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ग़बन/भाग 7

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ग़बन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १४३ से – १६० तक

 

रमा०——हाँ, दादा, है तो।

देवी०——मगर हिम्मत न होगी।

रमा०——बहुत ठीक कहते हो दादा। बड़े कम हिम्मत है ! जब से विवाह हुआ, अपनी लड़की तक को तो बुलाया नहीं।

देवी०——समझ गया भैया, वहीं दुनिया का दस्तुर है। बेटे के लिए कहीं चोरी करें, भीख मांगें, बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।

तीन दिन से रमा को नींद न आयी थी। दिन-भर रुपये के लिए मारा-मारा फिरता, रात-भर चिन्ता में पड़ा रहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गयी। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरन्त अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दरी निकाली और तरूत पर बिछाकर बोला——तुम यहाँ आकर लेट रहो भैया, मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूँ।

रमा लेटे रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आँखों से देखता था,मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।

२२

जब रमा कोठे से धम्-धम् नीचे उतर रहा था, उस वक्त जालपा को इसकी जरा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जो ऐसा झुंझला रहा था कि चलकर रमा को खूब खरी खरी सुनाऊँ। मुझसे यह छल-कपट ! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल गये। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ, सरकारी रुपये खर्च कर डाले हों। यही बात है। रतन के रुपये सराफ को दिये होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रुपये उठा लाये थे। यह सोककर उसे फिर क्रोध आया— यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं। क्यों मुझसे बढ़ चढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर गरीब दोनों ही होते है? क्या सभी स्त्रियाँ गहनों से लदी रहती हैं? गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और जरूरी कामों से रुपये बचते हैं, वो गहने भी बन जाते है। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते ! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गयी-गुजरी समझ लिया?

उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूँ, कौन-कौन से गहने
चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बड़ी तेजी से नीचे उतरी। उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इन्तजार कर रहे होंगे। कमरे में प्रायी, तो उनका पता न था। साइकिल रखी हुई थी, तुरंत दरवाजे से झांका ! सड़क पर भी पता न था। कहाँ चले गये? लड़के दोनों स्कूल गये थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाये। उसके हृदय में एक अज्ञात संशय अंकुरित हुआ।फौरन ऊपर गयी, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रुमाल' में बाँधा, फिर नीचे उतरी; सड़क पर आकर एक तांगा किया, और कोचबान से बोली——चु़ंगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरन्त दे दिये?

रास्ते में वह दोनों तरफ बड़े ध्यान से देखती जाती थी। क्या इतनी जल्द इतनी दूर निकल आयें? शायद देर हो जाने के कारण वह भी आज ताँगे ही पर गये है, नहीं तो अब तक जरूर मिल गये होते। ताँगेवाले से बोली—— क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबू जी को ताँगे पर देखा?

ताँगेवाले ने कहा——हाँ माईजी, एक बाबू अभी तो इधर ही से गये हैं।

जालपा को कुछ ढाढ़स हुआ, रमा के पहुँचते-पहुँचते वह भी पहुँच जायेगी। कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुँची तो ग्यारह बज गये थे, कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहाँ बैठते हैं।

सहगा एक चपरासी दिखलायी दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा——सुनो जी, जरा बाबू रमानाथ को बुला लाओ।

चपरासी बोला——उन्हीं को बुलाने तो जा रहा हूँ। बड़े बाबू ने भेजा‌ ‌‌‌‌‌‌है। आप क्या उनके घर ही से आयी है?

जालपा——हाँ, मैं तो घर ही से आ रही है। अभी दस मिनट हुए बह घर से चले हैं।

चपरासी——यहाँ तो नहीं आये।

जालपा बड़े असमन्जस में पड़ी। वह वहाँ भी नहीं आये, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गये कहाँ? उसका दिल बाँसों उछलने लगा। आँखें भर-भर आने लगी। चट्टा बाबू के सिधा वह और किसी को न जानती
थी। उनले बोलने का मन्त्रशर कभी न पड़ा था, पर इस समय उसका संकोच गायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते है। चपरासी से बोली——जरा बड़े बाबू से कह दो...नहीं चलो में ही चलती हूँ। बाबू से कुछ बात करनी है।

जालपा का ठाट-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया; उलटे पाँव बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे ही थी। बड़े बाबू खबर पाते ही तुरन्त बाहर निकल आये।

जाला ने कदम आगे बढ़ाकर कहा——क्षमा कीजिये बाबू' साहब, आपको कष्ट हुआ। वह पन्द्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या अभी तक यहाँ नहीं पाये?

रमेश०——अच्छा, आप मिसेज रमानाथ है ! अभी तो वहाँ नहीं आये। मगर दफ्तर के वक़्त सैर-सपाटे करने की तो उनकी यादत न थी।

जालपा ने चपरासी की ओर ताकते हुए कहा——मैं आपसे कुछ अर्ज करना चाहती हूँ।

रमेश०——तो चलो अन्दर बैठो, यहाँ कब तक खड़ी रहोगी ? मुझे आश्चर्य है कि वह गये कहाँ। कहीं बैठे शतरंज खेल रहे होंगे।

जालपा——नहीं बाबुजी, मुझे ऐसा भय हो रहा है कि वह कहीं और न चले गये हों। अभी दस मिनट हुए, उन्होंने मेरे नाम एक पुरजा लिखा था। (जेब में टटोलकर) जी हाँ, देखिए, यह पुरजा मौजूद है। अाप उन पर कृषा रखते हैं, मापसे तो कोई परदा नहीं ! उनके जिम्मे कुछ सरकारी रुपये तो नहीं निकलते?

