कामायनी/रहस्य

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कामायनी  (1936)  द्वारा जयशंकर प्रसाद
रहस्य
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ऊर्ध्व देश उस नील तमस में स्तब्ध हो रही अचल हिमानी ,
पथ थक कर हैं लीन, चतुर्दिक देख रहा वह गिरि अभिमानी।
दोनों पथिक चले हैं कब से ऊँचे-ऊँचे चढ़ते-चढ़ते ,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से बढ़ते ।

पवन वेग प्रतिकूल उधर था कहता, 'फिर जा अरे बटोही !’
किधर चला तू मुझे भेद कर ! प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही ?
छूने को अंबर मचली-सी बढ़ी जा रही सतत ऊँचाई !
विक्षत उसके अंग, प्रकट थे भीषण खड्ड भयकरी खांई ।

रविकर हिम खंडों पर पड़ कर हिमकर कितने नये बनाता ,
द्रुततर चक्कर काट पवन भी फिर से वहीं लौट आ जाता ।
नीचे जलधर दौड़ रहे थे सुन्दर सुर-धनु माला पहने ,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते चमकाते चपला के गहने ।

प्रवहमान थे निम्न देश में शीतल शत-शत निर्भर ऐसे ,
महाश्वेत गजराज गंड से बिखरी मधु धाराएँ जैसे ।
हरियाली जिनकी उभरी, वे समतल चित्रपटी से लगते ,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर, नद जो प्रति पल थे भगते ।

लघुतम वे सब जो वसुधा पर ऊपर महाशून्य का घेरा ,
ऊँचे चढ़ने की रजनी का यहाँ हुआ जा रहा सबेरा।

[ १२४ ]

"कहाँ ले चली हो अब मुझको श्रद्घे ! मैं थक चला अघिक हूँ ,
साहस छूट गया है मेरा निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ ,

लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं दुर्बल अब लड़ न सकूँगा ,
श्वास रुद्ध करने वाले इस शीत पवन से अड़ न सकेगा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थे जिन से रूठ चला आया हूँ ,
वे नीचे छूटे सुदूर, पर भूल नहीं उनको पाया हूँ ।"

वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल श्रद्वा-मुख पर झलक उठी थी ,
सेवा कर-पल्लव में उसके कुछ करने की ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को कामायनी मधुर स्वर बोली--
"हम बढ़ कर दूर निकल आये अब करने का अवसर न ठिठोली ।

दिशा-विकंपित, पल असीम है यह अनंत-सा कुछ ऊपर है ,
अनुभव करते हो, बोलो क्या पदतल में, सचमुच भूधर है ?
निराधार है किंतु ठहरना हम दोनों को आज यहीं है ;
नियति खेल देखूँ न, सुनो अब इसका अन्य उपाय नहीं है ।

झाँई लगती जो, वइ तुमको ऊपर उठने को है कहती ,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को झोंक दूसरी ही आ सहती ।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बन्द बस विहग-युगल से आज हम रहें ,
शून्य पवन बन पंख हमारे हमको दें आधार, जम रहें ।

घबराओ मत ! यह समतल है देखो तो, हम कहाँ आ गये !"
मनु ने देखा आँख खोल कर जैसे कुछ-कुछ त्राण पा गये ।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे ,
दिवा-रात्रि के संधि-काल में ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।

[ १२५ ]

ऋतुओं के स्तर हुए तिरोहित भू-मंडल-रेखा विलीन-सी ,
निराधार उस महादेश में उदित सचेतनता नवीन-सी ।
त्रिदिक विश्व, आलोक बिन्दु भी तीन दिखाई पड़े अलग वे ,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे अनमिल थे किन्तु सजग थे ।

मनु ने पूछा-- "कौन नये ग्रह ये हैं, श्रद्धे ! मुझे बताओ ?
मैं किस लोक बीच पहुँचा, इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ ।"

"इस त्रिकोण के मध्य बिंदु तुम शक्ति विपुल क्षमतावाले ये ,
एक एक को स्थिर हो देखो इच्छा, ज्ञान, क्रिया वाले ये ।
वह देखो रागारुण है जो ऊषा के कंदुक-सा सुंदर ,
छायामय कमनीय कलेवर भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर ।

शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की पारदर्शिनी सुघड़ पुतलियाँ,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों रूपवती रंगीन तितलियाँ !
इस कुसुमाकर के कानन के अरुण पराग पटल छाया में ,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये अपनी भाव-भरी माया में ।

वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी कोमल अंगड़ाई है लेती ,
मादकता की लहर उठा कर अपना अंबर तर कर देती ।
आलि-गन-सी मधुर प्रेरणा छू लेती, फिर सिहरन बनती ,
नव-अलंबुषा की व्रीडा़-सी खुल जाती है, फिर जा मुंदती ।

यह जीवन की मध्य भूमि है रस-धारा से सिंचित होती ,
मधुर लालसा की लहरों से यह प्रवाहिका स्पंदित होती ।
जिसके तट पर विद्युत-कण से मनोहारिणी आकृति वाले ,
छायामय सुषमा में विह्वल विचर रहे सुंदर मतवाले।

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सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से मधुर गंध उठती रस-भीनी ,
वाष्प अदृश्य फुहारे इसमें छूट रहे, रस-बूंदें झीनी ।
घूम रही है यहाँ चतुर्दिक् चलचित्रों-सी संसृति छाया ,
जिस आलोक-बिन्दु को घेरे वह बैठी मुसक्याती माया ।

भाव-चक्र यह चला रही है इच्छा की रथ-नाभि घूमती ,
नवरस-भरी अराएँ अविरल चक्रवाल को चकित चूमतीं ।
यहाँ मनोमय विश्व कर रहा रागारुण चेतन उपासना ,
माया-राज्य ! यही परिपाटी पाश बिछा कर जीव फाँसना।

ये अशरीरी रूप, सुमन से केवल वर्ण गंध में फूले ,
इन अप्सरियों की तानों के मचल रहे हैं सुंदर झूले ।
भाव-भूमिका इसी लोक की जननी है सब पुण्य-पाप की ,
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति बन गल ज्वाला से मथुर ताप की ।

नियममयी उलझन लतिका का भाव विटप से आकर मिलना ,
जीवन-वन की बनी समस्या आशा नभकुसुमों का खिलना।
चिर-वसंत का यह उद्गम है पतझर होता एक ओर है ,
अमृत हलाहल यहाँ मिले हैं सुख दुख बेधते, एक डोर है ।"

"सुंदर यह तुमने दिखलाया किंतु कौन वह श्याम देश है ?
कामायनी ! बताओ उसमें क्या रहस्य रहता विशेष है ?"

"मनु 'यह श्यामल कर्म लोक है धुँधला कुछ-कुछ अंधकार-सा ,
सघन हो रहा अविज्ञात यह देश मलिन है धूम-सार-सा ।
कर्म-चक्र-सा घूम रहा है यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा ।
सब के पीछे लगी हुई है कोई व्याकुल नयी एषणा।

[ १२७ ]

श्रममय कोलाहल, पीड़नमय विकल प्रवर्त्तन महायत्र का
क्षण भर भी विश्राम नहीं है प्राण दास हैं किया-तंत्र का
भाव-राज्य के सकल मानसिक सुख यों दुःख में बदल रहे हैं।
हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये अकड़े अणु टहल रहे हैं ।

ये भौतिक सदेह कुछ करके जीवित रहना यहाँ चाहते ,
भाव-राष्ट्र के नियम यहां पर दंड बने हैं, सब कराहते ।
करते हैं, संतोष नहीं है जैसे कशाघात-प्रेरित से--
प्रति क्षण करते ही जाते हैं भीति-विवश ये सब कंपित से ।

नियति चलाती कर्म-चक्र यह तृष्णा-जनित ममत्व-वासना ,
पाणि-पादमय पंचभूत की यहाँ हो रही है उपासना ।
यहाँ सतत संघर्ष विफलता कोलाहल का यहाँ राज है ।
अंधकार में दौड़ लग रही मतवाला यह सब समाज है ।

स्थूल हो रहे रूप बना कर कर्मों की भीषण परिणति है ।
आकांक्षा की तीव्र पिपासा ! ममता की यह निर्मम गति है ।
यहाँ शासनादेश घोषणा विजयों की हुंकार सुनाती ,
यहाँ भूख से विकल दलित को पदतल में फिर फिर गिरवाती ।

