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कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक एंगेल्स/सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की कार्यनीति

विकिस्रोत से
कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स
लेनिन

मास्को: प्रगति प्रकाशन, पृष्ठ ४० से – ४६ तक

 

सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की कार्यनीति

१८४४-१८४५ में ही यह पता लगाकर कि पहले के पदार्थवाद का एक मुख्य दोष यह था कि उसने प्रत्यक्ष क्रान्तिकारी कार्यवाही की परिस्थितियों और महत्व को न समझा था, मार्क्स ने जीवन भर अपने सैद्धान्तिक कार्यों के साथ सर्वहारा वर्ग-संघर्ष की कार्यनीति की समस्याओं की ओर लगातार ध्यान दिया। मार्क्स के सभी ग्रंथों में, विशेषकर १९१३ में प्रकाशित एंगेल्स से उनके पत्र-व्यवहार की चार जिल्दों में, इस विषय पर बहुत बड़ी सामग्री उपलब्ध है। यह सामग्री एकत्रित और व्यवस्थित होने को है; उसका अध्ययन और जांच करनी है। इसी कारण से इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि मार्क्स ने इस पहलू से रहित पदार्थवाद को सही अर्थ में अपूर्ण, एकांगी और निर्जीव समझा था। तो भी, हमें इस संबंध में कुछ बहुत ही साधारण और संक्षिप्त बातों से संतोष करना होगा। अपने पदार्थवादी-द्वंद्ववादी दृष्टिकोण के साधारण सिद्धान्तों के नितान्त अनुकूल ही मार्क्स ने सर्वहारा कार्यनीति के मूल कर्तव्य की व्याख्या की थी। किसी भी समाज के सभी वर्गों के निरपवाद रूप से सभी परस्पर सम्बन्धों की सम्पूर्णता को वस्तुगत रूप से ध्यान में रख कर ही, और फलतः समाज के विकास की वस्तुगत अवस्था को ध्यान में रख कर ही, साथ ही उस समाज से दूसरे समाजों के परस्पर संबंधों को ध्यान में रख कर ही, अग्रसर वर्ग की सही कार्यनीति का आधार मिल सकता है। साथ ही सभी वर्गों और देशों को जड़ रूप में नहीं वरन् गतिशील रूप में देखना चाहिए, अर्थात् वे स्थिर नहीं हैं वरन् गतिशील हैं ( उनकी गति के नियम प्रत्येक वर्ग के अस्तित्व की आर्थिक परिस्थितियों से निश्चित होते हैं)। इसके बाद इस गति को भूतकालीन दृष्टिकोण से नहीं, वरन् भविष्य के दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए। उसे “विकासवादियों" की निम्न धारणा के अनुसार ही नहीं, जिन्हें केवल धीमे परिवर्तन दिखाई देते हैं, वरन् द्वंद्ववादी दृष्टिकोण से देखना चाहिए। मार्क्स ने एंगेल्स को लिखा था: इस कोटि की महान् प्रगति में बीस वर्ष एक दिन से अधिक नहीं हैं - अतएव आगे चलकर ऐसे दिन आ सकते हैं जो बीस-बीस वर्षों के बराबर हों।" (“पत्र-व्यवहार', खंड ३, पृष्ठ १२७ )¹³ प्रगति की हर मंजिल में, हर क्षण , सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति को मानव-इतिहास की वस्तुगत और अनिवार्य गतिशीलता (द्वन्द्ववाद ) को ध्यान में रखना चाहिए। उसे एक ओर राजनीतिक शिथिलता के दिनों में या उन दिनों में जब नामचार के "शान्तिपूर्ण" विकासपथ पर “नौ दिन चले अढ़ाई कोस" की प्रगति हो रही हो, अग्रसर वर्ग की शक्ति , वर्ग-चेतना , और संघर्ष-सामर्थ्य को बढ़ाना चाहिए। दूसरी ओर इस वर्ग के आन्दोलन के "अन्तिम ध्येय" की दिशा में इस कार्य का संचालन करना चाहिये और उसमें वह शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए जिससे कि उन महान् दिनों में “जो बीस-बीस वर्षों के बराबर हों", वह महान् कार्यों को प्रत्यक्ष रूप से सम्पन्न कर सके। इस संबंध में मार्क्स के दो तर्क विशेष महत्व के हैं। इनमें से एक 'दर्शनशास्त्र की निर्धनता' में है और उसका संबंध सर्वहारा वर्ग के आर्थिक संघर्ष और आर्थिक संगठनों से है ; दूसरा , 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में है और उसका संबंध सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक कार्यों से है। पहला इस प्रकार है : "बड़े पैमाने के उद्योग-धंधों से एक ही जगह ऐसे आदमियों की भीड़ जुट

