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कायाकल्प/१६

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ १२५ से – १३२ तक

 

१६

सन्ध्या हो गयी है। ऐसी उमस है कि साॅस लेना कठिन है, और जेल की कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गयी है। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरन्तर गान कानों के परदे फाड़े डालता है। सब के सब दावत खाने के पहले गा-गाकर मस्त हो रहे हैं। एक आध मरभुक्खे पत्तलों की राह न देखकर कभी-कभी रक्त का स्वाद ले लेते हैं; लेकिन अधिकांश मण्डली उस समय का इन्तजार कर रही है, जब निद्रादेवी उनके सामने पत्तल रखकर कहेंगी—प्यारे, खायो जितना खा सको; पियो, जितना पी सको। रात तुम्हारी है ओर भण्डार भरपूर।

यही एक कोठरी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।

वह सोच रहे हैं—यह भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने तो कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? इस प्रश्न का उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि यह हमारी नीयत का नतीजा है। हमारी शान्त-शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुया था। हम भूल गये थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है; अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं पर चढ़ दौड़ने का आवेश न होता; लेकिन क्या जनता राजाओं के कैम्प की तरफ न जाती। तो पुलिस उन्हें बिना रोक टोक अपने घर जाने देती? कभी नहीं। सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़ कर लड़ना चाहे, उससे कोई क्योंकर बचे? फिर, अगर प्रजा अत्याचार का विरोध न करे, तो उसके संगठन से फायदा ही क्या? इसीलिए तो उसे सारे उपदेश दिये जाते है। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूं, उन पर कितने ही जुल्म हों, उनके निकट न जाऊँ; या ऐसे उपद्रवों के लिए तैयार रहूॅ। राज्य पशु-बल का प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है, वह विद्वान् नहीं है, जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डण्डे के जोर से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। इसके सिवा उसके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।

यह सोचते-सोचते उन्हें अपना खयाल आया। मैं तो कोई आन्दोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगो की प्राण रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वही मेरे साथ यह सलूक कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी अपनी आँखें बन्द कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त तक करता रहूँगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिन्ता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुख होगा, अम्माँजी रोयेंगी, लेकिन मजबूरी है। जब बाहर भी जवान और हाथ-पाँव बाँधे जायँगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हाँ, जरा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।

वह इसी सोच विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए। उनकी देह पर एक पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपाये हुए था, नीचे एक पतलून था, जो कमरबन्द न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला-सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफा और कोई वस्तु नहीं होती। हमारा घर बचपन से बुढ़ापे तक हर अवस्था में हमारा है। वस्त्र हमारा होते हुए भी हमारा नहीं रहता। आज जो वस्त्र हमारा है, वह कल हमारा न रहेगा। उसे हमारे सुख दुख की जरा भी चिन्ता नहीं होती, फौरन् बेवफाई कर जाता है। हम जरा बीमार हो जायँ, किसी स्थान का जल-वायु जरा हमारे अनुकूल हो जाय कि बस, हमारे प्यारे वस्त्र, जिनके लिए हमने दर्जी की दुकान की खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं। उन्हें अपना बनाओ, अपने नहीं होते। अगर जबर दस्ती गले लगाओ, तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं। वे केवल हमारी पूर्वावस्था के चिह्न होते हैं। मुशी वज्रधर की अचकन भी, जो उनकी अल्पकालीन लेकिन ऐतिहासिक तहसीलदारी की यादगार थी, पुकार पुकारकर कहती थी—मैं अब इनकी नहीं। किन्तु तहसीलदार साहब हुकूमत के जोर से उसे गले से चिपटाये हुए थे। तुम कितनी ही बेवफाई करो, मेरी कितनी ही बदनामी करो, छोड़ने का नहीं। अच्छे दिनों में तो तुमने हमारे साथ चैन किये, इन बुरे दिनों में तुम्हें क्यों छोडूँ? यों भूत और वर्तमान के संग्राम की मूर्ति बने हुए तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले—क्या करते हो, बेटा? यहाँ तो बड़ा अँधेरा है। चलो, बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो। इधर ही से साहब के बँगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन सी है। हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हूँ। बारे आज दोपहर को जाके सीधा हुआ। पहले बहुत ज्यों त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। नेम ताहन के पास पहुँचकर रोने लगा। इस फन में तुम जानो उस्ताद है। सरकारी नुलाजिमत और वह भी तहसीलटारी सब कुछ सिखा देती है। अगरेजो को तो तुम जानते ही हो, मेमों के गुलाम होते हैं । मेम ने जाकर हजरत को डॉटा-क्यों तहमोल-दार साहब को दिक कर रहे हो ? अभी इनके लडके को छोड़ दो, नहीं तो घर से निकल जानो। यह डाँट पड़ी, तो हजरत के होश ठिकाने हुए बोले-वेन, तहसीलदार साहब हम अापका बहुत इजन करता है। आपको हम नाउम्मेद नहीं करना चाहता, लेकिन जब तक श्रापका लड़का इस बात का कौल न करे कि वह फिर कभी गोलमाल न करेगा तब तक हम उसे नहीं छोड़ सकता । हम अभी जेलर को लिखता है कि उससे पूछो, राजी है । मैंने कहा- हुजूर, मैं खुद जाता हूँ और उसे हुजूर की खिदमत में लापर हाजिर करता हूँ। या वहाँ न चलना चाहो, तो यहीं एक हलफनामा लिख दो। देर करने से क्या फायदा । तुम्हारी अम्मा रो-रोकर जान दे रही है।

चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा-अभी तो मैने कुछ निश्चय नहीं किया। सोच-कर जवाब दूंगा । आप नाहक इतने हेगन हुए।

वज्रघर-कैतो बातें करते हो, वेटा ? यहाँ नाक कटी जा रही है, घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो--सोचकर जवाब दूंगा। इसमे सोचने की बात हो क्या है ? इस तहसीलदारी को लाज तो रखनी है। की तो थोड़े ही दिन, लेकिन भाज तक लोग याद करते है और हमेशा याद करेंगे। कोई हाकिम इलाके में पाया नहीं कि उससे मिलने दोड़ा। रसद के ढेर लगा देता था । हाकिमो के नोकर चाकर तक खाते-खाते ऊब जाने थे । जमीदारों की तो मेरे नाम से जान निकल जाती थी। जिम साहम ने मेरो तारीफी चिट्ठियाँ पढ़ीं, तो दग रह गये। इस इज्जत को तो निभाना हो पड़ेगा | चलो; हलफनामा लिख दो। घर मे कल से याग नहीं चली।

चक्रधरमेरी यात्मा किसी तरह अपने पॉव में वेडियाँ डालने पर राजी नहीं होती।

वज्रधर-मौका देखकर सब कुछ किया जाता है, वेटा | दुनिया में कोई किनी का नहीं होता । यही राजा साहब पहले तुमसे कितनी मुहम्मत से पेग आते थे। अब अपने सिर पर पड़ी, तो कैसे सारी बला तुम्हारे सिर ठेलकर निकल गये। दीवान माहब का लड़का गुरुसेवक पहले जाति के पीछे कैसा लट्ठ लिये फिरता था। कल डिप्टी कलक्टरी में नामजद हो गया । कहाँ तो हममे हमदर्दी करता था, कहाँ अब विद्रोहियों के खिलाफ बलमा करने के लिए दौड़-धूप कर रहा है । जब सारी दुनिया अपना मतलब निकालने को धुन में है, तो तुम्हों दुनिया को फिक्र में क्यों अपने को बरबाद करो ? दुनिया जाय जहन्नुम में । हमें अपने काम से काम है, या दुनिया के झगहों से ?

चक्रघर-नगर और लोग अपने मतलब के बन्दे हो जायँ और स्वार्थ के लिए अपने सिद्धान्नों से मुँह मोड़ बैठे, तो कोई वजह नहीं कि मैं भी उन्हीं को नकल कले। ने ऐसे लोगों को नाना आदर्श नहीं बना सकता। मेरे श्रादर्श इनने बहुत ऊँचे हैं।

वघर-घस, तुम्हारी इसी जिद पर मुझे गुस्सा याता है।नने भी अपनी जवानी में इस तरह के खिलवाड़ किये हैं, और उन लोगों को कुछ कुछ जानता हूँ, जो अपने को जाति के सेवक कहते हैं। बस, मुँह न खुलवाओ। सब अपने अपने मतलब के बन्दे हैं, दुनियाँ के लूटने के लिए यह सारा स्वाँग फैला रखा है। हाँ, तुम्हारे जैसे दो-चार उल्लू भले ही फँस जाते हैं, जो अपने को तबाह कर डालते हैं। मैं तो सीधी-सी बात जानता हूँ—जो अपने घरवालों की सेवा न कर सका, वह जाति की सेवा कभी कर ही नहीं सकता, घर सेवा की सीढ़ी का पहला डण्डा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते।

