कोड स्वराज/साबरमती आश्रम के दौरे के नोट्स

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कोड स्वराज
द्वारा कार्ल मालामुद

[ २५ ]साबरमती आश्रम के दौरे के नोट्स

कार्ल मालामुद, 5 अक्टूबर 2016, एयर इंडिया 173

हमारी कार भारत के अहमदाबाद में स्थित साबरमति आश्रम की ओर बढ़ रही थी। यह वही आश्रम है, जहां गांधी जी रहते थे। यहीं से उन्होंने समुद्र तट तक की अपनी ऐतिहासिक दाण्डी यात्रा शुरू की थी और ब्रिटिश सरकार के आदेशों का उल्लंघन करके नमक बनाया था। यहीं से 18 वर्षों की स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू हुई, जिसने अंततः भारत को स्वराज दिलाया।

हमारी कार में ड्राइवर के बगल वाली सीट पर हिमांशु व्यास बैठे हुए थे, जो गुजरात में कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता हैं। गुजरात वह राज्य है, जहाँ अहमदाबाद स्थित है। पीछे की सीट पर मेरे साथ दिनेश त्रिवेदी बैठे थे, जो एक सांसद हैं, और कुछ वर्ष पहले भारत सरकार में रेल मंत्री थे। उनके बगल में प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं तकनीकी विशेषज्ञ सैम पित्रोदा बैठे थे, जो देश के प्रमुख तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में दो-दो प्रधान मंत्रियों के सलाहकार, कैबिनेट मंत्री के स्तर पर रह चुके हैं। यही वो व्यक्ति हैं, जिन्होंने भारत के हर गांव में टेलीफोन की सुविधा लाकर भारत में दूरसंचार क्रांति ला दी।

साबरमती आश्रम के गेट पर बहुत कड़ी सुरक्षा थी। यह 2 अक्टूबर का दिन था, अर्थात् गांधी जी का जन्मदिवस और राष्ट्रीय अवकाश भी। गुजरात के राज्यपाल और पूरे देश के अनेंक पदाधिकारी उनके जन्मदिन पर आयोजित पारंपरिक प्रार्थना सभा में आश्रम के अंदर मौजूद थे।

जैसे ही हमारी कार आश्रम के गेट की ओर मुड़ी, हमें तुरंत ही पुलिस ने घेर लिया। वे हमारी कार की छत पर जोर-जोर से पीटने लगे और हम पर चिल्लाने लगे कि हमें अपनी कार को वापस मोड़नी होगी। हिमांशु व्यास ने अपनी खिड़की का शीशा नीचे किया और जोर से बोले "सैम पित्रोदा! दिनेश त्रिवेदी! संसद सदस्य!"

जल्द ही गेट खुल गया और हमारी कार तेजी से कीचड़ भरे पार्किंग स्थल से होती हुई बिल्डिंग के करीब जा रुकी, जहां प्रार्थना सभा हो रही थी।

राज्यपाल को आश्रम से बाहर ले जाने के लिए उनकी कार और एक दर्जन सेना के वाहन, आश्रम के प्रवेश द्वार पर तैयार खड़े थे। हम अपनी कार से बाहर निकले और सैम और दिनेश को तुरंत लोगों ने घेर लिया। लोग उनके साथ सेल्फी लेने लगे और उनके पुराने मित्रगण उनसे मिलने के लिये दौड़ने लगे।

सैम और दिनेश ने खुद को उस भीड़ से निकाला और राज्यपाल का अभिवादन करने तेजी से आगे बढ़े। मैं उनके साथ-साथ ही था, इसलिए सुरक्षा कर्मियों ने मेरा रास्ता नहीं रोका। राज्यपाल का अभिवादन करने के बाद, भारी भीड़ ने सैम और दिनेश को घेर लिया। वे उनके साथ तस्वीरें खिंचवाने लगे और उनका अभिवादन करने लगे। [ २६ ]

इस शुभ दिन पर हमारा आश्रम आने का उद्देश्य और सैम द्वारा मुझे भारत लाने का कारण था, "गांधीजी, हिंसा पर चर्चा (Gandhi: Dialogue on Violence)" नामक एक कार्यशाला जहाँ हमें भाग लेना था। दो महीने पहले सैम ने मुझे एक शाम को फोन किया, वह घबराए हुए और परेशान थे। उन्होंने आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोटों, अनेक राज्य सरकारों के द्वारा उनके अपने ही लोगों पर किये गये हमलों, और लोगों के बीच एक दूसरे के खिलाफ बढ़ती हिंसा की भावना के बारे में मुझसे बात की। उन्होंने कहा, "हमें जरूर कुछ करना चाहिये"। उन्होंने इस कार्यशाला को गांधी आश्रम में आयोजित करने का फैसला किया। वह यह जानना चाहते थे कि क्या मैं इस कार्यशाला के लिए उनके साथ भारत आऊंगा।

सैम ने समझाया कि वह चाहते हैं कि यह कार्यशाला मह़ज़ बात-चीत और दुनिया की स्थिति पर दुःख व्यक्त करने तक सीमित न हो। वह चाहते हैं कि यह कार्यशाला एक शांति आंदोलन की शुरुआत करें। आज दुनिया में जो कुछ गलत हो रहा है, उसे ठीक करने के लिए, यह आंदोलन गांधी जी के तरीकों और शिक्षाओं पर आधारित हो।

जब सैम मुझसे कुछ करने को कहते हैं, तो अमूमन मैं हाँ ही कहता हूँ। अगले दिन सैम ने साबरमती आश्रम कॉल कर पता करने लगे कि क्या वे हमारी मेजबानी करेंगे और दूसरे लोगों को कॉल कर हमारे साथ जुड़ने के लिए चर्चा करने लगे। मैंने भी अपने वीज़ा आवेदन पर काम करना शुरू कर दिया।

...

