सामग्री पर जाएँ

कुरल-काव्य/परिच्छेद ९२ वेश्या

विकिस्रोत से
कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २९२ से – २९३ तक

 

 

परिच्छेद ९२
वेश्या

जिन्हें न नर से प्रेम है, धन से ही अनुकूल।
कपटमधुर उनके बचन, बनते विपदा-मूल॥१॥
वेश्या मधुसम बोलनी, धन की आय विचार।
चाल ढाल उसकी समझ, दूर रहो यह सार॥२॥
गणिका उर से भेटती, धनिक देख निज जार
ऊपर से कर धूर्तता, दिखलाती अति प्यार॥
लगे उसे पर चित्त मे, प्रेमी की यह देह।
बेगारी तम में छुए, ज्यों कोई मृतदेह॥३॥ (युग्म)
व्रतभूषित नररत्न जो, होते मन्द-कषाय।
करे न वेश्यासंग से, दूषित वे निज काय॥४॥
जिनके ज्ञान अगाध है, अथवा निर्मल बुद्धि।
रूप-हाट से वे कभी, लेते नहीं अशुद्धि॥५॥
रूप अपावन बेचती, वेश्या चपल अपार।
छुएँ न उसका हाथ वे, जो हैं निजहितकार॥६॥
खोजें असती नारियाँ, नर ही अधम जघन्य।
गले लगातीं एक वे, सोचें मन से अन्य॥७॥
अविवेकी गुनते यही, पाकर वेश्या संग।
स्वर्गसुधा सी अप्सरा, मानो लिपटी अंग॥८॥
बनी ठनी शृङ्गार से, वेश्या नरक सम।
नाले जिसके बाहु हैं, डूचे कामी आन॥९॥
द्यूतचाट वेश्यागमन, और सुरा का पान।
भाग्यश्री जिनकी हटी, उनके सुख सामान॥१०॥

 

परिच्छेद ९२
वेश्या

१—जो स्त्रिया प्रेम के लिए नहीं बल्कि धन के लोभ से किसी पुरुष की कामना करती है, उनकी मायापूर्ण मीठी बातें सुनने से दुख ही दुःख होता है।

२—जो दुष्ट स्त्रियाँ मधुमयी वाणी बोलती है पर जिनका ध्यान अपने नफे पर रहता है, उनकी चाल-ढाल को विचार कर उनसे सदा दूर रहो।

३—वेश्या जब अपने प्रेमी का दृढ-आलिङ्गन करती है तो वह ऊपर से यह प्रदर्शन करती है कि वह उससे प्रेम करती है परन्तु मनमे तो उसे ऐसा अनुभव होता है जैसे कोई वेगारी अन्धेरे कमरे में किसी अज्ञात लाश को छूता है।

४—जिन लोगों के मन का झुकाव पवित्र कार्यों की ओर है, वे असती स्त्रियों के स्पर्श से अपने शरीर को कलङ्कित नही करते।

५—जिन लोगों की बुद्वि निर्मल है और जिनमे अगाध ज्ञान है वे उन औरतों के स्पर्श से अपने को अपवित्र नहीं करते कि जिनका सौन्दर्य और लावण्य सब लोगों के लिए खुला है।

६—जिनको अपने कल्याण की चाह है वे स्वैरिणी गणिका का हाथ नहीं छूते कि जो अपनी अपवित्र सुन्दरता को बेचती फिरती है।

७—जो ओछी तबियत के आदमी है वे ही उन स्त्रियों को खोजेगे कि जो केवल शरीर से आलिङ्गन करती है, जबकि उनका मन दूसरी जगह रहता है।

८—जिनमे सोचने समझने की बुद्धि नहीं है उनके लिए चालाक कामनियों का आलिङ्गन ही अप्सराओं की मोहिनी के समान है।

९—भरपूर साज-सिगार किये और बनी-उनी स्वैरिणी के कोमल बाहु नरक की अपवित्र नाली के समान है जिसमे धृणित मूर्ख लोग अपने को जा डुबोते है।

१०—चंचल मन वाली स्त्री, मद्यपान और जुआ, ये उन्हीं के लिए आनन्दवर्द्धक है कि जिन्हें भाग्य-लक्ष्मी छोड़ देती है।