चक्रधर जब अब भी प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पर राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले—अच्छा बेटा लो, अब कुछ न कहेंगे। जो तुम्हारी खुशी हो, वह करो मैं जानता था कि तुम जन्म के जिद्दी हो, मेरी एक न सुनोगे, इसीलिए आता ही न था, लेकिन तुम्हारी माता ने मुझे कुरेद कुरेदकर भेजा। कह दूँगा नहीं आता। सब कुछ करके हार गया, सब करके बैठो, उसे अपनी बात और अपनी शान मा-बाप से प्यारी है। जितना रोना हो, रो लो।

कठोर से-कठोर हृदय में भी मातृ स्नेह की कोमल स्मृतियाँ सञ्चित होती हैं। चक्रधर कातर होकर बोले— आप माताजी को समझाते रहिएगा। कह दीजिएगा, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं है, मेरे लिए रंज न करें।

वज्रधर ने इतने दिनों तक योंही तहसीलदारी न की थी। ताड़ गये कि अबकी निशाना ठीक पड़ा। बेपरवाई से बोले—मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूँ। बिना किसी मतलब के झूठ बोलना मेरी नीति नहीं। जो आँखों से देख रहा हूँ, वही कहूँगा। रोयेंगी, रोयें इसमें मेरा क्या अख्तियार है। रोना तो उसकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आये हो, एक घूँट पानी तक मुँह में नहीं डाला। इसी तरह दो चार दिन और रहीं तो प्राण निकल जायँगे। तुम्हारे सिर का बोझ टल जायगा। यह लो, वार्डर मुझे बुलाने आ रहे हैं। वक्त पूरा हो गया।

चक्रधर ने दीन भाव से कहा—अम्माँजी को एक बार यहाँ न लाइयेगा?

वज्रधर—तुम्हें इस दशा में देखकर तो उन्हें जो दो चार दिन जीना है, वह भी न जिएँगी। क्या कहते हो? इकरारनामा लिखना हो, तो मेरे साथ दफ्तर में चलो।

चक्रधर करुणा से विह्वल हो गये। बिना कुछ कहे हुए मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियाँ एक क्षण के लिए मिट गयीं। चक्रधर को गले लगाकर बोले—जीते रहो बेटा, तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या खुशी की बात होगी।

दोनों आदमी दफ्तर में आये, तो जेलर ने कहा—कहिए, तहसीलदार साहब, आपकी हार हुई न? मैं कहता न था, वह न सुनेंगे। आजकल के नौजवान अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते।

वज्रधर—जरा कलम दावात तो निकालिए। और बातें फिर होगी।

दारोगा—(चक्रधर से) क्या आप इकरारनामा लिख रहे हैं। निकल गयी सारी शेखी! इसी पर इतनी दून की लेते थे।

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मन की अस्थिरता पर लज्जित हो गये। जातिसेवकों से सभी दृढ़ता की आशा रखते हैं, सभी उसे आदर्श पर बलिदान होते देखना चाहते हैं। जातीयता के क्षेत्र में आते ही उसके गुणों की परीक्षा अत्यन्त कठोर नियमो से होने लगती है और दोषो की सूक्ष्म नियमों से। परले सिरे का कुचरित्र मनुष्य भी साधुवेश रखनेवालों से ऊँचे आदर्श पर चलने की आशा रखता है, और उन्हें आदर्श से गिरते देखकर उनका तिरस्कार करने में संकोच नहीं करता। जेलर के कटाक्ष ने चक्रधर की झपकी हुई आँखें खोल दीं। तुरन्त उत्तर दिया—मै जरा वह प्रतिज्ञा-पत्र देखना चाहता हूँ।

तहसीलदार साहब ने जेलर की मेज से वह कागज उठा लिया और चक्रधर को दिखाते हुए बोले—बेटा, इसमें कुछ नहीं है। जो कुछ मैं कह चुका हूँ, वही बातें जरा कानूनी ढंग से लिखी गयी हैं।

चक्रधर ने कागज को सरसरी तौर से देखकर कहा—इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर कैदी बना रहूँगा। मेरा ऐसा खयाल न था। अपने हाथों अपने पाँव में बेड़ियाँ न डालूँगा। जब कैद हो होना है, तो कैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊँगा, या सजा के दिन काटकर।

यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आये और एकान्त में खूब रोये। आँसू उमड़ रहे थे; पर जेलर के सामने कैसे रोते?

एक सप्ताह के बाद मिस्टर जिम के इजलास में मुकदमा चलने लगा। तहसीलदार साहब ने न कोई वकील खड़ा किया, न अदालत में आये। यहाँ तो गवाहों के बयान होते थे, और वह सारे दिन जिम के बंगले पर बैठे रहते थे। साहब बिगड़ते थे, धमकाते थे; पर वह उठने का नाम न लेते। जिम जब बँगले से निकलते, तो द्वार पर मुंशीजी खड़े नजर आते थे। कचहरी से आते, तो भी उन्हें वहीं खड़ा पाते। मारे क्रोध के लाल हो जाते। दो-एक बार घूँसा भी ताना, लेकिन मुंशीजी को सिर नीचा किये देख दया आ गयी। अक्सर यह साहब के दोनों बच्चो को खिलाया करते, कन्धे पर लेकर दौड़ते, मिठाइयाँ ला लाकर खिलाते और मेम साहब को हँसानेवाले लतीफे सुनाते।

आखिर एक दिन साहब ने पूछा—तुम मुझसे क्या चाहता है।

वज्रधर ने अपनी पगड़ी उतारकर साहब के पैरों पर रख दी और हाथ जोड़कर बोले—हुजूर सब जानते हैं, मैं क्या अर्ज करूँ। सरकार की खिदमत में सारी उम्र कट गयी। मेरे देवता तो, ईश्वर तो, जो कुछ है, आप ही हैं। आपके सिवा मैं और किसके द्वार पर जाऊँ? किसके सामने रोऊँ? इन पके बालो पर तरस खाइए। मर जाऊँगा हुजूर, इतना बड़ा सदमा उठाने की ताकत अब नहीं रही!

जिम—हम छोड़ नहीं सकता, किसी तरह नहीं।

वज्रधर—हुजूर जो चाहें करें। मेरा तो आपसे कहने ही भर का अख्तियार है। हुजूर को दुआ देता हुआ मर जाऊँगा, पर दामन न छोड़ूँगा।

जिम—तुम अपने लड़के को क्यों नहीं समझाता?

वज्रधर-हुजूर नाखलफ है, और क्या कहूँ। खुदा सताये दुश्मन को भी ऐसी औलाद न दे। जी तो यही चाहता है कि हुजूर कम्बख्त का मुँह न देखूँ, लेकिन कलेजा नहीं मानता। हुजूर, मा-बाप का दिल कैसा होता है, इसे तो हुजूर भी जानते हैं।

अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी, एक बार चक्रघर के दर्शनों को आ जाते, यदि चक्रधर को छोड़ने के लिए एक सौ आदमियों की जमानत माँगी जाती, तो उसके मिलने में बाधा न होती। सब जानते थे कि इन्हें हमारे पापों का प्रायश्चित्त करना पड़ रहा है। शहर से भी हजारों आदमी आ पहुँचते थे। कभी कभी राजा विशालसिंह भी पाकर दर्शकों को गैलरी में बैठ जाते। लेकिन और कोई आये या न आये, सवेरे आये या देर से आये, किन्तु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भाँति बैठी रहती। उसके मुख पर अब पहले की-सी अरुण आभा, वह चञ्चलता, वह प्रफुल्लता नहीं है। उसकी जगह दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिन्ता का फीका रंग छाया हुआ है, मानो कोई विरागिनी है, जिसके मुख पर हास्य की मृदु रेखा कभी खिंची ही नहीं। वह न किसी से बोलती है, न मिलती है, उसे देखकर सहसा कोई यह नहीं कह सकता कि यह वही आमोद-प्रिय बालिका है, जिसकी हँसी दूसरों को हँसाती थी।

वहाँ बैठी हुई मनोरमा कल्पनाओं का संसार रचा करती है। उस संसार में प्रेमही प्रेम है, आनन्द-ही-आनन्द है। उसे अनायास कहीं से अतुल धन मिल जाता है, कदाचित् कोई देवी प्रसन्न हो जाती है। इस विपुल धन को वह चक्रधर के चरणों पर अर्पण कर देती है, फिर भी चक्रधर उसके राजा नहीं होते, वह अब भी उसके आश्रयी ही रहते हैं। उन्हें आश्रय ही देने के लिए वह रानी बनती है, अपने लिए वह कोई मंसूबे नहीं बाँधती। जो कुछ सोचती है, चक्रधर के लिए। चक्रधर से प्रेम नहीं है, केवल भक्ति है। चक्रधर को वह मनुष्य नहीं देवता समझती है।

