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कायाकल्प/२६

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कायाकल्प
प्रेमचंद

पृष्ठ २०१ से – २०९ तक

 

२६

चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति मांगी । मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही मे अहल्या के सरल, लिग्ध स्नेह को शीतल छाया में शान्त हो सकती थी। उन्हें अपने उपर विश्वास न था। यह जिन्दगी-भर मनोरमा को देखा करते और मन में कोई बात न आती; लेकिन मनोरमा ने पुरानी स्मृतियों को जगाकर उनके अन्तस्तल में तृष्णा, उत्सुकता और लालसा को जागृत कर दिया था। इसलिए अब वह मन को ऐसो दृढ रस्सी से बाँधना चाहते थे कि वह हिल भी न सके । वह अहल्या को शरण लेना चाहते थे।

मुशीजी ने जरा त्योरी चढाकर कहा--तुम्हारे सिर अब तक वह नशा सवार है ? यों तुम्हारी इच्छा सैर करने की हो, रुपए-पैसे को तो कमी नहीं, लेकिन तुम्हें वादा करना पड़ेगा कि तुम मुशी यशोदानन्दन से न मिलोगे ।

चक्रधर--मैं उनसे मिलने हो तो जा रहा हूँ।

वज्रघर--मैं कहे देता हूँ, अगर तुमने वहाँ शादी की बात-चीत की, तो बुरा होगा, तुम्हारे लिए भी और मेरे लिए भी।

चक्रधर और कुछ न बोल सके । श्राते-हो-भाते माता-पिता को कैसे अप्रसन्न कर देते ! लेकिन जब हाली के तीसरे दिन बाद उन्हें आगरे के उपद्रव, बाबू यशोदानन्दन की हत्या और अहल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में श्राकर पिता को वह पत्र सुना दिया और बाले-मेरा वहाँ जाना बहुत जरूरी है।

वज्रधर ने निर्मला को ओर ताकते हुए कहा-क्या अभी जेल से जी नहीं भरा, जो फिर चलने की तैयारी करने लगे। वहाँ गये और पकड़े गये, इतना समझ लो । वहाँ इस वक्त अनीति का राज्य है, अपराध कोई न देखेगा। हथकड़ी पड़ जायगी । और फिर जाकर करोगे ही क्या । जो कुछ होना था, हो चुका, अब जाना व्यर्थ है ।

चक्रधर-कम-से-कम अहल्या का पता तो लगाना ही होगा।

वज्रघर--यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगाना ही मुश्किल, और लग भी गया, तो तुम्हारा अब उससे क्या सम्बन्ध । नब वह वह मुसलमानों के साथ रह चुको, तो कौन हिन्दू उसे पूछेगा ?

चक्रघर-~इसीलिए तो मेरा नाना और भी जरूरी है ।

निर्मला-लड़की को मर्यादा की कुछ लान होगी, तो वह अब तक जीती ही न होगी, अगर जीती है तो समझ लो कि भ्रष्ट हो गयी।

चक्रधर-अम्माँ, कभी कमी श्राप ऐसी बात कह देती हैं, जिस पर हंसी आती है ! प्राण भय से बड़े बड़े शूर वीर भूमि पर मस्तक रगड़ते हैं, एक अबला की हस्ती ही क्या । भ्रष्ट वह होती है जो दुर्वासना से कोई फर्म करे । जो काम हम प्राण-भय से करें, वह हमें भ्रष्ट नहीं कर सकता ।

वज्रधर-मैं तुम्हारा मतलब समझ रहा हूँ लेकिन तुम उसे चाहे सती समझो, हम उसे भ्रष्ट ही समझेगे ! ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।