जब सैम और दिनेश अपने प्रशंसकों का अभिवादन कर रहे थे, तब मैंने चारों ओर देखा। आश्रम सैकड़ों स्कूली बच्चों से भरा था, जो अनेक समूहों में एकत्रित थे। वे बिल्डिंग के चारों ओर घूम रहे थे। एक बिल्डिंग के बाहर अनेक संगीतकार एकत्रित थे। वे पारंपरिक भजन (प्रार्थना गीत) गा रहे थे, जो विशेषकर गांधीजी के प्रिय भजन थे। विद्यार्थी जमीन पर बैठे सूत कात रहे थे। गांधी जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए गांधी जी के निवास के बाहर आगंतुकों का एक बहुत बड़ा समूह इकट्ठा था।

जब मैं वहां खड़ा था, तो लाल रंग की शर्ट पहने एक लंबा युवक मेरे पास आया और उसने अपना परिचय दिया। वे श्रीनिवास कोडाली थे, जिनसे मैं व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिला था, लेकिन मैं उनके साथ कई वर्षों से काम कर रहा था। श्रीनिवास एक युवा परिवहन इंजीनियर हैं, जो भारत सरकार पर मुकदमा चलाने में मेरे साथ सह-वादी के रूप में जुड़े थे। मैंने उनका स्वागत किया और उनसे कहा कि वह मेरे पास ही रहें, अन्यथा वे खो जाएंगे।

दिनेश की कोहनी पकड़ कर सैम ने खुद को भीड़ से बाहर निकाला और उन्होंने मुझसे कहा, "'बेयरफुट कॉलेज' के संस्थापक श्री बंकर राय को उपहार की प्रस्तुति" श्रीनिवास कोडली के साथ, हम गांधी जी के पुराने घर, आश्रम और आश्रम की दुकानों और गलियारों में गए, जहां इडली और उपमा का नाश्ता परोसा जा रहा था। [ २७ ]

नाश्ते के बाद, हम प्रशासनिक बिल्डिंग में गए, जहां कार्यशाला होने वाली थी। फर्श पर गद्दे बिछे थे और आगे की प्रक्रिया को देखने के लिए बाल्कनी में विद्यार्थी और मेहमान मौजूद थे। सैम कमरे के बीच में फर्श पर बैठ गए। दिनेश और मैं उनके दोनो तरफ जाकर बैठ गए। जगह काफी छोटी थी और प्रतिभागी दर्जनों की संख्या में थे।

हमारे मेजबान कार्तिकेय साराभाई थे, जो एक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के निर्माता, विक्रम साराभाई, के बेटे हैं। आश्रम के एक ट्रस्टी के रूप में, कार्तिकेय जी उस दिन हमारे मेजबान थे। जैसे ही मैंने चारों ओर देखा, तो मैंने अपने चारों ओर कई प्रतिष्ठित गांधी विद्वानों, कार्यकर्ताओं और इतिहासकारों को पाया।

कमरे के दूसरी तरफ, पारंपरिक घर की बुनी सफेद खादी पहने अमृत मोदी थे, जो वर्ष 1955 से आश्रम में ही रहते हैं और जिन्होंने स्वर्गीय विनोबा भावे के साथ संपूर्ण भारत भ्रमण यात्रा में शामिल थे। उनके पास प्रसिद्ध इला भट्ट बैठी थीं, जिन्होंने वर्ष 1972 में 'सेल्फ-एम्पलॉयड वीमन एसोसिएशन ऑफ इंडिया-सेवा (Self-Employed Women's Association of India) (SEVA)' की स्थापना की, और डेसमंड टूटू (Desmond Tutu) और अन्य सदस्यों के साथ, इसके वरिष्ठ सदस्य के रूप जुड़ गई।

इला जी के बगल में दीना पटेल बैठी थी, जिनके पिता ने 40 वर्षों तक 'कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी' के 100 भाग वाली पुस्तक के 56,000 पृष्ठों का संकलन करने में मदद की थी। पिछले सात सालों से, दीना ने 'कलेक्टेड वर्क्स' के इलेक्ट्रॉनिक संस्करण बनाने में कड़ी मेहनत की है। उन्होंने कलेक्टेड वर्क्स के मूल संस्करणों को ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकॉग्निशन (ओ.सी.आर) के द्वारा स्कैन करके, और फिर मूल संस्करणों में सभी त्रुटियों को ठीक करके, महात्मा गांधी के शब्दों का एक वास्तविक संस्करण बनाने के लिये कड़ी मेहनत कर रहीं है।

गांधी विचार धारा के विशेषज्ञों में से दुनिया के अग्रणी विशेषज्ञों में दीना एक वैसी महिला हैं, जिन्होंने लंबे समय से गांधी जी के लिखित लेखों पर काम किया है, और संकलित कार्य के प्रत्येक शब्द को अक्षरशः पढ़ा है। कुछ दिनों पहले मैं उनसे दिल्ली में मिला था। उन्होंने, अपने जीवन के अनेक कहानियों को सुनाकर, मुझे एकदम आश्चर्यचकित कर दिया था। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए कुछ पुस्तकों का सुझाव दिया, जिनके बारे में मैं जानता भी नहीं था। दीना, गांधीजी की जीती जागती विश्वकोश हैं और वह अपनी कहानियों को, जुनून से और काफी आकर्षक तरीके से बताती हैं।

चर्चा के दिन से एक दिन पहले, एक छोटे समूह ने इस विषय पर आश्रम में बैठक की थी, उस वक्त सैम और हम राजस्थान में थे जहां सैम ने राजस्थान के केंद्रीय विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता की, जहां वे कुलपति हैं। कार्तिकेय जी ने, हमारी दुनिया में हिंसा के विषय पर पिछले दिन की हुई चर्चा का सारांश पेश करते हुए सुबह की सभा की शुरुआत की।

