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कुरल-काव्य/परिच्छेद १०१ निरुपयोगी धन

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ ३१० से – ३११ तक

 

 

परिच्छेद १०१
निरुपयोगी धन

खाय न खर्चें एक छदाम। तृष्णा छाई आठों याम।
रक्खा यद्यपि अधिक निधान। मूजी मुर्दा एक समान॥१॥
धन ही भू में सब कुछ सार। करके ऐसा अटल विचार।
लोभी जोड़े द्रव्य महान। राक्षस होवे तजकर प्राण॥२॥
जिसको धन में अति अनुराग। यश में रहता किन्तु विराग।
उसका जीवन है निस्सार। दुःखद उसका भू को भार॥३॥
पायी नहीं पड़ौसी प्रीति। कारण वर्ती नहीं सुरीति।
फिर क्या आशा रखते तात। छोड़ सको जो निज पश्चात॥४॥
नहीं किसी को देवे दान। और न भोगे आप निधान।
सचमुच वह है रंक खवीश। चाहे होवे कोटि अधीश॥५॥
भू में ऐसे भी कुछ लोग। वैभव का जो करे न भोग।
और न देवें पर को दान। लक्ष्मी को वे रोग समान ्॥६॥
उचित पात्र को उचित न दान। तो धन होता ऐसा भान।
सुभग सलौनी तरुणीरूप। बन में खोती आप जनप॥७॥
कौन अर्थ का वह है कोष। नहीं गुणी को जिससे तोष।
दुर्गुण की है एक खदान। ग्राम वृक्ष वह विष फलवान॥८॥
नहीं विचारा धर्माधर्म। काटा पेट हुए बेशर्म।
जोड़ा वैभव विपदा धाम। आता सदा पराये काम॥९॥
दान से खाली जो भण्डार। निधिका बनता वही अगार।
वर्षा से जो रीता मेघ। वह ही भरता फिर से मेघ॥१०॥

 

परिच्छेद १०१
निरुपयोगी धन

१—जिस आदमी ने अपने घर में ढेर की ढेर सम्पत्ति जमा कर रक्खी है पर उसे उपयोग में नही लाता उसमे और मुर्दे मे कोई अन्तर ही है, क्योकि वह उससे कोई लाभ नहीं उठाता है।

२—वह कञ्जूस आदमी जो समझता है कि धन ही संसार में सब कुछ है और इसलिए बिना किसी को कुछ दिये ही उसे जमा करता है वह अगले जन्म में राक्षस होगा।

३—जो लोग धन के लिए सदा ही हाय हाय करते फिरते है पर यशोपार्जन करने की परवाह नहीं करते, उनका अस्तित्व पृथ्वी के लिए केवल भार-स्वरूप है।

४—जो मनुष्य अपने पड़ोसियों के प्रेम को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता वह मरने के पश्चात् अपने पीछे कौनसी वस्तु छोड़ जाने की आशा रखता है?

५—जो लोग न तो दूसरों को देते है और न स्वयं ही अपने धन का उपभोग करते है वे यदि करोड़पति भी हो तब भी वास्तव में उनके पास कुछ भी नहीं है।

६—संसार में ऐसे भी कुछ आदमी है जो धन को न तो स्वयं भोगते है और न उदारता पूर्वक योग्य पुरुषों को प्रदान करते है, वे अपनी सम्पत्ति के लिए रोग-स्वरूप है।

७—जो धनिक आवश्यकता वाले को दान देकर उसकी आवश्यकता को पूर्ण नही करता उसकी सम्पत्ति उस लावण्यमयी ललसा के समान है जो अपने यौवन को एकान्त निर्जन स्थान मे व्यर्थ गँवाये देती है।

८—उस आदमी की सम्पत्ति कि जिसे लोग प्यार नहीं करते गाँव के बीचो बीच किसी विष-वृक्ष के फलने के समान है।

९—धर्माधर्म का विचार न रखकर और अपने को भूखों मार कर जो धन जमा किया जाता है वह केवल दूसरो के ही काम में आता है।

१०—उस धनवान मनुष्य की क्षीणस्थिति कि जिसने दान दे देकर अपने खजाने को खाली कर डाला है, और कुछ नही, केवल जल वर्षाने वाले बादलों के खाली हो जाने के समान है। यह स्थिति अधिक समय तक न रहेगी।