कुरल-काव्य/परिच्छेद ३२ उपद्रव-त्याग

विकिस्रोत से

[ १७२ ] 

परिच्छेद ३२
उपद्रव-त्याग

चाहे मिले कुवेरनिधि, फिर भी शुद्ध महान।
नहीं किसी को त्रास दे, सज्जन दयानिधान॥१॥
उच्च जनों को द्वेषवश, यदि दे कष्ट निकृष्ट।
वैरशुद्धि उनको नही, करती पर आकृष्ट॥२॥
जब अहेतु दुःखद मुझे तब "मैं त्रास अपार-
दूँगा" यह संकल्प ही, बनता दुःख अगार॥३॥
अरि का भी उपकार कर, दे दो लज्जा-मार।
दुष्टदण्ड के हेतु यह, सब से श्रेष्ठ प्रकार॥४॥
कष्ट न जाने अन्य का, जो नर आप समान।
महाबुद्धि उसकी अहो, तब है व्यर्थ समान॥५॥
भोगे मैंने दुःख जो, होकर अति हैरान।
परको वे दूँगा नहीं, रखे मनुज यह ध्यान॥६॥
जानमान जो अन्य को, नही स्वल्प भी कष्ट-
देता, उस सम कौन है, भूतल में उत्कृष्ट॥७॥
जिन दुःखों में आप ही, नर है हुआ अधीर।
वे फिर कैसे अन्य को, देगा बन बे-पीर॥८॥
यदि देते पूर्वाह्न में, निकटगृही को खेद।
तो भोगो अपराह्न में, तुम भी सुखविच्छेद॥९॥
दुष्कर्मी के शीष पर, सदा विपद का पूर।
जो चाहें निज त्राण वे, रहते उनसे दूर॥१०॥

[ १७३ ] 

परिच्छेद ३२
उपद्रव-त्याग

१—शुद्धात करण वाला मनुष्य कुवेर की सम्पत्ति मिले तो भी किसी को त्रास देने वाला नहीं बनेगा।

२—द्वेषबुद्धि से प्रेरित होकर यदि कोई दूसरा आदमी उसे कष्ट देवे तो भी पवित्रहृदय का व्यक्ति उसे उसका बदला नहीं देता।

३—यदि बिना किसी छेड़खानी के तुम्हें किसी ने कोई कष्ट दिया है और बदले में तुम भी उसे वैसा ही कष्ट दोगे तो अपने ऊपर ऐसे घोर संकटों को खींच लोगे जिनका फिर कोई उपचार नहीं।

४—दुख देने वाले व्यक्ति को शिक्षा अर्थात् दण्ड देने का यह ही एक उत्तम उपाय है कि तुम उसके बदले में भलाई करो, जिससे वह मन ही मन लज्जा के मारे मर जावे, यह ही उससे बड़ी गहरी मार है।

५—दूसरे प्राणियों के दुख को जो अपने दुख समान ही नही समझता और इसीलिए वह दूसरों को कष्ट देने से विमुख नहीं होता, ऐसे मनुष्य की बुद्धिमत्ता का क्या उपयोग?

६—स्वयं एक बार दुखों को भोग कर मनुष्य को फिर वैसे कष्ट दूसरों को न देने का ध्यान रखना चाहिए।

७—यदि तुम जानबूझकर किसी प्राणी को थोड़ा सा भी दुख नही देते हो, तो यह बड़ी श्लाघा की बात है।

८—स्वयं कष्ट आपड़ने पर कैसी वेदना होती है, ऐसा जिसको अनुभव है वह दूसरे को दुख देने के लिए कैसे उतारू होगा?

९—यदि कोई मनुष्य अपने किसी पड़ोसी को दोपहर को दुख देता है तो उसी दिन तीसरे पहर ही उसके उपर विपत्तिया अपने आप आ टूटेगी।

१०—दुष्कर्म करने वालों के शिर के ऊपर विपत्तियाँ सदैव आया ही करती है, इसलिए जो मनुष्य दुखदाई अनिष्टों से बचना चाहते है वे आप ही दुष्कृत्यों से सदैव अलग रहते है।