सन्ध्या का समय था। आज पूरे १५ दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम ने दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम से कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।

चक्रधर हँस-हँसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। सबकी आँखो में जल भरा हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा 'जय जय' का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियाँ खड़ो रो रही थीं। सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सरमुख खड़ी हो गयी। उसके हाथ में एक फूलों का हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली—अदालत ने तो आपको सजा दे दी, पर इतने आदमियों में एक भी ऐसा न होगा, जिसके दिल में श्रापसे सौगुना प्रेम न हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, सच्चे आत्मबल और सच्चे कर्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिए, हमारी शुभ कामनाएँ आपके साथ हैं।

उसने इसी अवसर के लिए कई दिन से ये वाक्य रच रखे थे। इस भाँति उद्गारों को न बाँध रखने से वह आवेश में जाने क्या कह जाती।

चक्रधर ने केवल दबी आँखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उन्हें शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या खयाल कर रहे होंगे। सामने राजा विशालसिह, दीवान साहब, ठाकुर गुरुसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी जबान पर आकर रुक गये। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की यह वीर-भक्ति उसकी बाल-क्रीड़ा मात्र है।

एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बन्द गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले। धीरे-धीरे कमरा खाली हो गया। मिस्टर जिम ने भी चलने की तैयारी की। तहसीलदार साहब के सिवा अब कमरे में और कोई न था। जब जिम कठघरे से नीचे उतरे, तो मुंशीजी आँखों में आँसू भरे उनके पास आये और बोले—मिस्टर जिम, मैं तुम्हें आदमी समझता था; पर तुम पत्थर निकले। मैंने तुम्हारी जितनी खुशामद की, उतनी अगर ईश्वर की करता, तो मोक्ष पा जाता। मगर तुम न पसीजे। रियाया का दिल यों मुट्ठी में नहीं आता। यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी, जब तक यहाँ के लोगों की आँखें बन्द हैं। यह मजा बहुत दिनों तक न उठा सकोगे।

यह कहते हुए मुंशीजी कमरे से बाहर चले आये। जिम ने कुपित नेत्रों से देखा, पर कुछ बोला नहीं। चक्रधर जेल पहुँचे, तो शाम हो गयी थी। जाते ही जाते उनके कपड़े उतार लिये गये और जेल के वस्त्र मिले। लोटा और तसला भी दिया गया। गरदन में लोहे का नम्बर डाल दिया गया। चक्रधर जब ये कपड़े पहनकर खड़े हुए, तो उनके मुख पर विचित्र शान्ति की झलक दिखायी दी, मानो किसी ने जीवन का तत्व पा लिया हो। उन्होंने वही किया, जो उनका कर्तव्य था और कर्तव्य का पालन ही चित्त की शान्ति का मूल-मन्त्र है।

रात को जब वह लेटे, तो मनोरमा की सूरत आँखों के सामने फिरने लगी। उसकी एक-एक बात याद आने लगी और हर बात में कोई-न-कोई गुप्त आशय भी छिपा हुआ मालूम होने लगा। लेकिन इसका अन्त क्या? मनोरमा, तुम क्यों मेरे झोंपड़े में आग लगाती हो? तुम्हें मालूम है, तुम मुझे किधर खींचे लिये जाती हो? ये बातें कल तुम्हें भूल जायँगी। किसी राजा रईस से तुम्हारा विवाह हो जायगा, फिर मुझे भूलकर भी न याद करोगी। देखने पर शायद पहचान भी न सको। मेरे हृदय में क्यों अपने खेल के घरौंदे बना रही हो? तुम्हारे लिए जो खेल है, वह मेरे लिए मौत है! मैं जानता हूँ, यह तुम्हारी बालक्रीड़ा है; लेकिन मेरे लिए वह बाग की चिनगारी है। तुम्हारी आत्मा कितनी पवित्र है, हृदय कितना सरल! धन्य होंगे उसके भाग्य, जिसकी तुम हृदयेश्वरी बनोगी, मगर इस अभागे को कभी अपनी सहानुभूति और सहृदयता से वंचित मत करना। मेरे लिए इतना ही बहुत है।