रमेश ने चकित होकर कहा—— क्यों, उन्होंने तुमसे कुछ नहीं कहा?

जालपा——कुछ नहीं। इस विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा।

रमेश०——कुछ समझ में नहीं अता। आज उन्हें तीन सौ रुपये जमा करना है। परसों की आमदनी उन्होंने जमा नहीं की थी। नोट थे, जेब में डालकर चल दिये। बाज़ार में किसो ने नोट निकाल लिये। (मुस्कराकर) किसी और देवी की पूजा तो नहीं करते?

जालपा का मुख लज्जा से तत हो गया। बोली——अगर यह ऐब होता, तो आप भी उस इलज़ाम से न बचते। जेब से किसी ने निकाल लिये होंगे।

मारे शर्म के मुझसे न कहा होगा। मुझसे ज़रा भी कहा होता तो तुरन्त रुपये निकालकर दे देती, इसमें बात ही क्या थी।

रमेश बाबू ने अविश्वास के भाव से पूछा——क्या घर में रुपये हैं?

जलपा ने निःशंक होकर कहा——तीन सौ चाहिये न, मैं अभी लिये आती हूँ।

रमेश०——अगर वह घर पर आ गये हों; तो भेज देना।

जलपा आकर टांगे पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का निश्चय कर लिया। यों उसकी कई सहेलियां थीं, जिनसे उसे रुपये मिल सकते थे ! स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनको मित्रता केवल पान-पत्ते तक ही समाप्त नहीं हो जाती; मगर अवसर नहीं था। सराफे पहुँचकर मन में वह सोचने लगी, किस दुकान पर जाऊँ। भय हो रहा था कि कहीं ठगी न जाऊँ। इस सिरे से उस सिरे तक कई चक्कर लगा आयी, किसी दुकान पर जाने की हिम्मत न पड़ी। उधर वक्त भी निकलता जाता था। आखिर एक दुकान पर एक बूढे़ सराफ़ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ। सराफ बड़ा घाघ था, जलपा की झिझक और हिचक देखकर समझ गया, अच्छा शिकर फँसा।

जलपा ने हार दिखाकर कहा——आप इसे ले सकते हैं? .

सराफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा-मुझे चार पैसे की गुंजाइस होगी, तो क्यों न ले लूंगा। माल चोखा नहीं है।

जलपा——तुम्हें लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है; बेचना होता तो चोखा होता। कितने में लोगे?

सराफ़——आप ही न कह दीजिए।

सराफ़ ने साढ़े तीन सौ दाम लगाये, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुँचा। जलपा को देर हो रही थी, रुपचे लिये और चल खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से खरीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न हो गयी थी, उसे आज आधे दामों में बेचकर उसे जरा भी दुःख नहीं हुआ; बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था। जिस वक्त रमा को मालुम होगा कि उसने रुपये दे दिये है, उन्हें कितना आनन्द होगा। कहीं दफ्तर पहुँच गये हों तो बड़ा मजा हो। सोचती हुई

वह दफ्तर पहुँची रमेश बाबू उसे देखते ही बोले——क्या। हुआ,घर पर मिले?

जलपा-क्या अभी तक यहाँ नहीं आये? घर तो नहीं गये। यह कहते हुए उसने नोटों का पुलिन्दा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया।

रमेश बाबू नोटों को गिनकर बोले- ठीक है, मगर यह अब तक कहाँ हैं। अगर न आना था तो एक खत लिख देते। मैं तो बड़े संकट में पड़ा हुआ था। तुम बड़े वक़्त से आ गयी। इस वक़्त तुम्हारी सूझ-बूझ देखकर जी खुश हो गया। यही सच्ची देवियों का धर्म है।

जलपा फिर तांगे पर बैठकर घर चली, तो उसे मालूम हो रहा था मैं कुछ ऊंची हो गयी हूँ। शरीर से एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिन्तित बैठे होंगे। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों लेगी और खूब लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगी। जब घर पहुँची तो रमानाथ का कहीं पता न था।

रामेश्वरी ने पूछा-कहाँ चली गयी थी इस धूप में?

