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ग़बन/भाग 14

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ग़बन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ २९३ से – ३१३ तक

 

कितना कठिन हो जायगा। वह पग-पग पर अपना धर्म और सत्य लेकर खड़ी हो जायगी और उसका जीवन एक दीर्घ तपस्या, एक स्थायी साधना बनकर रह जायेगा। सात्विक जीवन कभी उसका आदर्श नहीं रहा। साधारण मनुष्यों की भांति वह भी भोग विलास करना चाहता था। जालपा की ओर से हटकर उसका विलासासक्त मन प्रबल वेग से जोहरा की ओर खिंचा। उसको व्रत-धारिणी वेश्याओं के उदाहरण याद आने लगे। उसके साथ ही चंचलवृत्ति की गृहिणियों की मिसालें भी आ पहुँची। उसने निश्चय किया, यह सब ढकोसला है, न कोई जन्म से निर्दोष है, न कोई दोषी। यह सब परिस्थिति पर निर्भर है।

जोहरा रोज आती और बन्धन में एक गांठ और देकर चली जाती। ऐसी स्थिति में संयमी युवक का आसन भी डोल जाता, रमा तो बिलासी था। अब तक वह केवल इसलिए इधर-उधर न फटक सका था, कि ज्योंही उसके पंख निकले, जालिये ने उसे अपने पिंजरे में बन्द कर दिया। कुछ दिन पिंजरे से बाहर रहकर भी उसे उड़ने का साहस न हुआ। अब उसके सामने एक नवीन दृश्य था। वह छोटा-सा कुलियोंवाला पिंजरा नहीं, बल्कि एक फूलों से लहराता हुआ बाग जहां की कैद में स्वाधीनता का आनन्द था। यह इस बाग़ में क्यों न क्रीड़ा का आनन्द उठाये !

रमा ज्यों-ज्यों जोहरा के प्रेम-पाश में फंसता जाता था, पुलिस के अधिकारी वर्ग उसकी ओर से निःशंक होते जाते थे। उसके ऊपर जो कैद लगायी गई थी, वह धीरे-धीरे ढीली होने लगी, यहाँ तक कि एक दिन डिप्टी साहब शाम को सैर करने चले तो रमा को भी मोटर पर बिठा लिया। जब मोटर देवीदीन की दुकान के सामने से होकर निकली, तो रमा ने अपना सिर इस तरह भीतर खींच लिया कि किसी की नजर न पड़ जाय ! उसके मन में बड़ी उत्सुकता हुई कि जालपा है या चली गयी; लेकिन वह अपना सिर बाहर न निकाल सका। मन में वह अब भी यही समझता था कि मैंने जो रास्ता पकड़ा है, वह कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं है। लेकिन यह जानते हुए भी वह उसे छोड़ना न चाहता था। देवीदीन को देखकर उसका मस्तक आप-ही-आप लज्जा से झुक जाता, वह किसी दलील से अपना पक्ष सिद्ध न कर सकता। उसने सोचा; मेरे लिए सबसे उत्तम मार्ग यही है कि इनसे मिलना-जुलना छोड़ दूंँ। उस शहर में तीन प्राणियों को छोड़कर किसी चौथे आदमी से उसका परिचय न था, जिसकी आलोचना या तिरस्कार का उसे भय होता !

मोटर इधर उधर घूमती हुई हावड़ा ब्रिज की तरफ़ चली जा रही थी, कि सहसा रमा ने एक स्त्री को सिर पर गंगा-जल का कलसा रखे घाटों के ऊपर आते देखा। उसके कपड़े बहुत मैले हो रहे थे और कुशांगी ऐसी थी कि कलसे के बोझ से उसकी गर्दन दबी जाती थी। उसकी चाल कुछ-कुछ जालपा से मिलती हुई जान पड़ी। सोचा, जालपा यहाँ क्या करने आवेगी ? मगर एक ही पल में कार और आगे बढ़ गयी और रमा को उस स्त्री का मुंँह दिखायी दिया। उसकी छाती धक्-से हो गयी। यह जालपा ही थी। उसने खिड़की के बगल में सिर छिपा कर गौर से देखा। बेशक जालपा थी, पर कितनी दुर्बल ! मानो कोई वृद्धा, अनाथ हो। न वह कान्ति थी, न वह लावण्य, न वह चंचलता, न वह गर्व। रमा हृदय-हीन न था, उसकी आंखें सजल हो गयी। जालपा इस दशा में और मेरे जीते जी ! अवश्य देवीदीन ने उसे निकाल दिया होगा और वह टहलनी बनकर अपना निर्वाह कर रही होगी। नहीं देवीदीन इतना बेमुरौवत नहीं है। जालपा ने खुद उसके आश्रय में रहना स्वीकार न किया होगा। मानती तो है ही नहीं। कैसे मालूम हो क्या बात है?

मोटर दूर निकल आयी थी। रमा की सारी चंचलता, सारी भोग-लिप्सा गायब हो गयी थी। मलिन-वसना, दुःखिनी जालपा की वह मूर्ति आँखों के सामने खड़ी भी। किससे कहे ? क्या कहे ? यहाँ कौन अपना है। जालपा का नाम भी जबान पर आ जाय, तो सब के सब चौंक पड़ें और फिर घर से निकलना बन्द कर दें। ओह ! जालपा के मुख पर शोक की कितनी गहरी छाया थी, आंँखों में कितनी निराशा! आह, उन सिमटी हुई आँखों में जले हए हृदय से निकलनेवाली कितनी आहें सिर पर पीटती हुई मालूम होती थीं मानो उन पर हँसी कभी आयी ही नहीं, मानो वह कली बिना खिले ही मुरझा गयी।

कुछ देर के बाद जोहा आयी, इठलाती, मुस्कराती, लचकाती, पर रमा आज उससे भी कटा रहा।
जोहरा ने पूछा——आज किसी की याद आ रही है क्या ?

यह कहते हुए उसने अपनी गोल,नर्म, मक्खन-सी बांह उसकी गर्दन में डालकर उसे अपनी ओर खींचा। रमा ने अपनी तरफ जरा भी जोर न किया। उसके हृदय पर अपना मस्तक रख दिया, मानो अब यही उसका आश्रय है।

जोहरा ने कोमलता में डूबे हुए स्वर में पूछा——सच बताओ, आज इतने उदास क्यों हो ? मुझसे किसी बात पर नाराज हो !