चक्रधर ने निश्चयात्मक भाव से कहा-वह आपके घर में न आयेगी।

वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया-अगर तुम्हारा ख्याल हो कि पुत्र स्नेह के वश होकर मै उसे अगीकार कर लॅगा, तो तुम्हारी भूल है। अहल्या मेरी कुल देवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे तुत्र वियोग ही सहना पड़े । मैं भी जिद्दी हूँ। चक्रधर पीछे घूमे ही थे कि निर्मला ने उनका हाथ पकड़ लिया और स्नेहपूर्ण तिरस्कार करती हुई बोली––बच्चा, तुमसे ऐसी आशा न थी। अब भी हमारा कहना मानो, हमारे कुल के मुँह मे कालिख न लगाओ।

चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा––मैंने आपकी आशा कमी भंग नहीं की, लेकिन इस विषय से मजबूर हूँ।

बज्रधर ने श्लेष के भाव से कहा––साफ-साफ क्यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रहना चाहते हैं।

चक्रधर––अगर आप लोगों की यही इच्छा है तो मैं क्या करूँ?

वज्रधर––यह तुम्हारा अन्तिम निश्चय है?

चक्रधर––जी हॉ, अन्तिम!

यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आये और कुछ कपड़े साथ लेकर स्टेशन की ओर चल दिये।

थोड़ी देर के बाद निर्मला ने कहा––लल्लू किसी भ्रष्ट स्त्री को खुद ही न लायेगा। तुमने व्यर्थ उसे चिढ़ा दिया।

वज्रधर ने कठोर स्वर से कहा––अहल्या के भ्रष्ट होने से अभी कुछ कसर है?

निर्मला––यह तो मैं नहीं जानती; पर इतना जानती हूँ कि लल्लू को अपने धर्म-अधर्म का ज्ञान है। वह कोई ऐसी बात न करेगा, जिसमें निन्दा हो।

वज्रधर––तुम्हारी बात समझ रहा हूँ। बेटे का प्यार खींच रहा हो, तो जाकर उसी के साथ रहो। मैं तुम्हें रोकना नहीं चाहता। मैं अकेले भी रह सकता हूँ।

निर्मला––तुम तो जैसे म्यान से तलवार निकाले बैठे हो। वह विमन होकर कही चला गया तो?

वज्रधर––तो मेरा क्या बिगड़ेगा। मेरा लड़का मर जाय, तो भी गम न हो!

निर्मला––अच्छा, बस मुँह बन्द करो, बड़े धर्मात्मा बनकर आये हो। रिश्वत ले लेकर हड़पते दो, तो धर्म नहीं जाता; शराबें उड़ाते हो, तो मुँह में कालिख नहीं लगती; झूठ के पहाड़ खड़े करते हो, तो पाप नहीं लगता। लड़का एक अनाथिनों को रक्षा करने जाता है, तो नाक कटती है। तुमने कौन-सा कुकर्म नहीं किया? अब देवता बनने चले हो।

निर्मला के मुख से मुंशीजी ने ऐसे कठोर शब्द कभी न सुने थे। वह तो शील, स्नेह और पतिभक्ति की मूर्ति थी, आज कोप और तिरस्कार का रूप धारण किये हुए थी। उनकी शासक वृत्तियाँ उत्तेजित हो गयी। डाँटकर बोले––सुनो जो में ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। बाते तो नहीं सुनी मैंने अपने अफसरों को, जो मेरे भाग्य के विधाता थे। तुम किस खेत की मूली हो। जबान तालु से खींच लूंगा, समझ गयी? समझती हो न कि बेटा जवान हुआ। अब इस बुड्ढे को क्यों परवा करने लगी। तो अपर उसी भ्रष्टा के साथ रहो। इस घर में तुम्हारी जरूरत नहीं। यह कहकर मुंशीजी बाहर चले गये और सितार पर एक गत छेड़ दी।

चक्रधर आगरे पहँचे तो सवेरा हो गया था। प्रभात के रक्तरंजित मर्मस्थल में सूर्य यों मुँह छिपाये बैठे थे, जैसे शोक मण्डित नेत्र में अश्रु-बिन्दु। चक्रधर का हृदय भाँति-भाँति की दुर्भावनाओं से पीड़ित हो रहा था। एक क्षण तक वह खड़े सोचते रहे, कहाँ जाऊँ? बाबू यशोदानन्दन के घर जाना व्यर्थ था। अन्त को उन्होंने ख्वाना महमूद के घर चलना निश्चय किया। ख्वाज़ा साहब पर अब भी उनकी असीम श्रद्धा थी। तॉगे पर बैठकर चले, तो शहर में सैनिक चक्कर लगाते दिखायी दिये। दूकानें सब बन्द थीं।

ख्वाज़ा साहब के द्वार पर पहुंचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कबरिस्तान ले चलने की तैयारियाँ हो रही हैं। चक्रधर तुरत ताँगे से उतर पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गये। कहीं ख्वाज़ा साहब तो नहीं कत्ल कर दिये गये। वह किसी से पूछने ही जाते थे कि सहसा ख्वाज़ा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में आँसू भरकर बोले––खूब आये बेटा, तुम्हें आँखें ढूँढ रही थीं। अभी-अभी तुम्हारा ही जिक्र था, खुदा तुम्हारी उम्र दराज करे। मातम के बाद खुशी का दौरा आयेगा। जानते हो, यह किसकी लाश है? यह मेरी आँखों का नूर, मेरे दिल का सुरूर, मेरा लख्तेज़िगर, मेरा इकलौता बेटा है, जिस पर जिन्दगी की सारी उम्मीदें कायम थीं। अब तुम्हें उसकी सूरत याद आ गयी होगी। कितना खुशरू जवान था, कितना दिलेर। लेकिन खुदा जानता है, उसकी मौत पर मेरी आँखों से एक बूंद ऑसू भी न निकला। तुम्हें हैरत हो रही होगी, मगर मैं बिलकुल सच कह रहा हूँ। एक घण्टा पहले तक मैं उस पर निसार होता था। अब उसके नाम से नफरत हो रही है। उसने वह फेल किया, जो इन्सानियत के दरजे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहल्या के बारे में तो खबर मिली होगी?

चक्रधर––जी हाँ, शायद बदमाश लोग पकड़ ले गये।

ख्वाज़ा––यह वही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी हुई है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहल्या को तलाश करता फिरता था, और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह जालिम उस पर जब करना चाहता था। जरूर किसी ऊँचे खानदान की लड़की है। काश इस मुल्क में ऐसी और लड़कियाँ होती! आज उसने मौका पाकर इसे ज़हन्नुम का रास्ता दिखा दिया––छुरी सीने में भोंक दी। जालिम तड़प-तड़पकर मर गया। कम्बख़्त जानता था कि अहल्या मेरी लड़की है। फिर भी अपनी हरकत से बान न पाया। ऐसे लड़के की मौत पर कौन बाप रोयेगा? तुम बड़े खुशनसीब हो, जो ऐसी पारसा बीबी पाओगे।

चक्रधर––मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मुझे आपके साथ कामिल हम है, आपका-सा इन्साफ-परवर, हकपरस्त आदमी इस वक्त दुनिया में न होगा। अहल्या अब कहाँ है? ख्वाज़ा––इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि चल तुझे तेरे घर पहुँचा आऊँ, जाती ही नहीं। बस, बैठी रो रही है।

चक्रधर का हृदय भय से काँप उठा। अहल्या पर अवश्य ही हत्या का अभियोग चलाया जायगा और न जाने क्या फैसला हो। चिन्तित स्वर से पूछा––अहल्या पर तो अदालत में ·

