कायाकल्प/१५

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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१५

राजाओं-महाराजाओं को क्रोध आता है, तो उनके सामने जाने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। न जाने क्या गजब हो जाय, क्या आफत आ जाय। विशालसिह किसी को फाँसी न दे सकते थे, यहाँ तक कि कानून की रू से वह किसी को गालियाँ भी न दे सकते थे। कानून उनके लिए भी था, वह भी सरकार की प्रजा थे, किन्तु नौकरी तो छीन सकते थे, जुरमाना तो कर सकते थे। इतना अख्तियार क्या थोड़ा है। सारी रात गुजर गयी, पर राजा साहब अपने कमरे से बाहर नहीं निकले। उनकी पलकें तक न झपकी थीं। आधीरात तक तो उनकी तलवार हरिसेवक पर खिंची रही, इसी बुड्ढे खूसट के कुप्रबन्ध ने यह सारा तूफान खड़ा किया। उसके बाद तलवार के वार अपने ऊपर होने लगे। मुझे इस उत्सव की जरूरत ही क्या थी? रियासत मुझे मिल ही चुकी थी। टीके तिलक की हिमाकत में क्यों पड़ा? पिछले पहर क्रोध ने फिर पहलू बदला और तलवार को चोटें चक्रधर पर पड़ने लगीं। यह सारी शरारत इसी लौंडे की है। न्याय, धर्म और परोपकार सब बहुत अच्छी बातें हैं, लेकिन हर एक काम के लिए एक अव[ १२१ ]सर होता है। इसने प्रजा में असन्तोष की आग भड़कायी। दो-चार दिन आधे ही पेट खाकर रह जाते, तो क्या मजदूरों की जान निकल जाती अपने घर ही पर उन्हें कौन दोनों वक्त पकवान मिलता है। जब बारहों मास एक वक्त आधे पेट खाकर रहते हैं, तो यहाँ रसद के लिए दगा कर बैठना साफ बतला रहा है कि यह दूसरों का मन्त्र था। बाप तो तलुवे सहलाता फिरता है और आप परोपकारी बने फिरते हैं। पाँच साल तक चक्की न पिसवायी, तो नाम नहीं!

राज-भवन में सन्नाटा छाया हुआ था। रोहिणी ने तो जन्माष्टमी के दिन से ही राजा साहब से बोलना चालना छोड़ दिया था। यों पड़ी रहती थी, जैसे कोई चिड़िया पिंजरे में| वसुमती को अपने पूजा-पाठ से फुरसत न थी। अब उसे राम और कृष्ण दोनों ही की पूजा-अर्चना करनी पड़ती थी। केवल रामप्रिया घबराती हुई इधर-उधर दौड़ रही थी। कभी चुपके चुपके कोप-भवन के द्वार तक जाती, कभी खिड़की से झाँकती; पर राजा साहब की त्योरियाँ देखकर उलटे पाँव लौट आती। डरती थी कि कहीं वह कुछ खा न लें, कही भाग न जायँ। निर्बल क्रोध हो तो वैराग्य है।

वह इसी चिन्ता में विकल थी कि मनोरमा आकर सामने खड़ी हो गयी। उसकी दोनों आँखें बीरबहूटी हो रही थीं, भँवे चढ़ी हुईं। मानो किसी गुण्डे ने सती को छेड़ दिया हो।

रामप्रिया ने पूछा—कहाँ थी, मनोरमा?

मनोरमा—ऊपर ही तो थी। राजा साहब कहाँ हैं?

रामप्रिया ने मनोरमा के मुख की ओर तीव्र दृष्टि से देखा। हृदय आँखों में रो रहा था। बोली—क्या करोगी पूछकर।

मनोरमा—उनसे कुछ कहना चाहती हूँ।

रामप्रिया—कहीं उनके सामने जाना मत। कोप-भवन में हैं। मैं तो खुद उनके सामने जाते डरती हूँ।

मनोरमा—आप बतला तो दें।

रामप्रिया नहीं, मैं न बतलाऊँगी। कौन जानता है, इस वक्त उनके हृदय पर क्या बीत रही है। खून का घूँट पी रहे होंगे। सुनती हूँ, तुम्हारे गुरुजी ही की यह सारी करामात है। देखने में तो बड़े ही सज्जन मालूम होते हैं; पर हैं एक छटे हुए।

मनोरमा तीर की भाँति कमरे से निकलकर वसुमती के पास जा पहुँची। वसुमनी अभी स्नान करके आयी ही थी और पूजा करने जा रही थी कि मनोरमा को सामने देखकर चौंक पड़ी। मनोरमा ने पूछा—आप जानती हैं, राजा साहब कहाँ हैं?