रमा ने आवेश से कांपते हुए स्वर में कहा——नहीं, जोहरा. तुमने मुझ अभागे पर जितनी दया भी है, उसके लिए मैं हमेशा तुम्हारा एहसानमन्द रहूँगा। तुमने उस वक्त मुझे संभाला, जब मेरे जीवन की टूटी हुई किश्ती गोते खा रही थी। वे दिन मेरी जिंदगी के सबसे मुबारक दिन हैं और उनकी स्मृति को मैं अपने दिल में बराबर पूजता रहूँगा। मगर अभागों को मुसीबत बार-बार अपनी तरफ़ खींचती है। प्रेम का बन्धन भी उन्हें उस तरफ खिंच जाने से नहीं रोक सकता। मैंने आज जालपा को जिस सूरत में देखा है, वह मेरे दिल को भालों की तरह छेद रही है। वह आज फटे-मैले कपड़े पहने, सिर पर गंगा-जल का कलसा लिये चली जा रही थी। उसे इस हालत में देखकर मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। मुझे अपनी जिन्दगी में कभी इतना रंज न हुआ था। जोहरा, कुछ नहीं कह सकता उस पर क्या बीत रही है।

जोहरा ने पूछा——वह तो उस बुड्ढे मालदार खटिक के घर पर थी ?

रमा- हाँ थी तो, पर नहीं कह सकता, क्यों वहाँ से चली गयी। इंसपेक्टर साहब मेरे साथ थे। उनके सामने मैं उससे कुछ पूछ न सका। मैं जानता हूँ, वह मुझे देखकर मुंह फेर लेती और शायद मुझे जलील समझती मगर कम-से-कम मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह इस वक्त इस दशा में क्यों है ? जोहरा, तुम मुझे चाहे दिल में जो कुछ समझ रही हो, लेकिन मैं इस सवाल में मग्न हूँ कि तुम्हें मुझसे प्रेम है। और प्रेम करने वालों से हम कम-से-कम हमदर्दी की आशा रखते हैं ? यहाँ एक भी ऐसा आदमी नहीं, जिससे मैं अपने दिल का कुछ हाल कह सकूँ। तुम भी मुझे रास्ते पर लाने के लिए भेजी गयी थी, मगर तुम्हें मुझ पर दया आयी। शायद तुमने गिरे हुए आदमी पर ठोकर मारना मुनासिब न समझा, अगर आज हम और तुम किसी वजह से रूठ जायें, तो क्या कल तुम मुझे मुसीबत में देखकर मेरे साथ जरा
भी हमदर्दी न करोगी? क्या मुझे भूखों मरते देख मेरे साथ उससे कुछ भी ज्यादा सलूक न करोगी, जो आदमी कुत्ते के साथ करता है? मुझे तो ऐसी आशा नहीं। जहाँ एक बार प्रेम ने वास किया हो वहाँ उदासीनता और विराग चाहे पैदा हो जाय, हिंसा का भाव नहीं पैदा हो सकता। तुम मेरे साथ जरा भी हमदर्दी न करोगी जोहरा ? तुम अगर चाहो तो जालपा का पूरा पता लगा सकती हो, वह कहाँ है, क्या करती है, मेरी तरफ़ से उसके दिल में क्या खयाल है, घर क्यों नहीं जाती, कब तक रहना चाहती है ? अगर तुम किसी तरह जालपा को प्रयाग जाने पर राजी कर सको जोहरा, तो मैं उम्र भर तुम्हारी गुलामी करूंगा। इस हालत में मैं उसे नहीं देख सकता। शायद आज ही रात को मैं यहाँ से भाग जाऊंँ। मुझ पर क्या गुजरेगी, इसका मुझे जरा भी भय नहीं ! मैं बहादुर नहीं हूँ, बहुत ही कमजोर आदमी हूँ। हमेशा खतरे के सामने मेरा हौसला पस्त हो जाता है। लेकिन मेरी बेगैरती भी यह चोट नहीं सह सकती।

जोहरा वेश्या थी, उसको अच्छे-बुरे सभी तरह के आदमियों से साबिका पड़ चुका था। उसकी आँखों में आदमियों की परख थी। उसको इस परदेशी युवक में और अन्य व्यक्तियों में एक बड़ा फ़र्क दिखायी देता था। पहले वह यहाँ भी पैसे की गुलाम बनकर आयी थी, लेकिन दो-चार दिन के बाद ही उसका मन रमा की ओर आकर्षित होने लगा। प्रौढ़ा स्त्रियाँ अनुराग की अवहेलना नहीं कर सकतीं। रमा में और सब दोष हों, पर अनुराग था। इस जीवन में जोहरा को यह पहला आदमी ऐसा मिला था जिसने उसके सामने अपना हृदय खोलकर रख दिया, जिसने उससे कोई परदा न रखा। ऐसे अनुराग-रत्न को वह खोना न चाहती थी, उसकी बातें सुनकर उसे जरा भी ईर्ष्या न हुई; बल्कि उसके मन में एक स्वार्थमय सहानुभूति उत्पन्न हुई। इसी युवक को, जो प्रेम के विषय में इतना सरल था, वह प्रसन्न करके हमेशा के लिए अपना गुलाम बना सकती थी। उसे जालपा से कोई शंका न थी। जालपा कितनी ही रूपवती क्यों न हो, जोहरा अपने कला-कौशल से, अपने हाव-भाव से उसका रंग फीका कर सकती थी। इसके पहले उसने कई महान् सुन्दरी खन्नानियों को रुलाकर छोड़ दिया था। फिर जालपा किस गिनती में थी?
जोहरा ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा——तो इसके लिए तुम क्यों इतना रंज करते हो प्यारे ! जोहरा तुम्हारे लिए सब-कुछ करने को तैयार है। मैं कल ही जालपा का पता लगाऊँगी और वह यहाँ रहना चाहेगी तो उसके आराम के सब सामान कर दूँगी, जाना चाहेगी, तो रेल पर भेज दूंगी।

रमा ने बड़ी दीनता से कहा——एक बार मैं उससे मिल लेता तो मेरे दिल का बोझ उतर जाता।

जोहरा चिन्तित होकर बोली——यह तो मुश्किल है, प्यारे! तुम्हें यहाँ से कौन जाने देगा?

