कामना/2.2

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ५१ ]

दूसरा दृश्य

(पथ मे विवेक)

विवेक―डर लगता है। घृणा होती है। मुॅह छिपा लेता हूँ। उनकी लाल आँखो में क्रूरता, निर्दयता और हिंसा दौड़ने लगी है। लोभ ने उन्हे भेड़ियो से भी भयानक बना रक्खा है। वे जलती-बलती आग मे दौड़ने के लिए उत्सुक है। उनको चाहिये कठोर सोना और तरल मदिरा—देखो-देखो, वे आ रहे है।

(अलग छिप जाता है)

(मद्यप की-सी अवस्था में दो द्वीप-वासियो का प्रवेश)

१―आहा! लीला की कैसी सुंदर गढ़न है।

२―और जब वह हार पहन लेती है, तो जैसे संध्या के गुलाबी आकाश में सुनहरा चाँद खिल जाता है।

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[ ५२ ]१—देखो, तुम उसकी ओर न देखना।

२—क्यो, विनोद को छोड़कर तुम्हे भी जब यह अधिकार है, तब मै ही क्यों वंचित रहूँ?

१—परंतु फिर तुम्हारी प्रेयसी को—

२—बस, बस, चुप रहो।

१—तब क्या किया जाय। वह मुझसे कंकणों के लिए कहती थी, इतना सोना मैं कहाँ से इकट्ठा करूँ ?

२—नदी की रेत से।

१—बड़ा परिश्रम है।

२—तब एक उपाय है-

१—क्या?

२—शांतिदेव इधर आनेवाला है। उसके पास बहुत-सा सोना है। वह ले लिया जाय। तीर और धनुष तो है न?

१—यही करना होगा।

(विवेक का प्रवेश)

विवेक-क्यो, क्या सोचते हो युवक?

१—तुमसे क्यों कहूँ?

२—तुम पागल हो।

विवेक-उन्मत्त। व्यभिचारी!! पशु!!! [ ५३ ]१—चुप बूढ़े।

विवेक—व्यभिचार ने तुम्हे स्त्री-सौंदर्य का चित्र दिखलाया है, और मदिरा उस पर रंग चढ़ाती है। क्यो, क्या यह सौदर्य पहले कहीं छिपा था जो अब तुम लोग इतने सौदर्य-लोलुप हो गये हो ।

१—जा, जा, पागल बूढ़े, तू इस आनंद को क्या समझे?

विवेक-सौंदर्य, इस शोभन प्रकृति का सौंदर्य विस्मृत हो चला। हृदय का पवित्र सौंदर्य नष्ट हो गया । यह कुत्सित, यह अपदार्थ—

२—मूर्ख है, अंधा है। अरे मेरी आँखों से देख, तेरी आँखें खुल जायँगी, कुत्सित हृदय सौदर्य-पूर्ण हो जायगा । बूढ़े, परंतु तुझे अब इन सब बातों से क्या काम ? जा।

१—तुझे क्या यदि उसकी भौंह में एक बल है, आँखों के डोरे में खिचाव है, वक्षस्थल पर तनाव है, और अलकों में निराली उलझन है, चाल में लचीली लटक है ? तू आँखें बंद रख ।

२—उस पर उस चमकते हुए सोने के कंकण- हारों से सुशोभित अम्मान आभूषण-परिपाटी ! मूर्ख-

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[ ५४ ]

कामना

१—पागल है।

विवेक—मै पागल हूँ | अच्छा है जो सज्ञान नही हूँ, इस बीभत्स कल्पना का आधार नहीं हूँ। हाय | हाय ! हमारे फूलो के द्वीप के फूल अब मुरझा- कर अपनी डाल से गिर पड़ते हैं। उन्हें कोई छूता नहीं । उनके सौरभ से द्वीप-वासियो के घर अब नहीं भर जाते । हाय मेरे प्यारे फूलों ।(जाता है)

दोनो—जा, जा । (छिप जाते हैं)

(शांतिदेव का प्रवेश)

शांतिदेव—मै इसे कहाँ रक्खूँ , किधर से चलूँ ? हैं, मुझे क्या हो गया ! क्यो भयभीत हो रहा हूँ? इस द्वीप मे तो यह बात नहीं थी। परंतु, तब सोना भी तो नही था । अच्छा, इस पगडंडी से निकल चलूं।

( बगल से निकलना चाहता है कि दोनों छिपे हुए तीर चलाते हैं। शांतिदेव गिर पड़ता है । दोनों आकर उसको दबा लेते है । सोना खोजते हैं)

(अकस्मात शिकारियों के साथ कामना का प्रवेश)

कामना—यह क्या, तुम लोग क्या कर रहे हो ?

लीला-हत्या—

५४ [ ५५ ]विलास-घोर अपराध !

कामना-(शिकारियो से) बाँध लो इनको, ये हत्यारे है।

(सब दोनों को पकड़ लेते है। शांतिदेव को उठाकर ले जाते हैं)

[पट-परिवर्तन ]