वतुमती ने रुखाई से कहा—होंगे जहाँ उनकी इच्छा होगी। मैं तो पूछने भी न गयी। जैसे राम राधा से, वैसे ही राधा राम से!

मनोरमा—आपको मालूम नहीं?

वसुमती—मैं होती कौन हूँ? न सलाह, न बात में। बेगानों की तरह घर में [ १२२ ]पड़ी दिन काट रही हूँ। वह बैठी हुई हैं। उनसे पूछो, जानती होंगी।

मनोरमा रोहिणी के कमरे में आयी। वह गाव तकिये लगाये, ठस्से से मसनद पर बैठी हुई थी। सामने आइना था। नाइन केश गूँथ रही थी। मनोरमा को देखकर मुस्कुरायीं। पूछा—कैसे चली?

मनोरमा—आपको मालूम है, राजा साहब इस वक्त कहाँ मिलेंगे? मुझे उनसे कुछ कहना है।

रोहिणी—कहीं बैठे अपने नसीबों को रो रहे होंगे। यह मेरी हाय का फल है। कैसा तमाचा पड़ा है कि याद ही करते होंगे। ईश्वर बड़ा न्यायी है। मैंने तो चिन्ता करनी ही छोड़ दी। जिन्दगी रोने के लिए थोड़े ही है। सच पूछो, तो इतना सुख मुझे कभी न था। घर में आग लगे या वज्र गिरे, मेरी बला से!

मनोरमा—मुझे मिर्फ इतना बता दीजिए कि वह कहाँ हैं?

रोहिणी—मेरे हृदय में। उसे बाणों से छेद रहे हैं।

मनोरमा निराश होकर यहाँ से भी निकली। वह इस राज-भवन में पहले-ही-पहल आयी थी। अन्दाज से दीवानखाने की तरफ चली। जब रानियों के यहाँ नहीं, तो अवश्य दीवानखाने में होंगे। द्वार पर पहुँचकर वह जरा ठिठक गयी। झाँककर अन्दर देखा, राजा साहब कमरे में टहलते थे और मूछें ऐंठ रहे थे। मनोरमा अन्दर चली गयी। पछतायी कि व्यर्थ रानियों से पूछती फिरी।

राजा साहब उसे देखकर चौंक पड़े। कोई दूसरा आदमी होता, तो शायद वह उस पर झल्ला पड़ते, निकल जाने को कहते, किन्तु मनोरमा के मान प्रदीप्त सौन्दर्य ने उन्हें परास्त कर दिया। खौलते हुए पानी ने दहकती हुई आग को शान्त कर दिया। उन्होंने दो तीन दिन पहले उसे एक बार देखा था। तब वह बालिका थी। आज वही बालिका नवयुवती हो गयी थी। यह एक रात की भीषण चिन्ता, दारुण वेदना और दुस्सह तापसृष्टि थी। राजा साहब के सम्मुख आने पर भी उसे जरा भी भय या संकोच न हुआ। सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली—उसका कण्ठ आवेश से काँप रहा था—महाराज, मैं आपसे यह पूछने आयी हूँ कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु है, या उनमें कुछ अन्तर है?

राजा साहब ने विस्मित होकर कहा—मैंने तुम्हारा आशय नहीं समझा, मनोरमा। बात क्या है? तुम्हारी त्योरियाँ चढ़ी हुई हैं। क्या किसी ने कुछ कहा है, या मुझसे नाराज हो? यह भँवें क्यों तनी हुई हैं?

मनोरमा—मैं आपके सामने फरियाद करने आयी हूँ।

राजा—क्या तुम्हें किसी ने कटु वचन कहे हैं?