रमा०——कोई तरकीब बताओ।

जोहरा——मैं उसे पार्क में खड़ी कर आऊँगी। तुम डिप्टी साहब के साथ वहां जाना और किसी बहाने से उससे मिल लेना। इसके सिवा तो मुझे और कुछ नहीं सूझता।

रमा अभी कुछ कहना ही चाहता था, कि दारोगाजी ने पुकारा——मुझे खिदमत में आने की इजाजत है ?

दोनों संभल बैठे और द्वार खोल दिया। दारोगाजी मुसकराते हुए आये और जोहरा के बगल में बैठकर बोले——यहां आज सन्नाटा कैसा ! क्या आज खजाना खाली है ! जोहरा, आज अपने दस्ते हिनाई से एक जाम भर कर दो। रमानाथ, भाई जान, नाराज न होना।

रमा ने कुछ तुर्श होकर कहा——इस वक्त तो रहने दीजिए, दारोगाजी। आप तो पिये हुए नजर आते हैं ?

दारोगाजी ने जोहरा का हाथ पकड़कर कहा——बस, एक जाम जोहरा। और एक बात और, आज मेरी मेहमानी कबूल करो!

रमा ने तेवर बदलकर कहा——दारोगाजी, आप इस वक्त यहाँ से जायें। मैं यह गवारा नहीं कर सकता।

दारोगा ने नशीली आँखों से देखकर कहा——क्या आपने पट्टा लिखा लिया है ?

रमा ने कड़ककर कहा——जी हाँ, मैंने पट्टा लिखा लिया है।

दारोगा——तो आपका पट्टा खारिज !

रमा——मैं कहता हूँ, यहाँ से चले जाइए।
दारोगा——अच्छा ! अब तो मेढ़की को भी जुकाम पैदा हुआ। क्यों न हो। चलो जोहरा, इन्हें यहाँ बकने दो।

यह कहते हुए उन्होंने जोहरा का हाथ पकड़कर उठाया।

रमा ने उनके हाथ को झटका देकर कहा——मैं कह चुका, आप यहाँ से चले जायें। जोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गयी तो मैं उसका और आपका——दोनों का खून पी जाऊंगा। जोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूँ, कोई उसकी तरफ आँख नहीं उठा सकता——

यह कहते हुए उसने दारोगा साहब का हाथ पकड़कर दरवाजे के बाहर निकाल दिया और दरवाजा जोर से बन्द करके सिटकिनी लगा दी। दारोगा जी बलिष्ठ आदमी थे; लेकिन इस वक्त नशे ने उन्हें दुर्बल कर दिया था। बाहर बरामदे में खड़े होकर वह गालियाँ बकने और द्वार पर ठोकर मारने लगे।

रमारमा ने कहा——कहो जाकर बचा को बरामदे के नीचे ढकेल दूं ! शैतान का बच्चा!

जोहरा——बकने दो,आप ही चला जाएगा।

रमा०-चला गया !

जोहरा ने मगन होकर कहा——तुमने बहुत अच्छा किया, सूअर को निकाल बाहर किया। मुझे ले जाकर दिक करता। क्या तुम सचमुच उसे मारते ?

रमा०——मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझमें उस वक्त कहाँ से इतनी ताकत आ गयी थी।

जोहरा——और जो वह कल से मुझे न आने दे तो ?

रमा०——कौन, मगर इस बीच में उसने जरा भी बाजी मारी तो गोली मार दूंगा। वह देखो ताक पर पिस्तौल रखा हुआ है। तुम अब मेरी हो, जोहरा ! मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर दिया और तुम्हारा सब कुछ पाकर ही मैं सन्तुष्ट हो सकता हूँ। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूँ (किसी तीसरी औरत या मर्द को हमारे बीच में पाने का मजाल नहीं है जब तक मैं मर न जाऊँ।)

जोहरा की आँखें चमक रही थी। उसने रमा की गरदन में हाथ डाल. कर कहा——ऐसी बात मुंह से न निकालो प्यारे ! सारे दिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी निराशा की अंधकारमय घाटियांँ सामने आ जाती कभी आशा की लहराती हुई हरियाली। जोहरा गयी भी होगी ! यहाँ से तो लंबे-चौड़े वादे करके गई थी। उसे क्या गरज है ? आकर कह देगी, मुलाकात ही नहीं हुई। कहीं धोखा तो न देगी ? जाकर डिप्टी साहब से सारी कथा कह सुनाये तो बेचारी जालपा पर बैठे-बिठाये आफत या जाय। क्या ज़ोहरा इतनी नीच प्रकृति हो सकती है? कभी नहीं। अगर जोहरा इतनी बेवफ़ा, इतनी दगाबाज है, तो यह दुनिया रहने के लायक नहीं, जितनी जल्द आदमी मुंह में कालिख लगा डूब मरे, उतना ही अच्छा है। नहीं जोहरा मुझसे दगा न करेगी। उसे वह दिन याद आये, जब उसके दफ्तर से आते ही जालपा उसकी जेब टटोलती थी और रुपये निकाल लेती थी। वही जालपा आज इतनी सत्यवादिनी हो गयी। तब वह प्यार करने की वस्तु थी, अब वह उपासना करने की वस्तु है। जालपा, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ: जिस ऊँचाई पर तुम मुझे ले जाना चाहती हो, वहाँ तक पहुँचने की मुझमें शक्ति नहीं है। वहाँ पहुँचकर शायद चक्कर खाकर गिर पडूंँ। मैं अब भी तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाता हूँ। मैं जानता हूँ, तुमने मुझे अपने हृदय से निकाल दिया है, तुम मुझसे विरक्त हो गयी हो, तुम्हें अब न मेरे डूबने का दुःख है न तैरने की खुशी; पर शायद अब भी मेरे मरने या किसी घोर संकट में फंस जाने की खबर पाकर तुम्हारी आँखों से आंँसू निकल आयेंगे। शायद तुम मेरी लाश देखने आओ। हा! प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते कि तुम्हारी निगाह में इतना नीच तो न रहूँ।

