कायाकल्प/५४

विकिस्रोत से
कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

[ ३५२ ]

५४

राजा साहब को अब किसी तरह शान्ति न मिलती थी। कोई न कोई भयंकर विपत्ति आनेवाली है, इस शंका को वह दिल से न निकाल सकते थे। दो चार प्राणियों को जोर-जोर से बातें करते सुनकर वह घबरा जाते थे कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी। शंखधर कहीं जाता, तो जब तक वह कुशल से लौट न आये, वह व्याकुल रहते थे। उनका जी चाहता था कि वह मेरी आँखों के सामने से दूर न हो। उसके मुख की ओर देखकर उनकी आँखें आप ही-आप सजल हो जाती थीं। वह रात को उठकर ठाकुरद्वारे में चले जाते और घण्टों ईश्वर की वन्दना किया करते। जो शंका उनके मन में थी, उसे प्रगट करने का उन्हें साहस न होता था। वह उसे स्वयं व्यक्त करते थे। वह अपने मरे हुए भाई की स्मृति को मिटा देना चाहते थे, पर वह सूरत आँखों में न टलती थी। कोई ऐसी क्रिया, ऐसी आयोजना, ऐसी विधि न थी, जो इस पर मँडरानेवाले संकट का मोचन करने के लिए न की जा रही हो, पर राजा साहब को शान्ति न मिलती थी।

सन्ध्या हो गयी थी। राजा साहब ने मोटर मँगवायी और मुंशी वज्रधर के मकान पर जा पहुँचे। मुंशीजी की संगीत मण्डली जमा हो गयी थी। संगीत ही उनका दान, व्रत, ध्यान और तप था। उनकी सारी चिन्ताएँ और सारी बाधाएँ सगीत स्वरों में विलीन हो जाती थीं। मुंशीजी राजा साहब को देखते ही खड़े होकर बोले—आइए, महाराज! आज ग्वालियर के एक आचार्य का गाना सुनवाऊँ। आपने बहुत गाने सुने होंगे, पर इनका गाना कुछ और ही चीज है।

राजा साहब मन में मुंशीजी की बेफिक्री पर झुँझलाये। ऐसे प्राणी भी संसार में हैं, जिन्हें अपने विलास के आगे किसी वस्तु की परवा नहीं। शंखधर से मेरा और इनका एक-सा सम्बन्ध है, पर यह अपने संगीत में मस्त है और मैं शङ्काओं से व्यग्र हो रहा हूँ। सच है—'सबसे अच्छे मूढ़, जिन्हें न व्यापत जगत-गति।' बोले—इसीलिए तो आया ही हूँ, पर जरा देर के लिए आपसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।

दोनों आदमी अलग एक कमरे में जा बैठे। राजा साहब सोचने लगे, किस तरह बात शुरू करूँ? मुंशीजी ने उनको असमंजस में देखकर कहा—मेरे लायक जो काम हो, फरमाइए। आप बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। बात क्या है?

राजा—मुझे आपके जीवन पर डाह होता है। आप मुझे भी क्यों नहीं निर्द्वन्द्व रहना सिखा देते?

मुंशी—यह तो कोई कठिन बात नहीं। इतना समझ लीजिए कि ईश्वर ने संसार [ ३५३ ]की सृष्टि की है और वही इसे चलाता है। जो कुछ उसको इच्छा होगी, वही होगा। फिर उसकी चिन्ता का भार क्यों लें?

राजा—यह तो बहुत दिनों से जानता हूँ। पर इससे चित्त को शान्ति नहीं होती! अब मुझे मालूम हो रहा है कि संसार में मन लगाना ही सारे दुःख का मूल है। जगदीशपुर-राज्य को भोगना ही मेरे जीवन का लक्ष्य था। मैंने अपने जीवन में जो कुछ किया, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए। अपने जीवन पर कभी एक क्षण के लिए भी विचार नहीं किया। जीवन का सदुपयोग कैसे होगा, इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। जब राज्य न था, तब अवश्य कुछ दिनों के लिए सेवा के भाव मन में जागृत हुए थे—वह भी बाबू चक्रधर के सत्संग से। राज्य मिलते ही मेरी कायापलट हो गयी। फिर कभी आत्म-चिन्तन की नौबत न आयी। शंखधर को पाकर मैं निहाल हो गया। मेरे जीवन में ज्योति-सी आ गयी। मैं सब कुछ पा गया; पर अबकी जब से शंखधर लौटा है, मुझे उसके विषय में भयंकर शंका हो रही है। आपने मेरे भाई साहब को देखा था?