हमारा मूल उद्देश्य हमारी दुनिया में हिंसा के मूल कारण पर चर्चा करना है, और इस बात को भी जानना कि गांधी जी की शिक्षाओं से हम आज क्या सीख सकते हैं। ऐसे आंदोलन को [ २८ ] शुरू करने के लिए क्या अगला कदम उठा सकते हैं जिस पर कार्य करने का प्रयास किया जा सके। हम एक ही दिन में हिंसा की स्थिति को हल करने के लिए एकत्र नहीं हुए थे। हम वहां इस बात पर विचार करने के लिए मौजूद थे कि हम, लंबे समय तक व्यक्तिगत रूप से क्या कर सकते हैं और क्या हम अपनी आवाज उठाने के लिए समुदाय के रूप में एकत्रित हो सकते हैं।

मैं बेकल (उद्विग्न) था। जब उस रविवार की देर रात को सैम ने मुझसे फोन किया था, तब से उस गंभीर बात को लेकर मैं काफी परेशान था क्योंकि मेरा दैनिक काम केवल सरकारी सूचना को एक डिस्क से दूसरी डिस्क में कॉपी करना था। हालांकि, मैं निश्चित रूप से कानून व्यवस्था, सीमा संबंधी मुद्दे, विश्व शांति, हिंसा रोको जैसे विषयों पर कई वर्षों से सुन रहा हूँ, पर गांधी जी की शिक्षाएं मुझसे कोसों दूर थीं। मेरे पास कोई उचित उत्तर नहीं था, ना हीं कोई स्पष्ट अंतर्दृष्टि।

कार्तिकेय जी का पिछले दिन हुई चर्चा का सारांश, तीन बिंदुओं के रुप में सामने आया। पहला, हमें सहनशीलता सीखनी चाहिए और विविधता को प्रोत्साहित करना चाहिए। दूसरा,हमें सहन करना सीखनी चाहिए और असहमति (dissent) को प्रोत्साहित करना चाहिए। तीसरा, यदि हम वास्तविक प्रभाव डालना चाहते हैं, तो हमें निर्भयता के महत्व को समझना होगा। ये सभी तीन बिंदुएं, गांधी जी के शिक्षाओं पर आधारित हैं।

सैम पित्रोदा ने चर्चा की शुरुआत की और हमें समझाया कि हमें एक साथ क्यों बुलाया गया है। मैंने पिछले कुछ महीनों में इन विषयों पर कई बार सैम को सुना हूँ क्योंकि उन्होंने अपने उस किताब के बारे में चर्चा की, जिसपर वे आजकल काम कर रहे हैं और मैंने कई बार उनकी बातें सुनी है। उनका मानना है कि हमें अपनी दुनियां को दोबारा डिजाइन करना होगा-यह सैम की नई थीसिस है। जैसा कि हम सब देख रहे हैं, आज जो दुनियां देखते हैं, इसका डिज़ाइन दुसरे विश्व युद्ध के बाद किया था, और तब हमने संयुक्त राष्ट्रसंघ, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अन्य संस्थानों का निर्माण किया जिन्हें आज हम जानते हैं। यह दुनियां मूलतः कुछ अमीर और शक्तिशाली देशों की जरूरतों पर आधारित है, और जहाँ कहने के लिये। उपनिवेशों की एक 'तीसरी दुनिया' है जो गरीबी से पीड़ित है, अनेक गैर-लोकतांत्रिक निर्धन देश भी इस प्रणाली के सहभागी हैं।

लेकिन, महान अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स (John Maynard Keynes), अल्फ्रेड मार्शल (Alfred Marshall) और अन्य सभी लोगों ने जिस विचार धारा पर विचार नहीं किया वह था गांधी विचार धारा। गांधीजी के प्रयासों ने न केवल भारत को आजादी दिलाई, बल्कि वैश्विक स्तर पर उपनिवेश विरोधी आंदोलनों को फैलाया।

आज सोवियत संघ नहीं है। यूरोपीय संघ ने ग्रेट ब्रिटेन बाहर हो गया है। भारत और चीन काफी तेजी से विकसित हो रहे हैं। इसके बावजूद, हमारी दुनिया सुचारू रूप से काम नहीं कर पा रही है। सैम ने कहा, यह दुनिया टूट गई है, तबाह हो रही हैं। ऐसा इसलिए है। क्योंकि इसका डिज़ाइन कई वर्ष पहले हुआ था, और वह डिज़ाइन आज के समय के अनुरुप नहीं है। [ २९ ]

साबरमती आश्रम के दौरे के नोट्स

भारत अपनी जरुरत से ज्यादा भोजन (खाद्य पदार्थ) पैदा करता है, इसके बावजूद भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी भूखमरी का शिकार है। दुनिया भर में, समय के साथ घटने के बजाय, आय की असमानता बहुत बढ़ गई है। रोग, अपर्याप्त पानी और गरीबी जैसी अनेंक समस्या दुनिया को बहुत ही अधिक प्रभावित कर रही है।

और फिर यहाँ काफी हिंसा है। एक देश अन्य देशों के खिलाफ, और अपने ही लोगों के खिलाफ भी हिंसा का सहारा ले रही है। आतंकवादी हिंसा, और एक समुदाय का अन्य समुदायों के खिलाफ की हिंसा, चौंकाने वाली है। बलात्कार, हत्या और दुर्व्यवहार, व्यक्तिगत हिंसा के अनेक रूप काफी फैल रही हैं।

सैम तकनीक के दृष्टिकोण से आशावादी व्यक्ति हैं। उनका मानना है कि हमें आज के दुनिया में कुछ करने का एक अनूठा अवसर मिला है। मसलन हुम अनेक रोगों का इलाज कर सकते हैं। हमारे पास साफ पानी हो सकता है। हम इंटरनेट की गति बढ़ा और उसे सार्वभौमिक बना सकते हैं, और तो और हम इंटरनेट को मुफ्त में उपलब्ध करा सकते हैं। हम ग्लोबल वार्मिंग को कम सकते हैं।