रमा को अब अपनी उस गलती पर घोर पश्चाताप हो रहा था, जो उस ने जालपा की बात न मानकर की थी। अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इजलास में अपना बयान बदल दिया होता, धमकियों में न आता, हिम्मत मजदूत रखता, तो उसकी यह दशा क्यों होती। उसे यह विश्वास था, जालपा के साथ यह सारी कठिनाइयाँ झेल ले जाता। उसकी श्रद्धा और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फांँसी भी हो जाती, तो वह हंँसते-हंँसते उस पर चढ़ जाता ! मगर पहले उससे चाहे जो भूल हुई, इस वक्त तो वह भूल से नहीं, जालपा की खातिर ही यह कष्ट भोग रहा था। कैद भोगनी ही है, तो उसे रो-रोकर भोगने से तो वह कहीं अच्छा है कि हंँस-हंँस भोगा जाय। आखिर पुलिस अधिकारियों के दिल में अपना विश्वास जमाने के लिए वह और क्या करता। यह दुष्ट जालपा को सताते, उसका अपमान करते, उस पर झूठा मुकदमा चलाकर उसे सजा दिलाते। वह दशा तो और भी असह्य होती। वह दुर्बल था, सब अपमान सह सकता था; जालपा तो शायद प्राण ही दे देती।

उसे आज ज्ञात हुआ कि वह जालपा को नहीं छोड़ सकता, और जोहरा को त्याग देना भी उसके लिए असंभव-सा जान पड़ता था। क्या वह दोनों रमनियोंं को प्रसन्न रख सकता था? क्या इस दशा में जालपा उसके साथ रहना स्वीकार करेगी ? कभी नहीं। वह शायद उसे कभी नहीं क्षमा करेगी। अगर उसे यह मालूम भी हो जाय कि उसी के लिए वह यह यातना भोग रहा है, तो भी वह उसे क्षमा न करेगी। वह कहेगी, मेरे लिए तुमने अपनी आत्मा क्यों कलंकित किया? मैं अपनी रक्षा आप कर सकती थी।

वह दिन भर इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा। आंँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। नहाने का समय टल गया, भोजन का समय टल गया. किसी बात की परवाह न थी। अखबार से दिल बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा; मगर किसी काम में चित्त न लगा। आज दारोगाजी भी नहीं आये। या तो रात की घटना से रुष्ट, या लज्जित थे। या कहीं बाहर चले गये। रमा ने किसी से इस विषय में कुछ पूछा भी नहीं।

सभी दुर्बल मनुष्यों की भांँति रमा भी अपने पतन से लज्जित था। वह जब एकान्त में बैठता, तो उसे अपनी दशा पर दुःख होता-क्यों उसकी विलास-वृत्ति इतनी प्रबल है ? वह इतना विवेक-शून्य न था कि अधोगति में भी प्रसन्न रहता; लेकिन ज्योंही और लोग आ जाते, शराब की बोतल आ जाती, जोहरा सामने आकर बैठ जाती, उसका सारा विवेक और धर्म-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता।

रात के दस बज गये, पर जोहरा का कहीं पता नहीं। फाटक बन्द हो गया। रमा को अब उसके आने की आशा न रही लेकिन फिर भी उसके कान लगे हुए थे ! क्या बात हुई ? क्या जालपा उसे मिली ही नहीं, या वह


गयी हो नहीं ? उसने इरादा किया, अगर कल जोहरा न आयी, तो उसके घर किसी को भेजूंगा। उसे दो-एक झपकियाँ आयी और सबेरा हो गया। फिर वही विकलता शुरू हुई, किसी को उसके घर भेज कर बुलवाना चाहिए। कम-से-कम यह तो मालूम हो जाय, कि वह घर पर है या नहीं।

दारोगा के पास जाकर बोला-रात तो आप आपे में न थे। दारोगा ने ईष्या को छिपाते हुए कहा -यह बात न थी! मैं महज आपको छेड़ रहा था।

रमा०–जोहरा रात आयी नहीं, जरा किसी को भेजकर पता तो लगवाइये बात क्या है। कहीं नाराज तो नहीं हो गयी ?

दारोगा ने बेदिली से कहा-उसे गरज होगी खुद आयेगी। किसी को भेजने की जरूरत नहीं है।

रमा ने फिर आग्रह न किया। समझ गया, यह हज़रत आज बिगड़ गये। से चला आया। अब किससे कहे ? सबसे यह बात कहना लज्जास्पद मालूम होता था। समझेंगे, यह महाशय एक ही रसिया निकले। दारोगा से तो थोड़ी-सी घनिष्ठता हो गयी थी।

एक हफ्ते तक उसे जोहरा के दर्शन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आखिर बेवफ़ा निकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। मुमकिन है, पुलिस-अधिकारियों ने उसके आने की मनाही कर दी हो। कम-से-कम मुझे एक पत्र लिख सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ। व्यर्थ उससे अपने दिल की बात कही। इन लोगों से कह दे, तो उल्टी आँतें गले पड़ जायँ। मगर जोहरा बेवफ़ाई नहीं कर सकती। रमा की अन्तरात्मा इसकी गवाही देती थी। इस बात को किसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरू के दस-पाँच दिन तो जरूर जोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी फिर अनायास ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नेत्र होकर कहती थी, देखो बाबूजी, मुझे भूल न जाना ! उसकी वह हसरत-भरी बातें याद आ-आकर कपट की शंका को दिल से निकाल देती। जरूर कोई-न-कोई बात हो गयी है। वह अक्सर एकान्त में बैठकर जोहरा को याद करके बच्चों की तरह रोता। शराब से उसे घृणा गयी। दारोगा आते,इंसपेक्टर साहब आते; पर

रमा को उनके साथ दस-पांच मिनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझे कोई न छेड़े, कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता, तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने को इच्छा ही न होती। यहाँ कोई उसका हमदर्द न था, कोई इसका मित्र न था, एकान्त में मन मारे बैठे रहने में ही उसके चित्त को शान्ति होती थी। स्मृतियों में भी अब कोई आनन्द न था। नहीं, वह स्मृतियाँ भी मानो उसके हृदय से मिट गयी थीं। एक प्रकार का विराग उसके दिल पर छाया रहता था !

सातवाँ दिन था। आठ बज गये थे। आज एक बहुत अच्छा फिल्म होने वाला था। एक प्रेम-कथा थी। दारोगा ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था कि जोहरा आ पहुँची। रमा ने उसकी तरफ एक बार आँख उठाकर देखा, फिर आईने में अपने बाल संवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ कहा। हाँ, जोहरा का वह सादा आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्चर्य अवश्य हुआ। वह केवल एक साड़ी पहने हुए थी। आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था। ओठ मुरझाये हुए और चेहरे पर क्रीड़ामय चंचलता की जगह तेजमय गम्भीरता झलक रही थी।

वह एक मिनट खड़ी रही, तब रमा के पास जाकर बोली-क्या मुझसे नाराज हो ? बेकसूर, बिना कुछ पूछे-वूछे ?