मुंशी—जी नहीं, उन दिनों तो मैं यहाँ से बाहर नौकर था। अजी, तब इल्म की कदर थी। मिडिल पास करते ही सरकारी नौकरी मिल गयी थी। स्कूल में कोई लड़का मेरी टक्कर का न था। अध्यापकों को भी मेरी बुद्धि पर आश्चर्य होता था। बड़े पण्डितजी कहा करते थे, यह लड़का एक दिन ओहदे पर पहुँचेगा। उनकी भविष्यवाणी उस दिन पूरी हुई, जब मैं तहसीलदारी पर पहुँचा।

राजा—भाई साहब की सूरत आज तक मेरी आँखों में फिर रही है। यह देखिये, उनकी तसवीर है।

राजा साहब ने एक फोटो निकालकर मुंशीजी को दिखाया। मुंशीजी उसे देखते ही बोले—यह तो शंखधर की तसवीर है।

राजा—नहीं साहब, यह मेरे बड़े भाई का फोटो है। शंखधर ने तो अभी तक तसवीर ही नहीं खिंचवायी न-जाने तसवीर खिंचवाने से उसे क्यों चिढ़ है।

मुन्शी—मैं इसे कैसे मान लूँ? यह तसवीर साफ शंखधर की है।

राजा—तो मालूम हो गया कि मेरी आँखें धोखा नहीं खा रही थीं।

राजा—जी हाँ, यकीन मानिए।

मुंशी—तब तो बड़ी विचित्र बात है।

राजा—अब आपसे क्या अर्ज करूँ? मुझे बड़ी शंका हो रही है, रात को नींद नहीं आती। दिन को बैठे-बैठे चौंक पड़ता हूँ। दो प्राणियों की सूरतें कभी इतनी नहीं मिलतीं। भाई साहब ने ही फिर मेरे घर में जन्म लिया है, इसमें मुझे बिल्कुल शंका नहीं रही। ईश्वर ही जाने, क्यों उन्होंने कृपा की है, अगर शंखधर का बाल भी बाँका हुआ, तो मेरे प्राण न बचेंगे।

मुन्शी—ईश्वर चाहेंगे तो सब कुशल होगी। घबराने की कोई बात नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है। [ ३५४ ]

राजा—अगर ईश्वर चाहते कि कुशल हो, तो यह समस्या ही क्या आगे आती? उन्हें कुछ-न-कुछ अनिष्ट करना है। मेरी शंका निर्मूल नहीं है मुंन्शीजी! बहू की सूरत भी रानी देवप्रिया से मिल रही है। रामप्रिया तो बहू को देखकर मूर्च्छित हो गयी थी। वह कहती थी, देवप्रिया ही ने अवतार लिया है। भाई और भावज का फिर इस घर में अवतार लेना क्या अकारण ही है? भगवान, अगर तुम्हें फिर वही लीला दिखानी हो, तो मुझे संसार से उठा लो।

मुन्शीजी ने अबकी कुछ चिन्तित होकर कहा—यह तो वास्तव में बड़ी विचित्र बात है!

राजा—विचित्र नहीं है मुन्शीजी, इस रियासत का सर्वनाश होनेवाला है! रानी देवप्रिया ने अगर जन्म लिया है, तो वह कभी सधवा नहीं रह सकती। उसे न जाने कितने दिनों तक अपने पूर्व कर्मों का प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। देव ने मुझे दण्ड देने ही के लिए मेरे पूर्व कर्मों के फल स्वरूप यह विधान किया है, पर आप देख लीजिएगा, मैं अपने को उसके हाथ की कठपुतली न बनाऊँगा, अगर मैंने बुरे कर्म किये हैं तो मुझे चाहे जो दण्ड दो, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा। मुझे अन्धा कर दो, भिक्षुक बना दो, मेरा एक-एक अंग गल-गलकर गिरे, मैं दाने दाने का मुहताज हो जाऊँ। ये सारे ही दण्ड मुझे मंजूर हैं, लेकिन शंखधर का सिर भी दुखे, यह मैं नहीं सहन कर सकता। इसके पहले मैं अपनी जान दे दूँगा। विधाता के हाथ की कठपुतली न बनूँगा।

मुन्शी—आपने किसी पण्डित से इस विषय में पूछताछ नहीं की?

