ग़बन/भाग 15

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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विशाल, कितना तेजोमय! विलासिनी ने प्रेमोद्यान की दीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी, त्यागिनी बनकर वह उस उद्यान के भीतर पहुँच गयी थी-कितना रम्य दश्य था, कितनी सुगंध, कितना वैचित्र्य, कितना विकास। इसकी सुगन्ध में, इसकी रम्यता में, देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतम स्थान पर पहुँचकर देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है; इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी। इसी प्रेम ने उसे बियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया- उसे अभय-दान दे दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका प्खंअड विभव तुच्छ है।

इतने में जोहरा आ गयी। जालपा को पटरी पर खड़ी देखकर बोली-यहाँ कैसे खड़ी हो बहन? आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

दोनों ऊपर चली गयीं।

४८

दारोगा को भला कहाँ चैन? रमा के जाने के बाद एक घण्टे तक उसका इंतजार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए देवीदीन के घर पहुँचे। यहाँ मालूम हुआ, कि रमा को यहाँ से गये आधे घंटे के ऊपर हो गया। फिर थाने लौटे। यहाँ रमा का अब तक पता न था। समझे देवोदीन ने धोखा दिया। कहीं उन्हें छिपा रखा होगा। सरपट साइकिल दौड़ाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुँचे और धमकाना शुरू किया। देवीदीन ने कहा-विश्वास न हो, घर को खाना-तलाशी ले लीजिए, और क्या कीजिएगा। कोई बहुत बड़ा भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है, एक ऊपर!

दारोगा ने साइकिल से उतर कर कहा-तुम बतलाते क्यों नहीं, वह कहाँ गये?

देवी०- मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊँ साहब ! यहाँ आये, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गये।

दारोगा- वह कब इलाहाबाद जा रही है ?

देवी०-इलाहाबाद जाने की तो बाबू जी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायगा, वह यहाँ से न जायेंगी। [ ३१५ ] दारोगा-मुझे तुम्हारी बातों का यकीन नहीं आता।

यह कहते हुए दारोगा नीचे की कोठरी में घुस गये और हरएक चीज को गौर से देखा ! फिर ऊपर चढ़ गये। वहाँ तीन औरतों को देखकर चौंके। जोहरा को शरारत सूझी, तो उसने लम्बा-सा धुंघट निकाल लिया और अपने हाथ साड़ी में छिपा लिये। दारोगाजी को शक हुआ, शायद हजरत यह भेस बदले तो नहीं बैठे हैं।

देवदीन से पूछा-यह तीसरी औरत कौन है ?

देवीदीन ने कहा- मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से मिलने आ जाती है।

दारोगा-मुझसे उड़ते हो बचा। साड़ी पहनाकर मुलजिम को छिपाना चाहते हो! इनमें कौन जालपा देवी हैं। उनसे कह दो, नीचे चली जायें। दूसरी औरत को वहीं रहने दो!

जालपा हट गयी, तो दारोगा ने जोहरा के पास जाकर कहा-क्यों हज़रत मुझसे यह चालें ! क्या कहकर वहाँ से आये थे और यहाँ आकर मौज में आ गये ? सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतारिये और मेरे साथ चलिए। देर हो रही है।

यह कहकर उन्होंने जोहरा का घूंघट उठा दिया। जोहरा ने टट्ठा मारा। दारोगाजी मानो फिसलकर विस्मय सागर में गिर पड़े। बोले- अरे, तुम हो जोहरा ? तुम यहाँ कहाँ ?

जोहरा-अपनी ड्यूटी बजा रही हूँ।

'रमानाथ कहाँ गये? तुम्हें तो मालूम होगा ?'

वह तो मेरे यहाँ आने के पहले ही चले गये थे। फिर मैं यहीं बैठ गयी और जालपा देवी से बातें करने लगी।'

अच्छा जरा मेरे साथ आओ। उसका पता लगाना है।'

जोहरा ने बनावटी कुतूहल से कहा--क्या अभी तक बंगले पर नहीं पहुँचे ? 'ना ! न जाने कहाँ रह गये ?

जोहरा-ने खूब पट्टी पढ़ाई है। उसके पास जाने को अब जरूरत नहीं है। शायद रास्ते पर आ जाय। रमानाथ ने बुरी तरह डाँटा है। धमकियों से डर गयी है। [ ३१६ ]

दारोगा-तुम्हें यकीन है, कि अब यह कोई शरारत न करेगी?

ज़ोहरा–हाँ, मेरा तो यही ख्याल है।

दारोगा-तो फिर यह कहाँ गया ?

ज़ोहरा-कह नहीं सकती।

दारोगा-मुझे इसकी रिपोर्ट करनी होगी। इंसपेक्टर साहब और डिप्टी साहब को इत्तला देना जरूरी है। ज्यादा पी तो नहीं गया था ?

जोहरा-पिये हुए तो थे!

दारोगा तो कहीं गिर-गिरा पड़ा होगा ! इसने बहुत दिक किया। तो मैं जरा उधर जाता हूँ। तुम्हें पहुँचा दूँ, तुम्हारे घर तक ?

जोहरा-बड़ी इनायत होती !

दारोगा ने जोहरा को मोटर साइकिल पर बिठा लिया और उसको जरा देर में घर के दरवाजे पर उतार दिया; मगर इतनी देर में मन चंचल हो गया। बोले-अब तो जाने का जी नहीं चाहता ज़ोहरा ! चलो, आज कुछ गप-शप हो। बहुत दिन हुए, तुम्हारी करम की निगाह नहीं हुई।

जोहरा ने जीने के ऊपर एक कदम रखकर कहा-जाकर पहले इंसपेक्टर साहब को इत्तला तो कीजिए। यह गप-शप का मौका नहीं है। दारोगा ने मोटर साइकिल से उतरकर कहा-नहीं, अब न जाऊँगा, जोहरा। सुबह देखी जायगी। मैं भी आता हूँ।

जोहरा-आप मानते नहीं है। शायद डिप्टी साहब आते हों। आज उन्होंने कहला भेजा था।

दारोगा-मुझे चकमा दे रही हो, जोहरा ? देखो, इतनी बेवफ़ाई अच्छी नहीं।

जोहरा ने ऊपर चढ़कर द्वार बन्द कर लिया और ऊपर जाकर खिड़की से सिर निकालकर बोली-आदाब अर्ज!

४९

दारोगा घर जाकर लेट रहे। ग्यारह बज रहे थे। नींद खुली तो आठ बज गये थे। उठकर बैठे ही थे, कि टेलीफ़ोन पर पुकार हुई। जाकर सुनने लगे, डिप्टी साहब बोल रहे थे-इस रमानाथ ने बड़ा गोलमाल कर दिया
[ ३१७ ]


है। उसे किसी दूसरी जगह ठहराया जायगा। उसका सब सामान कमिश्नर साहब के पास भेज देना होगा। रात को वह बंगले पर था या नहीं?

दारोगा ने कहा-जी नहीं, रात मुझसे बहाना करके अपनी बीबी के पास चला गया था।

टेलीफ़ोन-तुम उसको क्यों जाने दिया ? हमको ऐसा डर लगता है, कि उसने जज से सब हाल कह दिया ! मुकदमा का जाँच फिर से होगा। आपसे बड़ा भारी 'ब्लंडर' हुआ है। सारा मेंहनत पानी में फिर गया। उसको जबरदस्ती रोक लेना चाहिए था।

दारोगा-तो क्या वह जज साहब के पास गया था ?

डिप्टी-हाँ साहब, वहीं गया था; और जज भी कायदा को तोड़ दिया। वह फिर से मुकदमा का पेशी करेगा। रमा अपना बयान बदलेगा। अब इसमें कोई 'डाउट' नहीं है। और यह सब आपका 'बंगलिंग' है। हम सब उस बाढ़ में बह जायेगा। जोहरा भी दगा दिया।

दारोगा उसी वक्त रमानाथ का सब सामान लेकर पुलिस कमिश्नर के बंगले की तरफ चले। रमा पर ऐसा गुस्सा आ रहा था, कि पायें तो समूचा ही निगल जायें ! कम्बख्त को कितना समझाया, कैसी-कैसी खातिर की; पर दगा कर ही गया। इसमें जोहरा की भी सांठ-गांठ है। बीबी को डांट फटकार करने का महज बहाना था। हिरा बेगम की तो आज ही खबर लेता हूँ। कहाँ जाती है। देवीदीन से भी समझूँगा।

एक हफ्ते तक पुलिस-कर्मचारियों में जो हलचल रही उसका जिक्र करने की कोई जरूरत नहीं। रात-की-रात और दिन-के-दिन इसी फिक्र में चक्कर खाते रहते थे। अब मुकदमे से कहीं ज्यादा अपनी फिक्र थी। सबसे ज्यादा घबराहट दारोगा को थी। बचने की कोई उम्मीद नहीं नजर आती थी। इंसपेक्टर और डिप्टी-दोनों ने सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल दी और खुद बिलकुल अलग हो गये।

इस मुकदसे की फिर पेशी होगी, इसकी सारे शहर में चर्चा होने लगी। अँगरेजी न्याय के इतिहास में यह घटना सर्वथा अभूतपूर्व थी। कभी ऐसा नहीं हुआ। वकीलों में इस पर कानूनी बहसे होतीं। जज साहब ऐसा कर भी सकते हैं ? मगर जज दृढ़ था। पुलिसवालों ने बड़े-बड़े जोर लगाये। [ ३१८ ]पुलिस कमिश्नर ने यहांँ तक कहा कि इससे सारा पुलिस विभाग बदनाम हो जायगा, लेकिन जज ने किसी की न सुनी। झुठे सबूतों पर पन्द्रह आदमियों की जिन्दगी बरबाद करने की : जिम्मेदारी सिर पर लेना उसकी आत्मा के लिए असह्य था। उसने हाईकोर्ट को सूचना दी और गवर्नमेंट को भी।

इधर पुलिसवाले रात-दिन रमा की तलाश में दौड़-धूप करते रहते थे, लेकिन रमा न जाने कहां जा छिपा था, कि उसका पता ही न चलता था।

हफ्तों सरकारी कर्मचारियों में लिखा-पढ़ी होती रही। मानों कागज स्याह कर दिये गये। उधर समाचार पत्रों में इस मामले पर नित्य आलोचना होती रहती थी। एक पत्रकार ने जालपा से मुलाकात की, और उसका बयान छाप दिया- दूसरे जोहरा का बयान छाप दिया। इन दोनों बयानों ने पुलिस की वखिया उधेड़ दी। जोहरा ने तो लिखा कि मुझे पचास रुपये रोज इसलिए दिये जाते थे कि रमानाथ को बहलाती रहूँ और कुछ सोचने या विचार करने का अवसर न मिले। पुलिस ने इन बयानों को पढ़ा, तो दांँत पीस लिये। जोहरा और जालपा, दोनों कहीं और जा छिपी, नहीं तो पुलिस ने जरूर उनको शरारत का मजा चखाया होता।

आखिर दो महीने के बाद फैसला हुआ। इस मुकदमे पर विचार करने के लिए एक सिविलियन नियुक्त किया गया। शहर के बाहर एक बंँगले में विचार शुरू हुआ, जिसमें ज्यादा भीड़-भाड़ न हो। फिर भी रोज दस-बारह हजार आदमी जमा हो जाते थे। पुलिस ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, कि मुलजिमों में कोई मुखबिर बन जाय, पर उसका उद्योग सफल न हुआ। दारोगा जी चाहते तो नई शहादतें बना सकते थे, पर अपने अफसरों की स्वार्थपरता पर वह इतने खिन्न हुए कि दूर से तमाशा देखने के सिवा और कुछ न किया। जब सारा यश अफसरों को मिलता है और सारा अपयश मातहतों को, तो दारोगाजी को क्या ग़रज पड़ी थी कि नई शहादतों की फ़िक्र में सिर खपाते। इस मुआमले में अफसरों ने सारा दोष दरोगा ही के सिर मढ़ा। उन्हीं की लापवाही से रमानाथ हाथ से निकला। अगर ज्यादा सख्ती से निगरानी की जाती, तो जालपा कैसे उसे खत लिख सकती, और यह कैसे रात को उससे मिल सकता। [ ३१९ ]
ऐसी दशा में मुकदमा उठा लेने के सिवा और क्या किया जा सकता था ! तबेले की बला बन्दर के सिर गयी। दारोगा तनज्जुल हो गये और नायब-दारोगा का तराई में तबदला कर दिया गया।

जिस दिन मुलजिमों को छोड़ा गया, आधा शहर उनका स्वागत करने को जमा था। पुलिस ने दस बजे रात को उन्हें छोड़ा, पर दर्शक जमा हो ही गये। लोग जालपा को भी खींच ले गये। पीछे-पीछे देवीदीन भी पहुंचा। जालपा पर फूलों की वर्षा हो रही थी और 'जालपा देवी की जय !' से आकाश गूंज रहा था।

मगर रमानाथ की परीक्षा अभी समाप्त न हुई थी। उन पर दरोगबयानी का अभियोग चलाने का निश्चय हो गया।

५०

उसी बंगले में ठीक दस बजे मुकदमा पेश हुआ। सावन की झड़ी लगी हुई थी। कलकत्ता दलदल हो रहा था, लेकिन दर्शकों का एक अपार समूह सामने मैदान में खड़ा था। महिलाओं में दिनेश की पत्नी और माता भी आयी हुई थीं। पेशी से दस-पन्द्रह मिनट पहले जालपा और जोहरा भी बन्द गाड़ियों में आ पहुँचें। महिलाओं को अदालत के कमरे में जाने की आज्ञा मिल गयी।

पुलिस की शहादतें शुरू हुईं। डिप्टी सुपरिटेंडेंट, इंसपेक्टर, दारोगा, नायाब दारोगा-सभी के बयान हुए। दोनों तरफ के वकीलों ने जिरहें भी की, पर इन कार्रवाइयों में उल्लेखनीय कोई बात न थी। जाब्ते की पाबन्दी की जा रही थी। पर इनके बाद रमानाथ का बयान हुआ, पर उसमें भी कोई नई बात न थी। उसने अपने जीवन के गत एक वर्ष का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। कोई बात न छिपाई। वकील के पूछने पर उसने कहा—— जालपा के त्याग, निष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आँखें खोली, और उससे भी ज्यादा जोहरा के सौजन्य और निष्कपट व्यवहार ने। मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूँ, कि मुझे उस तरफ़ से प्रकाश मिला, जिधर से औरों को अन्धकार मिलता है। विष में मुझे सुधा प्राप्त हो गयी।

इसके बाद सफ़ाई की तरफ से देवीदीन, जालपा और जोहरा के बयान हुए। वकीलों ने इनसे भी सवाल किया, पर सच्चे गवाह क्या उखड़ते। [ ३२० ]जोहरा का बयान बहुत ही प्रभावोत्पादक था। उसने कहा, जिस प्राणी को जंजीरों से जकड़ने के लिए वह भेजी गयी है, वह खुद दर्द से तड़प रहा है, उसे मरहम की जरूरत है, जंजीरों की नहीं। वह सहारे का हाथ चाहता है. धक्के का झोंका नहीं। जालपा देवी के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका अटल विश्वास देखकर मैं अपने को भूल गयी। मुझे अपनी नीचता, अपनी स्वार्थान्धता पर लज्जा आयी ! मेरा जीवन कितना अधम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक्त खुला, और जब मैं जालपा से मिली तो उसकी निष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहे-सहे संस्कार भी मिट गये। विलास युक्त जीवन से मुझे घृणा हो गयी। मैंने निश्चय कर लिया, इसी अंचल में मैं भी आश्रय लूंगी।

मगर इससे भी ज्यादा मार्के का बयान जालपा का था। उसे सुनकर दर्शकों की आँखों में आंसू आ गये। उसके अन्तिम शब्द थे-मेरे पति निर्दोष हैं। ईश्वर की दृष्टि में ही नहीं, नीति की दृष्टि में भी वह निर्दोष हैं। उनके भाग्य में मेरी विलासासक्ति का प्रायश्चित करना लिखा था, वह उन्होंने किया। वह बाजार से मुंँह छिपाकर भागे। उन्होंने मुझ पर अगर कोई अत्याचार किया, तो वह यही कि मेरी इच्छाओं को पूरा करने में उन्होंने सदैव कल्पना से काम लिया। मुझे प्रसन्न करने के लिये, मुझे सुखी रखने के लिये उन्होंने अपने ऊपर बड़े-से-बड़े भार लेने में कभी संकोच नहीं किया। वह यह भूल गये कि विलास-वृत्ति संतोष करना नहीं जानती। जहाँ मुझे रोकना उचित था वहां उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया, और इस अवसर पर भी मुझे पूरा विश्वास है, मुझ पर अत्याचार करने की धमकी देकर ही उनकी जबान बन्द की गयी। अगर अपराधिनी हूँ, तो मैं हूँ, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट झेलने पड़े। मानती हूँ कि मैंने उन्हें अपना बयान बदलने के लिये मजबूर किया। अगर मुझे विश्वास होता वह डाकों में शरीक हुए, तो सबसे पहले मैं उनका तिरस्कार करती। मैं यह नहीं सह सकती थी, कि वह निरपराधियों की लाश पर अपना भवन खड़ा करें। जिन दिनों यहाँ डाके पड़े, उन तारीखों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे। अदालत चाहे तो टेलीफोन द्वारा इसका जांँच कर सकती है। अगर जरूरत हो, तो म्युनिसिपिल बोर्ड के अधिकारियों का बयान लिया जा सकता है। [ ३२१ ]ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य इसके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता था जो मैंने किया।

अदालत ने सरकारी वकील से पूछा --क्या प्रयाग से इस मुआमले की कोई रिपोर्ट मांँगी गयी थी! वकील ने कहा--जी हाँ; मगर हमारा उस विषय पर कोई विवाद नहीं है।

सफ़ाई के वकील ने कहा-इससे यह तो सिद्ध हो जाता है, कि मुलजिम डाके में शरीक नहीं था। अब केवल यह बात रह जाती है कि वह मुखबिर क्यों बना?

बादी वकील-स्वार्थ सिद्धि के सिवा और क्या हो सकता है। सफ़ाई का वकील-मेरा कथन है, उसे धोखा दिया गया और जब उसे मालूम हो गया कि जिस भय से उसने पुलिस के हाथों की कठपुतली बनना स्वीकार किया था, वह उनका भ्रम था, तो उसे धमकियांँ दी गयीं।

अब सफाई का कोई गवाह न था। सरकारी वकील ने बहस शुरू की - योर ऑनर, आज आपके सम्मुख एक ऐसा अभियोग उपस्थित हुआ है जैसा सौभाग्य से बहुत कम हुआ करता है। आपको जनकपुर की डकैती का हाल मालूम है। जनकपुर के आस-पास कई गाँव में लगातार डाके पड़े और पुलिस डकैतों की खोज करने लगी। महीनों पुलिस कर्मचारी अपनी जान हथेली पर लिये, डकैतों को ढूंढ़ निकालने की कोशिश करते रहे। आखिर उनकी मेहनत सफल हुई और डाकुओं की खबर मिली। यह लोग एक घर के अन्दर बैठे पाये गये। पुलिस ने एक बार में सबों को पकड़ लिया, लेकिन आप जानते है, ऐसे मामलों में अदालतों के लिए सबूत पहुँचाना कितना मुश्किल होता है। जनता इन लोगों से कितना डरती है, प्राणों के भय से शहादत देने को तैयार नहीं होती। यहाँ तक कि जिनके घरों में डाके पड़े थे, वे भी शहादत देने का अवसर पाया तो साफ़ निकल गये।

महानुभावों, पुलिस इसी उलझन में पड़ी हुई थी कि एक युवक आता है और इन डाकुओं का सरगना होने का दावा करता है। वह उन डकैतियों का ऐसा सजीव, ऐसा प्रमाण पूर्ण वर्णन करता है, कि पुलिस धोखे में आ जाती है। पुलिस ऐसे अवसर पर ऐसा आदमी पाकर इसको दैवी मदद [ ३२२ ]समझती है। यह युवक इलाहाबाद से भाग आया था और यहाँ भूखों मरता था। अपने भाग्य निर्माण का सुअवसर पाकर उसने उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करने का निश्चय कर लिया। मुखबिर बनकर सजा का तो उसे कोई भय था ही नहीं, पुलिस की सिफारिश से कोई अच्छी नौकरी पा जाने का विश्वास था। पुलिस ने उसका खूब आदर-सत्कार लिया और उसे अपना मुखबिर बना लिया। बहुत सम्भव था, कि कोई शहादत न पाकर पुलिस इन मुलजिमों को छोड़ देती और उनपर कोई मुकदमा नहीं चलाती पर इस युवक के चकमे में आकर उसने अभियोग चलाने का निश्चय कर लिया। उसमें चाहे और कोई गुण हो या न हो, उसकी रचना शक्ति की प्रखरता से इनकार नहीं किया जा सकता। उसने डकैतियों का ऐसा यथार्थ वर्णन किया, कि जंजीर की एक कड़ी भी कहीं से गायब न थी। अंकुर से फल निकलने तक की सारी बातों की उसने कल्पना कर ली थी। पुलिस ने मुकदमा चला दिया।

पर ऐसा मालूम होता है, कि इस बीच में उसे सौभाग्य-निर्माण का इससे भी अच्छा अवसर मिल गया। बहुत सम्भव है, सरकार की विरोधिनी संस्थाओं ने उसे प्रलोभन दिये हों और उन प्रलोभनों ने स्वार्थ-सिद्धि का यह नया रास्ता सुझा दिया हो, जहाँ धन के साथ यश भी था, वाह-वाही भी थी; देशभक्ति का गौरव भी था। वह अपने स्वार्थ के लिये सब कुछ कर सकता है ! वह स्वार्थ के लिए किसी के गले पर छुरी चला सकता है और साधु-वेश भी धारण कर सकता है। यही उसके जीवन का लक्ष्य है। हम खुश हैं, कि उसकी सद्बुद्धि ने अन्त में उस पर विजय पायी, चाहे उसका हेतु कुछ भी क्यों न हो। निरपराधियों को दण्ड देना पुलिस के लिए उतना ही आपत्तिजनक है, जितना अपराधियों को छोड़ देना। वह अपनी कारगुजारी दिखाने के लिए ही ऐसे मुकदमे नहीं चलाती। न गवर्नमेंट इतनी न्याय शून्य है, कि वह पुलिस के बहकावे में आकर सारहीन मुकदमे चलाती फिरे; लेकिन इस युवक को चकमेबाजियों से पुलिस की जो बदनामी हुई और सरकार के हजारों रुपये खर्च हो गये, इसका जिम्मेदार कौन है ? ऐसे आदमी को आदर्श दण्ड मिलना चाहिए, ताकि फिर किसी को ऐसी चकमेबाजी का साहस न हो। ऐसे मिथ्या का संसार रचनेवाले प्राणी को मुक्त रहकर समाज को ठगने का [ ३२३ ]मार्ग बन्द कर देना चाहिए। उसके लिए इस समय सबसे उपयुक्त स्थान वह है, जहाँ उसे कुछ दिन आत्म-चिन्तन का अवसर मिले। शायद वहाँ के एकान्तवास में उसको आन्तरिक जागृति प्राप्त हो जाय। आपको केवल यह विचार करना है, कि उसने पुलिस को धोखा दिया या नहीं। इस विषय में अब कोई सन्देह नहीं रह जाता, कि उसने धोखा दिया। अगर धमकियाँ दी गयी थीं तो वह पहली अदालत के बाद जज की अदालत में अपना बयान वापस ले सकता था; पर उस बार भी उसने ऐसा नहीं किया। इससे यह स्पष्ट है, कि धमकियों के आक्षेप मिथ्या है। उसने जो कुछ किया, स्वेच्छा से किया। ऐसे आदमी को यदि दण्ड न दिया गया, तो उसे अपनी कुटिल नीति से काम लेने का फिर साहस होगा और उसकी हिंसक मनोवृत्तियां और भी बलवान हो जायेंगी।

फिर सफ़ाई के वकील ने जवाब दिया-यह मुकदमा अँगरेज़ी इतिहास ही में नहीं, शायद सार्वदेशीय न्याय के इतिहास में एक अद्भुत घटना है। रमानाथ एक साधारण युवक है। उसकी शिक्षा भी बहुत मामूली हुई है। वह ऊँचे विचारों का आदमी नहीं है। वह इलाहाबाद के म्युनिसिपल आफिस में नौकर है। वहाँ उसका काम चुंगी के रुपये वसूल करना है। वह व्यापारियों से प्रथानुसार रिश्वत लेता है। और अपनी आमदनी की परवाह न करता हुआ अनाप-शनाप खर्च करता है। आखिर एक दिन मीज़ान में गलती हो जाने से उसे शंका होती है, कि उससे कुछ रुपये उठ गये। वह इतना घबरा जाता है, कि किसी से कुछ नहीं कहता, बस घर से भाग खड़ा होता है। वहाँ दफ्तर में उसपर सुबहा होता है और उसके हिसाब की जाँच होती है। तब मालूम होता है, कि उसने कुछ गबन नहीं किया, सिर्फ हिसाब की भूल थी।

फिर रमानाथ के पुलिस के पंजे में फंसने, फरजी मुखबिर बनने और शहादत देने का जिक्र करके उसने कहा--

अब रमानाथ के जीवन में एक नया परिवर्तन होता है, ऐसा परिवर्तन जो एक विलास-प्रिय, पदलोलुप युवक को धर्मनिष्ठ और कर्तव्यशील बना देता है। उसकी पत्नी जालपा, जिसे देवी कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी, उसकी तलाश में प्रयाग से यहाँ आती है और यहाँ जब उसे मालूम होता है, कि रमा एक मुकदमे में पुलिस का मुखबिर हो गया है, तो वह उससे [ ३२४ ]छिपकर मिलने जाती है। रमा अपने बंँगले में आराम से पड़ा हुआ है। फाटक पर सन्तरी पहरा दे रहा है। जालपा को पति से मिलने में असफलता नहीं होती। तब वह एक पत्र लिखकर उसके सामने फेंक देती है। और देवीदीन के घर चली जाती है। रमा यह पत्र पढ़ता है और उसकी आँखों के सामने से परदा हट जाता है। वह छिपकर जालपा के पास आता है। जालपा उससे सारा वृत्तान्त कह सुनाती है और उससे अपना बयान वापस लेने पर जोर देती है। रमा पहले शंकाएँ करता है। पर बाद में राजी हो जाता है और बँगले पर लौट जाता है। वहाँ वह पुलिस अफसरों से साफ कह देता है, कि मैं अपना बयान बदल दूंगा। अधिकारी उसे तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं, पर जब इसका रमा पर कोई असर नहीं होता और उन्हें मालूम हो गया कि उस पर गबन का मुकदमा नहीं है, तो वे उसे जालपा को गिरफ्तार करने की धमकी देते हैं। रमा की हिम्मत टूट जाती है। वह जानता है, पुलिस जो चाहे कर सकती है, इसलिए वह अपना इरादा तबदील कर देता है। और जज के इजलास में अपने पहले बयान का समर्थन कर देता है। अदालत मातहत में रमा से सफाई ने जिरह नहीं किया था। वहाँ उससे जिरह की गयी; लेकिन इस मुकदमें से कोई सरोकार न रखने पर भी उसने जिरहों के ऐसे जवाब दिये, कि जज को भी शक न हो सका और मुलजिमों की सजा हो गयी। रमानाथ की और भी खातिरदारियां होने लगीं। उसे एक सिफारिशी खत दिया गया और शायद उसकी यू०पी० गवर्नमेंट से सिफरिश भी की गयीं।

फिर जालपा देवी ने फांँसी की सजा पाने वाले मुलजिम दिनेश के बाल-बच्चों का पालन-पोषण करने का निश्चय किया। इधर-उधर से चन्दे माँग-मांग कर वह उनके लिए जिन्दगी की जरूरतें पूरी करती थीं, उनके घर का काम-काज अपने हाथों करती थी, उनके बच्चों को खेलाने को ले जाती थीं।

एक दिन रमानाथ मोटर पर सैर करता हुआ जालपा को सिर पर एक पानी का मटका रखे देख लेता है। उसकी आत्म-मर्यादा जाग उठती है। जोहरा को पुलिस-कर्मचारियों ने रमानाथ के मनोरंजन के लिए नियुक्त कर दिया है। जोहरा युवक की मानसिक वेदना देखकर द्रवित हो जाती है [ ३२५ ]


और वह जालपा का पूरा समाचार लाने के इरादे से चली जाती है। दिनेश के घर उसकी जालपा से भेंट होती है। जालपा का त्याग, सेवा और साधना देखकर हम वेश्या का हृदय इतना प्रभावित हो जाता है, कि वह अपने जीवन पर लज्जित हो जाती है और दोनों में बहनापा हो जाता है। वह एक सप्ताह के बाद आकर रमा से सारा वृत्तान्त कह सुनाती है। वह उसी वक्त वहाँ से चल पड़ता है और जालपा से दो-चार बातें करके जज के बँगले पर चला जाता है। उसके बाद जो कुछ हुआ, वह हमारे सामने है।

  मैं यह नहीं कहता, कि उसने झूठी गवाही नहीं दी; लेकिन उस परिस्थिति और उन प्रलोभनों पर ध्यान दीजिए, तो इस अपराध की गहनता बहुत कुछ घट जाती है। उस झूठी गवाही का परिणाम अगर यह होता, कि किसी निरपराध को सजा मिल जाती तो दूसरी बात थी। इस अवसर पर तो पन्द्रह युवकों की जान बच गई। क्या अब भी वह झूठी गवाहों का अपराधी है? उसने खुद ही तो अपनी झूठी गवाही का एकबाल किया है। क्या इसका उसको दण्ड मिलना चाहिए ? उसकी सरलता और सज्जनता ने एक वेश्या तक को मुग्ध कर दिया और वह उसे बहकाने और कहलाने के बदले उसके मार्ग का दीपक बन गयी। जालपा देवी की कर्तव्यपरायणता क्या दण्ड के योग्य है ? जालपा ही इस ड्रामा की नायिका है। उसी के सदनुराग, उसके सरल प्रेम, उसकी धर्मपरायणता, उसकी पतिभक्ति, उसके स्वार्थ त्याग, उसकी सेवा-निष्ठा, किस-किस गुण की प्रशंसा की जाय ! आज वह रंग-मंच पर न आती, तो पन्द्रह परिवारों के चिराग गुल हो जाते। उसने पन्द्रह परिवारों को अभय-दान दिया है। उसे मालूम था, कि पुलिस का साथ देने से सांसारिक भविष्य कितना उज्ज्वल हो जायेगा. वह जीवन की कितनी ही चिन्ताओं से मुक्त हो जायगी। सम्भव है, उसके पास भी मोटरकार हो जायेगी, नौकर-चाकर हो जायेंगे, अच्छा-सा घर हो जायेगा, बहुमूल्य आभूषण होंगे। क्या एक युवती रमणी के हृदय में इन सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है ? लेकिन वह यातना सहने के लिए तैयार हो जाती है। क्या यही उसके धर्मानुराग का उपहार होगा कि वह पतिवंचित होकर जीवन-पथ पर भटकती फिरे ? एक साधारण स्त्री में जिसने उच्चकोटि की शिक्षा नहीं पाई, क्या इतनी निष्ठा, इतना त्याग, इतना
[ ३२६ ]विमर्ष किसी देवी प्ररणा का परिचायक नहीं है ? क्या एक पतिता का ऐसे कार्य में सहायक हो जाना कोई महत्व नहीं रखता? मैं तो समझाता हूँ, रखता है। ऐसे अभियोग रोज नहीं पेश होते। शायद आप लोगों को अपने जीवन में फिर ऐसा अभियोग सुनने का मौका न मिले। यहाँ आप एक अभियोग का फैसला करने बैठे हुए हैं। मगर इस कोर्ट के बाहर एक और बहुत बड़ा न्यायलय है, जहाँ आप लोगों के न्याय पर विचार होगा। जालपा का वहीं फैसला न्यायानुकूल होगा जिसे बाहर का विशाल न्यायालय स्वीकार करे। न्यायालय कानून की बारीकियों में नहीं पड़ता, जिसमें उलझकर, जिनकी पेचीदगियों में फंसकर, हम अक्सर पथ-भ्रष्ट हो जाया करते हैं, अक्सर दूध का पानी और पानी का दूध कर बैठते हैं। अगर आप झूठ पर पश्चाताप करके सच्ची बात कह देने के लिए, भोग-विलासमुक्त जीवन व्यतीत करने के लिए किसी को अपराधी ठहराते हैं, तो आप संसार के सामने न्याय का कोई ऊंचा आदर्श नहीं उपस्थित कर रहे हैं। सरकारी वकील ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा-धर्म और आदर्श अपने स्थान पर बहुत ही आदर की चीजें हैं, लेकिन जिस आदमी ने जान बूझकर झूठी गवाही दी, उसने अपराध अवश्य किया। और इसका उसे दंड मिलना चाहिये। यह सत्य है, कि उसने प्रयाग में कोई ग़बन नहीं किया था और उसे इसका भ्रम मात्र था; लेकिन ऐसी दशा में एक सच्चे आदमी का यह कर्तव्य था, कि वह गिरफ्तार हो जाने पर अपनी सफ़ाई देता। उसने सजा के भय से झूठी गवाही देकर पुलिस को क्यों धोखा दिया? यह विचार करने की बात है।