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जाती है जो एक दूसरे से अपरिचित होते हैं। परस्पर प्रतियोगिता के कारण उनके हित अलग-अलग होते हैं। लेकिन अपनी मजूरी बनाये रखने की आवश्यकता स्वामी के विरुद्ध एक समान हित का कारण बनती है और उन्हें विरोध की समान विचार-भूमि पर एक कर देती है। यह मेल पहले अलग-अलग होता है, उसके बाद उससे गुट बनते हैं और संयुक्त पूंजी से सदा मुकाबला होने पर उनके लिए मजूरी बनाये रखने से अपनी जमात को बनाये रखना ज्यादा जरूरी हो जाता है ... इस संघर्ष में - एक अच्छे खासे गृहयुद्ध में- आगामी युद्ध के लिए सभी आवश्यक तत्व विकसित और संयुक्त होते हैं। एक बार इस बिन्दु तक पहुंचने पर जमात राजनीतिक रूप ग्रहण कर लेती है।" यहां पर बीसों वर्ष के लिए, उस लम्बी अवधि के लिए जब मजदूर “भावी संग्राम" की तैयारी करते हैं, हमें आर्थिक संघर्ष और ट्रेड-यूनियन आन्दोलन का कार्यक्रम और उसकी कार्यनीति का निर्देश मिल जाता है। इसके साथ- साथ ब्रिटेन के मजदूर-आन्दोलन का हवाला देते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने जो कई बातें कही हैं , हमें उनकी ओर भी ध्यान देना चाहिए। उन्होंने बताया है कि प्रौद्योगिक “समृद्धि" के फलस्वरूप 'मजदूरों को खरीद लेने के प्रयत्न किये जाते हैं" ('पत्र-व्यवहार', खंड १, पृष्ठ १३६ )¹⁴ जिससे कि वे संघर्ष से हट जायें। उन्होंने बताया है कि कैसे साधारणतः यह समृद्धि “ मजदूरों का नैतिक पतन कर देती है" (खंड २, पृष्ठ २१८); कैसे ब्रिटेन के सर्वहारा वर्ग का "पूंजीवादीकरण" हो रहा है ; कैसे “इस सबसे अधिक पूंजीवादी जाति (अंग्रेज़) का चरम ध्येय एक पूंजीवादी अभिजात-वर्ग और उसके साथ पूंजीवादी सर्वहारा वर्ग तथा एक पूंजीवादी वर्ग की स्थापना करना है" (खंड २, पृष्ठ २६० )¹⁵; कैसे ब्रिटिश सर्वहारा वर्ग की "क्रान्तिकारी शक्ति" छीजती जाती है (खंड ३, पृष्ठ १२४); कैसे काफ़ी समय तक राह देखनी होगी “इसके पहले कि ब्रिटिश मजदूर प्रकटतः अपने पूंजीवादी पतन से बच सकें" ( खंड ३, पृष्ठ १२७); कैसे ब्रिटिश मजदूर आन्दोलन में “चार्टिस्टों का दम नहीं है"¹⁶ (१८६६, खंड ३, पृष्ठ ३०५)¹⁷ ; कैसे ब्रिटिश मजदूरों के नेता “आमूल-परिवर्तनवादी पूंजीवादी

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और मजदूर" के बीच की सी कोई चीज़ बनते जा रहे हैं (होलियोक

के सम्बन्ध में, खंड ४, पृष्ठ २०९); कैसे ब्रिटिश एकाधिकार के कारण, और जब तक वह एकाधिकार बना रहेगा, तब तक “ब्रिटिश मजदूर टस से मस न होंगे" (खंड ४, पृष्ठ ४३३)¹⁸। यहां पर मजदूर आन्दोलन की साधारण प्रगति (और उसके परिणाम) के प्रसंग में आर्थिक संघर्ष की कार्यनीति पर बड़े ही व्यापक, अनेकांगी, द्वंद्ववादी और सच्चे क्रान्तिकारी दृष्टिकोण से विचार किया गया है।

