग में राजशेखरसिद्धांत यों है--

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पूर्वदेशवासी ‘श्याम’, दक्षिणदेशवासी ‘कृष्ण’, पश्चिमदेशवासी ‘पांडु’ उत्तरदेशवासी ‘गौर’ । मध्यदेशवासियों में तीनों पाये जाते हैं । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि कवियों के व्यवहार में ‘कृष्ण’ और ‘श्याम’ तथा ‘पांडु’ और ‘गौर’ में भेद नहीं किया जाता है ।

यह वर्ण का नियम केवल आपाततः कहा गया है । क्योंकि पूर्व-देश-वासी सभी काले नहीं होते । यहाँ की राजकन्या इत्यादि का वर्ण ‘पांडु’ या ‘गौर’ पाया जाता है । ऐसा ही दक्षिण देश में भी ।