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कुरल-काव्य/परिच्छेद ९३ मद्य का त्याग

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २९४ से – २९५ तक

 

 

परिच्छेद ९३
मद्य का त्याग

प्रेमी यदि हो मद्य के, फिर क्यों अरि हो भीत।
और उसी से पूर्व के, मिटते गौरव-गीत॥१॥
यदि हो हित की कामना, करो न मदिरापान।
माने नहीं अनार्य तो, पीए तज बर मान॥२॥
मदिरापायी की दशा, माता ही जब देख।
ग्लानि करे तब भद्र का, क्या करना उल्लेख॥३॥
नर को देख कुसंग में, मधु लेवे जब घेर।
लज्जा सी तब सुन्दरी, जाती मुख को फेर॥४॥
कैसी यह है मूर्खता, कैसा प्रतिभा-द्रोह।
मूल्य चुकाकर आप ले, विस्मृति, विभ्रम मोह॥५॥
किसी तरह के मद्य का, पीना विष का पान।
सोता ऐसी नींद वह, ज्यों होता मृत भान॥६॥
छिप कर भी घर में पियी, करती मदिरा हानि।
भेद पड़ौसी जानकर, करते अति ही ग्लानि॥७॥
"नहीं जानता मध में", मत कर यों अपलाप।
कारण झूंठ कुटेव में, और बढ़ावे पाप॥८॥
व्यसनी को उपदेश दे. खोना ही है काल।
डूबे नर की खोज में जल में व्यर्थ ममाल॥९॥
स्वयं शराबी होश में, देखे मद के दोष।
पर सोचे निज के नही, यह ही दुःखद रोष॥१०॥

 

परिच्छेद ९३
मद्य का त्याग

१—देखो, जिन लोगों को मद्य पीने का व्यसन लगा हुआ है उनके शत्रु उनसे कभी न डरेगे और जो कुछ उन्हें मान प्रतिष्ठा प्राप्त है वह भी जाती रहेगी।

२—कोई भी शराब न पिये, यदि कोई पीना ही चाहे तो उन लोगों को पीने दो कि जिन्हे आर्य पुरुषों से मान मर्यादा मिलने की परवाह नहीं है।

३—जो आदमी नशे में चूर है उसकी आकृति स्वय उसको जन्म देने वाली माता को ही बुरी लगती है। फिर भला वह सत्पात्र पुरुषों को कैसी लगेगी

४—जिन लोगों को मदिरापान की घृणित आदत पड़ी हुई है लज्जा-रूपिणी सुन्दरी उनसे अपना मुंह फेर लेती है।

५—यह तो असीम मूर्खता और अपात्रता है कि अपना धन खर्च करे और बदले में विस्मृति तथा विभ्रम को मोल लेवे।

६—जो लोग प्रतिदिन उस विष का पान करते है कि जिसे ताड़ी या मद्य कहते है वे मानो महानिन्द्रा में ग्रस्त है। उनमे और मृतक मे कोई अन्तर नहीं होता।

७—जो लोग चोरी से मदिरा पीते है और अपने समय को अचेत अवस्था में तथा स्मृतिशून्यता में गमाते है, उनके पड़ोसी शीघ्र ही इस बात को जान जायेंगे और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखेगे।

८—मद्यपायी व्यर्थ ही यह कहने का ढोंग न करे कि मैं तो मदिरा को जानता ही नही, क्योकि ऐसा कहने से वह उस दुष्कृत्य के साथ झूठ बोलने का पाप और अधिक शामिल करता है।

९—जो मद्य-प्यासे को सीख देने का प्रयत्न करता है, वह उस मनुष्य के समान है जो पानी में डूबे हुए आदमी को मसाल लेकर ढूँढ़ता है।

१०—जो आदमी अपनी सचेत अवस्था में किसी दूसरे दारूकुट्टे की दुर्गति को स्वय आँखों से देखता है तो क्या वह निज का अनुमान नही लगा सकता कि जब वह नशे में होता है तो उसकी भी यही दशा होती होगी।