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कवि-रहस्य/14 कवि समय

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कवि-रहस्य
गंगानाथ झा

इलाहाबाद: हिन्दुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ७७ से – ७९ तक

 

(५)

काव्यों में कुछ ऐसी बातें आती हैं जो न शास्त्रीय हैं न लौकिक किन्तु अनादि काल से कवि इनका व्यवहार करते आये हैं । ये ‘कविसमय’, ‘पोएटिकल कन्वेन्शन’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये बातें एकदम अशास्त्रीय हैं वा अलौकिक हैं यह सहसा कह देना कठिन है--जब हम इनको अनादि काल से व्यवहृत पाते हैं । शास्त्र अनन्त हैं--देश अनन्त हैं । लोकानु-भव भी अनन्त हैं। फिर यह कहने का साहस किसको हो सकता है कि यह बात शास्त्रों में कही नहीं हैं--या ऐसा अनुभव कभी किसी का नहीं हुआ ? इसी विचार से इन कवि-समयों का प्रयोग दुष्ट नहीं समझा जाता ।

ये कवि-समय तीन प्रकार के हैं--स्वग्रर्य, भौम, पातालीय । इन तीनों में भौम प्रधान है । ये तीनों प्रत्येक तीन प्रकार के होते हैं--असत् बात का कहना, सत् का नहीं कहना, अनियत को नियत करना ।

(१) भौम--असत् बात का कहना । नदी में कमल का वर्णन (बहता जल में कमल नहीं होला)--जलाशय-मात्र में हंस का वर्णन (हंस केवल मानसरोवर में रहते हैं)--सभी पर्वतों में सोना रत्न इत्यादि की उत्पत्ति का वर्णन (असल में सब पर्वतों में ये सब चीजें उत्पन्न नहीं होतीं) स्त्री के कमर को ‘मुष्टिग्राहय’, मुट्ठी भर, वर्णन करना–अन्धकार को ‘सूचीभेद्य’, सूई से छेदने लायक बतलाना--चक्रवाकों की जोड़ी रात को अलग रहती है, चकोर चन्द्रकिरणों को पीता है, इत्यादि ।

(२) भौम——सत् का नहीं कहना । वसन्त ऋतु में मालती का वर्णन

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नहीं करना——चन्दन वृक्ष के फूलों का वर्णन नहीं करना——अशोक वृक्ष के फलों का वर्णन नहीं करना——यद्यपि कृष्णपक्ष भर में चाँदनी उतने ही घंटों तक रहती जितना शुक्लपक्ष में तथापि कृष्णपक्ष में चाँदनी का वर्णन नहीं करना——उसी तरह शुक्ल पक्ष में अन्धकार का वर्णन नहीं करना——दिन में नील कमल के विकास का वर्णन नहीं करना——शेफालिका (हरसिंगार) फूल का रात्रि समय के कारण वृक्ष से नहीं गिरने का वर्णन ।

(३) भौम——अनियत को नियत करना । मगर यद्यपि सभी बड़े जलाशयों में पाये जाते हैं तथापि केवल गंगा में इनका वर्णन करना——मोती यद्यपि अनेक जलाशयों में मिलता है तथापि केवल ताम्रपर्णी नदी में इसका वर्णन करना——चन्दन-वृक्ष यद्यपि सर्वत्र हो सकते हैं तथापि मलयपर्वत ही में इमका वर्णन करना——भूर्जपत्र यद्यपि अनेक उच्च पर्वतों में मिलता है तथापि केवल हिमालय में इसका वर्णन करना——कोकिल की की कूक यद्यपि ग्रीष्मादि ऋतु में भी सुन पड़ता है तथापि केवल वसन्त में इसका वर्णन करना——मयूर यद्यपि और समयों में भी नाचते गाते हैं तथापि वर्षा ही में इनका वर्णन करना ।

[ऐसे ही कवि-समयों का एक यह संग्राहक श्लोक प्रसिद्ध है-

स्त्रीणां स्पर्शात् प्रियंगु र्कसति बकुलः सीधुगण्डूषसेकात्

पादाघातादशोकस्तिलककुरवकौ वीक्षणालिङ्गनाभ्याम् ।

मन्दारो नर्मवाक्यात्पटुमधुहसनाच्चम्पको वक्तवातात्

चूतो गीतान्नमेरुर्विकसति हि पुरोनर्तनात् कर्णिकारः॥

अर्थात्——प्रियंगु स्त्रियों के छूने से फूलता है, बकुल स्त्रियों के मुख से दिये हुए मद्य के छींटे से, अशोक उनके पैर के आघात से, तिलक उनके ताकने से, कुरवक उनके आलिगन से, मन्दार उनके मधुर वचन से, चम्पक उनके कोमल हँसी से, आम उनके मुखवायु से, नमेरु उनके गीत से, कर्णिकार उनके नाचने से]

ये हुए द्रव्यों के प्रसंग कवि-समय । गुणोंके प्रसंग कवि-समय यों हैं——

(१) असत् गुण का वर्णन । पुण्य, यश और हास को श्वेत कहना,

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अयश और पाप को काला——क्रोध, अनुराग इत्यादि को लाल ।

(२) सत् गुण का नहीं कहना । कुन्द फूल की कलियाँ यद्यपि लाल-सी होती हैं तथापि इनकी लालिमा का वर्णन नहीं करना——कमल की कली यद्यपि हरी होती है तथापि इस हरियाली का वर्णन नहीं करना ।

(३) अनियत गुण को नियत करना——सामान्यतः मणियों को लाल कहना, फूलों को श्वेत, मेघ को काला । यद्यपि मणि और फूल नाना रंग के होते हैं और मेघ भी सभी काले नहीं होते ।

इनके अतिरिक्त और कई तरह के कवि-समय भी हैं । कृष्ण-नील को एक कहना, इसी तरह कृष्ण-हरित को, कृष्ण-श्याम को, पीत-रक्त को, शुक्ल-गौर को । फिर नेत्रादि को नाना वर्ण करके वर्णन करना । आँखों के वर्णन में कहीं शुक्लता, कहीं कृष्णता, कहीं मिश्रवर्ण का वर्णन पाया जाता है ।

स्वर्गीय विषयक कवि-समय ये हैं । (१) चन्द्रमा के वर्णन में शश और हरिण को एक करना । (२) कामदेव के चिह्न में मगर और मत्स्य को एक करना । (३) ‘अत्रिनेत्रसमुत्पन्न’ और ‘चन्द्र’ को समानार्थ करना ।(४) शिवभालस्थचन्द्रमा की उत्पत्ति हुए हजारों वर्ष हुए तथापि उनका वर्णन ‘बाल’ (बच्चा) ही करके होता है । (५) काम है इच्छाविशेष.इसे शरीर नहीं है, तथापि इसके शरीर धनुष, तीर इत्यादि का वर्णन । (६) सूर्य है १२, पर वर्णन एक ही करके होता है । (७) ‘लक्ष्मी’--‘सम्पत’ तुल्यार्थ समझे जाते हैं ।

पातालीय विषयक कविसमय——(१) नाग और सर्प को एक मानना । (२) दैत्य, दानव, असुर यद्यपि भिन्न हैं तथापि एक मानकर ही वर्णित होते हैं । यथार्थ में हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, विरोचन, बाण इत्यादि दैत्य थे । विप्रचित्ति, शम्बर, नमुचि, पुलोम, इत्यादि ‘दानव’ थे--और बल, वृत्र, विक्षुरस्त, वृषपर्व इत्यादि ‘असुर’ थे ।