मनोरमा—मुझे किसी ने कटुवचन कहे होते, तो फरियाद करने न आती। अपने लिए आपको कष्ट न देती, लेकिन आपने अपने तिलकोत्सव के दिन एक ऐसे प्राणी पर अत्याचार किया जिस पर मेरी असीम भक्ति है, जिसे मैं देवता समझती हूँ, जिसका [ १२३ ]हृदय-कमल के जल-सिंचित दल की भाँति पवित्र शोर कोमल है, जिसमें सन्यासियों का-सा त्याग और ऋषियों का-सा सत्य है, जिसमें बालकों की-सी सरलता और योद्धाओं की-सी वीरता है। आपके न्याय और धर्म की चर्चा उसी पुरुष के मुँह से सुना करती थी। अगर यही उसका यथार्थ रूप है, तो मुझे भय है कि इस आतंक के आधार पर बने हुए राज-भवन का शीघ्र ही पतन हो जायगा, और आपकी सारी कीर्ति स्वग्न की भाँति मिट जायगी। जिस समय आपके ये निर्दय हाथ बाबू चक्रधर पर उठे, अगर उस समय मैं वहाँ होती, तो कदाचित् कुन्दे का वह वार मेरी ही गर्दन पर पड़ता। मुझे आश्चर्य होता है कि उन पर आपके हाथ उठे क्योंकर। उसी समय से मेरे मन में विचार हो रहा है कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु तो नहीं है?

मनोरमा के मुख से ये जलते हुए शब्द सुनकर राजा दंग रह गये। उनका क्रोध प्रचण्ड वायु के इस झोंके से आकाश पर छाये हुए मेष के समान उड़ गया। आवेश में भरी हुई सरल-हृदया बालिका से वाद-विवाद करने के बदले उन्हें उसपर अनुराग उत्पन्न हो गया। सौन्दर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन जाता है। आसुरी शक्ति भी सौन्दर्य के सामने सिर झुका देती है। राजा साहब नम्रता से बोले—चक्रधर को तुम कैसे जानती हो?

मनोरमा—वह मुझे अँगरेजी पढ़ाने आया करते हैं।

राजा—कितने दिनों से?

मनोरमा—बहुत दिन हुए।

राजा—मनोरमा, मेरे दिल में बाबू चक्रधर की जितनी इज्जत थी और है, उसकी चर्चा करते हुए शर्म आती है। जब उन पर इन्हीं कठोर हाथों से मैंने आघात किया, तो अब ऐसी बातें सुनकर तुम्हें विश्वास न आयेगा। तुमने बहुत ठीक कहा है कि प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु हैं। एक वस्तु चाहे न हों; पर उन में फूल और चिनगारी का सम्बन्ध अवश्य है। मुझे याद नहीं आता कि कभी मुझे इतना क्रोध आया हो। अब मुझे याद आ रहा है कि यदि मैंने धैर्य से काम लिया होता, तो चक्रधर चमारों को जरूर शान्त कर देते। जनता पर उसी आदमी का असर पड़ता है, जिसमें सेवा का गुण हो। यह उनकी सेवा ही है, जिसने उन्हें इतना सर्वप्रिय बना दिया है। अँगरेजों की प्राण-रक्षा करने में उन्होंने जितनी वीरता से काम लिया, उसे अलौकिक कहना चाहिए। वह द्रोहियों के सामने जाकर न खड़े हो जाते, तो शायद इस वक्त जगदीशपुर पर गोलों की वर्षा होती और मेरी जो दशा होती, उसकी कल्पना ही से रोएँ खड़े होते हैं। वह वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन-पर्यन्त दुःख रहेगा।

विनय क्रोध को निगल नाता है। मनोरमा शान्त होकर बोली—केवल दुःख प्रकट करने से तो अन्याय का घाव नहीं भरता?

राजा—क्या करूँ मनोरमा, अगर मेरे वश की बात होती तो मैं इसी क्षण जाता [ १२४ ]और चक्रधर को अपने कन्धे पर बैठाकर लाता, पर अब मेरा कुछ अख्तियार नहीं है। अगर उनकी जगह मेरा ही पुत्र होता, तो भी मैं कुछ न कर सकता।

मनोरमा—आप मिस्टर जिम से तो कह सकते हैं?

राजा—हाँ, कह सकता हूँ, पर आशा नहीं कि वह मानें। राजनीतिक अपराधियों के साथ ये लोग जरा भी रिआयत नहीं करते, उनके विषय में कुछ सुनना नहीं चाहते। हाँ, एक बात हो सकती है, अगर चक्रधर जी यह प्रतिज्ञा कर लें कि अब वह कभी सार्वजनिक कामों में भाग न लेंगे, तो शायद मिस्टर जिम उन्हें छोड़ दें। तुम्हें आशा है कि चक्रधर यह प्रतिज्ञा करेंगे?