जलपा-एक काम से चली गयी थी। आज उन्होंने भोजन भी नहीं किया, न जाने कहाँ चले गये।

रामेश्वरी——दफ्तर गये होंगे।

जलपा——नहीं, दफ्तर नहीं गये। वहीं से एक चपरासी पूछने आया था।

यह कहती हुई वह ऊपर चली गयी। बचे हुए रुपये सन्दूक में रखें और पंखा झलने लगी। मारे गरमी के देह फुंकी जा रही थी, लेकिन कान द्वार की ओर लगे थे। अभी तक उसे इसकी जरा भी शंका न थी कि रमा ने विदेश की राह ली है।।

चार बजे तक तो जलपा को विशेष चिन्ता न हुई, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, उसको चिन्ता बढ़ने लगी। आखिर वह सबसे ऊँची छत पर चढ़ गयी, हालांकि उसके जीर्ण होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था और वहाँ चारों तरफ़ नजर दौड़ायी;लेकिन रमा किसी तरफ से आता दिखायी न दिया।

जब सन्ध्या हो गयी,और रमा घर न आया तो जलपा काजी घब-
डाने लगा। कहाँ चले गये? वह दफ्तर से बिना घर आये कही बाहर न जाते थे। अगर किसी मित्र के घर जाते, तो क्या अब तक न लौटते? मालूम नहीं जेब में कुछ है भी या नहीं। बेचारे दिन भर से न मालूम कहाँ भटक रहे होंगे। वह फिर पछताने लगी कि उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न हार निकालकर दे दिया? क्यों दुबिवे में पड़ गयी? बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे। कहाँ जाय ! किससे पूछे?

चिराग जल गये, तो उससे न रहा गया। सोचा, शायद रतन से कुछ पता चले। उसके गले पर गयी तो मालूम हुआ, आज तो वह इधर आये ही नहीं।

जालपा ने उन सभी पार्कों और मैदानों को छान डाला, जहाँ रमा के साथ वह बहुधा घूमने जाया करती थी; और नौ बजते-बजते निराश लौट आयी। अब तक उसने अपने आँसुओ को रोका था, लेकिन घर में कदम रखते ही जब उसको मालूम हो गया कि अब तक यह नहीं आये, तो वह हताश होकर बैठ गयी। उसकी यह शंका अब दृढ़ हो गयी कि वह जरूर कहीं चले गये। फिर भी कुछ आशा थी कि शायद मेरे पीछे आये हों और चले गये हों। जाकर रामेश्वरो से पूछा—वह घर आये थे, अम्माजी?

रामेश्वरी-यार दोस्तों में बैठे कहीं गप-शप कर रहे होंगे ! पर तो सराय है। दस बजे घर से निकले थे, अभी तक पता नहीं।

जालपा——दातर से घर पाकर तब कहीं जाते थे। आज तो श्राये ही नहीं। कहिए तो गोपी बाबू को भेज दें, जाकर देखें, कहाँ रह गये।

रामेश्वरी——लड़के इस वक्त कहाँ देखने जायेंगे। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख लो, फिर खाना जलाकर रख देना। कोई कहाँ तक। इन्तजार करे!

जालपा ने इसका कुछ जवाब न दिया। दफ्तर की कोई बात उसने न कही। रामेश्वरी सुनकर घबड़ा जाती और उसी वक्त रोना पोटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गयी, और अपने भाग्य पर रोने लगी। रह-‌रहकर चित्त ऐसा बिकल होने लगा, मानो कलेजे में शूल उठ रहा हो। बार-
बार सोचती, अगर रात-भर न आये, तो कल क्या करना होगा? जब तक कुछ पता न चले कि वह किधर गये, तब तक कोई जाय तो कहाँ जाय। आज उसके मन ने पहली बार स्वीकार किया कि यह सब उसी की करनी का फल है। यह सच है कि उसने कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं किया; लेकिन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया। अगर गहने चोरी हो जाने के बाद वह इतनी अघोर न हो गई होती, तो आज यह दिन क्यों आता ! मन की इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी। वह जानती थी, रमा रिश्वत लेता है, नोच-खसोटकर रुपये लाता है। फिर भी कभी उसने मना नहीं किया। उसने खुद क्यों अपनी कमरो के बाहर पाँव फैलाया ! क्यों उसे रोज़ सैर-सपाटे को सूझती थी? उपहारों को ले लेकर वह क्यो फूली न समाती थी? इस जिम्मेदारी को भी इस वक़्त जालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ प्रेम के वश होकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो सब कुछ करते थे। युवकों का यही स्वभाव है। फिर उसने उनकी रक्षा के लिए क्या किया। क्यों उसे यह समझ न आयी कि आमदनी से ज्यादा खर्च करने का दण्ड एक दिन भोगना पड़ेगा? अब उसे ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं जिनसे उसे रमा के मन को विकलता का परिचय आ जाना चाहिये था, पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया।

जालपा इन्हीं चिन्ताओ में डूबी हुई न जाने कब तक बेठी रही। जब चोकीदार की सीटियों को आवाज उसके कानों में आयी, तो वह नीचे जाकर रामेश्वरी से बोली——वह तो अब तक नहीं आये। आप चलकर भोजन कर लीजिए।

रामेश्वरी बैठे-बैठे झपकियाँ ले रही थी। चौककर बोली——कहाँ चले गये थे?

रामेश्वरी——अब तक नहीं आये ! आधी रात हो गयी होगी। जाते वक्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं ?

जालपा——कुछ भी नहीं।

रामेश्वरी——तुमने तो कुछ नहीं कहा?

जालपा——मैं भला क्या कहती! रामेश्वरी——तो मैं लालाजी को जगाऊँ?

जालपा——इस वक़्त जगाकर क्या कीजिएगा? आप चलकर कुछ खा लीजिए न।

रामेश्वरी——मुझसे अब कुछ न खाया जायेगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा न सूना, न जाने कहाँ जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं इस वक्त न आऊँगा।

रामेश्वरी फिर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहाँ तक कि सारी रात गुजर गयी-पहाड़-सी रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कट रहा था !

