कामायनी/आनंद

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कामायनी  (1936)  द्वारा जयशंकर प्रसाद
आनंद
[ १३० ]

चलता था धीरे-धीरे वह एक यात्रियों का दल ,
सरिता के रम्य पुलिन में गिरिपथ से, ले निज संबल ।
था सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि ,
घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि ।
वृष-रज्जु वाम कर में था दक्षिण त्रिशूल से शोभित ,
मानव था साथ उसी के मुख पर तेज अपरिमित ।
केहरि-किशोर से अभिनव अवयव प्रस्फुटित हुए थे ,
यौवन गंभीर हुआ था जिसमें कुछ भाव नये थे ,
चल रही इड़ा भी वृष के दूसरे पार्श्व में नीरव ।
गैरिक-वसना संध्या - सी जिसके चुप थे सब कलरव ।

उल्लास रहा युवकों का शिशु गण का था मृदु कलकल ,
महिला-मंगल-गानों से मुखरित था वह यात्री दल ।
चमरों पर बोझ लदे थे वे चलते थे मिल अविरल ,
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर अपने ही बने कुतुहल ।
माताएँ पकड़े उनको बातें थीं करती जातीं ,
'हम कहाँ चल रहे' यह सब उनको विधिवत समझातीं ।
कह रहा एक था, "तू तो कब से ही सुना रही है--
अब आ पहुँची लो देखो आगे वह भूमि यही है ।
पर बढ़ती ही चलती है रुकने का नाम नहीं है ,
वह तीर्थ कहाँ है कह तो जिसके हित दौड़ रही है?
"

[ १३१ ]

"वह अगला समतल जिस पर है देवदारु का कानन ,
घन अपनी प्याली भरते ले जिसके दल से हिमकन ।
हाँ, इसी ढालवें को जब बस सहज उतर जावें हम ,
फिर सम्मुख तीर्थ मिलेगा वह अति उज्ज्वल पावनतम ।"

वह इड़ा समीप पहुँच कर बोला उसको रुकने को ,
बालक था, मचल गया था कुछ और कथा सुनने को ।
वह अपलक लोचन अपने पादाग्र विलोकन करती ।
पथ-प्रदर्शिका-सी चलती धीरे-धीरे डग भरती ।
बोली, "हम जहाँ चले हैं वह है जगती का पावन--
साधना प्रदेश किसी का शीतल अति शांत तपोवन ।"

"कैसा ? क्यों शांत तपोवन ? विस्तृत क्यों नहीं बताती",
बालक ने कहा इड़ा से वह बोली कुछ सकुचाती--

"सुनती हूँ एक मनस्वी था वहाँ एक दिन आया ,
वह जगती की ज्वाला से अति-विकल रहा झुलसाया ।
उसकी वह जलन भयानक फैली गिरी अंचल में फिर ,
दावाग्नि प्रखर लपटों ने कर दिया सघन वन अस्थिर ।
थी अर्धांगिनी, उसी की जो उसे खोजती आयी ,
यह दशा देख, करुणा की--वर्षा दृग में भर लायी ।
वरदान बने फिर उसके आँसू, करते जग-मंगल ,
सब ताप शांत होकर, वन हो गया हरित, सुख-शीतल ।
गिरि-निर्झर चले उछलते छायी फिर से हरियाली ,
सूखे तरु कुछ मुसक्याये फूटी पल्लन में लाली ।
वे युगल वहीं अब बैठे संसृति की सेवा करते ,
संतोष और सुख देखकर सब की दुःख-ज्वाला हरते ।
है वहाँ महाहृद निर्मल जो मन की प्यास बुझाता ,
मानस उसको कहते हैं सुख पाता जो है जाता।"

[ १३२ ]

"तो यह पृष क्यों तू यों ही वैसे ही चला रही है,
क्यों बैठे न जाती इस पर अपने को थका रही है ?"

