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कामना/2.1

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कामना
जयशंकर प्रसाद

वाराणसी: हिंदी पुस्तक भंडार, पृष्ठ ४५ से – ५१ तक

 

दूसरा अंक

पहला दृश्य

स्थान―जंगल

(विलास, कामना, विनोद और लीला)

लीला―बहुत दूर चले आये। अब हम लोगो को लौटना चाहिये।

विलास―क्यो?

लीला―इधर जानवर बहुत मिलेंगे।

विलास―हाँ, इधर तो द्वीप के निवासी बहुत ही कम आते हैं।

विनोद―हम समझते हैं, अब इस द्वीप के मनुष्यो को और भूमि की आवश्यकता न होगी।

कामना―आवश्यकता तो हो ही गी।

विलास―फिर इतना दुर्गम कांतार अनाक्रांत क्यो छोड़ दिया जाय? सम्भव है, कालांतर में इधर ही बसना पड़े।

४५

विनोद--तब इधर--

विलास--तुम्हारे पास तीर और धनुष क्यों है?

विनोद--आने वाले भय से रक्षा के लिए।

विलास--परतु, यदि तुम्ही उनके लिए भय के कारण बन जाओ, तब?

विनोद--कैसे?

विलास--मूर्ख, दुर्दान्त पशु जब तुम्हारे ऊपर आक्रमण करते है, तब तुम अपने को बचाते हो। यदि तुम उन पर आक्रमण करने लगो, तो वे स्वयं भागेगे।

(चार युवक तीर और धनुष लिये आते है)
 

विलास--ये लोग भी आ गये।

कामना--हाँ, अब तो हम लोगो का एक अच्छा दल हुआ।

आगंतुक--कहिये, आज यहाॅ कौन-सा नया खेल है?

विलास--जो तुमको हानि पहुॅचाने के लिए सदैव तत्पर है, उन्हे यदि तुम भयभीत कर सको, तो वे स्वयं कभी साहस न करेगे, और साथ ही एक खेल भी होगा। आगंतुक--बात तो अच्छी है।

विलास--अच्छा, सब लोग भयानक चीत्कार करो, जिससे पशु निकलेंगे, और तब तुम लोग उन पर तीर चलाना।

सब--(आश्चर्य से) ऐसा।

विलास--हाँ।

(सब चिल्लाते हैं, ताली पीटते है, पशुओ का भीतर दौड़ना, तीर लगना और छटपटाना)

सब--बड़ा विचित्र खेल है।

विलास--खेल ही नहीं, यह व्यायाम भी है।

कामना--परंतु विलास, देखो यह हरी-हरी घास रक्त से लाल रॅगी जाकर भयानक हो उठी है, यहाँ का पवन भाराक्रांत होकर दबे-पाँव चलने लगा है।

विलास--अभी तुमको अभ्यास नहीं है रानी। चलो विनोद, सबको लिवाकर तुम चलो।

(विलास और कामना को छोड़कर और सब जाते है)

कामना--विलास!

विलास--रानी!

कामना--तुमने ब्याह नहीं किया।

विलास--किससे?
कामना--मुझी से, उपासना-गृह की प्रथा पूरी नहीं हुई।

विलास--परंतु और तो कुछ अंतर नहीं है। मेरा हृदय तो तुमसे अभिन्न ही है। मै तुम्हारा हो चुका हूॅ।

कामना--परंतु--(सिर झुका लेती है)

विलास--कहो कामना। (ठुड्डी पकड़कर उठाता है)

कामना--मै अपनी नहीं रह गई हूॅ प्रिय विलास क्या कहूॅ।

विलास--तुम मेरी हो। परंतु सुनो, यदि इस विदेशी युवक से व्याह करके कही तुम सुखी न होओ, या कभी मुझी को यहाॅ से चले जाना पड़े?

कामना--(आश्चर्य और क्षोभ से) नही विलास, ऐसा न कहो।

विलास--परंतु अब तो तुम इस द्वीप की रानी हो। रानी को क्या व्याह करके किसी बंधन मे पड़ना चाहिये।

कामना--तब तुमने मुझे रानी क्यों बनाया?

विलास--रानी, तुमको इसलिए रानी बनाया कि तुम नियमों का प्रवर्तन करो। इस नियम-पूर्ण

संसार मे अनियंत्रित जीवन व्यतीत करना क्या मूर्खता नहीं है? नियम अवश्य हैं। ऐसे नीले नभ में अनंत उल्का-पिड, उनका क्रम से उदय और अस्त होना, दिन के बाद नीरव निशीथ, पक्ष-पक्ष पर ज्योतिष्मती राका और कुहू, ऋतुओ का चक्र, और निस्संदेह शैशव के बाद उद्दाम यौवन, तब क्षोभ से भरी हुई जरा--ये सब क्या नियम नहीं हैं?

कामना--यदि ये नियम है, तो मैं कह सकती हूँ कि अच्छे नियम नहीं है। ये नियम न होकर नियति हो जाते है, असफलता की ग्लानि उत्पन्न करते है।

विलास--कामना! उदार प्रकृति बल, सौदर्य और स्फूर्ति के फुहारे छोड़ रही है। मनुष्यता यही है कि सहज़-लब्ध विलासो का, अपने सुखो का संचय और उनका भोग करे। नियमो के लिए भले और बुरे, दोनों कर्त्तव्य होते है, क्योकि एक नियम बड़ा कड़ा है, उसे कहते हैं "प्रतिफल"। कभी-कभी उसका अत्यंत भयानक दिखाई पड़ता है, उससे जी घबराता है। परंतु मनुष्यो के कल्याण के लिए उसका उपयोग करना ही पड़ेगा, क्योकि स्वयं प्रकृति वैसा करती है। देखो, यह सुंदर फूल झड़कर गिर पड़ा।
जिस मिट्टी से रस खीचकर फूला था, उसी मे अपना रंग-रूप मिला रहा है। परंतु विश्वम्भरा इस फूल के प्रत्येक केसर बीज को अलग-अलग वृक्ष बना देगी, और उन्हे सैकड़ों फूल देगी।

कामना--इसमे तो बड़ी आशा है।

विलास--इसी का अनुकरण, निग्रह-अनुग्रह की क्षमता का केंद्र, प्रतिफल की अमोघ शक्ति में यथाभाग-संतुष्ट रखने का साधन, राजशक्ति है। इस देश के कल्याण के लिए उसी तंत्र का तुम्हारे द्वारा प्रचार किया गया है, और तुम बनाई गई हो रानी। और रानी का पुरुष कौन होता है, जानती हो?

कामना--नहीं, बताओ।

विलास--राजा। परंतु मै तुम्हे ही इस द्वीप की एकच्छत्र अधिकारिणी देखा चाहता हूँ। उसमें हिस्सा नही बॅटाना चाहता।

कामना--तब मेरा रानी होना व्यर्थ था।

विलास--परंतु तुम्हारी सब सेवा के लिए मै प्रस्तुत हूॅ। कामना, तुम द्वीप-भर मे कुमारी ही बनी रहकर अपना प्रभाव विस्तृत करो। यही तुम्हारे रानी बने रहने के लिए पर्याप्त कारण हो जायगा। कामना―यह क्या? झूठ।

विलास―मै जो कहता हूँ। चलो, वे लोग दूर निकल गये होगे।

(दोनो जाते हैं)

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