२३

एक सप्ताह हो गया, रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता है,कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते हैं।तरह-तरह के अनुमान हो रहे हैं। केवल इतना ही पता चलता है कि रमानाथ ग्यारह बजे रेलवे स्टेशन की ओर गये थे। मुन्शी दयानाथ का सवाल है, यद्यपि वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते, कि रमा ने आत्म हत्या कर ली। एसी दशा में यही होता है। इसकी कई मिसालें उन्होंने खुद आँखों से देखी है। सास और ससुर दोनों ही जालपा पर सारा इलज़ाम थोप रहे है। साफ़-साफ़ कह रहे है कि इसी के कारण उसके प्राण गये। इसने उसका नाखो दान कर दिया। पूछो, थोड़ी-सी तो आपकी आमदनी फिर तुम्हें रोज सैर-सपाटे और दावत-तबाजे' को क्यों सूझती थी? जालपा पर किसी को दया नहीं आती। कोई उसके आँसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसको तत्परता और सदबुध्दि की प्रशंसा करते हैं, लेकिन मुन्शी दयानाथ की आँखों में उस कृत्य का कुछ मूल्य नहीं। आग लगाकर पानी लेकर दौड़ने से कोई निर्दोष नहीं हो जाता।

एक दिन दयानाथ वाचनालय से लौटे तो मुँह लटका हुआ था। एक तो उनको सूरत यो ही मुहर्रमी थी, उस पर मुँह लटका लेते थे तो कोई बच्चा भी कह सकता था कि इनका मिजाज बिगड़ा हुआ है।

रामेश्वरी ने पुछा——क्या है, किसी से कहीं बहस हो गयी क्या?

दयानाथ——नहीं जी, इन तकाज़ों के मारे हैरान हो गया। जिधर

जाओ उधर लोग नोचने दौड़ते हैं। न जाने कितना कर्ज ले रखा है। आज तो मैंने साफ़ कह दिया, मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का थानेदार नहीं हूँ। जाकर मेमसाहब से मांगो।

इसी वक्त जलपा आ पड़ी। ये शब्द उसके कानों में पड़ गये। इन सात दिनों में उसकी सूरत ऐसी बदल गयी थी, कि पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आँखें सूज गयी थी। ससुर के ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला उठी, बोली——जी हाँ! आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उन्हें या तो समझा दूंगी, या उनके दाम चुका दूँगी।

दयानाथ ने तीखे होकर कहा——क्या दे दोगी तुम, हजारों का हिसाब है। सात सौ एक ही सराफ़ के है। अभी के पैसे दिये है तुमने?

जलपा——उसके गहने मौजूद हैं, केवल दो-चार बार पहने गये हैं। वह आये तो मेरे पास भेज दीजिए। मैं उसकी चीजें वापस कर दूँगी। बहुत होगा, दस-पाँच रुपये तावान के ले लेगा!

यह कहती हुई ऊपर जा रही थी कि रतन आ गयी, और उसे गले से लगाती हुई बोली——क्या अब तक कुछ पता नहीं चला?

जलपा को इन शब्दों में स्नेह और सहानुभूति का एक सागर उमड़ता हुआ जान पड़ा। यह गैर होकर इतनी चिन्तित है, और यहाँ अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। इन अपनों से गैर ही अच्छे। आँखों में आंसू भरकर बोली—अभी तो कुछ पता नहीं चला, बहन।

रतन-यह बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा-सुनी नहीं है?

जलपा——जरा भी नहीं, कसम खाती हूँ। उन्होंने नोटों के खो जाने का मुझसे जिक्र ही नहीं किया। अगर इशारा भी कर देते तो मैं रुपये दे देती। जब वह दोपहर तक नहीं आये और मैं उन्हें खोजती हुई दफ्तर गयी तब मुझे मालुम हुआ, कुछ नोट खो गये हैं। उसी वक्त जाकर मैंने रुपये जमा कर दिये।

रतन——मैं तो समझती हूँ; किसी से आँखे लड़ गयी। दस-पांच दिन में आप पता लग जायगा। यह बात सच न निकले, तो जो कहो; जुर्माना दूँ !

जलपा ने घबरा कर पूछा——क्या तुमने कुछ सुना है?

रतन——नहीं, सुना तो नहीं; पर मेरा अनुमान है। जलपा——नहीं रतन, मैं इस पर जरा भी विश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है, और चाहे जितनी बुराइयाँ हों। मुझे उन पर सन्देह करने का कोई कारण नहीं है।

रतन ने हँसकर कहा——इस कला में वे लोग निपुण होते हैं। तुम बेचारी क्या जानो।

जलपा दृढ़ता से बोली——अगर वह इस कला में निपुण होते हैं, तो हम भी हृदय को परखने में कम निपुण नहीं होती॓। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं उनकी स्वामिनी थी।

रतन——अच्छा चलो, कहीं घूमने चलती हो? चलो, तुम्हें कहीं घुमा लावें।

जलपा——नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जीता ही न छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?

रतन——कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था।

जलपा——क्या लेना है?

