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ग़बन/भाग 6

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ग़बन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १२३ से – १४२ तक

 

मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यही सलूक करता, बल्कि शायद इससे सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूँ। मेरे पास रुपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो। हाँ, किसी का कर्ज नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता हूँ, न किसी से लेता हूँ। कल रुपये न पाये तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया, वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियाँ होतीं।

हथकड़ियाँ! यह शब्द तीर को भांति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पाँव तक कांप उठा। उस विपत्ति की कल्पना करके उसकी आँखे डबडबा आयीं। वह धीरे-धीरे सिर झुकाये सजा पाये हुए कैदी की भाँति जाकर अपनी कुरसी पर बैठ गया; पर वह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके हृदय में गूंज जाता था।

आकाश पर काली घटाएँ छायी थीं। सूर्य का कहीं पता न था, यह भी क्या उस घटा रूपी कारागार में बंद है? क्या उसके हाथों में भी हथकड़ियाँ है?

२०

रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबु दौड़े हुए आये और कल साये लाने की ताकीद की। रमा मन में झुँझला उठा। आप बड़े ईमानदार की दुम बने हैं? ढोंगिया कहीं का ! अगर अपनी जरूरत आ पड़े तो दूसरों के तल्वे सहलाते फिरेंगे; पर मेरा काम है तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं ! मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे !

कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलूं। और ऐसा कोई न था जिससे रुपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा तो वह अपने बंगले में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुजराती जौहरी बैग सन्दूक से सुन्दर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत खुश हुई। आइए बाबू साहब, देखिए, सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चोजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुन्दर है, इसके दाम बारह सौ रुपये बताते हैं। रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा, और कहा-हाँ, चीज तो अच्छी मालूम होती हैं।

रतन——दाम बहुत कहते है।

जोहरी——बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हजार में ला दे तो जो जुरमाना कहिए, दूँ। बारह सौ मेरी लागत बैठ गयी है।

रमा ने मुस्कराकर कहा- ऐसा न कहिए सेठजी, जुरमाना देना पड़ जायेग।

जौहरी——बाबू साहब, हार तो सौ रुपये में भी आ जायेगा, और बिल्कुल ऐसा ही, बल्कि चमक-दमक से इससे भी बढ़कर; मगर माल परखना चाहिए। मैंने खुद ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की; मोल-तोल अनाड़ियों से किया जाता है। आपसे क्या मोलतोल। हम लोग निरे रोज़गारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का मिजाज देखते हैं। श्रीमती जी ने क्या अमीराना मिजाज दिखाया है कि वाह!

रतन ने हार को छुब्ध नेत्रों से देखकर कहा-कुछ तो कम कीजिए सेठजी, आपने तो जैसे कसम खा ली।

जौहरी——कमी का नाम न लीजिए हुजूर ! यह चीज आपकी भेंट है।

रतन——अच्छा अब एक बात बतला दीजिए। कम-से-कम आप क्या लेंगे?

जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा——बारह सौ रुपये और बारह कौड़ियाँ होंगी; हुजूर। आपके कसम खाकर कहता हूँ, इसी शहर में पन्द्रह सौ की बेचूँगा, और आपसे कह जाऊँगा, किसने लिया।

यह कहते हुए जौहरी ने हार के रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भाँति अधीर होकर बोली——आप तो ऐसा समेटे लेते हैं कि हार को नजर लग जायेगी!

जोहरी——क्या करूँ हुजूर! जब ऐसे दरबार में चीज की कदर नहीं होती, तो दुःख होता ही है।

रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली——आप समझते हैं यह कुछ और उतरेगा? रमा——मेरी समझ में तो भी एक हजार से ज्यादा की नहीं है।

रतन——संह, होगा ! मेरे पास तो छ: सौ रुपये हैं। आप चार सौ रुपये का प्रबन्ध कर दें तो ले लूँ। वह इसी गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मांंगेगा। वकील साहब किसी जलसे में गये हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रूपये लौटा दूंगी!

रमा ने बड़े संकोच के साथ कहा——विश्वास मानिये, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ। मैं तो आपसे रुपये मांगने आया था। मुझे बड़ी सख्त जरूरत है। यह रुपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जायगा।

रतन——चलिए, में आपकी बातों में नहीं आती। छ: महीने में एक कंगन तो बनवा न सके, अब हार क्या लायेंगे? मैंने यहाँ कई दुकानें देख चुकी है। ऐसी चीज़ शायद ही कहीं निकले और निकले भी, तो उसके दोगुनी दाम देने पड़ेंगे।

रमा——तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदा बेचने की गरज होगी तो आज जरूर ठहरेगा।

रतन——अच्छा कहिए, देखिए क्या कहता है।

दोनों कमरे के बाहर निकले। रमा ने जौहरी से कहा——तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?