राजनीतिक संघर्ष की कार्यनीति पर 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' ने यह आधारभूत मार्क्सीय धारणा पेश की थी : 'कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग के तात्कालिक उद्देश्यों और हितों के लिए लड़ते हैं ; किन्तु वर्तमान आन्दोलन के साथ-साथ वे इस आन्दोलन के भविष्य पर भी ध्यान रखते हैं, उसके भावी हितों के लिए भी लड़ते हैं।" इसीलिए १८४८ में मार्क्स ने "किसान क्रान्ति" पोलिश पार्टी का समर्थन किया था, “जिस पार्टी ने १८४६ में कैको विद्रोह का सूत्रपात किया था।" १८४८-१८४६ में जर्मनी में उन्होंने उग्र क्रान्तिकारी जनवाद का समर्थन किया और बाद में, जो कुछ उन्होंने कार्यनीति के बारे में कहा था, उसका एक शब्द भी वापस नहीं लिया। उनकी दृष्टि में जर्मन पूंजीपति “पहले से ही जनता से दग़ा करने के फेर में थे" ( केवल किसानों से समझौता करके ही पूंजीपति पूरी तरह अपनी लक्ष्य-सिद्धि कर सकते थे) "और समाज की पुरानी व्यवस्था के ताजपोश प्रतिनिधियों से समझौता करने का उनमें रुझान था।" पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति के समय जर्मन पूंजीपतियों की वर्ग-स्थिति का यह संक्षिप्त विश्लेषण इस प्रकार और बातों के साथ उस पदार्थवाद का एक नमूना है जो समाज को गतिशील रूप में देखता है, और गति के उसी रूप में नहीं जिसकी दिशा पीछे की ओर है : “इन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं है, जनता में भरोसा नहीं है; जो ऊपर हैं उन पर भुनभुनाते हैं, जो नीचे हैं उनसे ये थरथर कांपते हैं;... भय है कि सारी दुनिया को हिला देनेवाला तूफ़ान न आ जाय ;... ताक़त कहीं नहीं, हर जगह लुकाचोरी ; ... न कोई प्रेरणा... ये जर्मन पूंजीवादी एक बूढ़े खूसट आदमी जैसे हैं जिसे अपनी बुढ़ौती

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के हितों के लिए एक नववयस्क और शक्तिमान जनता के प्रथम वयसुलभ प्रेरणाओं का मार्ग निर्देश करना पड़े (‘नोये राइनिशे त्साइटुङ', १८४८; देखिये 'साहित्यिक विरासत', खंड ३, पृष्ठ २१२ )¹⁹ लगभग बीस साल बाद एंगेल्स को पत्र लिखते हुए ('पत्र-व्यवहार', खंड ३, पृष्ठ २२४) मार्क्स ने कहा था कि १८४८ की क्रान्ति की असफलता का कारण यह था कि पूंजीपतियों ने स्वतंत्रता के लिए लड़ने की कल्पना मात्र से गुलामी के साथ शान्ति को श्रेयस्कर समझा। जब १८४८-१८४६ का क्रान्तिकारी युग समाप्त हो गया, तो मार्क्स ने क्रान्ति के साथ किसी भी तरह खिलवाड़ करने का भारी विरोध किया (शापर और विलिख और उनके विरुद्ध संघर्ष ) और इस पर जोर दिया कि नयी अवस्था में जब तथाकथित “शान्तिपूर्ण" ढंग से नयी क्रान्तियों की तैयारी हो रही है, हममें कार्य-क्षमता होनी चाहिए। १८५६ की घोर प्रतिक्रिया के दिनों में मार्क्स ने जर्मनी की स्थिति का जैसा विवरण दिया था उससे स्पष्ट है कि वह किस भावना से काम किया जाना पसन्द करते थे : “किसी दूसरे कृषक-युद्ध द्वारा सर्वहारा क्रान्ति के समर्थन किये जाने की संभावना पर ही जर्मनी में सब कुछ निर्भर है।" ('पत्र-व्यवहार', खंड २, पृष्ठ १०८ )²⁰ जर्मनी में जब पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति चालू थी, तो समाजवादी सर्वहारा वर्ग की कार्यनीति में मार्क्स ने सारा ध्यान किसानों की जनवादी शक्ति को बढ़ाने में लगाया। उनका कहना था कि और बातों के साथ लासाल का रवैया “वस्तुगत रूप से प्रशियन हित में सम्पूर्ण मजदूर आन्दोलन के प्रति विश्वासघात था" (खंड ३, पृष्ठ २१०) क्योंकि वह जंकरों (प्रशा के ज़मींदारों-सं०) और प्रशियन राष्ट्रवाद की कार्यवाहियों पर आंखें मूंदे रहा। १८६५ को अपनी एक संयुक्त घोषणा के बारे में - जो प्रेस के लिए लिखी गयी थी-मार्क्स से विचार- विनिमय करते हुए एंगेल्स ने लिखा था : "ऐसे देश में जहां कृषि की बहुत बड़ी प्रधानता हो, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के नाम पर पूंजीपतियों पर ही अकेले हमला करना, और सामन्तशाही अभिजात-वर्ग के अंकुश के नीचे ग्रामीण मजदूर के दादापंथी शोषण के प्रति एक शब्द भी न कहना , निरी कायरता है।" (खंड ३, पृष्ठ २१७ )²¹ १८६४ से १८७० की