रतन——जौहरियों की दूकान पर दो-एक चीज देखूँगी। बस, मैं तुम्हारी जेसा कंगन चाहती है। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रुपये लौटा दिये। अब खुद तलाश करूँगी!

जलपा——मेरे कंगन में ऐसे कौन से रूप लगे है। बाजार में उससे बहुत अच्छे मिल सकते हैं।

रतन—— मैं तो उसी नमूने को चाहती हूँ।

जलपा——उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब्र न आता हो तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी।

रतन ने उछलकर कहा——वहा!, तुम अपना कंगन दे दो तो क्या कहना है! मूसलों ढोल बजाऊँ ! छ: सौ का था न?

जलपा——हाँ, था तो छ: सौ का, मगर महीनों सराफ को दूकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठकर करवायी थी। तुम्हारी खातिर दे दूँगी। जलपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिये। रतन के मुख पर एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को पारस मिल गया हो। यही आत्मिक आनन्द की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर में बोली——तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूँ। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया। मगर एक बात है। अभी में सब रुपये न दे सकूँगी, अगर दो सौ रुपये फिर दे दूँ तो कुछ हरज है?

जलपा ने साहसपूर्वक कहा——कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ भी मत दो।

रतन——नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रुपये है। ये मैं दिये जाती हूँ। मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह खर्च हो जायेंगे। मेरे हाथ तो रुपये टिकते ही नहीं, करूँ क्या। जब तक खर्च न हो जाये, मुझे एक चिन्ता-सी लगी रहती है, जैसे सिर पर कोई बोझ सवार हो।

जलपा ने कंगन की डिबिया उसे देने के लिए निकाली तो उसका दिल मसोस उठा। उसकी कलाई पर यह कंगन देखकर रमा कितना खुश होता था! आज वह होता तो क्या यह चीज़ इस तरह जलपा के हाथ से निकल जाती! फिर कौन जाने कंगन पहनना उसे नसीब भी होगा या नहीं। उसने बहुत जब्त किया पर आँसू निकल ही आये।

रतन उसके आँसू देखकर बोली——इस वक्त रहने दो बहन, फिर ले लूंगी, जल्दी ही क्या है।

जलपा ने उसकी ओर बक्सा बढ़ाकर कहा——क्यों क्या मेरे आँसू देखकर? तुम्हारी खातिर से दे रही हूँ। नहीं यह मुझे प्राणों से भी प्रिय था। तुम्हारे पास इसे देखूँगी तो मुझे तस्कीन होती रहेगी। किसी दूसरे को मत देना, इतनी दया करना।

रतन-किसी दूसरे को क्यों देने लगी। इसे तुम्हारी निशानी समझूँगी। आज बहुत दिन के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। केवल दुःख इतना ही है कि बाबूजी अब नहीं हैं। मेरा मन कहता है कि वह जल्दी ही आयेंगे। यह मारे शर्म के चले गये हैं और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुनकर दुःख हुआ। लोग कहते हैं——वकीलों का हृदय कठोर

होता है, मगर इनको तो मैं देखती हूँ, जरा भी किसी की विपत्ति सुनी और तड़प उठे।

जालपा ने मुस्कराकर कहा——बहन, एक बात पूछूँ, बुरा तो न मानोगी? वकील साहब से तुम्हारा दिल तो न मिलता होगा?

रतन का विनोद-रंजित, प्रसन्न मुख एक क्षण के लिए मलिन हो उठा। मानों किसी ने उसे चिर-स्नेह की याद दिला दी हो, जिसके नाम को वह बहुत पहले रो चुकी थी। बोली——मुझे तो कभी यह ख्याल भी नहीं आया बहन, कि मैं युवती हूँ और वे बूढ़े हैं। मेरे हृदय में जितना प्रेम, जितना अनुराग है यह सब मैंने उनके ऊपर अर्पण कर दिया। अनुराग यौवन या रूप या धन से नहीं उत्पन्न होता। अनुराग अनुराग से उत्पन्न होता है। मेरे ही कारण तो वे इस अवस्था में इतना परिश्रम कर रहे हैं। और दूसरा है ही कौन !क्या यह छोटी बात है? कल कहीं चलोगी? कहो तो शाम को आऊँ?

जालप——जाऊँगी तो मैं कहीं नहीं। मगर तुम आना जरूर। दो घड़ी दिल बहलेगा। कुछ अच्छा नहीं लगता। मन डाल-डाल दौड़ता फिरता है। समझ में नहीं आता, मुझसे इतना संकोच क्यों किया। यह भी मेरा ही दोष है। मुझमें जरूर कोई ऐसी बात देखी होगी जिसके कारण मुझसे पर्दा करना उन्हें जरूरी मालूम हुआ। मुझे यही दुःख है कि मैं उनका सच्चा स्नेह पा सकी। जिससे प्रेम होता है, उससे हम कोई भेद नहीं रखते।

रतन उठकर चली, तो जालपा ने देखा—— कंगन का बक्सा मेज़ पर पड़ा हुआ है। बोली—— इसे लेती जाओ बहन, यहाँ क्यों छोड़े जाती हो?