ख्वाजा––हरगिज नहीं। उसने हर एक लड़की के लिए नमूना पेश कर दिया। खुदा और रसूल दोनों उसे दुआ दे रहे हैं। फरिश्ते उसके कदमों का बोसा ले रहे हैं। उसने खून नहीं किया, कल्ल नहीं किया, अपनी असमत की हिफाजत की, जो उसका फर्ज था। यह खुदाई कहर था, जो छुरी बनकर इसके सीने में चुभा। मुझे जरा भी मलाल नहीं है। खुदा की मरनी में इन्सान को क्या दखल? लाश उठायी गयी। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गये। रास्ते में किसी ने बातचीत न की। जिस वक्त लाश में उतारी गयी, ख्वाज़ा साहब रो पड़े। हाथों से मिट्टी दे रहे थे और आँखों से आँसू की बूँद मरनेवाले को लाश पर गिर रही थीं। यह क्षमा के आँसू थे। पिता ने पुत्र को क्षमा कर दिया था। चक्रधर भी आँसुओ को न रोक सके। आह! इस देवता-स्वरूप मनुष्य पर इतनी घोर विपत्ति!

दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब जरा दम लेकर बोले––आओ बेटा, तुम्हें अहल्या के पास ले चलूँ। उसे जरा तस्कीन दो, मैंने जिस दिन से उसे भाभी को सौंपा, यह अहद किया था कि इसकी शादी मैं करूँगा। मुझे मौका दो कि अपना अहद पूरा करूँ।

यह कहकर ख्वाज़ा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अन्दर चले। चकधर का हृदय बॉसों उछल रहा था। अहल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सुक कभी न थे। उन्हें ऐसा अनुमान हो रहा था कि अब उसके मुख पर माधुर्य की जगह तेजस्विता का आभास होगा, कोमल नेत्र कठोर हो गये होंगे, मगर जब उस पर निगाह पड़ी, तो देखा वही सरल, मधुर छवि थी, वही करुण-कोमल नेत्र, वही शीतल-मधुर वाणी। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौक पड़ी और घूँघट में मुंह छिपा लिया। फिर एक ही क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारों से धोने लगी। उन चरणों पर सिर रखे हुए स्वर्गीय सांत्वना, एक देवी शक्ति, एक धैर्यमय तृप्ति का अनुभव हो रहा था।

चक्रधर ने कहा––अहल्या, तुमने जिस वीरता से आत्मरक्षा की, उसके लिए तुम्हें बधाई देता हूँ। तुमने वीर क्षत्राणियों की कीर्ति को उज्ज्वल कर दिया। दुःख है, तो इतना ही कि ख्वाजा साहब का सर्वनाश हो गया।

अहल्याने उत्तर न दिया। चक्रधर के चरणों पर सिर झुकाये बैठी रही। चक्रधर फिर बोले–– मुझे लज्जित न करो, अहल्या! मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए, तुम बिलकुल उल्टी बात कर रही हो। कहाँ है वह छुरी, जरा उसके दर्शन तो कर लें।

अहल्या ने उठकर काँपते हुए हाथों से फर्श का कोना उठाया और नीचे से छुरी निकालकर चक्रधर के सामने रख दी। उस पर रुधिर जमकर काला हो गया था।

चक्रधर ने पूछा—यह छुरी यहाँ कैसे मिल गयी, अहल्या? क्या साथ लेती आयी थी?

अहल्या ने सिर झुकाये हुए जबाब दिया—उसी की है।

चक्रधर—तुम्हें कैसे मिल गयी?

अहल्या ने सिर झुकाये ही बवाव दिया—यह न पूछिए। अबला के पास कौशल के सिवाय आत्मरक्षा का और कौन सा साधन है?

चक्रधर—यही तो सुनना चाहता हूँ, अहल्या!

अहल्या ने सिर उठाकर चक्रघर को ओर मानपूर्ण नेत्रों से देखा और बोलो—सुनकर क्या कीजियेगा?

