कायाकल्प/५३

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ ३४७ ]

५३

कई दिन गुजर गये। राजा साहब हरि-भजन और देवोपासना में व्यस्त थे। इधर ५-६ वर्ष से उन्होंने किसी मन्दिर की तरफ झाँका भी न था। धर्म-चर्चा का बहिष्कार-सा कर रखा था। रियासत में धर्म का खाता ही तोड़ दिया गया था। जो कुछ धार्मिक जीवन था, वह वसुमती के दम से। मगर अब एकाएक देवताओं में राजा साहब की फिर श्रद्धा हो आयी थी। धर्म खाता फिर खोला गया और जो वृत्तियाँ बन्द कर दी गयी थीं, वे फिर से बाँधी गयीं। राजा साहब ने फिर चोला बदला। वह धर्म या देवता किसी के साथ निःस्वार्थ प्रेम नहीं रखते थे। जब सन्तान की ओर से निराशा हो गयी, तो उनका धर्मानुराग भी शिथिल हो गया। जब अहल्या और शंखधर ने उनके जीवन क्षेत्र में पदार्पण किया, तब फिर धर्म और दान-व्रत की ओर उनकी रुचि हुई। जब शंखधर चला गया और ऐसा मालूम हुआ कि अब उसके लौटने की आशा नहीं है, तो राजा साहब ने धर्म की अवहेलना ही नहीं की, बल्कि देवताओं के साथ जोर-शोर, से प्रतिरोध भी करने लगे। धर्म-संगत बातों को चुन-चुनकर बन्द किया! अधर्म को बातें चुन चुनकर ग्रहण कीं। शंखधर के लौटते ही उनका धर्मानुराग फिर जाग्रत हो गया। सम्पत्ति मिलने ही पर तो रक्षकों की आवश्यकता होती है। [ ३४८ ]इन दिनों राजा साहब बहुधा एकान्त में बैठे किसी चिन्ता में निमग्न रहते थे, बाहर कम निकलते थे। भोजन से भी उन्हें कुछ अरुचि हो गयी थी। वह मानसिक अन्धकार, जो नैराश्य की दशा में उन्हे घेरे हुए था, अब एकाएक आशा के प्रकाश से छिन्न-भिन्न हो गया था। धर्मानुराग के साथ उनका कर्त्तव्य आज भी जाग पड़ा था। जैसे जीवन लीला के अन्तिम काण्ड में हमें भक्ति की चिन्ता सवार होती है, बड़े बड़े भोगी भी रामायण और भागवत का पाठ करने लगते हैं, उसी भाँति राजा साहब को भी अब बहुधा अपनी अपकीर्ति पर पश्चात्ताप होता था।

आधी रात से अधिक बीत चुकी थी। रनिवास में सोता पड़ा हुआ था। अहल्या के बहुत समझाने पर भी मनोरमा अपने पुराने भवन में न आयी। वह उसी छोटी कोठरी में पड़ी हुई थी। सहसा राजा साहब ने प्रवेश किया। मनोरमा विस्मित होकर उठ खड़ी हुई।

राजा साहब ने कोठरी को ऊपर-नीचे देखकर करुण-स्वर में कहा—नोरा, मैं आज तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आया हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, इसे क्षमा कर दो। मुझे इतने दिनों तक क्या हो गया था, वह नहीं सकता। ऐसा मालूम होता है कि रोहिणी की मृत्यु के पश्चात् जो दुर्घटनाएँ हुईं, उन्होंने मेरे चित्त को अस्थिर कर दिया। मुझे ऐसा मालूम होता था कि शत्रुओं से घिरा हूँ। मन में भाँति-भाँति की शङ्काएँ उठा करती थीं। किसी पर विश्वास न होता था। अब भी मुझे किसी अनिष्ट की शङ्का हो रही है; लेकिन वह दशा नहीं। तुम मेरी रक्षा के लिए जो कुछ कहती और करती थीं, उसमें मुझे कपट की गन्ध आती थी। अब की ही तुमने मुझे सावधान रहने के लिए कहा था, लेकिन मैं उसका आशय कुछ और ही समझ बैठा था और तुम्हारे ऊपर पहरा बिठा दिया था। अपने होश में रहनेवाला आदमी कभी ऐसी बातें न करेगा।