रतन—— ले जाऊँगी, अभी क्या जल्दी पड़ी है। अभी पूरे रुपये भी तो नहीं दिये।

जालपा——नहीं, लेती जाओ। मैं न रखूंगी।

मगर रतन सीढ़ी से नीचे उतर गयी। जालपा हाथ में कंगन लिये खड़ी रही। थोड़ी देर के बाद जालपा ने संदूक से पांच सौ रुपये निकाले,और दयानाथ के पास जाकर बोली—— ये रुपये लीजिए, नारायणदास के पास भिजवा दीजिए। बाकी रुपये भी जल्द ही दे दूँगी। दयानाथ ने झेंंप कर कहां—— रुपये कहाँ मिल गये? जालपा ने निःसंकोच होकर कहा—— रतन के हाथ कंगन बेच दिया।दयानाथ उसका मुँह ताकने लगे।

२४

एक महीना गुजर गया। प्रयाग के सबसे अधिक छपनेवाले दैनिक पत्र में एक नोटिस निकल रहा है, जिसमें रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दी गयी है, और उनका पता लगा लेने वाले आदमी को पाँच सौ रुपये इनाम देने का बचन दिया गया है: मगर अभी तक कोई खबर नहीं आयी। जालपा चिन्ता और दुःख से घुलती चली जाती है। उसकी दशा देखकर दयानाथ को भी उस पर दया आने लगी। आखिर एक दिन उन्होंने दीनदयाल को लिखा——आप आकर बहू को कुछ दिनों के लिए लें जाइये दीनदयाल यह समाचार पाते ही घबड़ाये हुए आये; पर जालपा ने मैके जाने से इनकार कर दिया।

दीनदयाल ने विस्मित होकर कहा——क्या यहाँ पड़े-पड़े प्राण देने का विचार है?

जालपा ने गम्भीर स्वर में कहा—— अगर प्राणों को इसी भाँति जाना होगा, तो कौन रोक सकता है। मैं अभी नहीं मरने की दादाजी, सच मानिए। अभागिनों के लिए वहाँ भी जगह नहीं।

दीनदयाल——आखिर चलने में हरज ही क्या है। शहजादी और बसन्ती दोनों आयी हुई हैं। उनके साथ हँस-बोलकर जी बहलता रहेगा।

जालपा——यहाँ लाला और अम्माजी को अकेली छोड़ जाने को मेरा जी नहीं चाहता। जब रोना ही लिखा है, तो रोऊँगी।

दीनदयाल——यह बात क्या हुई? सुनते हैं, कुछ कर्ज हो गया था। कोई कहता है——सरकारी रकम खा गये थे।

जालपा——जिसने आपसे यह कहा, उसने सरासर झूठ कहा।

दीनदयाल——तो फिर क्यों चले गयें।

जालपा——यह मैं बिलकुल नहीं जानती। मुझे बार-बार खुद यही शंका होती है।

दीनदयाल——लाला दयानाथ से तो झगड़ा नहीं हुआ?

जालपा——लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक

नहीं खाते, भला झगड़ा क्या करेंगे। उन्हें घूमने का शौक था। सोचा होगा——यों तो कोई जाने न देगा,चलो भाग चलें।

दीनदयाल——शायद ऐसा ही हो। कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहाँ जो तकलीफ हो, मुझसे साफ़-साफ़ कह दो। खरच के लिए कुछ भेज दिया करूँ?

जालपा ने गर्व से कहा—— मुझे कोई तकलीफ नहीं है, दादाजी। आपकी दया से किसी चीज की कमी नहीं है।

दयानथ और रामेश्वरी, दोनों ने जालपा को समझाया; पर वह जाने पर राजी न हुई। तब दयानाथ झुंंझलाकर बोले- यहाँ दिन भर पड़े-पड़े रोने से तो अच्छा है!

जालपा——क्या वह कोई दूसरी दुनिया है? क्या मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊँगी? और फिर रोने से क्यों डर? जब हँसना था, तब हँसती थी; जब रोना है, तब रोऊँगी। वह काले कोसों चले गये हों, पर मुझे तो हर- क्षण यहीं बैठे दिखायी देते हैं। यहाँ वे स्वयं नहीं हैं, पर घर की एक-एक चीज में बसे हुए हैं। यहाँ से जाकर तो मैं निराशा से पागल हो जाऊँगी।

दीनदयाल समझ गये, यह अभिमानिनी अपनी टेक न छोड़ेगी। उठकर बाहर चले गये। संध्या समय चलते वक्त, उन्होंने पचास रुपये का एक नोट जालपा की तरफ बढ़ाकर कहा——इसे रख लो, शायद कोई जरूरत पड़े।

जालपा ने सिर हिलाकर कहा——मुझे इसकी बिल्कुल जरूरत नहीं है, दादाजी। हाँ इतना चाहती है कि आप मुझे आशीर्वाद दें। सम्भव है, आपके आशीर्वाद से मेरा कल्याण हो।