मनोरमा ने सन्दिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा—न, मुझे इसकी आशा नहीं। वह अपनी खुशी से कभी ऐसी प्रतिज्ञा न करेंगे।

राजा—तुम्हारे कहने से न मान जायँगे?

मनोरमा—मेरे कहने से क्या, वह ईश्वर के कहने से भी न मानेंगे और अगर मानेंगे भी, तो उसी क्षण मेरे आदर्श से गिर जायँगे। मैं यह कभी न चाहूँगी कि वह उन अधिकारों को छोड़ दें, जो उन्हें ईश्वर ने दिये हैं। आज के पहले मुझे उनसे वही स्नेह था, जो किसी को एक सज्जन आदमी से हो सकता है। मेरी भक्ति उन पर न थी। उनकी प्रण-वीरता ही ने मुझे उनका भक्त बना दिया है, उनकी निर्भीकता ही ने मेरी श्रद्धा पर विजय पायी है।

राजा ने बड़ी दीनता से पूछा—जब यह जानती हो, तो मुझे क्यों जिम के पास भेजती हो?

मनोरमा—इसलिए कि सच्चे आदमी के साथ सच्चा बर्ताव होना चाहिए। किसी को उसकी सचाई या सज्जनता का दण्ड न मिलना चाहिए। इसी में आपका भी कल्याण है। जब तक चक्रधर के साथ न्याय न होगा, आपके राज्य में शान्ति न होगी। आपके माथे पर कलंक का टीका लगा रहेगा।

राजा—क्या करूँ, मनोरमा। अच्छे सलाहकार न मिलने से मेरी यह दशा हुई। ईश्वर जानता है, मेरे मन में प्रजाहित के कैसे-कैसे हौसले थे। मैं अपनी रियासत में राम-राज्य का युग लाना चाहता था, पर दुर्भाग्य से परिस्थिति कुछ ऐसी होती जाती है कि मुझे वे सभी काम करने पड़ रहे हैं, जिनसे मुझे घृणा थी। न जाने वह कौन-सी शक्ति है, जो मुझे अपनी आत्मा के विरुद्ध आचरण करने पर मजबूर कर देती है। मेरे पास कोई ऐसा मन्त्री नहीं है, जो मुझे सच्ची सलाहे दिया करे। मैं हिंसक जन्तुओं से घिरा हुआ हूँ। सभी स्वार्थी हैं, कोई मेरा मित्र नहीं। इतने आदमियों के बीच में मै अकेला, निस्सहाय, मित्र-हीन प्राणी हूँ। एक भी ऐसा हाथ नहीं, जो मुझे गिरते देखकर सँभाल ले। मैं अभी मिस्टर जिम के पास जाऊँगा और साफ-साफ कह दूँगा कि मुझे बाबू चक्रधर से कोई शिकायत नहीं है।

मनोरमा के सौन्दर्य ने राजा साहब पर जो जादू का सा असर डाला था, वही असर [ १२५ ]
उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। सारी परिस्थिति उसकी समझ में आ गयी। नरम होकर बोली—जब उनके पास जाने से आपको कोई आशा ही नहीं है, तो व्यर्थ क्यों कष्ट उठाइएगा? मैं आपसे यह आग्रह न करूँगी। मैंने आपका इतना समय नष्ट किया, इसके लिए मुझे क्षमा कीजिएगा। मेरी कुछ बातें अगर कटु और अप्रिय लगी हों

राजा ने बात काटकर कहा—मनोरमा, सुधा-वृष्टि भी किसी को कड़वी ओर अप्रिय लगती है? मैंने ऐसी मधुर वाणी कभी न सुनी थी। तुमने मुझ पर जो अनुग्रह किया है, उसे कभी न भूलूॅगा।

मनोरमा कमरे से चली गयी। विशालसिंह द्वार पर खड़े उसकी ओर ऐसे तृषित नेत्रों से देखते रहे, मानो उसे पी जायॅगे। जब वह आँखों से ओझल हो गयी, तो वह कुरसी पर लेट गये। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हो रही थी।

किन्तु वह आकांक्षा क्या थी? मृग-तृष्णा! मृग-तृष्णा!