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कामायनी/लज्जा

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कामायनी
जयशंकर प्रसाद
लज्जा

पृष्ठ ४७ से – ५० तक

 

"कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका क्यों छिपती-सी,
गोधूली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती-सी।
मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों-
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों-
वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए,
माधव के सरस कुतूहल का आँखों में पानी भरे हुए।
नीरव निशीथ में लतिका-सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये-सी आलिंगन का जादू पढ़ती !
किन इंद्रजाल के फूलों से लेकर सुहागकण रागभरे,
सिर नीचा कर हो गूथ रही माला जिससे मधु धार ढरे ?
पुलकित कदंब की माला-सी पहना देती हो अन्तर में ,
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।
वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ,
यह अंचल कितना हलका-सा कितना सौरभ से सना हुआ।
सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ,
मैं सिमट रही - सी अपने में परिहास-गीत सुन पाती हूँ।
स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना,
प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना।
मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा,
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता-सा डोल रहा।
अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को,
जीवन भर के बल-वैभव से सत्कृत करती दुरागत को।

किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलम्बन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर में धँस कर मैं आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।
छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ,
कलरव परिहास भरी गूंजें अधरों तक सहसा रुकती हैं।
संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ,
भाषा बन भौंहों की काली रेखा-सी भ्रम में पड़ी रही।
तुम कौन ! हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रही
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवनवन से हो बीन रही !"
संध्या की लाली में हंसती, उसका ही आश्रय लेती-सी ,
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती-सी।


"इतना न चमत्कृत हो बाले ! अपने मन का उपकार करो,
मैं एक पकड़ है जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो।
अंबर-चुंबी हिम-श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये,
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये।
मंगल कुंकुम की श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली
भोला सुहाग इठलाता हो ऐसा हो जिसमें हरियाली ,
हो नयनों का कल्याण बना आनन्द सुमन-सा विकसा हो,
वासंती के वनवैभव में जिसका पंचमस्वर पिक-सा हो ,
जो गूँज उठे फिर नस-नस में मूर्च्छना समान मचलता-सा ,
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा,
नयनों की नीलम की घाटी जिस रस धन से छा जाती हो,
वह कौंध कि जिससे अन्तर की शीतलता ठंडक पाती हो,
हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ,
जागरण प्रात-सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ,
हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ,
उस नवल चंद्रिका-से बिछले जो मानस की लहरों पर से ,
फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिसके अभिनन्दन में ,
मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चन्दन में,

कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों,
जिसमें दुःख-सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों,
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य्य जिसे सब कहते हैं ,
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।
मैं उसी चपल की धात्री हूँ , गौरव महिमा हूँ सिखलाती ,
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती,
मैं देव-सृष्टि की रति-रानी निज पंचबाण से वंचित हो ,
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना अपनी अतृप्ति-सी संचित हो ,
अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता-सी,
लीला विलास की खेद-भरी अवसादमयी श्रम-दलिता-सी,
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूं मैं शालीनता सिखाती हूँ,
मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ,
कुंचित अलकों सी घुंघराली मन की मरोर बनकर जगती,
चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली ,
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।"

"हाँ, ठीक, परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ?
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है ?
यह आज समझ तो पाई हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हूं।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है ,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है ?
सर्वस्व-समर्पण करने की विश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में ?
छायापथ में तारक-द्युति सी झिलमिल करने की मधु-लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम-शीला ?
निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ,
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।

नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो ।
रुकती हूं और ठहरती हूं पर सोचविचार न कर सकती ,
पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।
मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूं ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हूँ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प अश्रु-जल-से अपने--
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने ।
नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में ,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा ।
आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा--
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा