कायाकल्प/२५

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ १९८ ] नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति । ख्वाजा साहब ने फतवा दिया-जो मुसलमान किसी हिन्दू औरत को निकाल ले जाय, उसे एक हजार हजों का सवाब होगा। यशोदानन्दन ने काशी के पण्डितों की व्यवस्था मँगवायी कि एक मुसलमान का वध एक लाख गौ-दानो से श्रेष्ठ है।

होली के दिन थे । गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनायी गयी थी। वे नयी रोशनी के हिन्दू भक्त, जो रग को भूखा मेङिया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्र-धनुष बने हुए थे । सयोग से एक मियाँ साहब मुर्गी हाथ में लटकाये कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो चार छीटे पड़ गये । बस, गजब ही तो हो गया, आफत ही तो आ गयो । सीधे जामे मस- जिद पहुँचे और मीनार पर चढकर बाँग दी-'ऐ उम्मते रसूल ! आज एक काफिर के हाथों मेरे दीन का खून हुया है। उसके छीटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए हैं। या तो काफिरों से इस खून का बदला लो. या मैं मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फरि- याद सुनाने जाऊँ। बोलो, क्या मजूर है ? शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मसजिद के नीचे नजर आयेगी।'

मुसलमानों ने जब ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गयीं । दीन का जोश सिर पर सवार हो गया। शाम होते-होते दस हजार आदमी सिरों से कफन लपेटे, तल वारै लिये, जामे मसजिद के सामने आकर दीन के खून का बदला लेने के लिए जमा हो गये।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिन्दुओं के होश उड़ गये । होली का नशा हिरन हो गया । पिचकारियाँ छोड़ छोड़ लोगों ने लाठियाँ सॅमाली, लेकिन यहाँ कोई जामे मसजिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश | सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के | लख- नऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुसलिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला | इतनी जल्द कोई इन्तजाम न हो सकता था। अगर वह यही समय हिन्दुओं को सगठित करने में लगाते, तो शायद बराबर का जोड़ हो जाता, लेकिन वह हुक्काम पर आशा लगाये बैठे रहे। और अन्त में जब वह निराश होकर उठे, तो मुसलिम वीर धावा बोल चुके थे । वे 'अली! अली ।' का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गये। फिर क्या था । सैकड़ों आदमी, 'मारो!' कहते हुए लपके । बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये। सवाल जवाब कौन करता । उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शान्त हो जायँ, तो क्यों किसी की जान लूँ । अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा। [ १९९ ]यह आहुति पाकर अग्नि और भी भड़की। खून का मजा पाकर लोगों का जोश हो गया। अब फतह का दरवाजा खुला हुआ था। हिन्दू मुहल्लों में द्वार बन्द हो। बेचारे कोठरियों में बैठे जान की खैर मना रहे थे, देवताओं से विनती कर रहे कि यह संकट हरो। रास्ते में जो हिन्दू-मिला वह पिटा, घर लुटने लगे। 'हाय-हाय' का शोर मच गया। दीन के नाम पर ऐसे ऐसे कर्म होने लगे, जिन पर पशुओं को भी लज्जा आती, पिशाचों के भी रोयें खड़े हो जाते।

लेकिन बाबू यशोदानन्दन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। आसन पर चोट-पहुँचते ही अड़ियल टट्टू और गरियाल बैल भी सॅभल जाते हैं। घोड़ा कनौतियाँ खड़ी करता है, बैल उठ बैठता है। यशोदानन्दन का खून हिन्दुओं के लिए आसन की चोट थी। सेवा-दल के दो सौ युवक तलवार लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्लों में घुसे। दो-चार पिस्तौल और बन्दूकें भी खोज निकाली गयीं। हिन्दू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लो में वही हिन्दू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया। वे ही सेवा-व्रतधारी युवक, जो दीनों पर जान देते थे, अनाथों को गले लगाते थे और रोगियों की सुश्रुषा करते थे, इस समय निर्दयता के पुतले बने हुए थे। पाशविक वृत्तियों ने कोमल वृत्तियों का संहार कर दिया था। उन्हें न तो दीनों पर दया आती थी, न अनाथों पर। हँस हँसकर भाले और छुरे चलाते थे, मानों लड़के गुड़ियाँ पीट रहे हों। उचित तो यह था कि दोनों दलों के योद्धा आमने-सामने खड़े हो जाते और खूब दिल के अरमान निकालते; लेकिन कायरों की वीरता और वीरो की वीरता में बड़ा अन्तर है।

सहसा खबर उड़ी कि यशोदानन्दन के घर में आग लगा दी गयी है और दूसरे घरों में भी भाग लगायी जा रही है। सेवादल वालों के कान खड़े हुए। यहाँ उनकी पैशाचिकता ने भी हार मान ली। तय हो गया कि अब या तो वे ही रहेंगे, या हमी रहेंगे। दोनो अब इस शहर में नहीं रह सकते। अब निपट ही लेना चाहिए, जिसमें हमेशा के लिए बाधा दूर हो जाय। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहाँ यह बढ़वानल दहक रहा था। मिनटों की राह पलों में कटी। रास्ते में सन्नाटा था। दूर ही से ज्वाला-शिखर आसमान से बातें करते दिखायी दिया। चाल और भी तेज की और एक क्षण में लोग अग्नि-कुण्ड के सामने जा पहुँचे। देखा, तो वहाँ किसी मुसलमान का पता नहीं आग लगी है। लेकिन बाहर की ओर। अन्दर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था। बागेश्वरी एक कोठरी मे द्वार बन्द किये बैठी थी। इन्हे देखते हो वह रोती हुई बाहर निकल आयी और बोली––दाय मेरी अहल्या! अरे दौड़ो, उसे ढूँढों, पापियों ने न-जाने उसकी क्या दुर्गति को। हाय! मेरी बची!

एक युवक ने पूछा––क्या अहल्या को उठा ले गये?

बागेश्वरी––हाँ भैया! उठा ले गये। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; [ २०० ] अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी । ज्याही दुष्टों ने घर में कदम रखा, बाहर निकलकर उन्हें समझाने लगी । हाय ! उसकी बातों को न भूलूँगी ।आप तो गये ही थे, उसका भी सर्वनाश किया। नित्य समझाती रही, इन झगड़ों में न पड़ो। न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूमरा ठोर-ठिकाना है, न हिन्दुओं के लिए । दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश मे मरेंगे। फिर आपस में क्यो लड़े मरते हो, क्यों एक दूसरे को निगल जाने पर तुले हुए हो ? न तुम्हारे निगले वे निगले जायेंगे, न उनके निगले तुम निगले जानोगे, मिल-जुलकर रहो, उन्हें बड़े होकर रहने दो, तुम छोटे ही होकर रहो, मगर मेरी कौन सुनता है। स्त्रियाँ तो पागल हो जाती है, यों ही भूँका करती हैं। मान गये होते, तो आज क्यों यह उपद्रव होता । आप जान से गये, बच्ची भी हर ली गयी, और न जाने क्या होना है। जलने दो घर, घर लेकर क्या करना है, तुम जाकर मेरी बच्ची को तलाश करो । जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उनका पता लगायें । हाय ! एक दिन वह था कि दोनों आदमियों मे दाँत कटी रोटी थी। ख्वाजा साहब उनके साथ प्रयाग गये थे और अहल्या को उन्होंने पाया था। आज यह हाल है ! कहना, तुम्हें लाज नहीं आती ? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद मे सौंपा था, जिसके विवाह में पाँच हजार खर्च करनेवाले थे, उसकी उन्हीं के पिछल गुओं के हाथों यह दुर्गति । हमसे अब उनकी क्या दुश्मनी । उनका दुश्मन तो परलोक सिधारा ! हाय भगवान | बहुत से आदमी मत जाओ । चार आदमी काफी हैं। उनकी लाश भी ढूँ ढों। कही आस ही पास होगी। घर से निकलते ही तो दुष्टों से उनका सामना हो गया था।

बागेश्वरी तो यह विलाप कर रही थी, बाहर अग्नि को शान्त करने का यत्न किया जा रहा था, लेकिन पानी के छींटे उस पर तेल का काम करते थे। बारे फायर-इञ्जिन समय पर आ पहुंचा और अग्नि का वेग कम हुआ । फिर भी लपटें किसी साँप की तरह जरा देर के लिए छिपकर फिर किसी दूसरी जगह ना पहुँचती थीं। सन्ध्या समय जाकर आग बुझी ।

उघर लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि मुंशी यशोदानन्दन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले- तुम समझते होगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और वेटा भी इससे ज्यादा अजीन नहीं। अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता तो यशोदा उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता। शायद मैं भी उसे खतरे में देखकर अपनी जान की परवा न करता । फिर भी हम दोनों की जिन्दगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे और आज उसका यह अजाम हुआ। खुदा गवाह है, मैंने हमेशा इत्तहाद की कोशिश की । अब भी मेरा यह ईमान है कि इत्तहाद ही से इस बदनसीब कौम की नजात होगी। यशोदा भी इत्तहाद का उतना ही हामी था, जितना मैं। शायद मुझसे भी ज्यादा, लेकिन खुदा जाने वह कौन सी ताकत थी, जो हम दोनों को बरसरेजग रखती [ २०१ ] थी। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे; पर हमारी मरजी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लङती रहती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी । हम दोनों एक ही मकतब में पढे, एक ही स्कूल में तालीम पायी, एक ही मैदान में खेले । यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्माँजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थी, इसकी अम्माँजान मुझे इससे ज्यादा | उस जमाने की तसवीर आज आँखों के सामने फिर रही है। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अजाम होगा। यह मेरा प्यारा यशोदा है, जिसकी गरदन में वाहें डालकर मै बागों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुश्मनो पसे-पुश्त होती थी। रूबरू मारे शर्म के हमारी आँखें ही न उठती थीं। आह ! काश मालूम हो जाता कि किस बेरहम ने मुझ पर यह कातिल वार किया ! खुदा जानता है, इन कमजोर हाथों से उसकी गर्दन मरोड़ देता।

एक युवक-हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं ।

ख्वाजा-ले जाओ भई, ले जाओ; मै भो साथ चलूँगा। मेरे कन्धा देने में कोई हरज है ! इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी ही पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार तक जरूर जाता।

युवक-अहल्या को भी लोग उठा ले गये। माताजी ने आपसे ..

ख्वाजा--क्या अहल्या । मेरी अहल्या को ! कब ?

युवक-‌आज ही । घर में आग लगाने से पहले।

ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहल्या का पता न लूँगा, मुझे -दाना पानी हराम है । तुम लोग लाश ले जायो, मै अभी आता हूँ। सारे शहर को खाक छान डालूँगा, एक एक घर में जाकर देखूँगा; अगर किसी वेदीन बदमाश ने मार नहीं डाला है, तो जरूर खोज निकालूँगा । हाय मेरी बच्ची! उसे मैने मेले में पाया था। खड़ी रो रही थी ! कैसी भोली-भोली, प्यारी-प्यारी बच्ची यो ! मैंने उसे छाती से लगा लिया था और लाकर भाभी की गोद में डाल दिया था। कितनी वातमीज, वाशकर, हसीन लड़की थी। तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊंँगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना मुझमे मलाल न रखें। यशोदा नहीं हैं, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी । कह देना, महमूद या तो अहल्या को खोज निकालेगा, या मुँह में कालिख लगाकर ढूब मरेगा।

यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठायी और बाहर निकल गये ।