"सारस्वत-नगर-निवासी हम आये यात्रा करने
यह व्यर्थ, रिक्त-जीवनघट पीयूष-सलिल से भरने ।
इस वृषभ धर्मप्रतिनिधि को उत्सर्ग करेंगे जाकर ,
चिर-मुक्त रहे यह निर्भय स्वच्छंद सदा सुख पाकर ।"

सब सम्हल गये थे आगे थी कुछ नीची उतराई ,
जिस समतल घाटी में, वह थी हरियाली से छाई ।
श्रम, ताप और पथ-पीड़ा क्षण भर में ये अंतर्हित ,
सामने विराट धवल-नग अपनी महिमा से विलसित ।
उसकी तलहटी मनोहर श्यामल तृण-वीरुष वाली ,
नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर हृद से भर रही निराली ।
वह मंजरियों का कानन कुछ अरुण पीत हरियाली ,
प्रति-पर्व सुमन-संकुल थे छिप गयी उन्हीं में डाली ।
यात्री दल ने रुक देखा मानस का दृश्य निराला ,
खग-मृग को अति सुखदायक छोटा-सा जगत उजाला ।
मरकत की वेदी पर ज्यों रक्खा हीरे का पानी ,
छोटा-सा मुकुर प्रकृति या सोयी राका रानी ।
दिनकर गिरि के पीछे अब हिमकर था चढ़ा गगन में ,
कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर बैठा किसी लगन में ।
संध्या समीप आयी थी उस सर के, वल्कल-वसना ,
तारों से अलक गूँथी थी पहने कदंब की रसना ।
खग कुल किलकार रहे थे, कलहंस कर रहे कलरव ,
किन्नरियाँ बनीं प्रतिध्वनि लेती थीं ताने अभिनव ।
मनु बैठे ध्यान-निरत थे उस निर्मल मानस-तट में
सुमनों की अंजलि भर कर श्रद्धा थी बड़ी निकट में।

[ १३३ ]

श्रद्धा ने सुमन बिखेरा शत-शत मधुपों का गुजन,
भर उठा मनोहर नभ में मनु तन्मय बैठे उन्मन।
पहचान लिया था सब ने फिर कैसे अब वे रुकते ,
वह देव-द्वंद्व त्रुतिमय था फिर क्यों न प्रणति में झुकते ।
तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटाध्वनि कर्ता,
बढ़ चला इड़ा के पीछे मानव भी था डग भरता।
हाँ इड़ा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी।
वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी ।
चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित वह चेतन-पुरुष-पुरातन ,
निज-शक्ति-तरंगायित था आनंद-अंबु-निधि शोभन ।
भर रहा अंक श्रद्धा का मानव उसको अपना कर,
था इड़ा शीश चरणों पर वह पुलक भरी गद्गद स्वर--
बोली—मैं धन्य हुई हैं जो यहाँ भूलकर आयी,
हे देवि ! तुम्हारी ममता बस मुझे खींचती लायी।
भगवति, समझी मैं ! सचमुच कुछ भी न समझ थी मुझको ।
सब को ही भुला रही थी अभ्यास यही था मुझको।
हम एक कुटुब बना कर यात्रा करने हैं आये ,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन जिसमें सब अघ छूट जाये ।"

मनु ने कुछ-कुछ मुसक्या कर कैलास ओर दिखलाया ,
बोले, "देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया।
हम अन्य न और कुटुंबी हम केवल एक हमीं हैं ,
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ है कोई तापित पापी न यहाँ है ,
जीवन-वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है ।
चेतन समुद्र में जीवन लहरों - सा बिखर पड़ा है ,
कुछ छाप व्यक्तिगत, अपना निमित आकार खड़ा है ।
इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में बुदबुद - सा रूप बनाये,
नक्षत्र दिखाई देते अपनी आभा चमकाये।

[ १३४ ]

वैसे अभेद-सागर में प्राणों का सृष्टि-क्रम है ,
सब में घुल-मिल कर रसमय रहता यह भाव चरम है।
अपने दुःख-सुख से पुलकित यह मूर्त्त-विश्व सचराचर ,
चिति का विराट्-वपु मंगल यह सत्य सतत चित सुन्दर।
सबकी सेवा न परायी वह अपनी सुख-संसृति है ,
अपना ही अणु-अणु कण-कण द्वयता ही तो विस्मृति है ।
मैं की मेरी चेतनता सबको ही स्पर्श किये सी
सब भिन्न परिस्थितियों की है सादक घूंट पिये सी ।
जग ले ऊषा के दृग में सो ले निशि की पलकों में ,
हाँ स्वप्न देख ले सुंदर उझलन वाली अलकों में--
चेतन का साक्षी मानव हो निर्विकार हँसता-सा ,
मानस के मधुर मिलन में गहरे-गहरे धँसता-मा।
सब भेद-भाव भुलवा कर दुःख-सुख को दृश्य बनाता ,
मानव कह रे! यह मैं हूँ, यह विश्व नीड़ बन जाता !"

