कुरल-काव्य/परिच्छेद ५६ अत्याचार

विकिस्रोत से

[ २२० ] 

परिच्छेद ५६
अत्याचार

जो शासक अतिदुष्ट है, प्रजावर्ग के बीच।
वह भूपति नृप ही नहीं, घातक से भी नीच॥१॥
निर्दय शासक के लगे, ऐसे मीठे बोल।
डाकू जैसे बोलता, देदे जो हो खोल॥२॥
जो नरेश देखे नहीं, प्रतिदिन शासनचक्र।
राजश्री इस दोष से, होती उससे वक्र॥३॥
विचलित हो जो न्याय से, उस नृप पर बहुशोक।
राज्य सहित वह मूढ़धी, खोता धन अस्तोक[१]॥४॥
त्रस्त प्रजा जब दुःख से, रोती आँसू ढार।
बह जाती तब भूप की, सारी श्री उस धार॥५॥
शासन यदि हो न्यायमय, तो नृपकी वरकीर्ति।
न्याय नहीं यदि राज्य में, तो उसकी अपकीर्ति॥६॥
विनावृष्टि नभके तले, पृथ्वी का जो हाल।
निर्दयनृप के राज्य में, वही प्रजा का हाल॥७॥
अन्यायी के राज्य में, दुःखित सब ही लोग।
पर कुदशा भोगें अधिक, धनिकवर्ग के लोग॥८॥
न्यायधर्म को लाँघ कर, चलता नृप जब चाल।
स्वर्गनीर वर्षे बिना, पड़ता तब दुष्काल॥९॥
तजदे शासन न्यायमय, नृप करके अज्ञान।
पय सूखे तब धेनु का, द्विज भूलें निज ज्ञान॥१०॥

[ २२१ ] 

परिच्छेद ५६
अत्याचार

१—जो राजा अपनी प्रजा को सताता है और उस पर अन्याय व अत्याचार करता है वह हत्यारे से भी बढ़कर बुरा है।

२—जो राज-दण्ड धारण करता है, उसकी प्रार्थना ही हाथ में तलवार लिये हुए डाकू के इन शब्दों के समान है "खड़े रहो और जो कुछ है रखदो"।

३—जो राजा प्रतिदिन राज्य-संचालन की देख रेख नही रखता और उसमे जो त्रुटियाँ है उन्हें दूर नहीं करता उसकी प्रभुता दिन दिन क्षीण होती जायगी।

४—शोक है उस विचारहीन राजा पर, जो न्यायमार्ग से चल विचल हो जाता है, वह अपना राज्य और विपुल धन सब खो देगा।

५—निस्सन्देह ये, अत्याचार–दलित दुख से कराहते हुए लोगों के आँसू ही है, जो राजा की समृद्धि को धीरे धीरे बहा ले जाते है।

६—न्याय-शासन द्वारा ही राजा को यश मिलता है और अन्याय- शासन उसकी कीर्ति को कलङ्कित करता है।

७—वर्षाहीन आकाश के तले पृथ्वी की जो दशा होती है, ठीक वही दशा निर्दयी राजा के राज्य में प्रजा की होती है।

८—अत्याचारी नरेश के शासन में गरीबों से अधिक दुर्गति धनिकों की होती है।

९—यदि राजा न्याय और धर्म के मार्ग से पराड्मुख हो जायगा तो आकाशसे ठीक समय पर वर्षाकी बौछारे आना बन्द हो जायेंगी।

१०—यदि राजा न्याय-पूर्वक शासन नहीं करेगा तो गाय के थन सूख जायेंगे और द्विज अपनी विद्या को भूल जायेंगे।

  1. बढ़त।