चक्रधर—कुछ नहीं, योंही पूछ रहा था।

अहल्या—नहीं, आप योंही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है। अगर भ्रम है, तो मेरी अग्नि-परीक्षा ले लीजिए।

चक्रधर ने देखा, बात बिगड़ रही है। इस एक असामयिक प्रश्न ने इसके हृदय के टूटे हुए तार को चोट पहुँचा दी। वह समझ रही है, मैं इस पर सन्देह कर रहा हूँ। सम्भावना की कल्पना ने इसे सशंक बना दिया है! बोले—तुम्हारी अग्नि-परीक्षा तो हो चुकी अहल्या, और तुम उसमें खरी निकलीं। अब भी अगर किसी के मन में सन्देह हो, तो यही कहना चाहिए कि वह अपनी बुद्धि खो बैठा है। तुम नवकुसुमित पुष्प की भाँति स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो, तुम पहाड़ की चोटी पर जमी हुई हिम की भाँति उज्ज्वल हो। मेरे मन में सन्देह का लेश भी होता, तो मुझे यहाँ खड़ा न देखतीं! वह प्रेम और अखण्ड विश्वास, जो अब तक मेरे मन में था, कल प्रत्यक्ष हो जायगा। अहल्या, मैं कब का तुम्हें अपने हृदय मैं बिठा चुका। वहाँ तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, सन्देह और कलंक का घातक हाथ वहाँ उसी वक्त पहुँचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि-दुर्ग विध्वंस हो जायगा। चलो, चलें। माताजी घबरा रही होगीं।

यह कहकर उन्होंने अहल्या का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि हृदय से लगा लूँ, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गयी और काँपते हुए स्वर में बोली—नहीं नहीं, मेरे अंग जो मत स्पर्श कीजिए। सूँघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता। मेरी आत्मा निष्कलंक है, लेकिन मैं अब वहाँ न जाऊँगी, कहीं न जाऊँगी। आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूँ, आप जाकर अम्मा को समझा दीजिये। मेरे लिए अब दुख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूँ।

चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले—अहल्या जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती हैं, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आँखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो, जितनी पहले थी। तुम्हारी अग्नि परीक्षा हो चुकी है। अब विलम्ब न करो। ईश्वर ने चाहा, तो कल हम उस प्रेम सूत्र में बँध जायँगे जिसे काल भी नहीं तोड़ सकता, जो अमर और अभेद्य है।

अहल्या कई मिनट तक चक्रधर के कन्धे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली―एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे? सच्चे दिल से कहना?

चक्रधर―क्या पूछती हो, पूछो?

अहल्या―तुम केवल दया-भाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो, या प्रेम भाव से?

यह प्रश्न से स्वयं लज्जित होकर उसने फिर कहा―बात वेढगी-सी है; लेकिन मैं मूर्ख हूँ, क्षमा करना, यह शंका मुझे बार-बार होती है। पहले भी हुई थी और आज और भी बढ़ गयी है।

चक्रधर का दिल बैठ गया। अहल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूँ। बोले―तुम्हें क्या जान पड़ता है अहल्या?

अहल्या―मै जानती, तो आपसे क्यों पूछती?

चक्रधर―अहल्या, तुम इन बातों से मुझे धोखा नहीं दे सकतीं। चील को चाहे मास की बोटी न दिखायी दे, चिउँटी को चाहे शक्कर की सुगन्ध न मिले; लेकिन रमणी का एक-एक रोयाँ पञ्चेन्द्रियों को भाँति प्रेम के रूप, रस, शब्द, स्पर्श का अनुभव किये विना नहीं रहता। मैं एक गरीब आदमी हूँ। दया और धर्म और उद्धार के भावों का मुझसे लेश भी नहीं। केवल इतना ही कह सकता हूँ कि तुम्हें पाकर मेरा जीवन सफल हो जायगा।

अहल्या ने मुसकराकर कहा―तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ।

चक्रधर―अवश्य, उससे ज्यादा, जितना मैं स्वयं जानता हूँ।

अहल्या―तो साफ कह दूँ?

चक्रधर ने कातर भाव से कहा―कहो, सुनूँ।

अहल्या―तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।

चक्रधर―अदल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।

अहल्या―जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमे नहीं हैं, उस पर हाथ न चढ़ाऊँगा। मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूँ।

चक्रधर―अगर यही प्रश्न मैं तुमसे करता, तो तुम क्या जवाब देतीं, अहल्या?