जौहरी——नहीं हुजूर, कल काशी में दो-चार बड़े रईसों से मिलना है। आज न जाने से बड़ी हानि हो जायेगी।

रतन——मेरे पास इस वक्त छ: सौ रुपये है, आप हार दे जाइए, बाकी के रुपये काशी से लौटकर ले जाइयेगा।

जौहरी——रूपये का तो कोई हर्ज न था, महीने-दो-महीने में ले लेता; लेकिन हम परदेसी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहाँ हैं, कल वहाँ हैं, कौन जाने यहाँ फिर कब आना हो? आप इस वक्त इसका एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा।

रमा——तो सौदा न होगा।

जौहरी——इसका अखितयार आपको है, मगर इतना कहे देता हूँ कि ऐसा सौदा फिर न पाइयेगा। रमा०—रूपये होंगे तो माल बहुत मिल जायेगा।

जौहरी——कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता। यह कहकर जौहरी ने फिर हार को केस में रखा और इस तरह सन्दुक को समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रुकेगा।

रतन का रोआँ-रोआँ काम बना हुआ था, मानों कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खड़ा हो। उसके हृदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग को सारो अधीरता, उत्कंठा और चेष्टा उसी हार पर केन्द्रित हो रही थी, मानों उस के प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानों उसके जन्म-जन्मान्तरों को संचित अभिलाषा-सी हार पर मंडरा रही थी। जोहरी को सन्दूक बन्द करते देखकर वह जल विहीन मछली की भाँति तड़पने लगी। कभी वह सन्दूक खोलती, कभी वह दराज खोलती; पर रुपये कहीं न मिले।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा——आप तो नौ बजे आने को कह गये थे?

वकील——वहाँ कोरम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता? कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है?

जौहरी ने उठकर सलाम किया।

वकील साहब रतन से बोले——क्यों, तुमने कोई चीज़ पसन्द की?

रतन——हाँ, एक हार पसन्द किया है, बारह सौ रुपये माँगता है।

वकील——बस! और कोई चीज पसन्द करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं है।

रतन——इस वक्त मैं यही हार लेंगी। आजकल सिर की चीजें कोन पहनता है।

वकील——लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी; नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया,तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।

वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा स्नेह
था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लडकी से पूछ-पछुकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे, उसके कहने-भर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज ही क्या थी? उन्हें अपने जीवन में एक आधार को जरूरत थी, संदेह आधार की, जिसके सहारे इस जीवंत दशा में भी जीवन-संग्राम में खड़े रह सके, जैसे— किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फूल चढ़ाये, किसे गंगा जल से नहलाये, किसे स्वादिष्ट चीजों का भोग लगाये। इसी भाँति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए संदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित्र रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आँखो के बिना मुख।

रतन ने केस से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली——इसके बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील साहब को निगाह में रुपये का मूल्य उसकी आनन्ददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसन्द है, तो उन्हें इसकी परवा न थी कि इस के क्या दाम पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा-सच-सच बोलो, कितना लिखूँ? अगर फर्क पड़ा तुम जानो।

जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला- साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए। वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ।

रतन का मुख इस समय वसन्त की प्राकृतिक शोभा की भाँति विकसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी भी न दिखायी दिया था। मानों उसे इस समय संसार की सम्पत्ति मिल गयी है।

हार को गले में लटकाके वह अन्दर चली गयी। वकील साहब के आचार-विचार में नयी और पुरानी प्रयामां का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने लगी। अपनी कृतज्ञता को वह कैसे जाहिर करे? रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का योरोप-गौरव-गान सुनता रहा, अन्त में निराश होकर चल दिया।

२१

अगर इस समय किसी को संसार में सबसे दुःखी, जीवन से निराश, चिन्ताग्नि में जलते हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो तो उस युवक को देखे, जो साइईकिल पर बैठा हुआ अलफ्रेड-पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला सांंप नजर आये, तो वह दोनों हाथ फैलाकर उसका स्थागत करेगा और उसके विष को सुधा की तरह पियेगा। उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब विष ही से हो सकती है। मौत ही अब उसके चिन्ताओं का अन्त कर सकती है। लेकिन क्या मौत उसे बदनामी से भी बचा सकती है ? सबेरा होते ही यह बात घर-घर फैल जायेगी——सरकारी रुपया खा गया और जब पकड़ा गया, तब आत्म-हत्या कर ली। कुल में कलंक लगाकर मरने के बाद भी अपनी हँसी कराके चिन्ताओं से मुक्त हुआ तो क्या, लेकिन दुसरा उपाय ही क्या है?