लेकिन, इनमें से कुछ भी करने के लिए, हमें अपने वैश्विक तंत्र को फिर से डिजाइन करना होगा कि हम अपनी दुनिया को किस तरह से चलाते हैं। सैम अक्सर कहते हैं कि हमें विशेष रूप से अपना ध्यान मानव अधिकारों पर केंद्रित करना होगा, हमें मानवीय जरूरतों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना होगा।

जब सैम ने अपनी बात खत्म कर ली, तब उसके बाद दिनेश त्रिवेदी ने बात की। दिनेश त्रिवेदी लंबे समय से सांसद रहे है और वे काफी आध्यात्मिक और धार्मिक व्यक्ति भी हैं। सैम और मैं दिल्ली में उनके ही घर में रुके थे और मुझे उन्हें करीब से जानने का मौका मिला।

दिनेश ने कहा, हमारी आधुनिक दुनिया की प्रमुख समस्या यह है कि कोई भी एक समुदाय, अन्य सभी समुदायों से काफी नफरत करता है। यह व्यक्तिविषेश रहित घृणा (depersonalized hatred) की वजह से एक व्यक्ति यह मान लेता है कि इस सामदायिक घृणा के बारे में वह निजी फैसला नहीं कर सकता। क्योंकि इस घृणा की उत्पत्ति उसके अपने समुदाय की आम सहमति से हुई है। इस तरह की सामुदायिक हिंसा के शिकार हुए व्यक्ति को हम एक खास व्यक्ति विशेष की तरह नहीं देखते हैं ब्लकि वह हमारी घृणा के एक बेनाम पात्र होते है।

यह हिंसा अक्सर राष्ट्रवाद के आधार पर या जाति-भेदों से पैदा होती है, लेकिन कई बार यह धर्म की भिन्नता से भी पैदा होती है। दिनेश जी ने कहा कि हमें अपने अंदर झांकना होगा कि दुनिया की जरूरत, केवल धर्म पर ध्यान केंद्रित करना नहीं है, बल्कि आध्यात्मिकता पर ध्यान केंद्रित करना है। यह केवल हम पर निर्भर करता है कि हम अपने आप को बदलें क्योंकि केवल तब ही हम दूसरों को बदल सकते हैं।

फिर दीना पटेल ने बात की। उन्होंने कहा कि हिंसा रोकने का सबसे अच्छा तरीका यह है। कि इसकी शुरुआत आप स्वयं से करें। उन्होंने एक युवक की कहानी सुनाई, जिसका [ ३० ]चित्रण वियतनाम युद्ध के दौरान किया गया था। उसने महान विज्ञानिक आइंस्टीन को खत लिखा और पूछा कि उसे क्या करना चाहिये। आइंस्टीन ने उसके खत का जबाव यह क हुए दिया कि "गांधी की तरह काम करो (Do like Gandhi)"

लड़का परेशान था और उसने आइंस्टीन को दोबारा खत लिखा और पूछा कि इसका क्या मतलब है। आइंस्टीन ने जवाब दिया, "कानून की अवमानना करो (disobey the law)"। वह लड़का तीन साल के लिए जेल गया। उस लड़के का नाम ज़ीन शार्प (Gene Sharp) था,जो अहिंसा के प्रमुख प्रचारकों में से एक था, और जिसके काम ने पूरे विश्व में शांतिपूर्ण क्रांतिओं को प्रभावित किया है।

बातचीत धीरे-धीरे आगे बढ़ी। मैंने कुछ नोट लिखें, तस्वीरें लीं और कुछ खास संक्षिप्त बिंदुओं को ट्वीट करने की कोशिश की, ताकि दुनिया के लोगों की इस कार्यवाही का पता चल सके। मैं इस बात से भी परेशान था कि मैं क्या बोलूंगा, मेरे हाथों में अस्पष्ट लिखावट में लिखे नोट्स थे और मैं उन प्रतिष्ठित इतिहासकारों को देखकर ढ़ाढस बंधा रहा था जिनकी पुस्तकों को मैंने उनके समक्ष घबराते हुए प्रशंसा की थी।

सुषमा अय्यंगार जिन्होंने गुजरात राज्य में ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, महिलाओं के प्रति हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए एक सक्रिय संगठन का निर्माण किया है। उन्होने महिलाओं के प्रति हिंसा के बारे में बात करते हुए यह कहा कि हम किसी हिंसा पर चुप्पी रख कर, उस हिंसा को न्यायसंगत बना देते हैं। उन्होंने कहा कि हमें हिंसा के कारणों का वर्गीकरण करना होगा, जिनमें हिंसा के कुछ रूप, अन्य तरह के हिंसा के बजाय अधिक गंभीर बन जाते हैं। प्रायः हमलोग यौन उत्पीड़न को, और यहाँ तक कि बलात्कार को भी न्यायसंगत बना देते हैं। लेकिन जब कोई महिला उसके खिलाफ आवाज़ उठाती है तो हम उस पर ही उंगली उठाते हैं, उसके ही आवाज को न्याय असंगत कहते हैं और उसे ही अपराधी करार कर देते हैं।

गांधीजी, हिंसा के खिलाफ की गई हिंसा की प्रतिक्रिया के आलोचक थे। ब्रिटिश राज की ज़बर्दस्त क्रूरता और अत्याचार के बावजूद, और शासन द्वारा अपने ही लोगों के खिलाफ स्थापित हिंसक ढांचे होने के बावजूद, वे सन् 1857 के विद्रोह के आलोचक थे। जब भीषण कलकत्ता हत्याकांड में, और वर्ष 1946 के बिहार में दंगा फैलने के बाद, जब लोगों ने एक-दूसरों को मारना-काटना शुरू कर दिया तो गांधीजी ने तब तक अनशन जारी रक्खा जब तक लोगों ने हिंसा को रोका नहीं। यदि वे हिंसा नहीं रोकते तो वे अपने अंतिम सांस तक अनशन करने के लिए तैयार थे।

"द अफ्रिकन एलिमेंट इन गांधी The Africn Element in candhi)," के लेखक अनिल नौरिया ने दक्षिण अफ्रीका के कनटेक्स्ट में, हिंसा के इस ढांचा के बारे में लिखा है। रंगभेद का तंत्र, संपूर्ण नस्ल के खिलाफ क्रूर हिंसा के विरोध में, मंडेला जैसे नेताओं ने जनशक्ति को सक्षम बना कर, दमन बल को, अपने बल से टक्कर देने का निर्णय लिया था। हालाँ कि मंडेला अफ्रीका में अन्य नेताओं की भांति गांधी जी के अनुयायी थे। [ ३१ ]

साबरमती आश्रम के दौरे के नोट्स

गांधी जी अपने अनुयायियों के साथ लगातार बातचीत करते रहते थे कि क्या असहनीय अतिक्रमण के लिए हिंसा आवश्यक थी। नेल्सन मंडेला ने लिखा है कि जब उन्होंने गांधी जी के शब्दों का अध्ययन किया, तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उन्हें सरल आंदोलन से ज्यादा कुछ करना होगा। इसलिए उन्हें एक अलग तरह की हिंसा का चयन करना चाहिए, और उन लोगों ने तोड़फोड़ (sabotage) के रास्ते को अपनाया जहाँ जानहानि का खतरा कम था।

इसके बाद इला भट्ट ने बाद में भाषण दिया, वे ‘सेल्फ-इप्लॉयमेंट वीमेन्स एसोसिएशन',जिसमें 13 लाख महिलाए सदस्य हैं, की संस्थापिका हैं। उन्होंने कहा कि शांति आकांक्षात्मक लक्ष्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम इसे कब हासिल करते हैं या कब कर पाएंगे, हमें इसके लिए हमें प्रयास करते रहना होगा क्योंकि अंधेरा ज्यादा देर तक नहीं रहता है।

इला ने न केवल गांधी की बात की बल्कि मार्टिन लूथर किंग की भी बात की और कहा कि अहिंसा की जड़, हिंसा के न होने में नहीं है, बल्कि यह प्रेम की उपस्थिति में है। किंग ने। अक्सर अपने उपदेशों और भाषणों ने इस विषय पर बात की थी कि “घृणा कभी भी घृणा को नहीं मिटा सकती है, सिर्फ प्रेम की भावना ही घृणा को मिटा सकती है”। इला, जो हमेशा लोगों को सोचने पर मजबूर करती है, उनके भाषण के बाद टिप्पणियों का दौर शुरु हुआ। और कमरे की भावना यह थी कि हिंसा की जड़े संरचनात्मक है, यह बम और बंदूक से बढ़ कर अब हमारे समाज के ढांचे तक पहुंच गई हैं।

इसके बाद, अनामिक शाह ने भाषण दिया, जो गुजरात विद्यापीठ के उप-कुलपति है, जिसे गांधी विश्वविद्यालय” के नाम से जाना जाता है और इसकी स्थापना वर्ष 1920 में हुई थी। विश्वविद्यालय सभी शोधों में गांधीवादी मूल्यों को शामिल करने का प्रयास करता है। छात्रों को रूई कातना सीखाता है। शारीरिक श्रम का कार्य स्कूली शिक्षा का एक नियमित भाग है।

प्रोफेसर शाह ने स्वास्थ्य के देखभाल के निरादर और दवाइयों को खरीदने में सक्षम नहीं होने से हुए लोगों की मृत्यु के विषय पर बात की। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे इन सबकी जड़े आर्थिक हिंसा में छिपी हुई हैं, जहाँ निरंतर बढ़ती हुई आर्थिक असमानता की दुनिया में मानवीय जरूरतों का बलिदान हो रहा है।

अनामिक जी ने उदाहरण दिया कि कैसे संपत्ति को पुनः परिभाषित करके, एक सरकार ने स्वास्थ्य हिंसा को कैसे संबोधित किया है। जापान में, पेटेंट प्रणाली को इस तरह संशोधित किया गया है कि अब स्वास्थ्य संबंधित सभी पेटेंट गैर-वाणिज्यिक उपयोग के लिए प्रभावी नहीं है। इसका अर्थ है कि यदि कोई सरकार या संस्थान लोगों को देने के लिए दवा का। उत्पादन करती है, तो वे ऐसा कर सकते हैं।

यू.एस. के पेटेंट पर लंबे समय तक अपने अध्ययन करने के बावजूद मैंने, “ज्ञान के उपलब्धता” को इस प्रकार से अनिवार्य बनाने के नायाब तरीके के विषय पहले कभी नहीं सुना या सोचा नहीं था। मुझे यह अवधारणा बहुत ही रोमांचक लगा। पूरे दिन इस कार्यशाला में इस तरह के अनेक अंतर्दृष्टियाँ मुझे मिलती रही। लोग एक के बाद एक आते रहे, दीर्घ [ ३२ ]विचारित ऐतिहासिक कहानियों के साथ, गांधी के दर्शन की समझ के साथ, और हमारी आधुनिक दुनिया के लिए उनकी शिक्षाओं के आवेदन के साथ।

गांधी के प्रमुख इतिहासकारों में से एक प्रोफेसर सुधीर चंद्रा ने हमारी चुनौतियों को संक्षेप में प्रस्तुत किया। उन्होंने उदाहरण दिया कि कैसे दिल्ली के सड़कों का नाम ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तियों के नाम पर रखा गया था और अब वर्तमान घटनाओं के आधार पर उनका नाम बदलने का चलन चल रहा है। प्रोफेसर चंद्रा इस चलन को “वर्तमान को संजोये ने वाला समाज (the society for the preservation of the present)” कहा। उन्होंने कहा कि हमें अपने इतिहास को प्राथमिक विद्यालय के छात्र की तरह नहीं देखना चाहिए, जिसे दिन के अभ्यास के बाद मिटा दिया जाता है। हमें हमारे इतिहास को जीवित रखना होगा और इससे सीख लेना होगा।