मनोरमा ने सजल नेत्र होकर कहा—उन बातों को याद न कीजिए। आपको भी दुःख होता है और मुझे भी दुःख होता है। मेरा ईश्वर ही जानता है कि एक क्षण के लिए भी मेरे हृदय में आपके प्रति दुर्भावना नहीं उत्पन्न हुई।

राजा—जानता हूँ नोरा, जानता हूँ। तुम्हें इस कोठरी में पड़े देखकर इस समय मेरा हृदय फटा जाता है। हाँ! अब मुझे मालूम हो रहा है कि दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और उनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं। सच तो यह है नोरा, कि मेरा जीवन ही निष्फल हो गया। प्रभुता पाकर मुझे जो कुछ करना चाहिए या, सो कुछ न किया, जो कुछ करने के मंसूबे दिल में थे, एक भी न पूरे हुए। जो कुछ किया, उल्टा ही किया। मैं रानी देवप्रिया के राज्यप्रबन्ध पर हँसा करता था, पर मैंने प्रजा पर जितना अन्याय किया, उतना देवप्रिया ने कभी नहीं किया था। मैं कर्ज को काला साँप समझता था, पर आज रियासत कर्ज के बोझ से लदी हुई है। प्रजा रानी देवप्रिया का नाम आज भी आदर के साथ लेती है। [ ३४९ ]मेरा नाम सुनकर लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, मुझे यह रियासत न मिली होती, तो मेरा जीवन कहीं अच्छा होता।

मनोरमा—मुझे भी अकसर यही विचार हुआ करता है।

राजा—अब जीवन-लीला समाप्त करते समय अपने जीवन पर निगाह डालता हूँ, तो मालूम होता है, मेरा जन्म ही व्यर्थ हुआ। मुझसे किसी का उपकार न हुआ। मैं गृहस्थी के उस सुख से भी वंचित रहा, जो छोटे-से-छोटे मनुष्यों के लिए भी सुलभ है। मैंने कुल मिलाकर छः विवाह किये और सातवाँ करने जा रहा था। क्या किसी भी स्त्री को मुझसे सुख पहुँचा? यहाँ तक कि तुम जैसी देवी को भी मैं सुखी न रख सका। नोरा, इसमें रत्ती भर भी बनावट नहीं है कि मेरे जीवन में अगर कोई मधुर स्मृति है, तो वह तुम हो, और तुम्हारे साथ मैंने यह व्यवहार किया! कह नहीं सकता, मेरी आँखों पर क्या परदा पड़ा हुआ था। शंखधर अपने साथ मेरे हृदय की सारी कोमलताओं को लेता गया था। उसे पाकर आज मैं फिर अपने को पा गया हूँ। सच कहता हूँ, उसके पाते ही मैं अपने को पा गया, लेकिन नोरा, हृदय अन्दर-ही-अन्दर काँप रहा है। मैं इस शंका को किसी तरह दिल से बाहर नहीं निकाल सकता कि कोई अनिष्ट होनेवाला है। उस समय मेरी क्या दशा होगी? उसकी कल्पना करके मैं घबरा जाता हूँ, मुझे रोमाञ्च हो जाता है और जी चाहता है, प्राणों का अन्त कर दूँ। ऐसी मालूम होता है, मैं सोने की गठरी लिये भयानक वन में अकेला चला जा रहा हूँ, न जाने कब डाकुओं का निर्दय हाथ मेरी गठरी पर पड़ जाय। बस, यह धड़कन मेरे रोम-रोम में समायी हुई है!

मनोरमा—जब ईश्वर ने गयी हुई आशाओं को जिलाया है, तो अब सब कुशल ही होगी। अगर अनिष्ट होना होता, तो यह बात ही न होती। मैं तो यही समझती हूँ।

राजा—क्या करूँ नोरा, मुझे इस विचार से शान्ति नहीं होती। मुझे भय होता है कि यह किसी अमंगल का पूर्वाभास है।

यह कहते-कहते राजा साहब मनोरमा के और समीप चले आये और उसके कान के पास मुँह ले जाकर बोले—यह शङ्का बिलकुल अकारण ही नहीं है, नोरा! रानी देवप्रिया के पति मेरे बड़े भाई होते थे। उनकी सूरत शंखधर से बिलकुल मिलती है। जवानी में मैंने उनको देखा था। हूबहू यही सूरत थी। तिल-बराबर भी फर्क नहीं। भाई साहब का एक चित्र भी मेरे अलबम में हैं। तुम यही कहोगी कि यह शंखधर ही का चित्र है। इतनी समानता तो जुड़वाँ भाइयों में भी नहीं होती। कोई पुराना नौकर नहीं है, नहीं तो मैं इसकी साक्षी दिला देता। पहले शंखधर की सूरत भाई साहब से उतनी ही मिलती थी, जितनी मेरी। अब तो ऐसा जान पडता है कि स्वयं भाई साहब ही आ गये हैं।