रमा ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। जूते पहनने लगा। जोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा-क्या यह खफ़गी इसलिए है, कि मैं इतने दिनों आयी क्यों नहीं ?

रमा ने रूखाई से जवाब दिया-अगर तुम अब भी न आती, तो मेरा क्या अख्तियार था। तुम्हारी दया थी कि चली आयीं।

यह कहने के साथ उसे खयाल आया,कि मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूँ। लज्जित नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगा।

जोहरा ने मुसकराकर कहा-यह अच्छी दिल्लगी है ! आपने ही तो एक काम सौंपा और जब वह काम करके लौटी, आप बिगड़ रहे हैं ! क्या तुमने वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाते पूरा हो जायगा? तुमने मुझे उस देवी से वरदान लेने भेजा, जो ऊपर


से फूल है, पर भीतर से पत्थर, जो इतनी नाजुक होकर भी इतनी मजबूत है।

रमा ने बेदिली से पूछा है कहाँ ? क्या करती है ? . ज़ोहरा-उसी दिनेश के घर है जिसको फांसी की सजा हो गयी है। उसके दो बच्चे हैं, औरत है और मां है। दिन भर उन्हीं बच्चों को खेलाती है, बुढ़िया के लिए नदी से पानी लाती है, घर का सारा कामकाज करती है और उनके लिए बड़े-बड़े आद.मयों से चन्दा मांग कर ली है। दिनेश के घर में न कोई जायदाद श्री; न रुपये थे। लोग बड़ी तकलीफ में थे। कोई मददगार तक न था, जो जाकर उन्हें काम तो देता। जिसने साथी सोहबती धे, सब के सब मुँह छिपा बैठे। दो-तीन फ़ाके तक हो चुके थे। जालपा ने जाकर उनको जिला लिया।

रमा की सारी बेदिली काफूर हो गयी। जूना छोड़ दिया और कुरसी पर बैठकर बोला-तुम खड़ी क्यों हो, शुरू से वताओ; तुमने तो बीच में से शुरू किया। एक बात भी मत छोड़ना। तुम पहले उसके पास कैसे पहुंची ? पता कैसे लगा ?

जोहरा- कुछ नहीं, पहले उसी देवीदीन खटिया के पास गयी। उसने दिनेश के घर का पता दिया। चटपट पहुँची।

रमा०-तुमने जाकर उसे पुकारा ? तुम्हें देखकर कुछ चौंको की नहीं ? कुछ झिझकी तो जरूर होगी!

जोहरा मुस्कराकर बोली-मैं इस रूप में न थी। देवीदीन के घर से मैं अपने घर गयी और ब्रह्म-समाजी लेडी का स्वांग भरा। न जाने मुझमें ऐसी कौन-सी बात है जिससे दूसरों को फौरन पता चल जाता है कि मैं कौन हुँ ,या क्या हूँ और बाह्म लेडियों को देखती हूँ, कोई उनकी तरफ आँखें तक नहीं उठाता। मेरा पहनावा-ओढ़ावा वही है, भड़कीले कपड़े या फजूल के गहने बिलकुल नहीं पहनतो, फिर भी सब मेरी तरफ और फाड़-फाड़कर देखते हैं। मेरो असि्लयत नहीं छिपती। यही खौफ़ मुझे था, कि कहीं जालपा भांप न जाय; लेकिन मैंने दांत खूब साफ कर लिये थे, पान का निशान तक न था। मालूम होता था किसी कालेज की लेंडी-टीचर होगी। इस शक्ल में मैं वहाँ पहुँची। ऐसी मूरत बना ली, कि वह क्या, कोई भी न भांँप सकता

था। परदा ढंँका रह गया। मैंने दिनेश की माँ से कहा——मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ। अपना घर मुंगेर बतलाया। बच्चो के लिए मिठाई ले गयी थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गयी थी। और मेरा खयाल है कि मैंने खूब खेला! दोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभी —कभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगा-जल लिये पहुँची। मैंने दिनेश की मां से बंगला में पूछा——क्या यह कहारिन है, उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने आ गई हैं। यहाँ इनके शौहर किसी दफ्तर में नौकर हैं। और तो कुछ मालूम नहीं। रोज सबेरे आ जाती है, और बच्चों को खेलाने ले जाती है। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और खुद लाती है। हमें तो इन्होंने जीवन-दान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे ! जब से यह आ गयी है, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा-सा पार्क है। मुहल्ले भर के बच्चे वहीं खेला करते हैं। शाम हो गयी थी। जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चली। मैं जो मिठाई ले गयी थी, उसमें से बूढ़ी ने एक-एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कुद-कूदकर नाचने लगे। बच्ची की इस खुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयाँ खाते हुए जालपा के साथ हो लिये। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगी।'

रमा ने कुर्सी और करीब खींच ली, और आगे को झुक गया। बोला——तुमने किस तरह बातचीत शुरू की ?

जोहरा—— कह तो रही हूँ। मैंने पूछा——जालपा देवी, तुम कहाँ रहती हो ? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बडा़ई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गयी हूँ।

रमा॰——यही लफ्ज़ कहा था तुमने !

जोहरा——हाँ, जरा मजाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली——तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होती। इतनी साफ़ हिन्दी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा——मैं मुंगेर की रहनेवाली हूँ और

वहाँ मुसलमान औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूँ। आपसे कभी कभी मिलने का जी चाहता है। आप कहाँ रहती हैं। कभी-कभी दो घड़ी के लिए चली आऊँगी। आपके पास घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमियत सीख जाऊँगी।

जालपा ने शरमाकर कहा——तुम तो मुझे बनाने लगीं। कहाँ तुम, कॉलेज को पढा़नेवाली, कहाँ मैं अपढ़ गँवार औरत। तुमसे मिलकर मैं अलबत्ता आदमी बन जाऊँगी। जब जी चाहे, यहीं चली आना। यही मेरा घर समझो।

मैंने कहा——तुम्हारे स्वामीजी ने तुम्हें इतनी आजादी दे रखी है। बड़े अच्छे खयालों के आदमी होंगे : किस दफ्तर में नौकर हैं ?

जालपा ने अपने नाखूनों को देखते हुए कहा——पुलिस में उम्मेदवार हैं।

मैंने ताज्जुब से पूछा——पुलिस के आदमी होकर वह तुम्हें यहाँ आने की आजादी देते हैं ?

जालपा इस प्रश्न के लिए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली——वह मुझसे कुछ नहीं कहते....मैंने उनसे यहाँ आने की बात नहीं कही....वह घर बहुत कम आते हैं। वहीं पुलिसवालों के साथ रहते हैं !

उन्होंने एक साथ तीन जवाब दिये। फिर भी उन्हें शक हो रहा था, कि इनमें कोई जवान इत्मीनान के लायक नहीं है। वह कुछ खिसियानी हो होकर दूसरी तरफ़ ताकने लगीं।

मैंने पूछा——तुम अपने स्वामी से कहकर किसी तरह मेरी मुलाकात उस मुखबिर से करा सकती हो, जिसने कैदियों के खिलाफ गवाही दी है ?

रमानाथ की आंखें फैल गयी और छाती धक-धक करने लगी। जोहरा बोली——यह सुनकर जालपा ने मुझे चुभती हुई आँखों से देखकर पूछा——तुम उनसे मिलकर क्या करोगी !

मैंने कहा——तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं ? मैं उनसे यही पूछना चाहती हूँ, कि तुमने इतने आदमियों को फंसाकर क्या पाया ? देखूँगी वह क्या जबाब देते हैं।

जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली——वह यह कह सकता है,

मैंने अपने फायदे के लिए, किया ! सभी आदमी अपना फायदा सोचते हैं। मैंने भी सोचा। जब पुलिस के सैकड़ों आदमियों से कोई यह प्रश्न नहीं करता, तो उससे यह प्रश्न क्यों किया जाय ? इससे कोई फायदा नहीं।

मैंने कहा-अच्छा मान लो, तुम्हारा पति ऐसी मुखबिरी करता तो तुम क्या करती?

जालपा ने मेरी तरफ़ सहमी हुई आँखों से देखकर कहा-तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो? तुम खुद अपने दिल से इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढती ?

मैंने कहा-मैं तो उनसे कभी न बोलती; न कभी उनकी सूरत देखती।

जालपा ने गम्भीर चिन्ता के भाव से कहा-शायद मैं भी ऐसा ही समझती-या न समझती-कुछ कह नहीं सकती। आखिर पुलिस के अफसरों के घर में भी तो औरते हैं। क्यों नहीं अपने आदमियों को कुछ कहती हैं ? जिस तरह उनके हृदय अपने मरदों के से हो गये हैं, सम्भव है, मेरा हृदय भी वैसा ही हो जाता। इतने में अँधेरा हो गया। जालपा देवी ने कहा-मुझे देर हो रही है। बच्चे साथ हैं। कल हो सके तो फिर मिलियेगा। आपकी बातों में बड़ा आनन्द आता है।

मैं चलने लगी, तो उन्होंने चलते-चलते मुझसे फिर कहा- जरूर आइयेगा। यही मैं मिलूंगी।

लेकिन दस कदम के बाद फिर रुककर बोलीं-मैंने आपका नाम तो पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही तो आओ कुछ देर और गप-शप करें। मैं वो चाहती ही थी। अपना नाम जोहरा बतला दिया।'

रमा ने पूछा-सच!

जोहरा- हाँ, हर्ज क्या था। पहले तो जालपा भी जरा चौंकी, पर कोई बात न समझी। समझ गयी, बंगाली मुसलमान होगी। हम दोनों उसके घर गयीं। उस जरा-से कठघरे में न-जाने वह कैसे बैठती है। एक तिल भी जगह नहीं। कहीं मटके हैं, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं बिछावन। सील और बदबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार हो गया था। दिनेश की बहू बरतन धो रही थी। जालपा ने उसे उठा दिया-जाकर बच्चों को

खिलाकर सुला दो, मैं बरतन धोये देती हूँ। और खूद बरतन मांजने लगीं। उसकी यह खिदमत देखकर मेरे दिल पर इतना असर हुआ कि मैं भी वहीं बैठ गयी और माँजे बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझे वहाँ से हट जाने के लिए कहा, पर मैं न हटी। बराबर बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा- मैं पानी न दूंगी, तुम उठ जाओ, मुझे शर्म आती है। तुम्हें मेरी कसम, हट जाओ, यहाँ आना तो तुम्हारी सजा हो गयी; तुमने ऐसा काम अपनी जिन्दगी में क्यों किया होगा। मैंने कहा -तुमने भी तो कभी न किया होगा; जब तुम करती हो, तो मेरे लिए क्या हर्ज है।

जालपा ने कहा- मेरी और बात है। मैंने पूछा-क्यों जो बात तुम्हारे लिए है, वही मेरे लिए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो ?

जालपा ने कहा- महरियाँ आठ-आठ रुपये मांगती हैं। मैं बोली–मैं साठ रुपये महीने दे दिया करूँगी।

जालपा ने ऐसी निगाहों से मेरी तरफ देखा, जिसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास, सच्चा आशीर्वाद भरा हुआ था। वह चितवन ! आह ! कितनी पाकीज़ा थी, कितनी पाक करने वाली ! उनकी इस बेगरज खिदमत के सामने मुझे अपनी जिन्दगी कितनी जलील, कितनी काबिलेनफरत मालूम हो रही थी ! उन बरतनों के धोने में जो आनन्द मिला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती!