अगर वह इस समय जाकर जालपा से सारी स्थिति कह सुनाये, तो वह उसके साथ अवश्य सहानुभूति दिखायेगी। जालपा को चाहे कितना ही दुःख हो, पर अपने गहने निकालकर देने में एक क्षण का भी विलम्बन न करेगी। गहनों को गिरवी रखकर वह सरकारी रुपये अदा कर सकता है। उसे अपना परदा खोलना पड़ेगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं।

मन में निश्चय करके रमा घर की ओर चला। पर उसकी चाल में वह तेजी न थी जो मानसिक स्फूर्ति का लक्ष्य है।

लेकिन घर पहुंचकर उसने सोचा——जब यही करना है तो जल्दी क्या हैं, जब चाहूँगा, माँग लूंगा। कुछ देर गपशप करता रहा, फिर खाना खाकर लेटा। सहसा उसके जी में आया, क्यों न चुपके से कोई चीज़ उठा ले जाऊँ? कुल-मर्यादा की रक्षा करने के लिए एक बार उसने ऐसा किया भी था। उसी उपाय से क्या वह प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता? अपनी जबान से तो शायद वह कभी अपनी विपत्ति का हाल न कह सकेगा। इसी प्राकार आगे-पीछे में पड़े हुए सबेरा हो जायेगा। और तब उसे कुछ कहने का अवसर हो न मिलेगा। मगर उसे फिर शंका हुई, कहीं जालपा की आँख न खुल जाये? फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के सिवा और कोई स्थान ही न रह जायेगा। जो कुछ भी हो, एक बार तो यह उद्योग करना ही पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनो छाती पर से हटाया, और नीचे खड़ा हो गया। उसे ऐसा ख्याल हुआ कि जालपा हाथ हटाते ही चौकी और मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था ! उसे अब जालपा के सलूके की जेब से तालियों का गुच्छा निकालना था। देर करने का अवसर न था। नींद में भी निम्न चेतना अपना काम करती रहती हैं। बालक कितना ही ग़ाफ़िल सोया हो, माता कि चारपाई से उटते ही जाग पड़ता है। लेकिन जब चाबी निकालने के लिए झूका तो उसे जान पड़ा कि जालपा मुसकरा रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैम्प के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। हा, इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वास-घात करूं ? जिसके लिए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूँ उसी के साथ यह कपट? जालपा का निष्कपट स्नेह पूरी हृदय मानों उसके मुख- मंडल पर अंकित हो रहा था। बाह ! जिस समय इसे ज्ञात होगा कि इसके गहने फिर चोरी हो गये, इसकी क्या दशा होगी? पछाड़ खायेगो, सिर के बाल नोचेगी। वह किन आँखों से उसका वह क्लेश देखेगा? उसने सोचा——मैंने इसे आराम ही कौन-सा पहुँचाया है? किसी दूसरे से विवाह होता तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आयी जहाँ कोई सुख नहीं। उलटे और रोना पड़ा।

रमा फिर चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त जालपा की आँखें खुल गयी। उसके मुख की ओर देखकर बोली——तुम कहाँ गये थे? मैं बड़ा अच्छा सपना देख रही थी। बड़ा बाग है और हम तुम दोनों उस में टहल रहे है।

इतने में न जाने तुम कहाँ चले जाते हो और एक साधु आकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। बिल्कुल देवताओं का-सा उसका स्वरूप है। वह मुझसे कहता है——बेटी, तुझे वर देने आया हूँ ! माँग क्या माँगती है? तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूँ कि तुमसे पूछूँ, क्या माँँगू !और तुम कहीं दिखायी नहीं देते। मैं सारा बाग छान आयी, पेड़ों पर झाँककर देखा, तुम न जाने कहाँ चलें गये हो। बस, इतने में नींद खुल गयी, वरदान न मांगने पाई ! रमा ने मुस्कुराते हुए कहा-क्या वरदान मांगती?

'माँगती जो जी में आता, तुम्हें क्यों बता दूँ?