अहल्या―तो साफ साफ कह देती कि मैं प्रेम से अधिक आपका आदर करती हूँ, आपमें श्रद्धा रखती हूँ।

चक्रधर का मुख मलिन हो गया। सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया। वन वृक्षों सा लहलहाता हुआ हृदय मरु-भूमि सा दिखायी दिया। निराश भाव से बोले—मैं तो और ही सोच रहा था, अहल्या!

अहल्या—तो आप भूल कर रहे थे। मैंने किसी पुस्तक में देखा था कि प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शान्त, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। उसमें दया और क्षमा, श्रद्धा और वात्सल्य, सहानुभूति और सम्मान, अनुराग और विराग, अनुग्रह और उपकार सभी मिले होते हैं। सम्भव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम पात्री बन जाऊँ, किन्तु इतनी जल्द सम्भव नहीं। इनमें से कोई एक भाव प्रेम को अंकुरित कर सकता है, उसका विकास अन्य भावों के मिलने ही से होता है। आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का। हाँ, सम्मान और भक्ति दया की अपेक्षा प्रेम से कहीं निकटतर है, बल्कि यों कहिए कि ये ही भाव सरस होकर प्रेम का बाल रूप धारण कर लेते हैं।

अहल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गये। उन्होंने कभी यह अनुमान ही न किया था कि उसके विचार इतने उन्नत और उदार हैं। उन्हें यह सोचकर आनन्द हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जायगा, किन्तु अहल्या का हाथ उनके हाथ से आप ही आप छूट गया, और उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ। इसके प्रेम का आदर्श कितना ऊँचा है। इसकी दृष्टि में यह व्यवहार वासनामय जान पड़ता होगा। इस विचार ने उनके प्रेमोद्गारों को शिथिल कर दिया। अवाक् से खड़े रह गये।

सहसा अहल्या ने कहा—मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जायँगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूँ, लेकिन आपके तिरस्कार और अपमान का ख्याल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूँ। केवल आपके दर्शनों की अभिलाषा ने मुझे अब तक जीवित रखा है। मैं आपको अपनी कालिमा से कलुषित करने के पहले मर जाना ही अच्छा समझती हूँ।

चक्रधर की आँखे करुणार्द्र हो गयीं। बोले—अहल्या, ऐसी बातें न करो। अगर संसार में अब भी कोई ऐसा क्षुद्र प्राणी है, जो तुम्हारी उज्ज्वल कीर्ति के सामने सिर न झुकाये, तो वह स्वयं नीच है। वह मेरा अपमान नहीं कर सकता। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता पिता के विरोध की परवा नहीं करता। तुम इन बातों को भूल जाओ। हम और तुम प्रेम का आनन्द भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं। ऐसी कोई विपत्ति नहीं है, जिसे प्रेम न टाल सके। मैं तुमसे विनती करता हूँ, अहल्या, कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।

अहल्या ने अबकी स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की वह दाह, जो उसके मर्मस्थल को जलाये डालती थी, इन शीतल आर्द्र शब्दों से शान्त हो गयी। शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी दाह चञ्चल दृष्टि स्थिर हो गयी और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आँखों के सामने खड़ी दिखायी दी। उसने अपना सिर उनके कन्धे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएँ विलीन हो गयीं, जैसे कोई बात ध्वनि सरिता के शान्त, मन्द प्रवाह में विलीन हो जाती है।

सन्ध्या-समय अहल्या वागीश्वरी के चरणों पर सिर झुकाये रो रही थी और चक्रघर खड़े, नेत्रों से उस घर को देख रहे थे, जिसकी आत्मा निकल गयी थी। दीपक वही थे; पर उनका प्रकाश मन्द था। घर वही था; पर उसकी दीवारें नीची मालूम होती थीं। वागीश्वरी वही थी; पर लुटी हुई, जैसे किसी ने प्राण हर लिये हों।