अगर आप समझते है, कि उसने अनुचित काम किया, तो आप उसे अवश्य दण्ड देंगे।

अब अदालत के फैसला सुनाने की बारी आयी। सभी को रमा से सहानुभूति हो गयी थी, पर इसके साथ ही यह भी मानी हुई बात थी कि उसे सजा होगी। क्या सजा होगी, यही देखना था। लोग बड़ी उत्सुकता से फैसला सुनने के लिए और सिमट गये, कुर्सियांँ और आगे खींच ली गयीं, और कनबतियाँ भी बन्द हो गयीं।

'मुआमला केवल यह है, कि एक युवक ने अपनी प्राण-रणा के लिए [ ३२७ ]पुलिस का आश्रय लिया और जब उसे मालूम हो गया कि जिस भय से वह पुलिस का आश्रय ले रहा है वह सर्वथा निर्मूल है, तो उसने अपना बयान वापस ले लिया। रमानाथ में अगर सत्यनिष्ठा होती, तो वह पुलिस का आश्रय ही क्यों लेता; लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पुलिस ने उसे रक्षा का यह उपाय सुझाया और इस तरह से झूठी गवाही देने का प्रलोभन दिया। मैं यह नहीं मान सकता कि इस मुआमले में गवाही देने का प्रस्ताव स्वतः उसके मन में पैदा हो गया। उसे प्रलोभन दिया गया, जिसे उसने दंड भय से स्वीकार कर लिया। उसे यह विश्वास दिलाया गया होगा, कि जिन लोगों के विरुद्ध उसे गवाही देने के लिये तैयार किया जा रहा था, वे वास्तव में अपराधी थे, क्योंकि रमानाथ में जहां दण्ड का भय है, वहाँ न्याय-भक्ति भी है। वह उन पेशेवर गवाहों में नहीं है, जो स्वार्थ के लिए निरपराधियों को फंसाने से भी नहीं हिचकते। अगर ऐसी बात न होती, तो वह अपनी पत्नी के आग्रह से बयान बदलने पर कभी राजी न होता। यह ठीक है कि पहली अदालत के बाद ही उसे मालूम हो गया था, कि उस पर गबन का कोई मुकदमा नहीं है और जज की अदालत में वह अपने बयान को वापस ले सकता था। उस वक्त उसने यह इच्छा प्रकट भी अवश्य की; पर पुलिस की धमकियों ने फिर उस पर विजय पाई। पुलिस का बदनामी से बचने के लिए इस अवसर पर उसे धमकियां देना स्वाभाविक है, क्योंकि पुलिस को मुलजिमों के अपराधी होने के विषय में कोई सन्देह न था। रमानाथ धमकियों में आ गया, यह उसकी दुर्बलता अवश्य है; पर परिस्थिति को देखते हुए क्षम्य है। इसलिए मैं रमानाथ को बरी करता हूँ।'

चैत्र की शीतल, सुहावनी, स्फूर्तिमयी सन्ध्या, गंगा का तट, टेसुओं से लहलहाता हुआ ढाक का मैदान, बरगद का छायादार वृक्ष, उसके नीचे बँधी हुई गाय-भैंसे, कददू और लौकी की बेलों से लहराती हुई झोंपड़ियों, न कहीं गर्द न गुबार, न शोर न गुल, सुख और शान्ति के लिए क्या इससे भी अच्छी जगह हो सकती है ? नीचे स्वस्यमयी गंगा लाल, काले, नीले आवरण से चमकती हुई, मन्द स्वरों में गाती, कहीं लपकती, कहीं झिझकती, कहीं चपल, कहीं गम्भीर अनन्त अन्धकार की ओर चली जा रही है, जैसे बहुरंजित बालस्मृति [ ३२८ ]कोड़ा और विनोद की गोद में खेलती हुई, चिन्तामय, संघर्षमय, अंधकारमय भविष्य की ओर चली जा रही हो। देवी और रमा ने यहीं प्रयाग के समीप आकर आश्रय लिया है।

तीन साल गुजर गये हैं, देवीदीन ने जमीन ली, बाग लगाया, खेती जमाई, गाय-भैसें खरीदी और कर्मयोग में, अविरत उद्योग में, सुख, सन्तोष और शान्ति का अनुभव कर रहा है। उसके मुँह पर अब वह जर्दी, वह झुर्रियाँ नहीं हैं, बल्कि एक नई स्फूर्ति, एक नई कान्ति झलक रही है।

शाम हो गयी है, गायें, भैसें हार से लौटीं। जग्गो ने उन्हें खूंटे से बांधा और थोड़ा-थोड़ा भूसा लाकर उनके सामने डाल दिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डाँठ लादे हुए आ पहुँचे। दयानाथ ने बरगद के नीचे जमीन साफ कर रखी है। वहीं डांठे उतारी गयीं। यही इस छोटी-सी बस्ती का खलिहान है। दयानाथ नौकरी से बरखास्त हो गये थे और अब देवी के असिस्टेंट हैं। उनको समाचार-पत्रों से अब भी वही प्रेम है, रोज कई पत्र पाते हैं, और शाम को फुर्सत पाने के बाद मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझाते हैं। श्रोताओं में बहुधा आस-पास के गांवों के दस-पाँच आदमी भी आ जाते हैं और रोज एक छोटी-मोटी सभा हो जाती है।

रमा को इस जीवन से इतना अनुराग हो गया है, कि अब शायद उसे थानेदारी ही नहीं, चुंगी इंसपेक्टरी भी मिल जाय, तो शहर का नाम न ले। प्रातःकाल उठकर गंगा-स्नान करता है, फिर कुछ कसरत करके दूध पीता है और दिन निकलते-निकलते अपनी दवाओं का सन्दूक लेकर आ बैठता है। उसने बैद्यक की कई किताबें पढ़ ली हैं और छोटी-मोटी बीमारियों की दवा दे देता है। दस-पांच मरीज रोज आ जाते हैं, और उसकी कीर्ति दिन दिन बढ़ती जाती है। इस काम से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है, वहाँ कुछ साग-भाजी भी लगी है, कुछ फल-फूलों के वृक्ष हैं और कुछ जड़ी-बूटियां हैं। अभी तो बाग से केवल तरकारी मिलती है; पर आशा है कि तीन-चार साल में नीबू, अमरूद, बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आदि फलों की अच्छी आमदनी होने लगेगी।

देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूँटे से बांध दिया और दयानाथ से बोला- अभी भैया नहीं लौटे ? [ ३२९ ]

दयानाथ ने डाँठों को समेटते हुए कहा- अभी तो नहीं लौटे। मुझे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं है, जमाने का फेर है। कितने सुख से रहती थीं। गाड़ी थी, मोटर थी, बंगला था, दर्जनों नौकर थे। अब यह हाल है। सामान सब मौजूद है,वकील साहब ने अच्छी सम्पत्ति छोड़ी थी; मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली।

देवी०-भैया कहते थे, अदालत करतीं तो सब मिल जाता, पर कहती हैं, मैं झूठ अदालत में न बोलूँगी। औरत बड़े ऊँचे विचार की है।

सहसा रामेश्वरी एक छोटे-से शिशु को गोदी में देती हुई देवीदीन से बोली- भैया, जरा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। जोहरा और बहू दोनों रो रही हैं। बच्चा जाने कहाँ रह गये ?

देवीदीन ने दयानाथ से कहा-चलो लाला देखें।

रामेश्वरी बोली—यह जाकर क्या करेंगे,बीमार को देखकर इनकी नानी पहले ही मर जाती है।

देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा-रतन बाँस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गयी थी। वह सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पन्दन प्रदान कर रखा था, उड़ गये थे; केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय प्राण-पद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ सङ्गोत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गयी थी। जोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करूण, विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नेत्रों से देख रही थी। आज साल-भर से उसने रतन की सेवा शुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले निःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह किस तरह मानती। जो सहानुभूति उसे जालपा से भी न मिली, वह रतन ने प्रदान की। दुःख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया, दोनों की आत्माएँ संयुक्त हो गयीं। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मैत्री में उसके वंचित हृदय ने पति-प्रेम और पुत्र-स्नेह दोनों ही पा लिया। [ ३३० ]

देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिन्त नेत्रों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ में लेकर पूछा-कितनी देर से नहीं बोली ?

जालपा ने आँखें पोंछकर कहा—अभी तो बोलती थीं। एकाएक आँखें ऊपर चढ़ गयीं और बेहोश हो गयीं। वैद्य जी को लेकर अभी तक नहीं आये?

देवीदीन ने कहा-इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है !

यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख ली; रतन के सिर पर हाथ फेरा, मुंह में बुदबूदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा-रतन बेटी, आँखें खोलो !

रतन ने आंखें खोल दी और इधर-उधर सकपकाई हुई आँखों से देखकर बोली- मेरी मोटर आई थी न? कहाँ गया वह आदमी ? उससे कह दो थोड़ी देर के बाद लाये। जोहरा, आज मैं तुम्हें अपने बगीचे की सैर कराऊँगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।

जोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी अपने आँसुओं के वेग को न रोक सकी।रतन एक क्षण तक छत की ओर ताकती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुसकराहट के साथ बोली-मैं सपना देख रही थी दादा ?

लोहित आकाश पर कालिमा का पर्दा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया।

रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर-रात को लौटे, तो यहाँ मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय-हाय करता है, बल्कि वह शोक जिसमें हम मूक-रुदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ दिल से कभी नहीं उतरता।

रतन के बाद जोहरा अकेली हो गयी। दोनों साथ साथ सोती थीं, बैठती थीं, साथ काम करती थीं। अब अकेली जोहरा का जी किसी काम में न लगता था। कभी नदी-तट पर जाकर रतन को याद करती और रोती, कभी उन आम के पौधों के पास जाकर घंटों खड़ी रहती, जिन्हें उन दोनों ने लगाया था, मानो उसका सुहाग लुट गया हो। जालपा को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना अवकाश न मिलता था; कि उसके
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साथ बहुत उठती-बैठती; और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और रोने लगती।

भादों का महीना था। पृथ्वी और जल में रण छिड़ा हुआ था। जल की सेनाएँ वायुयान पर चढ़कर आकाश से जल-शरों की वर्षा कर रही थीं। उसकी थल सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रखा था। गंगा गाँवों और कस्बों को निगल रही थी। गाँव-के-गाँव बहते चले जाते थे। जोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह कुशांगी गंगा इतनी विशाल हो सकती है, इसका वह अनुभव भी न कर सकती थी। लहरें उन्मत्त होकर गरजती, मुँह से फेन निकालती हाथों उछल रही थीं, चतुर फिकैतों की तरह पैतरे बदल रही थीं। कभी एक कदम आगे आतीं, फिर पीछे लौट पड़ती और चक्कर खा फिर आगे को लपकतीं। कहीं कोई झोपड़ा डगमगाता तेजी से बहा जा रहा था, मानों कोई शराबी दौड़ा जाता है; कहीं कोई वृक्ष डाल-पत्तों समेत डूबता-उतराता किसी पाषाण-युग के जन्तु की भाँति तैरता चला जाता था। गायें और भैसें खाट-तस्ते मानो तिलस्मी चित्रों की भांति आँखों के सामने से निकल जाते थे।

सहसा एक किश्ती नजर आई। उस पर कई स्त्री-पुरुष बैठे थे। बैठे क्या थे, चिमटे हुए थे। किश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। उससे यही मालूम होता था, कि अब उलटी तब उलटी; पर वाह रे साहस! सब अभी भी 'गंगा माता की जय!' पुकारते जाते थे। स्त्रियाँ अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं। जीवन और मृत्यु का ऐसा संघर्ष किसने देखा होगा? दोनों तरफ़ के आदमी किनारे खड़े, एक तनाव को दशा में हृदय को दबाये खड़े थे। जब किश्ती करवट लेती, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियाँ फेंकने की कोशिश की जाती; पर रस्सी बीच ही में गिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलट ही गयी। सभी प्राणी लहरों में समा गये। एक क्षण कई स्त्री-पुरुष डूबते उतराते दिखाई दिये, फिर निगाहों से ओझल हो गये। केवल एक उजली-सी चीज किनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज तक आ गयी। समीप से मालूम हुआ, स्त्री है। जोहरा, जालपा और रमा---तीनों खड़े थे। स्त्री की गोद में एक बच्चा भी नजर आता था। दोनों को निकाल लाने के लिये
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तीनों विकल हो उठे; पर बीस गज तैरकर उस तरफ जाना आसान न था। फिर रमा तैरने में बहुत कुशल न था। कहीं लहरों के जोर में पाँव उखड़ जायँ,तो फिर बंगाल की खाड़ी के सिवा और कहीं ठिकाना न लगे।

जोहरा ने कहा---मैं जाती हूँ।

रमा ने लजाते हुए कहा---जाने को मैं तैयार हूँ; लेकिन वहाँ तक पहुँच भी सकूंगा,इसमें सन्देह है। कितना तोड़ है!