'नहीं बताओ, शायद तुम बहुत-सा धन माँगती।'

'धन को तुम बहुत बड़ी चीज समझते होगे। मैं तो कुछ नहीं समझती।'

'हाँ, मैं तो समझता हूँ। निर्धन रहकर जीना मरने से भी बदतर है।

मैं अगर किसी देवता को पकड़ पाऊँ, तो बिना काफी रुपये लिये न माँँनू।

मैं सोने की दीवार नहीं खड़ा करना चाहता, न राकफेलर और कारनेगी बनने की मेरी इच्छा है; मैं केवल इतना धन चाहता हूँ कि जरूरत की मामूली चीजों के लिए तरसना न पड़े। बस, कोई देवता मुझे पाँच लाख दे दे, तो मैं फिर उससे कुछ न मागूंगा। हमारे ही गरीब मुल्क में ऐसे कितने ही रईन, सेठ, ताल्लुकेदार है जो पाँच लाख एक साल में खर्च करते हैं, बल्कि कितनों ही का तो माहवार खर्च पांच लाख' होगा। मैं तो इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूँ; मगर मुझे कोई इतना भो नहीं देता। तुम क्या माँगती? अच्छे-अच्छे गहने?

जालपा ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा——क्यों चिढ़ाते हो मुझे, क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज्यादा जान देती हूँ? मैंने तो तुमसे कभी पात्रह नहीं किया। तुम्हें जरूरत हो, तो अाज उन्हें उठा ले जानो, मैं खुशी से दे दूँगी।

रमा ने मुसकराकर कहा——तो फिर बतलाती क्यों नहीं?

जालपा——मैं यही माँगती, कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे. उसका मन कभी मुझसे न फिरे?

रमा ने हँसकर कहा——क्या तुम्हें इसको भी शंका है?

'तुम देवता भी होते, तो शंका होती, तुम तो आदमी हो। मुझे तो ऐसी कोई स्त्री न मिली जिसने अपनी पति की निष्ठुरता का दुखड़ा न रोया हो।

साल-दो-साल तो वह खूब प्रेम करते हैं; फिर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरुचि सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बड़ी विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा में और क्या वरदान मांगती? —— यह कहते हुए जालपा ने पति के गले में बाहें डाल दी और प्रणय-खचित नेत्रों से देखती हुई बोली——सच बताना, तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहते हो जैसे पहले चाहते थे? देखो, सच कहना, बोलो! रमा ने जालपा के गले से सिमटकर कहा——उससे कहीं अधिक, लाख गुना!

जालपा ने हँसकर कहा——झूट बिलकुल झूठ ! सोलहो आना झूठ !

रमा——यह तुम्हारी जबरदस्ती है। आखिर ऐसा तुम्हें कैसे जान पड़ा? मालपा——आँखों से देखती हूँ, और कैसे जान पड़ा? तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। देखो, तुम गुम सुम रहते हो। मुझसे प्रेम होता तो मुझपर विश्वास भी होता। बिना विश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है? जिससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे तुम प्रेम नहीं कर सकते। हाँ, उस के साथ विहार कर सकते हो, उसी तरह जैसे कोई वेश्या के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनन्द उठाने ही जाते हैं, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। हमारी भी वही दशा है। बोलो, है या नहीं? आँखें क्यों छिपाते हो? क्या मैं देखती नहीं कि तुम बाहर से घबड़ाये हुए आते हो? बातें करते समय देखती हूँ, तुम्हारा मन किसी और तरफ़ रहता है। भोजन में भी देखती हूँ, तुम्हें कोई आनन्द नहीं आता। दाल गाड़ी है या पतली, शाक कम है या ज्यादा, चावल में कमी है या पक गये हैं, इस तरफ तुम्हारी निगाह नहीं जाती। की तरह भोजन करते हो और जल्दी से भागते हो। मैं यह सब क्या नहीं देखती? मुझे देखना न चाहिए ! मैं बिलासिनी हूँ. इस रूप में तुम मुझे देखते हो। मेरा काम है-विहार करना, विलास करना, आनन्द करना। मुझे तुम्हारी चिताओं ने मतलब? मगर ईश्वर ने वेसा हृदय नहीं दिया। क्या करूँ? मैं समझती हूँ जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूँ, तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूँ?