राजा—जी नहीं, किसी से नहीं। जो बात प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, उसे किसी से क्या पूछूँ। कोई अनुष्ठान, कोई प्रायश्चित्त इस संकट को नहीं टाल सकता। उसके रूप की कल्पना करके मेरी आँखों में अंधेरा छा जाता है। पण्डित लोग अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के अनुष्ठान बता देंगे, लेकिन अनुष्ठानों से क्या विधि का विधान पलटा जा सकता है? मैं अपने को इस धोखे में नहीं डाल सकता। मुन्शीजी, अनुष्ठानों का मूल्य मैं खूब जानता हूँ। माया बड़ी कठोर हृदया होती है। मुन्शीजी! मैंने जीवन-पर्यन्त उसकी उपासना की है। कर्म-अकर्म का एक क्षण भी विचार नहीं किया। उसका मुझे यह उपहार मिल रहा है। लेकिन मैं उसे दिखा दूँगा कि वह मुझे अपने विनोद का खिलौना नहीं बना सकती। मैं उसे कुचल दूँगा, जैसे कोई जहरीले साँप को कुचल डालता है। अपना सर्वनाश अपनी आँखों देखने ही में दुःख है। मैं उस पिशाचिनी को यह अवसर न दूँगा कि वह मुझे रुलाकर आप हँसे। मैं संसार के सबसे सुखी प्राणियों में हूँ। इस दशा में हूँ और इसी दशा में संसार से विदा हो जाऊँगा। मेरे बाद मेरा निर्माण किया हुआ भवन रहेगा या गिर पड़ेगा, इसकी मुझे चिन्ता नहीं। अपनी आँखों से अपना सर्वनाश न देखूँगा। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इस स्थिति में भी आप कैसे संगीत का आनन्द उठा सकते हैं?

मुन्शीजी ने गम्भीर भाव से कहा—मैं अपनी जिन्दगी में कभी नहीं रोया। ईश्वर ने [ ३५५ ]जिस दशा में रखा, उसी में प्रसन्न रहा। फाके भी किये हैं और आज ईश्वर की दया से पेट भर भोजन भी करता हूँ, पर रहा एक ही रस। न साथ कुछ लाया हूँ न ले जाऊँगा। व्यर्थ क्यों रोऊँ?

राजा—आप ईश्वर को दयालु समझते हैं? ईश्वर दयालु नहीं है।

मुंशी—मैं तो ऐसा नहीं समझता।

राजा—नहीं, वह पल्ले सिरे का कपटी व निर्दयी जीव है, जिसे अपने ही रचे हुए प्राणियों को सताने में आनन्द मिलता है, जो अपने ही बालकों के बनाये हुए घरौंदे रौंदता फिरता है। आप उसे दयालु कहें, संसार उसे दयालु कहे, मैं तो नहीं कह सकता। अगर मेरे पास शक्ति होती, तो मैं उसका यह सारा विधान उलट-पलट देता। उसमें ससार के रचने की शक्ति है, किन्तु उसे चलाने की नहीं!

राजा साहब उठ खड़े हुए और चलते-चलते गम्भीर भाव से बोले—जो बात पूछने आया था, वह तो भूल ही गया। आपने साधु सन्तों की बहुत सेवा की है। मरने के बाद जीव को किसी बात का दुःख तो नहीं होता?

मुंशी—सुना तो यही है कि होता है और उससे अधिक होता है, जितना जीवन में।

राजा—झूठी बात है, बिलकुल झूठी। विश्वास नहीं आता। उस लोक के दुःख-सुख और ही प्रकार के होंगे। मैं तो समझता हूँ, किसी बात की याद ही न रहती होगी। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर ये सब विद्वानों के गोरख-धन्धे हैं। उनमें न पड़ूँगा। अपने को ईश्वर की दया और भय के धोखे में न डालूँगा। मेरे बाद जो कुछ होना है, वह तो होगा ही, आपसे इतना ही कहना है कि अहल्या को ढाढस दीजियेगा। मनोरमा की ओर से मैं निश्चिन्त हूँ। वह सभी दशाओं में सँभल सकती है। अहल्या उस वज्राघात को न सह सकेगी।

मुंशीजी ने भयभीत होकर राजा साहब का हाथ पकड़ लिया और सजल नेत्र होकर बोले—आप इतने निराश क्यों होते हैं? ईश्वर पर भरोसा कीजिए। सब कुशल होगी।

राजा—क्या करूँ, मेरा हृदय आपका-सा नहीं है। शंखधर का मुँह देखकर मेरा खून ठण्डा हो जाता है। वह मेरा नाती नहीं, शत्रु है। इससे कहीं अच्छा था कि निस्सन्तान रहता। मुंशीजी, आज मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि निर्धन होकर मैं इससे कहीं सुखी रहता।

राजा साहब द्वार की ओर चले। मुंशीजी भी उनके साथ मोटर तक आये। शंका के मारे मुँह से शब्द न निकलता था। दीन-भाव से राजा साहब की ओर देख रहे थे, मानो प्राण-दान माँग रहे हों।

राजा साहब ने मोटर पर बैठकर कहा—अब तकलीफ न कीजिए, जो बात कही है, उसका ध्यान रखिएगा।

मुन्शीजी मूर्तिवत् खड़े रहे। मोटर चली गयी।