मनोरमा—तो इसमें शंका की क्या बात है? उसी वृक्ष का फल शंखधर भी तो है।

राजा—आह! नोरा, तुम यह बात नहीं समझ रही हो। तुम्हें कैसे समझा दूँ? [ ३५० ]इसमें भयकर रहस्य है, नोरा, मैंने अबकी शंखधर को देखा, तो चौंक पड़ा। सच कहता हूँ, उसी वक्त मेरे रोयें खड़े हो गये।

मनोरमा—आश्चर्य तो मुझे भी हो रहा है। रानी रामप्रिया आयीं थीं। वह कहती थीं, बहू की सूरत रानी देवप्रिया से बिलकुल मिलती है। वह भी बहू को देखकर विस्मित रह गयी थीं।

राजा ने घबराकर कहा—रामप्रिया ने मुझसे वह बात नहीं कही, नोरा। अब कुशल नहीं है। मैं तुमसे कहता हूँ नोरा, मेरी बात को यथार्थ समझो। अब कुशल नहीं है। कोई भारी दुर्घटना होनेवाली है। हाँ! विधाता, इससे तो अच्छा था कि मैं निस्सन्तान ही रहता।

राजा साहब ने विकल होकर दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और चिन्ता में डूब गये। एक क्षण के बाद मानो मन ही मन यह निश्चय करके, कि अमुक दशा में उन्हें क्या करना होगा, अत्यन्त स्नेह करुण शब्दों में मनोरमा से बोले—क्यों नोरा, एक बात तुमसे पूछूँ, बुरा तो न मानोगी? मेरे मन में कभी कभी यह प्रश्न हुआ करता है कि तुमने मुझसे क्यों विवाह किया? उस वक्त भी मेरी अवस्था ढल चुकी थी। धन का इच्छुक मैंने तुम्हें कभी नहीं पाया। जिन वस्तुओं पर अन्य स्त्रियाँ प्राण देती हैं, उनकी ओर मैंने तुम्हारी रुचि कभी नहीं देखी। क्या वह केवल ईश्वरीय प्रेरणा थी, जिसके द्वारा पूर्व-पुण्य का उपहार दिया गया हो?

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा—दण्ड कहिए।

राजा—नहीं नोरा, मैंने जीवन में जो कुछ सुख और स्वाद आया, वह तुम्हारे स्नेह और माधुर्य में आया। यह भाग्य की निर्दय क्रीड़ा है कि जिसे मैं अपना सुख-सर्वस्व समझता था, उसपर सबसे अधिक अन्याय किया, किन्तु अब मुझे अपने अन्याय पर दुख के बदले एक प्रकार का सन्तोष हो रहा है। वह परीक्षा थी, जिसने तुम्हारे सतीत्व को और भी उज्ज्वल कर दिया, जिसने तुम्हारे हृदय की उस अपार कोमलता का परिचय दे दिया, जो कठोर होना नहीं जानती, जो कञ्चन की भाँति तपने पर और भी विशुद्ध एवं उज्ज्वल हो जाती है। इस परीक्षा के बिना तुम्हारे ये गुण छिपे रह जाते। मैंने तुम्हारे साथ जो जो नीचताएँ कीं, वे किसी दूसरी स्त्री में शत्रुता के भाव उत्पन्न कर देती। वह मानसिक वेदना, वह अपमान, वह दुर्जनता दूसरा कौन सहता और सहकर हृदय में मैल न आने देता? इसका बदला मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ?

मनोरमा—स्त्री क्या बदले ही के लिए पुरुष की सेवा करती है?

राजा—इस विषय को और न बढ़ाओ मनोरमा, नहीं तो कदाचित् तुम्हें मेरे मुँह से अपनी अन्य बहनों के विषय में अप्रिय सत्य सुनना पड़ जाय। मेरे उस प्रश्न का उत्तर दो, जो अभी मैने तुमसे किया था। वह कौन सी बात थी, जिसने तुम्हें मुझसे विवाह करने की प्रेरणा की?