बरतन धोकर उठी, तो बुढ़िया के पाँव दबाने बैठ गयीं। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझसे बोली- तुम्हें देर हो रही हो तो जाओ, कल फिर आना।

मैंने कहा- नहीं मैं, तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचाकर उधर ही से निकल जाऊंगी।

गरज नौ बजे के बाद वह वहाँ से चलीं। रास्ते में मैंने कहा जालपा,तुम सचमुच देवी हो।

जालपा ने छूटते ही कहा-ज़ोहरा, ऐसा मत कहो। मैं खिदमत नहीं कर रही हूँ, अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हैं। बहुत दुःखी हूँ। मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में न होगी।

मैंने अनजान बनकर कहा-इसका मतलब मैं नहीं समझी।

जालपा ने सामने ताकते हुए कहा-कभी समझ जाओगी। मेरा प्रायश्चित इस जन्म में न पूरा होगा। इसके लिए मुझे कई जन्म लेने पड़ेंगे।

मैंने कहा-तुम तो मुझे चक्कर में डाले देती हो बहन। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे समझा न दोगी, मैं तुम्हारा गला न छोडूंगी।

जालपा ने एक लम्बी सांस लेकर कहा-जोहरा किसी बात को खुद छिपाए रहना इससे ज्यादा आसान है कि दूसरों पर वह बोझ रखूँ।

मैंने आर्तकंठ से कहा- हाँ, पहली मुलाकात में अगर आपको मुझ पर इतना ऐतबार न हो, तो मैं आपको इलजाम न दूंगी; मगर कभी-न-कभी आपको मुझ पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूंगी नहीं।

कुछ दूर तक हम दोनों चुपचाप चलती रहीं। एकाएक जालपा ने कांपती हुई आवाज में कहा - जोहरा अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाय कि मैं कौन हूँ, तो शायद तुम नफ़रत से मुंह फेर लोगी और मेरे साये से भी दूर भागोगी।

इन लफ्ज़ों में न मालूम क्या जादू था कि मेरे सारे रोएँ खड़े हो गये। यह एक रंज और शर्म से भरे हुए दिल की आवाज थी और उसने मेरी स्याह जिन्दगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दी। मेरी आँखों में आँसू भर आये। ऐसा जी में आया कि अपना सारा स्वांग खोल दूँ, न जाने उनके सामने मेरा दिल क्यों ऐसा हो गया था। मैंने बड़े-बड़े काइयाँ और छंटेगा हुए शोहदों और पुलिस अफसरों को चपरगट्टू बनाया है, पर उसके सामने मैं भीगी बिल्ली बनी हुई थी। फिर मैंने न जाने कैसे अपने को संभाल लिया।

मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था-यह तुम्हारा खयाल ग़लत है देवी ! शायद तब मैं तुम्हारे पैरों पर गिर पडूंगी। अपनी या अपनों की बुराईयों पर शमिन्दा होना सच्चे दिलों ही का काम है।

जालपा ने कहा-लेकिन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या ? बस, इतना ही समझ लो, कि एक गरीब अभागिन औरत हूँ, जिसे अपने ही जैसे अभागे और गरीब आदमियों के साथ मिलने-जुलने में आनन्द आता है।

इसी तरह वह बार-बार टालती रही;लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा। आखिर उसके मुंह से बात निकाल ही ली।

रमा ने कहा-यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा। जोहरा-अब आधी रात तक की कथा कहाँ तक सुनाऊँ। घण्टों लग जायेंगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आखिर में कहा-मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूँ, जिसने इन कैदियों पर आफत ढाई है। यह कहते कहते वह रो पड़ी। फिर जरा आवाज को संभालकर बोली- हम लोग इलाहाबाद के रहनेवाले हैं। एक ऐसी बात हुई, कि इन्हें वहाँ से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आये। कई महीनों में पता चला, कि वह यहाँ हैं।

रमा ने कहा- इसका भी किस्सा है। तुमसे बताऊँगा कभी, जालपा: के सिवा और किसी को यह न सुझती।

जोहरा बोली-यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारे रग-रग से वाकिफ़ हो गयी। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो।

कहने लगी-जोहरा, मैं बड़ी मुसीबत में फँसी हुई हूँ। एक तरफ़ तो एक आदमी की जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ़ अपनी तबाही है। मैं चाहूँ, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूँ। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूँ, कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हकीकत ही न रह जायेगी; पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधे में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूँ। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दूँ, और न यही हो सकता है, कि रमा को आग में झोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़ी और बोली बहन मैं खुद मर जाऊँगी; पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूँ, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूँ। शायद वहीं। हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊँ, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूँ।

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुईं। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया, कि कल इसी वक्त फिर आना। दिन-भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती | बस यही शाम को मौका मिलता


था। वह इतने रुपये जमा कर देना चाहती है, कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो। दो सौ रुपये से ज्यादा जमा कर चुकी है। मैंने भी पाँच रुपये दिये। मैंने दो-एक बार जिक्र किया, कि आप इन झगड़ों में न पड़िये अपने घर चली जाइये; लेकिन मैं साफ-साफ कहती हूँ, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जब-जब मैंने इसका इशारा किया, उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, सोचा वह बात सुनना भी नहीं चाहती। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न निकलने पायी। एक बात है, कहो तो कहूँ ?

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा-क्या बात है?

जोहरा-डिप्टी साहब से कह दूँ, जालपा को इलाहाबाद पहुँचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस, औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जायगी। वहाँ गाड़ी तैयार मिलेगी; वह उसमें बैठा दी जायेंगी। या कोई और तरकीब सोचो।

रमा ने जोहरा की आंखों से आंखें मिलाकर कहा-क्या यह मुनासिब होगा ?

जोहरा ने शरमाकर कहा- मुनासिब तो न होगा। रमा में चटपट जूते पहन लिये और जोहरा से पूछा-देवीदन के ही घर पर रहती है ना ?

जोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली-तो क्या इस वक्ल जाओगे!

रमा०-हां, जोहरा इसी वक्त चला जाऊँगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहाँ मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।

जोहरा -मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।

रमा०-सब सोच चुका, ज्यादे-से-ज्यादे तीन-चार साल की कैद दरोगा-बयानी के जुर्म में। बस, अब रूखसत ! भूल मत जाना जोहरा, शायद फिर कभी मुलाकात हो !

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा-हुजूर ने दारोगाजी को इत्तला कर दी है?

रमा-इसकी कोई जरूरत नहीं। चौकीदार-मैं जरा उनसे पूछ लूँ। मेरी रोजी क्यों ले रहे हैं हजूर?