दीनदयाल की आँखों में आँसू भर आये, नोट वहीं चारपाई पर रखकर बाहर चले आये।

क्वार का महीना लग चुका था। मेध के जल-शून्य टुकड़े कभी-कभी'आकाश में दौड़ते नजर आ जाते थे। जालपा छत पर लेटी हुई उन मेघ- खण्डों की किलीलें देखा करती चिन्ता व्यथित प्राणियो के लिये इससे अधिक मनोरंजन की वस्तु ही कौन है? बादल के टुकड़े भाँति-भाँति के रंग बदलते, भाँति-भाँति के रूप भरते। कभी आपस में प्रेम से मिल जाते. कभी रूठकर अलग-अलग हो जाते, कभी दौड़ने लगते, कभी ठिठक जाते। जालपा
सोचती रमानाथ भी कहीं बैठे यही मेध-क्रीड़ा देखते होंगे। इस कल्पना में उसे विचित्र आनन्द मिलता। किसी माली को अपने लगाये पौधों से, किसी बालक को अपने बनाये हुए घरौंदों से जितनी आत्मीयता होती है, कुछ वैसा ही अनुराग उसे उन आकाशगामी जीवों से होता था, विपत्ति में हमारा मन अन्तर्मुखी हो जाता है। जालपा को अब यही शंका होती थी, कि ईश्वर ने मेरे पापों का दण्ड दिया है। आखिर रमानाथ दूसरों का गला दबाकर ही तो रोज रुपये लाते थे। कोई खुशी से तो न देता था। यह रुपये देखकर वह कितनी खुश होती थी। इन्हीं रुपयों से तो नित्य शौक-श्रृंंगार की चीजें आती रहती थीं ! उन वस्तुओ को देखकर अब उसका जी जलता था। यही सारे दुखों की मूल हैं। इन्हीं के लिए तो उसके पति को विदेश जाना पड़ा। ये चीजें उसकी आँखों में अब काँँटों की तरह गड़ती थी, उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थी।

आखिर एक दिन उसने इन सब चीजों को जमा किया—मखमली स्लीपर, रेशमी मोजे, तरह-तरह की बेलें, फ़ोते, पिन, कंधियाँ, आइने, कोई कहां तक गिनाये। अच्छा खासा एक ढेर हो गया। वह इस ढेर की गंगाजी में डुबा देगी, और अबसे एक नए जीवन का सूत्रपात करेगी। इन्हीं वस्तुओं के पीछे आज उसकी यह गति हो रही है। आज वह इस माया-जाल को नष्ट कर डालेगी। उसमें कितनी ही चीजें ऐसी सुन्दर थी कि उन्हें फैंंकते मोह आता था, मगर ग्लानि को उस प्रचण्ड ज्वाला को पानी के छींटे क्या बुझाते। आधी रात तक वह चीजों को उठा-उठाकर अलग रखती रही, मानों किसी यात्रा की तैयारी कर रही हो। हाँ, यह वास्तव में यात्रा ही थी— अंधेरे से उजाले को; मिथ्या से सत्य को। मन में सोच रही थी, अब यदि ईश्वर की दया हुई और वह फिर लौटकर आये, तो वह इस तरह घर रखेगी कि थोड़े-से-थोड़े में निर्वाह हो जाय। एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करेगी। अपनी मजदूरी के उपर एक कौड़ी भी घर न आने देगी। आज उसके नये जीवन का प्रारम्भ होगा।

ज्यों ही चार बजे, सड़क पर लोगों के आने-जाने की आहट मिलने लगी, जालपा ने बेग उठा लिया, और गंगा स्नान करने चली। बेग बहुत भारी था, हाथ में उसे लटकाकर दस कदम भी चलना कठिन हो गया। बार-बार
हाथ बदलती थी ! यह भय भी लगा हुआ था कि कोई देख न ले। बोझ लेकर चलने का उसे कभी अवसर न पड़ा था। इक्केवाले चुकारते थे पर वह उधर कान न देती थी। यहां तक कि हाथ बेकाम हो गये,तो उसने बेग को पीठ पर रख लिया, और कदम बढ़ाकर चलने लगी। लम्बा चूंघट निकाल लिया था कि कोई पहचान न सके।

वह घाट के समीप पहुँची तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनो मोटर पर आते देखा। उसने चाहा, सिर झुकाकर मुंह छिपा ले, पर रतन ने दूर ही से पहचान लिया। मोटर रोककर बोली-कहाँ जा रही हो बहन, यह पीठ पर बेग कैसा है? जालपा ने घूंघट हटा लिया और निशंक होकर बोली——गंगा-स्नान करने जा रही हूँ!

रतन——मैं तो स्नान करके लौट आयी। लेकिन चलो, तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें घर पहुँचाकर लौट जाऊँगी। बेग रख दो।।

जालपा——नहीं-नहीं, यह भारी नहीं है। तुम जाओ, तुम्हें देर होगी। मैं चली जाऊँगी।

मगर रतन ने मोटर कार से उतरकर उसके हाथ से बेग ले ही लिया और कार में रखती हुई बोली——क्या भरा है तुमने इसमें, बहुत भारी है। खोलकर देखू?

जालपा——इसमें तुम्हारे देखने लायक कोई चीज नहीं है।

बेग में ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा, तो विस्मित होकर बोली——इन चीजों को कहां लिये जाती हो?

जालपा ने कार पर बैठते हुए कहा——इन्हें गंगाजी में बहा दूंगी।

रतन ने और भी विस्मय में पड़कर कहा——गंगा में ! कुछ पागल तो नहीं हो गयी? चलो, घर लौट चलो। बेग रखकर फिर आ जाना।

जालपा ने दृढ़ता से कहा——नहीं रतन, मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊँगी।

रतन——आखिर क्यों?