जोहरा ने एक कदम पानी में रखकर कहा---नहीं,मैं अभी निकाले लाती हूँ।

वह कमर तक पानी में चली गयी। रमा ने सशंक होकर कहा---क्यों नाहक जान देने जाती हो? वहाँ शायद एक गड्ढ़ा है। मैं तो जा ही रहा था।

जोहरा ने हाथों से मना करते हुए कहा---नहीं-नहीं,तुम्हें मेरी क़सम तुम न आना। मैं अभी लिये आती हूँ। मुझे तैरना आता है।

जालपा ने कहा---लाश होगी और क्या?

रमा॰---शायद अभी जान हो।

जालपा---अच्छा! जोहरा तो तैर भी लेती है। अभी हिम्मत हुई।

रमा ने जोहरा की ओर चिन्तित आँखों से देखते हुए कहा---हाँ, कुछ जानती तो है। ईश्वर करे लौट आये। मुझे अपनी कायरता पर लज्जा आ रही है।

जालपा ने बेहयाई से कहा---इसमें लज्जा की कौन बात है?मिरी लाश के लिए जान को जोखिम में डालने से फायदा? जीती होती तो मैं खुद तुमसे कहती जाकर निकाल लाओ।

रमा ने आत्म-धिक्कार के भाव से कहा---यहाँ से कौन जान सकता है, जान है या नहीं? सचमुच,बाल-बच्चों वाला आदमी नामर्द हो जाता है। मैं खड़ा रहा और जोहरा चली गयी।

सहसा एक जोर की लहर आयी और लाश को फिर धारा में बहा ले गयी। जोहरा लाश के पास पहुँच चुकी थी। उसे पकड़कर खींचना ही चाहती थी, कि इस लहर ने उसे दूर कर दिया। जोहरा खुद उसके जोर में आ गयी और प्रवाह की ओर कई हाथ बह गयी। वह फिर सँभली; पर एक दूसरी लहर ने उसे ढकेल दिया। [ ३३३ ]रमा व्यग्र होकर पानी में कूद पड़ा और जोर-जोर से पुकारने लगा---जोहरा जोहरा! मैं आता हूँ।

मगर जोहरा में अब लहरों से लड़ने की शक्ति न थी। वह वेग से लाश के साथ ही धारा में बही जा रही थी। उसके हाथ-पांव हिलना बन्द हो गये थे।

एकाएक ऐसा रेला आया कि दोनों ही उसमें समा गयीं। एक मिनट के बाद जोहरा के काले बाल नजर आये। केवल एक क्षण तक! यही अन्तिम झलक थी। फिर वह नजर न आयी।

रमा कोई सौ गज तक जोरों के साथ हाथ-पाँव मारता हुआ गया लेकिन इतनी ही दूर में लहरों के वेग के कारण उसका दम फूल गया। अब आगे जाय कहाँ? जोहरा का तो कहीं पता भी न था। वही आखिरी झलक आँखों के सामने थी।

किनारे पर जालपा खड़ी हाय-हाय कर रही थी। यहांँ तक कि वह भी पानी में कूद पड़ी। रमा अब आगे न बढ़ सका। एक शक्ति आगे खींचती थी, एक पीछे। आगे की शक्ति में अनुराग था, निराशा थी, बलिदान था पीछे की शक्ति में कर्तव्य था, स्नेह था, बन्धन था! बन्धन ने रोक लिया। वह लौट पड़ा।

कई मिनट तक जालपा और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ़ ताकते रहे। रमा की जबान आत्म-धिक्कार ने बन्द कर रखी थी, जालपा की शोक और लज्जा ने।

आखिर रमा ने कहा--पानी में क्यों खड़ी हो? सर्दी हो जायगी।

जालपा पानी से निकलकर तट पर खड़ी हो गयी, पर मुँह से कुछ न बोली--मृत्यु के इस आघात ने उसे पराभूत कर दिया था। जीवन कितना अस्थिर है, यह घटना आज दूसरी बार उसकी आँखों के सामने चरितार्थ हुई। रतन के मरने की पहले से आशंका थी। मालूम था कि वह थोड़े दिनों की मेहमान है; मगर जोहरा की मौत तो बज्रपात के समान थी! अभी आध घड़ी पहले तीनों आदमी प्रसन्नचित्त, जलक्रीड़ा देखने चले थे। किसे शंका थी, मृत्यु की ऐसी भीषण क्रीड़ा उनको देखनी पड़ेगी?

इन चार सालों में जोहरा ने अपनी सेवा, आत्मत्याग और सरल
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स्वभाव से सभी को मुग्ध कर लिया था। अपने अतीत को मिटाने के लिए, अपने पिछले दागों को धो डालने के लिए, उसके पास इसके सिवा और क्या साधन था। उसकी सारी कामनाएँ; सारी वासनाएँ सेवा में लीन हो गयीं। कलकत्ते में वह विलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायद कोई भला आदमी उसे अपने घर में न घुसने देता। यहाँ सभी उसके साथ अपने प्राणों का-सा व्यवहार करते थे। दयानाथ और रामेश्वरी को यह कहकर शान्त कर दिया गया था, कि वह देवीदीन की विधवा बहू है। जोहरा ने कलकत्ते में जालपा से केवल उसके साथ रहने की भिक्षा माँगी थी। उसे अपने जीवन से घृणा हो गयी थी। जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया। रतन का पवित्र निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था।

थोड़ी देर बाद रमा भी पानी से निकले और शोक में डूबे हुए घर की ओर चले। मगर अक्सर वह और जालपा नदी के किनारे आ बैठते और जहाँ जोहरा डूबी थी उस तरफ घण्टों देखा करते। कई दिनों तक उन्हें यह आशा बनी रही कि शायद जोहरा बच गयी हो और किसी तरफ़ से चली आये; लेकिन धीरे-धीरे यह क्षीण आशा शोक के रूप में खो गयी। मगर अभी तक जोहरा की सूरत उनकी आँखों के सामने फिरा करती है। उसके लगाये हुए पौधे, उसकी पाली हुई बिल्ली, उसके हाथों के सिले हुए कपड़े, उसका कमरा—--यह सब उसकी स्मृति के चिह्न हैं और उनके पास जाकर रमा की आँखों के सामने जोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती है।