जालपा ने रमा से कभी दिल खोलकर बात न की थी। वह इतनी विचारशील है, उसने अनुमान ही न किया था। वह उसे वास्तव में रमणी ही समझता था। अन्य पुरुषों की भांति यह भी पत्नी को इसी रूप में देखता था। वह उसके यौवन पर मुन्ध था। उसकी आत्मा का स्वरूप देखने की चेष्टा कभी न की। शायद यह समझता था, इसमें आत्मा है ही नहीं। अगर वह रूप लावण्य की राशि न होती, तो कदाचित् वह उससे बोलना भी पसन्द न करता। उसका सारा आकर्षण, उसकी सारी आसक्ति केवल उसके रूप पर
थी। यह समझता था, जालपा इसी में प्रसन्न है। अपनी चिन्ताओं के बोझ से वह उसे दबाना नहीं चाहता था, पर आज उसे ज्ञात हुआ, जालपा उतनी ही चिन्तनशील है, जितना वह खुद था। इस वक्त उसे अपनी मनोव्यथा कह डालने का बहुत ही अच्छा अवसर मिला था पर हाय संकोच ! इसने फिर उसकी जबान बन्द कर दी। जो बातें वह इतने दिनों तक छिपाये रहा, यह अब कैसे कहे? क्या ऐसा करना जालपा के आरोपित आक्षेपों को स्वीकार करना न होगा? हाँ, उसकी आँखों से आज भ्रम का परदा उठ गया। उसे ज्ञात हुआ, कि विलास पर प्रेम का निर्माण करने की चेष्टा करना उसका अज्ञान था।

रमा इन्हीं विचारों में पड़ा पड़ा सो गया। उस समय आधी रात के ऊपर गुजर गयी थी। सोया तो इसी सबब से था कि बहुत सबेरै उठ जाऊँगा,पर नींद खुली तो कमरे में धूप की किरणों आ-आकर जगा रही थीं। वह चटपट उठा और बिना मुँह हाथ धोये कपड़े पहनकर जाने को तैयार हो गया। वह रमेश बाबू के पास जाना चाहता था। आज उनसे यह कथा कहनी पड़ेगी। स्थिति का पूरा ज्ञान हो जाने पर कुछ-न-कुछ सहायता करने पर तैयार हो जायेंगे।

जालपा उस समय भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। रमा को इस भाँति जाते देखकर प्रश्न-सूचक नेत्रों से देखा। रमा के चेहरे पर चिन्ता, भय. चंचलता और हिंसा मानों बैठी घूर रही थीं। एक क्षण के लिए वह बेसुध -सी हो गयी। एक हाथ में छुरी और दूसरे में एक करेला लिये हुए यह द्वार की ओर ताकती रही। यह बात क्या है? उसे कुछ बताते क्यों नहीं? वह और कुछ न कर सके, हमदर्दी तो कर ही सकती है। उसके जी में आया,पुकार कर पुछूँँ क्या बात है। उठकर द्वार तक आयी भी, पर रमा सड़क पर दूर निकल गया था। उसने देखा, वह बड़ी तेजी से चला जा रहा है, जैसे सनक गया हो। न दाहिनी ओर ताकता है, न बाबी ओर। केवल सिर झुलाये, पथिकों से टकराता, पैर गाड़ियों की परवा न करता हुआ भागा चला जा रहा था। आखिर वह लौटकर फिर तरकारी काटने लगी पर उसका मन उसी ओर लगा हुआ था। क्यों मुझसे इतना छिपाते है।

रमा रमेश के घर पहुंचा तो आठ बज गये थे। बाबू साहब चौकी पर
बैठे सन्ध्या कर रहे थे। इन्हें देखकर इशारे से बैठने को कहा। कोई आध-घण्टे में सन्ध्या समाप्त हुई। बोले——क्या अभी मुँँह-हाथ भी नहीं धोया?

यही लीचड़पन मुझे नापसन्द है। तुम कुछ करो या न करो, बदन को सफ़ाई तो करते रहो। क्या हुआ, रुपये का कुछ प्रबन्ध हुआ?

रमा०——इसी फ़िक्र में तो आपके पास आया हूँ।

रमेश——तुम भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यों शर्म आती है? यही न होगा, तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट से तो छुट जाओगे। उनसे सारी बात साफ़-साफ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएँ अक्सर हो जाया करती है। इसमें डर की क्या बात है। नहीं कहो, मैं चलकर कह दूँ।

रमा०——उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता। क्या आप कुछ बन्दोबस्त नहीं कर सकते?