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दिन के भोजन के समय, करीब की एक कैंटीन में, पूड़ी सब्जी, ढोकला और छाछ का भोजन करने के बाद हम सब आश्रम लौट गए। मुझसे कुछ टिप्पणियां करने को कहा गया और मैंने इसके लिए साहस इकट्ठा किया। इन टिप्पणियों से कुछ भी दर्ज नहीं किया गया। अगले दिन मेरे पास हाथ से लिखे हुए दो पन्नों का एक नोट था। अब मैं अपने घर अमेरिका वापस आ रहा था, इस 17 घंटों की फ्लाइट के दौरान, मैं “कानून का राज” की अवधारण और “हमारी दुनिया में हिंसा” इन दोनों के बीच के संबंध को समझने का प्रयास करने लगा।

वर्ष 1963 में, जॉन एफ कैनेडी, लैटिन अमेरिकी राजनयिकों के एक समूह को संबोधित कर रहे थे, और उन्होंने उन्हें कहा कि “यदि हम शांतिपूर्ण तरीकों से होने वाली क्रांति को असंभव बना दें तो फिर क्रांति के लिये हिं ना ही अवश्यसंभावी होगा”।

जॉन एफ कैनेडी, एक पागल आदमी के हिंसक कत्य से मारे गए थे लेकिन उनके शब्दों को मार्टिन लूथर किंग ने पांच साल बाद दोहराया, जब उन्होंने वियतनाम युद्ध के बारे में बात की थी। मार्टिन लूथर किंग ने कहा कि वियतनाम युद्ध वियतनामी लोगों के खिलाफ हिंसा का एक चौंकाने वाला क्रूर कृत्य था।

उन्होंने यह भी कहा कि यह यद्ध अमेरिकी लड़कों और लड़कियों के खिलाफ भी हिंसा का एक चौंकाने वाला कृत्य था, जिन्हें एक ऐसा युद्ध को लड़ने के लिए तैयार किया गया था,जो उसे ना तो समझ रहे थे, ना ही उसका समर्थन करते थे। किंग ने जोर दिया कि अमेरिकी राज्य में एक अन्य प्रकार की हिंसा की स्थिति है - यह है संयुक्त राज्य अमेरिका में काले पुरूषों और महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा।

किंग ने कहा कि हम कैनेडी की बातों के अर्थ को भूल गए हैं। उन्होंने इसे “मान्यताओं में उग्र क्राति (radical revolution in values)” का नाम दिया। उन्होंने कहा कि यदि हम हमारे समाज में हिंसा के मूल कारणों को संबोधित करते हैं, तो हमें साधन उन्मुख समाज से व्यक्ति उन्मुख समाज में जाना होगा। उन्होंने कहा कि हमें अपनी दुनिया को नया स्वरूप देना होगा।

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साबरमती आश्रम के दौरे के नोट्स

आज जिस दुनिया में हम रह रहे हैं इसमें संरचात्मक बदलाव का एक मात्र तरीका है - हमारे राज-काज का तरीका, हमारी कानून व्यवस्था। हम इसे “कानून का राज” को। स्थापित करके कर सकते हैं। अमेरिका में गुलामी के अंत की शुरूआत 'द इमैन्सपेशन प्रोक्लेमशन' और संविधान के 13 वें संशोधन के बाद हुई थी।

अमेरिका में, तथाकथित गुलामी की औपचारिक समाप्ति की जगह, तुरंत ही खेत में बटाईदारी पर फसल लगाने के विरुद्ध हुए संघर्ष ने ले ली। भारत में, किसानों को बटाईदारी पर नील की खेती करने के लिये मजबूर किया गया था, और विदेशों में मजदूरों पर करारनामा (indenture) तंत्र को अपनाया जा रहा था जिसके विरुद्ध महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में लड़ाई लड़े चुके थे। भारत में अनैच्छिक दासता का अंत तब हुआ जब अंतत: गिरमिटिया नामक क्लिष्ठ तंत्र वर्ष 1917 के ‘इंडियन इमीग्रेशन एक्ट, 1917' के अधीन आया।

मतदान के अधिकारों के संघर्ष को, केवल मताधिकार के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। रेसियल सेगरेगेसन (Segregation) को, संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्ष 1964 के ‘नागरिक अधिकार अधिनियम (Civil Rights Act of 1964)' के साथ, और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति के बाद ही संबोधित किया जा सका। प्रत्येक संघर्ष के अंत के साथ एक नए संघर्ष की शुरूआत होती है।

इन समस्याओं को किसी भी तरीके से हमेशा के लिए सुलझाया नहीं जा सकता है लेकिन हम इन्हें अनवरत संघर्ष के एक अभियान के रूप में देख सकते हैं। विश्व में दासता अब भी मौजूद है। संयुक्त राज्य अमेरिका सार्वजनिक मताधिकार का दावा करता है लेकिन मतदान कर (Poll Tax) की जगह अब ‘मतदान पहचान संबंधी कानून (Voter Identification Laws)' ने ले ली है, जो न तो अवास्तविक मतदाता धोखेबाजी (voter fraud) को कम करता है बल्कि उल्टे लोगों को, मतदान के लिए हतोत्साहित करता है।