यहाँ लिये दायित्व कर्म का उन्नति करने के मतवाले ,
जल-जला कर फूट पड़ रहे ढुल कर बहने वाले छाले ।
यहां राशिकृत विपुल विभव सब मरीचिका-से दीख पड़ रहे ,
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे विलीन, ये पुनः गड़ रहे ।

बड़ी लालसा यहाँ सुयश की अपराधों की स्वीकृति बनती ,
अंध प्रेरणा से परिचालित कर्त्ता में करते निज गिनती ।
प्राण तत्व की सघन साधना जल-हिम उपल यहां है बनता ,
प्यासे घायल हो जल जाते मर-मर कर जीते ही बनता।

[ १२८ ]

यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ जला-गला कर नित्य ढ़ालती,
चोट सहन कर रुकने वाली धातु, न जिसको मृत्यु सालती।
वर्षा के घन नाद कर रहे तट-कूलों को सहज गिराती,
प्लावित करती वन कुंजों को लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती ।”

बस ! अब और न इसे दिखा तू यह अति भीषण कर्म जगत है।
श्रद्धे ! वह उज्ज्वल कैसा है जैसे पुंजीभूत रजत है। "

"प्रियतम ! यह तो ज्ञानक्षेत्र है सुख-दुख से है उदासीनता ,
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते ये अणु तर्क-युक्त से ,
वे निस्संग, किन्तु कर लेते कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।

यहाँ प्राप्य मिलता है केवल तृप्ति नहीं, कर भेद बांटती ,
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी प्यास लगी है ओस चाटती ।
न्याय, तप, ऐश्वर्ष में पथे ये भावी चमकीले लगते ,
इस निदाध मरु में, सूखे से स्त्रोतों के तट जैसे जगते ।

मनोभाव से काय-कर्म के समतोलन में दत्तचित्त से ,
ये निस्पृह न्यायासन वाले चूक न सकते तनिक वित्त से !
अपना परिमित पात्र लिये ये बूंद-बूंद वाले निर्मर से ,
मांग रहे हैं जीवन का रस बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।

यहाँ विभाजन धर्म-तुला का अधिकारों की व्याख्या करता ,
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही अपनी ढीली साँसें भरता ।
उत्तमता इनका निजस्व है अंबुज वाले सर-सा देखो ,
जीवन-मधु एकत्र कर रही उन ममाखियों-सा बस लेखो।

[ १२९ ]

यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना अंधकार को भेद निखरती ,
यह अनवस्था, युगल मिले से विकल व्यवस्था सदा बिखरती ।
देखो वे सब सौम्य बने हैं किन्तु सशंकित हैं दोषों से ,
वे संकेत दंभ के चलते भ्र-चालन मिस परितोषों से ।

यहाँ अछूत रहा जीवन रस छूओ मत, संचित होने दो ,
बस इतना ही भाग तुम्हारा तृषा ! मृषा, वंचित होने दो।
सामंजस्य चले करने ये किन्तु विषमता फैलाते हैं ,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते इच्छाओं को झुठलाते हैं ।

स्वर्ण व्यस्त पर शांत बने-से शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते ,
ये विज्ञान भरे अनुशासन क्षण-क्षण परिवर्त्तन में ढलते ,
यही त्रिपुर है देखा तुमने तीन बिन्दु ज्योतिर्मय इतने ,
अपने केंद्र बने दुःख-सुख में भिन्न हुए हैं ये सब कितने !
ज्ञान दूर , क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की ,
एक दूसरे से न मिल सके यह विडंबना है जीवन की ।"

महाज्योति-रेखा-सी बनकर श्रद्धा की स्मिति दौड़ी उनमें ,
वे संबद्ध हुए फिर सहसा जाग उठी थी ज्वाला जिनमें ।
नीचे ऊपर लचकीली वह विषम वायु में धधक रही सी ,
महाशून्य में ज्वाल सुनहरी सबको कहती 'नहीं नहीं' सी ।
शक्ति-तरंग प्रलय-पाचक का उस त्रिकोण में निखर-उठा सा ,
श्रृंग और डमरू निनाद बस सकल-विश्व में बिखर उठा-सा।
चितिमय चिता धधकती अविरल महाकाल का विषय नृत्य था ,
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर करता अपना विषम कृत्य था।

स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे ,
दिव्य अनाहत पर-निनाद में श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।