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कुरल-काव्य/परिच्छेद ९४ जुआ

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कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २९६ से – २९७ तक

 

 

परिच्छेद ९४
जुआ

जीतो तो भी द्यूत को, मतखेलो
धीमान्।
व्यक्ति-मत्स्य को द्यूतजय, बनसीमांस समान॥१॥
जिसमें सौ को हार कर, कभी जीतले एक।
उसी जुआ से ऋद्धि की, कैसी आशा नेक॥२॥
पैसा रख कर दाव पर, जिसे जुआ की चाट।
हरलेते अज्ञातजन, उसका सारा ठाट॥३॥
द्यूत अधम जैसा करे, करे न वैसा अन्य।
पापअर्थ मन को सजा, यश को करे जघन्य॥४॥
भानें निज को द्यूतपटु ऐसे लोग अनेक।
पछताया जो हो नहीं, पर क्या उनमें एक॥५॥
द्यूतअन्ध दुर्दैव से, भोगे कष्ट अनन्त।
व्यसनी इसका मूढ़ नर, मरे क्षुधा से अन्त॥६॥
जाता द्यूतागार में, प्रायः जिसका काल।
पैतृक धन के साथ वह, खोता कीर्ति विशाल॥७॥
स्वाहा करदे सम्पदा, साख मिटे चहुँओर।
विपदा-साथी द्यूत यह, करदे हृदय कठोर॥८॥
छोड़ें द्यूतासक्त को, कीर्ति-सम्पदा-ज्ञान
यही नहीं, वह मांगता, अन्न वस्त्र का दान॥९॥
ज्यों ज्यों हारे द्यूत में, त्यो त्यों बढ़ता राग।
दुःखित होकर जन्म भर, जलती तृष्णा आग॥१०॥

 

परिच्छेद ९४
जुआ

१—जुआ मत खेलो भले ही उसमे जीत क्यो न होती हो, क्योकि तुम्हारी जीत ठीक उस काँटे के मांस के समान है जिसे मछली निगल जाती है।

२—जो जुआरी सौ हारकर एक जीतते है उनके लिए जगत में उत्कर्षशाली होने की क्या सम्भावना हो सकती है?

३—जो आदमी प्राय दाव पर बाजी लगाता है उसका सारा धन दूसरे लोगों के ही हाथ में चला जाना है।

४—मनुष्य को जितना अधम जुआ बनाता है उतना और कोई नहीं, क्योंकि इससे उसकी कीर्ति को बट्टा लगता है और उसका हृदय कुकर्म करने की प्रेरणा पाता है।

५—ऐसे आदमी बहुतेरे हैं जिन्हे पासा डालने की अपनी चतुराई का धमण्ड है और जो जुाघर के पीछे पागल है, लेकिन उनमें से एक भी मनुष्य ऐसा नहीं है जिसने अन्त में पश्चाताप न किया हो।

६—जो आदमी जुआ के व्यसन में अन्ये हुए है वे भूखों मरते है और हर प्रकार के संकटों में पड़ते है।

७—यदि तुम अपना समय जुआघर में नष्ट कर दोगे तो तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति समाप्त हो जायगी और तुम्हारी कीर्ति को भी धब्बा लगेगा।

८—जुआ में तुम्हारी सम्पत्ति स्वाहा होगी और प्रामाणिकता नष्ट होगी, इसके सिवाय हृदय कठोर बनेगा और तुम पर दुःख ही दुःख आवेगे।

९—जो आदमी जुआ खेलता है उसकी कीर्ति, विद्वत्ता और सम्पत्ति ये सब उसका साथ छोड़ देते है, इतना ही नही, उसे खाने और कपड़े तक के लिए भीख मांगनी पड़ती है।

१०—ज्यों ज्यों आदमी जुना में हारता जाता है त्यो त्यों उसके प्रति उसकी प्रवृत्ति बढ़ती ही जाती है। इससे उसकी आत्मा को जो कष्ट उठाना पड़ता है उससे जीवन भर के लिए उसकी आत्मा की तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है।