कामना/2.7

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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कामना

सातवॉ दृश्य

स्थान-जंगल में एक कुटी

( वृक्ष के नीचे करुणा बैठी हुई)

संतोप-(प्रवेश करके) पतझड़ हो रहा है, पवन ने चौका देने वाली गति पकड़ ली है-इसे वसन्त का पवन कहते है-मालूम होता है कि कर्कश और शीर्ण पत्रो के बीच चलने में उसकी असुविधा का ध्यान करके प्रकृति ने कोमल पल्लवो का सृजन करने का समारम्भ कर दिया है। विरल डालों मे कही-कहीं दो फूल और कहीं हरे अंकुर झूलने लगे हैं । गोधूली मे खेतो के बीच की पग- डंडियाँ निर्जन होने पर भी मनोहर है-दूर-दूर रहट चलने का शब्द कम और कृषको का गान विशेष हो चला है। इसी वातावरण में हमारा देश बड़ा रमणीय था, परंतु अब क्या हो रहा है, कौन कह सकता है । सब सुख स्वर्ण के अधीन हो गये। हृदय का सुख खो गया । पतझड़ हो रहा है।

करुणा-मानव-जीवन मे कभी पतझड़ है, कभी वसंत । वह स्वयं कभी पत्तियाँ झाड़कर एकान्त का

७८ [ ७९ ] सुख लेता है, कोलाहल से भागता है, और कभी- कभी फल-फूलो से लदकर नोचा-खसोटा जाता है ।

संतोष-तुम कौन हो ?

करुणा-इसी अभागे देश की एक बालिका, जहाँ जीवन के साधारण सुख धन के आश्रय में पलते है, जिसका अभाव दरिद्रता है।

संतोष-दरिद्रता । कैसी विकट समस्या । देवी दरिद्रता सब पापो की जननी है, और लोभ उसकी सबसे बड़ी सन्तान है। उसका नाम न लो। देखो, अन्न के पके हुए खेतों में पवन के सर्राटे से लहर उठ रही है । दरिद्रता कैसी ? कपड़े के लिए कपास बिखरे है । अभाव किसका है ? सुख तो मान लेने की वस्तु है। कोमल गद्दों पर चाहे न मिले, परन्तु निर्जन मूक शिलाखंड से उसकी शत्रुता नहीं ।

करुणा-हाँ, वसन्त की भी शोभा है और पतझड़ मे भी एक श्री है। परंतु वह सुख के संगीत अब इस देश में कहा सुनाई पड़ते है, जिनसे वृक्षों मे- कुंजों में- हलचल हो जाती थी और पत्थरो में झनकार उटती थी। अब केवल एक क्षीण क्रन्दन उसके अट्टहास में बोलता है।

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कामना

संतोष-देवी, तुम्हारे और कौन हैं ?

करुणा-यह प्रश्न इस द्वीप में नहीं था । सब एक कुटुम्ब थे, परन्तु अब तो यही कहना पड़ेगा कि मै शांतिदेव की बहन हूँ। जब से उसकी हत्या हुई, मै निस्सहाय हो गई । लालसा ने सब धन अपना लिया, और घर मे भी मुझे न रहने दिया । वह कहती है कि इस घर पर और सम्पत्ति पर केवल मेरा अधिकार है और रहेगा। मै इस स्थान पर कुटीर बनाकर रहती हूँ। अकेली मै अन्न नहीं उत्पन्न कर सकती, जंगली फलों पर निर्वाह करती हूँ। मै और कोई भी संसार के पदार्थ नही पा सकती; क्योकि सबके विनिमय के लिए अब सोना चाहिये । प्राकृ- तिक अमूल्य पदार्थों का मूल्य हो गया-वस्तु के बदले आवश्यक वस्तु न मिलने से प्राकृतिक साधन भी दुर्लभ है । सोने के लिए सब पागल है। अका- रण कोई बैठने नहीं देता। जीवन के समस्त प्रश्नों के मूल मे अर्थ का प्राधान्य है । मैं दूर से उन धनियो के परिवार का दृश्य देखती हूँ । वे धन की आवश्यकता से इतने दरिद्र हो गये है कि उसके बिना उनके बच्चे उन्हे प्यारे नही लगते । धन का-अर्थ का-उपभोग

८० [ ८१ ]करने के लिए बच्चो की-संतानो की-आवश्यकता होती है। मै अपनी निर्धनता के आँसू पीकर संतोष करती हूँ और लौटकर इसी कुटीर में पड़ रहती हूँ।

संतोष-धन्य है तू बहन! आज से मैं तेरा भाई हूँ, मै तेरे लिए हल चलाऊँगा, तू दुःख न कर, मैं तेरा सब काम करूँगा। जिसका कोई नहीं है, मैं उसी का होकर देखूगा कि इसमे क्या सुख है। हाँ, नाम तो बताया ही नहीं?

करुणा-करुणा!

संतोष-और मेरा नाम संतोष है बहन।

करुणा-अच्छा भाई, चलो, कुछ फल है, खा लो।

(दोनो कुटीर में जाते है)