रमा ने कोई जवाब न दिया। तेजी से सड़क पर चल खड़ा हुआ। जोहरा निस्पंद खड़ी हसरत भरी आँखों से देख रही थी। रमा के प्रति प्यार, ऐसा विकल करनेवाला प्यार, उसे कभी न हुआ था, जैसे कोई वीर-बाला अपने प्रियतम को समर-भूमि की ओर जाते देखकर गर्व से फूली न, समाती हो।

चौकीदार ने लपककर दारोगाजी से कहा। वह बेचारे खाना खाकर लेटे ही थे। घबराकर निकले, रमा के पीछे दौड़े और पुकारा-बाबू साहब, जरा सुनिए तो, एक मिनट रुक जाइए, इससे क्या फायदा-कुछ मालूम तो हो, आप कहाँ जा रहे हैं ? आखिर बेचारे एक बार ठोकर खाकर गिर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा- कहीं चोट तो नहीं आयी?

दारोगा-कोई बात न थी, जरा ठोकर खा गया था। आखिर आप इस वक्त कहाँ जा रहे हैं ? सोचिए, तो इसका नतीजा क्या होगा ?

रमा०-मैं एक घंटे में लौट आऊँगा। जालपा को शायद मुखालिफों ने बहकाया है, कि तू हाईकोर्ट में एक अर्जी दे दे। जस उसे जाकर समझाऊँगा।

दारोगा-यह आपको कैसे मालूम हुआ ?

रमा--जोहरा कहीं सुन आयी है।

दारोगा०-बड़ी बेवफा औरत है। ऐसी औरत का तो सिर काट लेना चाहिए।

रमा०—इसीलिए तो जा रहा हूँ। या तो इसी वक्त उसे स्टेशन पर भेजकर आऊँगा, या इस बुरी तरह पेश आऊँगा, कि वह भी याद करेगी। ज्यादा बातचीत का मौका नहीं है। रातभर के लिए मुझे इस क़ैद से आजाद कर दीजिए।

दारोगा-मैं भी चलता हूँ, जरा ठहर जाइए।

रमा०-जी नहीं, बिल्कुल मामला बिगड़ जाएगा। मैं अभी आता हूँ।

दरोगा लाजवाब हो गये। एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और जोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ़ चले गये। उधर रमा ने आगे बढ़कर एक तांगा किया और देवीदीन के घर जा पहुंचा।


जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त खाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज दी। देवीदीन उनकी आवाज पहचान गया, बोला-भैया हैं शायद।

जालपा-कह दो, यहाँ क्या करने आये हैं। वहीं जायें।

देवी-नहीं बेटी, जरा पूछ तो लू,क्या कहते हैं। इस बखत कैसे उन्हें छुट्टी मिली?

जालपा-मुझे समझाने आये होंगे और क्या। मगर मुँह धो रखें!

देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अन्दर आकर कहा-दादा, तुम मुझे यहाँ देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होगें। एक घण्टे की छुट्टी लेकर आया हूँ। तुम लोगों से अपने बहुत-से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर है?

देवीदन बोला-हाँ, है तो, अभी आई हैं। बैठो, कुछ खाने को लाऊँ।

रमा- नहीं, मैं खाना खा चुका हूँ। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूँ।

देवी०- वह मानेगी नहीं, नाहक शर्मिन्दा होना पड़ेगा। माननेवाली औरत नहीं है।

रमा०-मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहती ? जरा जाकर पूछ लो।

देवी०- इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो है, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था, वैसे अब भी है।

रमा-नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊँगा।

देवीदीन ने ऊपर जा करके कहा-तुमसे कुछ कहना चाहते हैं बहू !

जालपा मुंह लटकाकर बोली-तो कहते क्यों नहीं, मैंने क्या ज़बान , बन्द कर दी है ? जालपा ने यह बात इतने ज़ोर से कही थी कि नीचे रमा ने भी सुन ली। कितनी निर्ममता थी ! उसकी सारी मिलन-लालसा मानो उड़ गई। नीचे ही से खड़े-खड़े बोला-वह अगर मुझसे नहीं बोलना चाहती, तो कोई जबरदस्ती नहीं 1 मैंने अब साहब से सारा कच्चा चिट्टा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूँ। मेरी वजह से


इनको इतने कष्ट हुए, इसका मुझे खेद है। मेरी अक्ल पर परदा पड़ा हुआ था। स्वार्थ ने मुझे अन्धा कर रखा था। प्राणों के मोह ने, कष्टों के भय ने बुद्धि हर ली थी। कोई ग्रह सिर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शान्त कर दिया। शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो फिर भेंट होगी। नहीं, मेरी बुराइयों को माफ़ करना और मुझे भूल जाना। तुम भी देवी दादा और दादी, मेरे अपराध क्षमा करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दया की है, वह मरते दम तक न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायद तुम लोगों की कुछ सेवा कर सकूँ। मेरी तो जिन्दगी सत्यानाश हो गयी। न दीन का हुआ न दुनिया का। यह भी कह देना, कि उनके गहने मैंने ही चुराये थे। सराफ़ को देने के लिए रुपये न थे। गहने लौटाना जरूरी था। इसलिए यह कुकर्म करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूँ और शायद जब तक प्राण न निकल जायेंगे, भोगता रहूँगा। अगर उसी वक्त सफ़ाई से सारी कथा कह दी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें बुरा लगता, लेकिन यह विपत्ति सिर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा दिया था, दादा। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, कायस्थ हूँ। तुम जैसे देवता से मैंने कपट किया। न जाने इसका क्या दंड मिलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।

रमा बरामदे के नीचे उतर पड़ा और तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया। जालपा भी कोठे से उतरी; लेकिन नीचे आयी तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदीन से बोली- किधर गये हैं दादा ?

देवीदीन ने कहा- मैंने कुछ नहीं देखा बहु। मेरी आंखें आंसू से भरी हुई थीं। वह अब न मिलेंगे। दौड़ते हुए गये थे।

जालपा कई मिनट तक सड़क पर निःस्पन्द-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं ? इस वक्त वह कितने दुःखी हैं, कितने निराश हैं ! मेरे सिर पर न जाने क्या शैतान सवार था, कि उन्हें बुला न लिया। भविष्य का हाल कौन जानता है। न-जाने कब भेंट होगी। विवाहित जीवन के इन दो-ढाई सालों में कभी उनका हृदय अनुराग से इतना प्रकम्पित न हुआ था। विलासिनीरूप में यह केवल प्रेम के आवरण के दर्शन कर सकी। आज त्यागिनी बनकर उसने उसका असली रूप देखा। कितना मनोहर, कितना विशुद्ध, कितना