यद्यपि हम लोग अपनी दुनिया को बिलकुल ठीक नहीं बना सकते हैं, हमेशा कोई-न-कोई बाधा हमें मिल ही जायेगी, फिर भी हमें अपने उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करना चाहिए और उनमें जो सबसे शक्तिशाली तरीका है वह है 'कानून का राज' (Rule of Law)। लोकतंत्रिक समाज में हम अपनी सरकार का निर्माण करते हैं। हम लोग अपने नियमों और दायित्वों को परिभाषित करते हैं। हालांकि हमारी सरकार कभी कभार उदासीन और लापरवाह लगती है (और कभी कभी वे सचमुच में उदासीन और लापरवाह हो जाते हैं, लेकिन जब-जब हम अपने स्वामित्व का पुनः दावा करते हैं, और कानून के नियमों का उपयोग करते हैं तब वास्तविक बदलाव की शुरूआत हो जाती है।

'कानून का राज' के तीन सिद्धांत होते हैं। पहला सिद्धांत यह है कि कानून को पहले ही से लिख लेना चाहिए ताकि समय के साथ चलते चलते हम कानून को बनाते न जाएं और किसी पहले किये गये कार्य को, बाद में गैरकानूनी न घोषित कर दें। इस सिद्धांत की अर्थपूर्ण तरीके से व्याख्या, जॉन एड्मस (John Adams) ने की थी उन्होंने अत्यंत पटुता से कहा था कि “हम विधियों के साम्राज्य हैं, न कि इंसानों के राष्ट्र (we are an empire of laws, not a Ilation of Imen)”,
[ ३४ ]इसका दूसरा सिद्धांत यह है कि विधि को सार्वजनिक करना चाहिए। ऐसी दुनिया में जहां पर 'कानन की अज्ञानता' क्षम्य नहीं है ऐसे में ये सिद्धांत स्पष्ट और आसान लगते हैं लेकिन मैंने । अपने अनुभव से यह सीखा है कि विधि के सार्वजनिककरण का अक्सर उल्लघंन किया जाता है।

विधि लिखने, और फिर उसे प्रकाशित करने के, ये दो सिद्धांत अनिवार्य तो हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं है। हमारे पास ऐसा कानून हो सकता है, जिसमें यह कहा गया हो कि काले रंग के लोग, अमेरिकी दक्षिण में सफेद लोगों के लंच काउंटर पर खाना नहीं खा सकते हैं। हम इसे व्यापक रूप से प्रसारित कर सकते हैं ताकि ये दोनो सिद्धांतों की पूर्णतः तुष्टि हो जाय। लेकिन यह केवल विधि का नियम हुआ, विधि का शासन नहीं है।

तीसरा सिद्धांत यह है कि कानून सामान्य होंगे, वे केवल किसी विशेष व्यक्ति या समूह पर लागू नहीं होंगे। यह कहना कि “भारतीयों और एशियाई मूल के लोग को खुद को पंजीकृत करना होगा, और एक पाउंड पंजीकरण कर देना होगा, और हमेशा अपना पंजीकरण पत्र रखना होगा”, 'कानून का राज' का मूलतः उलंघन है, और इसी के खिलाफ गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की लड़ाई लड़े थे।

यह स्पष्ट है कि हमारी आधनिक दुनिया में अभी भी हिंसा मौजद है जिसके विरुद्ध हमें संघर्ष करना होगा, वह हिंसा जिसके बारे में सैम ने बताया था, राज्य की हिंसा, अतिकवाद की हिंसा, अपने पड़ोसी और परिवार के सदस्यों के खिलाफ, लोगों की हिंसा। लेकिन इन शारीरिक हिंसा से परे भी अनेक तरह की हिंसाएं हैं। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के द्वारा हमारे ग्रह पर की जाने वाली शर्मनाक हिंसा है। बीमारियों की हिंसा, पानी की कमी की हिंसा, और उपज आधिक्य के बीच अकाल की हिंसा, भी हमारे बीच हो रही है।

'कानून का राज' के अनुसार, कानून सभी पर समान रूप से लागू होगा, लेकिन वर्तमान समय में ऐसा नहीं है। हमें इसे ठीक करना होगा, लेकिन हमें इससे अधिक और भी काम करने की आवश्यकता है। हमें लोगों के बीच आर्थिक अवसर, और राजनीतिक अवसर की समानता लाने की आवश्यकता है। हमारी सरकारें कैसे काम करती हैं केवल इन्हें बदलकर, और दनिया को नया रूप देने की कोशिश कर, हम उन समस्याओं के समाधान की शुरुआत कर सकेगें जिनका हम आज सामना कर रहे हैं।

इंटरनेट की हमारी इस दुनिया में, हमें एक और मुद्दे को भी संबोधित करना होगा, और यह है ‘ज्ञान तक पहुंचने की समानता' का है। इंटरनेट के प्रमुख वादे के बावजूद, हमने अधिकांशतः ज्ञान को अलग कर एक घिरे वाटिका में छुपा कर रख लिया जहाँ हमें निजी पार्टियों से लाइसेंस लेने की आवश्यकता होती है और तब जाकर हम खुद को उस ज्ञान से शिक्षित कर सकते हैं। ‘ज्ञान तक सार्वभौमिक पहुंच’ हमारे समय की प्रमुख प्रतिज्ञा है। इस तरह की समानता लाना हमारी पीढ़ी के लिए एक भव्य चुनौती है। यह हमारा लिए एक मौका है जो हम भविष्य के लिये विरासत में छोड़ सकते हैं। हम उस स्तर के लोग बन सकते हैं जो नींव रखते हैं, इसलिए हमें उन सभी प्रश्नों में भाग लेना है जो हमें यह प्रेरित करता है कि हम लोकतांत्रिक तरीके से खुद को कैसे प्रशासित करें।

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साबरमती आश्रम के दौरे के नोट्स

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वर्ष 2016 के अंत में सैम के साथ मेरी यात्रा ने मेरी आंखें खोल दीं। यह मेरे अमेरिका के 10 वर्षों के संघर्ष के विष को हरण करने वाली एक औषधि थी, जहां मुझ पर कानून संबंधी चीजों को पोस्ट करने के लिए मुकदमा चलाया गया था, जिसमें संघीय न्यायाधीशों ने सार्वजनिक सुरक्षा कोड को नहीं बताने के लिए मुझे आदेश दिया था। भारत की इस यात्रा ने मेरी आंखें खोल दी लेकिन मुझे विश्वास भी दिला दिया कि अगर हम संघर्ष करते रहते हैं, तो हम अपनी दुनिया बदल सकते हैं।