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अवधि में , जब जर्मनी में पूंजीवादी-जनवादी क्रान्ति का युग , वह युग जिस में प्रशा और आस्ट्रिया के शोषक वर्गों ने किसी न किसी तरह ऊपर से क्रान्ति को सम्पन्त करने के लिए युद्ध किया था, समाप्त हो रहा था , मार्क्स ने लासाल की ही भर्त्सना न की थी कि वह बिस्मार्क से मेल-मिलाप कर रहा था, वरन् लीब्कनेख्त को भी ठीक रास्ता दिखाया क्योंकि वह "आस्ट्रिया-भक्ति" में निमग्न हो रहे थे और पार्टीक्युलारिज्म²² का पक्ष समर्थन करने लगे थे। मार्क्स ने उस क्रान्तिकारी कार्यनीति पर भरपूर जोर दिया जो बिस्मार्क और आस्ट्रिया-भक्ति" दोनों से ही समान निर्ममता से युद्ध करे, उस कार्यनीति जो न केवल “विजेता", प्रशियन जंकर के अनुकूल न हो वरन् उसी आधार पर, जो प्रशा की सैनिक विजय से बना था, तुरन्त ही उस जंकर के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष भी छेड़ दे। ( 'पत्र-व्यवहार', खंड ३, पृष्ठ १३४, १३६ , १४७, १७६ , २०४, २१० , २१५, ४१८, ४३७, ४४०-४४१)²⁴ इण्टरनेशनल की ६ सितम्बर १८७० की अपनी प्रसिद्ध अपील में मार्क्स ने फ्रांसीसी सर्वहारा वर्ग को असमय विद्रोह करने की ओर से सावधान किया। लेकिन १८७१ में जब विद्रोह वास्तव में हो गया तो मार्क्स ने बड़े ही जोश से जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी का स्वागत किया कि वह आसमान को हिला देने" के लिए चली थी (कुगेलमन को मार्क्स का पत्र )। द्वंद्वात्मक पदार्थवाद के मार्क्सीय दृष्टिकोण से , सर्वहारा संघर्ष की सामान्य प्रगति और उसके परिणाम के दृष्टिकोण से ऐसी स्थिति में और ऐसी ही अन्य स्थितियों में, अब तक के मोर्चे से पीछे हट जाने और बिना युद्ध के आत्मसमर्पण कर देने की अपेक्षा क्रान्तिकारी आक्रमण की विफलता कम हानिकारक थी क्योंकि उस तरह के आत्मसमर्पण से सर्वहारा वर्ग का मनोबल क्षीण हो जाता और संघर्ष के लिए उसकी तत्परता नष्ट हो जाती। राजनीतिक शिथिलता के दिनों में और उन दिनों में जब पूंजीवाद का कानूनीपन फैला हुआ हो, तब लड़ाई के क़ानूनी साधनों के महत्व को पूरी तरह स्वीकार करते हुए, मार्क्स ने १८७७ और १८७८ में, जब जर्मनी में समाजवादियों के विरुद्ध असाधारण कानून बना था , मोस्ट की “क्रान्तिकारी शब्दाडम्बर" की तीव्र निन्दा की थी। साथ ही उन्होंने उतनी ही तेज़ी से अवसरवाद

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पर भी हमला किया जो सरकारी सामाजिक-जनवादी पार्टी में कुछ समय के

लिए अपने क़दम जमा चुका था। उस पार्टी ने समाजवाद-विरोधी कानून के जवाब में निश्चय , दृढ़ता और क्रान्तिकारी भावना तथा गैर-कानूनी लड़ाई का झण्डा तुरन्त बुलन्द करने में तत्परता का परिचय नहीं दिया। ('पत्र-व्यवहार', खंड ४, पृष्ठ ३९७, ४०४, ४१८, ४२२, ४२४ ;²⁶ जोर्गे को मार्क्स के पत्र भी देखिये।)

लेखन-काल : जुलाई-नवम्बर १९१४ ;

१९१५ में ग्रानात विश्वकोष, सातवें संस्करण, खंड २८ में पहली बार प्रकाशित ।

हस्ताक्षर : व्ला० इल्यीन

ब्ला० इ० लेनिन, संग्रहीत रचनाएं, चौथा रूसी संस्करण, खंड २१, पृष्ठ २७-६२