श्रद्धा के मधु-अधरों की छोटी-छोटी रेखाएँ ,
रागारुण किरण कला-सी विकसीं बन स्मिति लेखाएँ।
वह कामायनी जगत की मंगल-कामना-अकेली ,
थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित मानस तट की वन वेली ।
वह विश्व-चेतना पुलकित थी पूर्ण-काम की प्रतिमा ,
जैसे गंभीर महाहृद हो भरा विमल जल महिमा ।
जिस मुरली के निस्वन से यह शून्य रागमय होता ,
वह कामायनी विहंसती अग जग था मुखरित होता ।

क्षण-भर में सब परिवर्त्तत अणु - अण थे विश्व-कमल के ,
पिंगल-पराग से मचले आनंद-सुधा-रस छल के ।
अति मधुर गंधवह बहता परिमल बूँदों से सिंचित ,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का कर आया रज से रंजित।

[ १३५ ]

जैसे असंख्य मुकलों का मादन-विकास कर आया।
उनके अछत अधरों का कितना चुंबन भर लाया।
रुक-रुक कर कुछ इठलाता जैसे कुछ हो वह भूला ,
नव कनक-कुसुम-रज धूसर मकरंद - जलद - सा फूला।
जैसे वनलक्ष्मी ने ही बिखराया हो केसर-रज ,
या हेमकूट हिम जल में अलकाता परछांई निज।
संसृति के मधुर मिलन के उच्छ्वास बना कर निज दल ,
चल पड़े गगन-आँगन में कुछ गाते अभिनव मंगल ।
वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं, बिखरी सुगंध की लहरें ,
फिर वेणु रंध्र से उठ कर मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।
गूँजते मधुर नूपुर से मदमाते होकर मधुकर ,
वाणी की वीणा-ध्वनि-सी भर उठी शून्य में मिलकर।
उन्मद माधव मलयानिल दौड़े सब गिरते-पड़ते ,
परिमल से चली नहा कर काकली, सुमन थे झड़ते।
सिकुड़न कौशेय वसन की थी विश्न-सुंदरी तन पर ,
या मादन मृदुतम कंपन छायी संपूर्ण सृजन पर।
सुख-सहचर दुःख-विदूषक परिहास पूर्ण कर अभिनय ।
सब की विस्मृति के पट में छिपा बैठा था अब निर्भय।
थे डाल-डाल में मधुमय मृदु मुकुल बने झालर से ,
रस का भार , प्रफुल्ल सुमन सब धीरे-धीरे से बरसे।
हिम खंड रश्मि मंडित हो मणि-दीप प्रकाश दिखाता ,
जिनसे समीर टकरा कर अति मधुर मृदंग बजाता ।
संगीत मनोहर उठता मुरली बजती जीवन की ।
संकेत कामना बन कर बतलाती दिशा मिलन की ।
रश्मियाँ बनीं अप्सरियाँ अंतरिक्ष में नचती थीं ,
परिमल का कन-कन लेकर निज रंगमच रचती थीं।
मांसल-सी आज हुई थी हिमवती प्रकृति पाषाणी ।
उस लास-रास में विह्वल थी हँसती-सी कल्याणी।

[ १३६ ]

वह चंद्र किरीट रजत-नग स्पंदित-सा पुरुष पुरातन,
देखता मानसी गौरी लहरों का कोमल नर्त्तन।
प्रतिफलित हुई सब आँँखें उस प्रेम-ज्योति-विमला से,
सब पहचाने-से लगते अपनी ही एक कला से।
समरस थे जड़ या चेतन सुंदर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती आनंद अखंड घना था।

[ १३७ ] कामायनी:महाकवि जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ काव्य-कृति।

कामायनी: में मनु, श्रद्धा और इड़ा के माध्यम से महाकवि ने न केवल सृष्टि के जन्म और विकास की कथा कही है, वरन् उसमें उन्होंने मानव-मन में अहिर्निश चलनेवाले अंतर्द्वंद्वों का भी चित्रण किया है।

कामायनी:अनेक दशकों से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में ही सम्मिलित नहीं रही है, उसपर अनेक समालोचनात्मक कृतियां भी रची गयी हैं। अनेक भाषाओं में उसका अनुवाद भी हुआ है।

कामायनी:विश्व-साहित्य की एक श्रेष्ठ काव्य-कृति के रूप में समादृत !

महाकवि जयशंकर प्रसाद : लोकमंगल मूलक आदर्शों के क्रांतिदर्शी स्वप्नद्रष्टा और अग्रदूत !