मनोरमा—बता दूँ! आप हँसियेगा तो नहीं? मैं रानी बनना चाहती थी। मैंने [ ३५१ ]बाबूजी से अपनी तारीफ सुनी थी। इसका भी एक कारण था—आपकी सहृदयता और आपकी विश्वासमय सेवा।

राजा—रानी किसलिए बनना चाहती थीं, नोरा?

मनोरमा—आप राजा जिस लिए बनना चाहते थे। उसी लिए मैं रानी बनना चाहती थी। कीर्ति, दान, यश, सेवा, मैं इन्हीं को अधिकार के सुख समझती हूँ; प्रभुता और विलास को नहीं।

राजा—इसका आशय यही है न, कि कीर्ति तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा थी या कुछ और? कीर्ति के लिए तुमने यौवन के अन्य सुखों का त्याग कर दिया। मैं यह पहले से ही जानता था नोरा, और इसी लिए स्वभाव से कृपण होने पर भी मैंने कभी तुम्हारे उपकार के कामों में बाधा नहीं डाली। मेरे लिए सेवा और उपकार गौण बातें थीं। अधिकार, ऐश्वर्य, शासन इन्हीं को मैं प्रधान समझता है। तुम्हारा आदर्श कुछ और है, मेरा कुछ और। जब कीर्ति के लिए तुमने जीवन के और सभी सुखों पर लात मार दी, तो मैं चाहता हूँ कि कोई ऐसी व्यवस्था कर दूँ, जिसमें तुम्हें आगे चल कर किसी बाधा का सामना न करना पड़े। कौन जानता है कि क्या होने वाला है, नोरा। पर मैं यह आशा कदापि नहीं करता कि शङ्खधर तुम्हें प्रसन्न रखने की उतनी चेष्टा करेगा, जितनी उसे करनी चाहिए। मैं उसकी बुराई नहीं कर रहा हूँ। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि रियासत का एक भाग तुम्हारे नाम लिख दूँ। मेरी बात सुन लो, मनोरमा! मैंने दुनिया देखी है और दुनिया का व्यवहार जानता हूँ| इसमें न मेरी कोई हानि है, न तुम्हारी और न शंखधर की। तुम्हें इसका अख्तियार होगा कि यदि इच्छा हो, तो अपना हिस्सा शंखधर को दे दो। लेकिन एक हिस्से पर तुम्हारा नाम होना जरूरी है। मैं कोई आपत्ति न मानूँगा।

मनोरमा—मेरी कीर्ति अब इसी में है कि आपकी सेवा करती रहूँ।

राजा—नोरा, तुम अब भी मेरी बातें नहीं समझीं। मेरे मन में कैसी-कैसी शंकाएँ है, यह मैं तुमसे कहूँ, तो तुम्हारे ऊपर जुल्म होगा। मुझे लक्षण बुरे दिखायी दे रहे हैं।

मनोरमा ने अब की दृढ़ता से कहा—शकाएँ निर्मूल हैं; लेकिन यदि ईश्वर कुछ बुरा ही करने वाले हों, तो भी मैं शंखधर की प्रतियोगिनी बनना स्वीकार न करूँगी, जिसे मैंने पुत्र की भाँति पाला है। चक्रधर का पुत्र इतना कृतघ्न नहीं हो सकता।

राजा ने जाँघ पर हाथ पटक कर कहा—नोरा, तुम अब भी नहीं समझीं। खैर, कल से तुम नये भवन में रहोगी। यह मेरी आज्ञा है।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए। बिजली के निर्मल प्रकाश में मनोरमा उन्हें खड़ी देखती रही। गर्व से उसका हृदय फूला न समाता था। इस बात का गर्व नहीं था कि अब फिर रियासत में उसकी तूती बोलेगी, फिर वह मन-माना धन लुटायेगी। [ ३५२ ]गर्व इस बात का था कि मेरे स्वामी इतना आदर करते हैं। आज विशालसिह ने मनोरमा के हृदय पर अन्तिम विजय पायी। आज मनोरमा को अपने स्वामी की सहृदयता ने जीत लिया। प्रेम सहृदयता ही का रसमय रूप है। प्रेम के अभाव में सहृदयता ही दम्पति के सुख का मूल हो जाती है।