गांधी के आश्रम का दौरा, राजस्थान में भाषण, दिल्ली में सांसदों से मुलाकात जैसे इन अनभवों को मैंने संजोए रखा है। जब मैं पहली बार दिली आया तो मझे पता था कि यह यात्रा विशेष होने वाली थी। सैम कुछ घंटों पहले वहां पहुंच गए थे। मुझसे एक प्रोटोकॉल अधिकारी विमान के द्वार पर मिले और मुझे सीधे कस्टम्स की प्रक्रिया से ले गये। मैं दिनेश त्रिवेदी के सरकारी बंगले पर पहुंचा और दिनेश से पहली बार आमने-सामने मिला। इसके अलावा एक व्यवसायी मानव सिंह भी वहां मौजूद थे, जो कई विमानन से जुड़े कंपनियों के मालिक हैं, जिनमें एयर एम्बुलेंस सेवा (Self-Employed Women's Association of India) भी शामिल है, वे दिनेश और सैम के पुराने दोस्त भी हैं। मानव हमें रात के खाने के लिए ताज होटल के जापानी रेस्तरां में ले गए। जैसे ही हमने ‘मात्सूतेक (Matsutake) सूप पिया और ‘सुशी' खाया, यकायक ही मदर टेरेसा के विषय पर बात आ गई।

मानव ने टिप्पणी की “ओह! उनमें तो कुछ बात थी!” मैंने पूछा कि क्या वह उनसे मिले थे। मानव मुस्कुराए, और मुझे बताया कि मदर टेरेसा ने उसके नामकरण समारोह की अध्यक्षता की थी। मैंने पूछा कि क्या वह कैथोलिक हैं, और वे हंसने लगे और कहा नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, वह मेरे परिवार की बेहद पुरानी दोस्त थीं। उसने अपना बटुआ निकाला और एक मुस्कुराती हुई मदर टेरेसा के साथ एक बच्चे के रूप में खुद की तस्वीर दिखाई।

मैं बेहद प्रभावित हुआ। फिर सैम ने कहा “हाँ, वे एक अनवरत काम करने वाली महिला थी। मुझे याद है वह एक बार, प्लेन पर मेरे पास आईं, और कहा सैम आपको यह पढ़ना चाहिये”, और उन्होंने सैम को एक कार्ड दिया जिसपर बाइबल के कुछ शब्द लिखे हुए थे। उन्होंने ऐसा कई बार बहुत लोगों के साथ किया है, सैम ने कहा। उनके पास आज भी वह कार्ड है।

मैंने टिप्पणी की थी कि यह वास्तव में काफी उल्लेखनीय है, यहां हम चार लोग डिनर कर रहे थे और उनमें से दो लोग मदर टेरेसा को जानते थे। सैम और मानव ने हंसना शुरू कर दिया। दिनेश कोलकाता से सांसद हैं, जहां मदर टेरेसा का मुख्यालय था। दिनेश ने मुस्कुराते हुए समझाया कि वह और उनकी पत्नी अपनी छोटी कार में पूरे शहर में मदर टेरेसा के साथ घूमा करते थे। वह सामने की सीट पर बैठी होती थी, जो दिनेश और उनकी पत्नी को ड्राइव करने और कहाँ ड्राइव करना है, ये निर्देश देती थीं। जब वह नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करने के बाद वापस आ गई, तो दिनेश ने उनके साथ दिल्ली से कोलकाता तक की यात्रा की [ ३६ ]और फिर उन्हें उनके घर तक छोड़ने गए। दिनेश ने टिप्पणी करते हुए कहा, "उनके पास अत्यंत दृढ़ इच्छा शक्ति थी"।

डिनर पर मौजूद चार लोगों में से तीन लोग मदर टेरेसा को व्यक्तिगत रूप से जानते थे। इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुआ। भारत से मुझे बहुत कुछ सीखना है। इसके चलते इस सत्याग्रह अभियान की संभावित सफलता पर मेरी आशाएं नवीकृत हुईं। मैं अमेरिका और यूरोप के कानूनी आक्रमण के तहत आई घनघोर निराशा के अंधकार में आशा की किरण दिखाई दी, और भारत में मुझे निराशा के सुरंग के अंत में प्रकाश दिख रहा था। भारत में शायद लोग इस बात को सुने, यह सोंच कर मैंने भारत बार बार आने का संकल्प लिया। मैं ऐसा करना चाहता था क्योंकि न्यायमूर्ति रानडे ने इसे सही तरीके से कहा है कि 'खुद को शिक्षित करने के लिये, और मेरे शासकों को भी शिक्षित करने के लिए'। 'ज्ञान तक सार्वभौमिक पहुँच' हमारे समय का महान संकल्प है और इस संकल्प को वास्तविकता में साकार करना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है। मैं अपने प्रयासों में नई जान फूकने के दृढ़ निश्चय के साथ मैं भारत यात्रा से अमेरिका लौटा।

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साबरमती आश्रम की कार्यशाला में महत्वपूर्ण बिंदुओं को नोट करते हुए सैम पित्रौदा।
साबरमती आश्रम में नाश्ता करते साराभाई जी (फोल्डर पकड़े हुए)
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साबरमती आश्रम में तस्वीर खिंचवाते कार्ल, सैम और दिनेश त्रिवेदी।
कोचरब आश्रम में, सूत कातते छात्र।
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कोचरब आश्रम में गांधी जी के पोस्टकार्डों पर नजर डालती इला भट्ट।
साबरमती आश्रम में इकट्ठा हुए स्कूली बच्चे।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।