जालपा——पहले कार को बड़ाओ, फिर बताऊँ।

रतन——नहीं, पहले बता दो! जालपा——नहीं यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ।

रतन ने हारकर कार को बढ़ाया और बोली——अच्छा अब तो बताओगी।

जालपा ने उलाहने के भाव से कहा—— इतनी बात तो तुम्हें खुद ही समझ लेनी चाहिए थी ! मुझसे क्या पूछती हो। अब ये चीजें मेरे किस काम की हैं। इन्हें देख-देखकर मुझे दुःख होता है। जब देखने वाला ही न रहा,तो इन्हें रखकर क्या करूँ।

रतन ने एक लम्बी सांस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर काँपते हुए स्वर में बोली——बाबुजी के साथ तुम यह बड़ा अन्याय कर रही हो बहन!वह कितनी उमंग से इन्हें लाये होंगे। तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा देखकर कितने प्रसन्न हुए होंगे। एक-एक चीज उनके प्रेम की एक-एक स्मृति है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस प्रेम का घोर अनादर कर रही हो!

जालपा विचार में डूब गयी, मन में संकल्प-विकल्प होने लगा; किन्तु एक ही क्षण में वह फिर संभल गयी। बोली——यह बात नहीं है बहन, जब तक ये चीजें मेरी आँखों से दूर न हो जायेंगी, मेरा चित्त शान्त न होगा। इसी विलासिता ने मेरी यह दुर्गति की है। यह मेरे विपत्ति की गठरी है, प्रेम की स्मृति नहीं। प्रेम तो मेरे हृदय पर अंकित है।

रतन——तुम्हारा हृदय बड़ा कठोर है जालपा, मैं तो शायद ऐसा न कर सकती।

जालपा——लेकिन मैं तो इन्हें अपनी विपत्ति का मूल समझती हूँ।

एक क्षण चुप रहने के बाद वह फिर बोली——उन्होंने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, बहन। जो पुरुष अपनी स्त्री से कोई परदा रखता है, मैं समझती हूँ, वह उससे प्रेम नहीं करता। मैं उनकी जगह पर होती तो यों तिलांजलि देकर न भागती। अपने मन की सारी व्यथा कह सुनाती, और जो कुछ करती, उनकी सलाह से करती। स्त्री और पुरुष में दुराव कैसा?

रतन ने गम्भीर मुस्कान के साथ कहा—— ऐसे पुरूष तो बहुत कम होंगे जो स्त्री से अपना दिल खोलते हों। जब तुम स्वयं दिल में चोर रखती हो, तो उनसे क्यों आशा रखती हो कि वे तुमसे कोई परदा न रखें। तुम ईमान से कह सकती हो कि तुमने उनसे परदा नहीं रखा? जालपा ने सकुचाते हुए कहा——मैंने तो अपने मन में परदा नहीं रखा।

रतन ने जोर देकर कहा——झूठ बोलती हो, बिल्कुल झूठ ! अगर तुमने विश्वास किया होता, तो वे भी खुलते।

जालपा इस आक्षेप को अपने सिर से न टाल सकी। उसे आज ज्ञात हुआ कि कपट का आरम्भ पहले उसी की ओर से हुआ।

गंगा का तट आ पहुँचा। कार रुक गयी। जालपा उतरी और बेग को उठाने लगी किन्तु रतन ने उसका हाथ हटाकर कहा——नहीं, मैं इसे न ले जाने दूँगी। समझ लो कि डूब गये।

जालपा——ऐसा कैसे समझ लूँ?

रतन——मुझ पर इतनी दया करो, बहन के नाते।

जालपा——बहन के नाते तुम्हारे पैर धो सकती हूँ, मगर इन काँटों को हृदय में नहीं रख सकती।

रतन ने भौहें सिकोड़कर कहा——किसी तरह न मानोगी?

जालपा ने स्थिर भाव से कहा——हाँ किसी तरह नहीं!

रतन ने विरक्त होकर मुंह फेर लिया। जालपा ने बैग उठा लिया, और तेजी से घाट से उतरकर जल-तट तक पहुंच गयी;फिर बेग को उठाकर पानी में फेंक दिया। अपनी निर्बलता पर विजय पाकर उसका मुख प्रदीप्त हो गया। आज उसे जितना गर्व और आनन्द हुआ, उतना इन चीजों को पाकर भी न हुआ था। उन असंख्य प्राणियों में जो इस समय स्नान-ध्यान कर रहे थे, कदाचित किसी को अपने अन्तःकरण में प्रकाश का ऐसा अनुभव न हुआ होगा। मानो प्रभात की सुनहरी ज्योति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो रही है। जब वह स्नान करके ऊपर आयी, तो रतन ने पूछा——डुबा दिया?

जालपा——हाँ।

रतन——बड़ी निष्ठुर हो!

जालपा——यही निष्ठुरता मन पर विजय पाती है। अगर कुछ दिन पहले निष्ठुर हो जाती तो यह दिन क्यों आता!

कार चल पड़ी।

२५

रमानाथ को कलकत्ते आये हुए दो महीने से ऊपर हो गये हैं। वह अभी