रमेश—— कर क्यों नहीं सकता; पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते? मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रुपया न देंगे, तब मेरे पास आना।

रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहाँ से उठा; पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौधैया में आकाश से गिरते हुए जल-बिन्दुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस कदम तेजी से आगे चलता, तो फिर सोचकर रुक जाता और दस-पांच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में घुस जाता, कभी उस पली में।

सहसा उसे एक बात सूझी। क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी के कठिनाइयाँ कह सुनाऊँ? मुँह से तो वह कुछ कह न सकता था; पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूंगा, और बाहर के कमरे में आ बैठूँगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया, और तुरन्त यह पत्र लिखा——

'प्रिये, क्या कहूँ, किस विपत्ति में फंसा हुआ हैं। अगर एक घण्टे के अन्दर तीन सौ रुपये का प्रबन्ध न हो पाया, तो हाथों में हथकड़ियाँ पड़
जायेंगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लू; किन्तु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरवी रखकर काम चला लूँ ! ज्यों ही रुपये हाथ में आ जायेंगे, छुड़ा दूंगा ! अगर मजबूरी न आ पड़ती, तो तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना ! मैं बहुत जल्द छुड़ा दूगाँ....

अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गये और बोले—— कहा उनसे तुमने?

रमा ने सिर झुकाकर कहा——अभी तो मौका नहीं मिला।

रमेश——तो क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा? मैं डरता हूँ कि कहीं आज तुम योही खाली हाथ न चले जाओ। नहीं तो गजब ही हो जायें!

रमा०——जब उनसे मांगने का निश्चय कर लिया तो अब क्या चिता।

रमेश०——आज मौका मिले तो जरा रतन के पास चले जाना। उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है, तुम भूल गये?

रमा०——भूल तो नहीं गया, लेकिन उससे कहते शर्म आती है।

रमेश०——अपने बाप से कहते शर्म आती है, रतन से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता. तो आज हमारी यह दशा क्यों होती?

रमेश बाबू चले गये, तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आया था। उसने अपनी सबसे सुन्दर साड़ी पहनी थी। हाथों में जड़ाऊ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चन्द्रहार। आईना सामने रखे हुए कानों में झूमके पहन रही थी। रमा को देखकर बोली——आज सबेरै कहाँ चले गये थे? हाथ-मुँह तक न धोया। दिन-भर तो बाहर रहते ही हो, शाम-सबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते तो घर सूना-सूना लगता है! मैं अभी सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े, तो जाऊँ या न जाऊँ? मेरा जी तो वहाँ बिलकुल न लगे।

रमा०——तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो।

जालपा——सेठानी जी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊँगी। रमा की दशा इस समय उस शिकारी की-सी थी, जो हिरनी को अपने
शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई बन्दुक कंधे पर रख लेता है, और वात्सल्य और प्रेम की क्रीड़ा देखने में तल्लीन हो जाता।


उसे अपनी ओर टकटकी लगाये देखकर जालपा ने मुसकराकर कहा——देखो, मुझे नजर न लगा देना ! मैं तुम्हारो आँखों से बहुत डरती हूँ।

रमा एक ही उड़ान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुँचा। ऐसे अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनन्द से नाच रहा है, क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर देगा? वह कौन हृदयहीन व्याध है, जो चहकती हुई चिड़िया की गर्दन पर छुरी चला देगा? वह कौन अरसिक आदमी है, जो किसी प्रभात कुसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा? रमा इतना हृदयहीन, इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बड़ा आघात नहीं कर सकता। उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़ जाय, उसकी कितनी ही बदनामी हो उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाय पर वह इतना निष्ठर नहीं हो सकता। उसने अनुरक्त होकर कहा——नजर तो न लगाऊँगा, हाँ हृदय से लगा लूंगा। इसी एक वाक्य से उसकी सारी चिन्ताये सारी बाधाएँ विसर्जित हो गयीं। स्नेह- संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इस अपमान के सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो फोड़े पर नश्तर की क्षनिक पीड़ा न सहकर उसके फूटने, नासूर पड़ने, वर्षो खाट पर पड़े रहने और कदानित् प्राणान्त हो जाने के भय को भी भूल जाता है।

जालपा नीचे जाने लगी तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा लिया और इस तरह मेंच-भैंचकर उसे आलिंगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अन्तिम आलिंंगन हो। उसके कर-पाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगठित होकर जालपा से चिमट गये थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष को कुंजी मुट्ठी में बन्द किये हो, और प्रतिक्षण मुट्टो कठोर पड़ती जाती हो। क्या मुट्ठी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जायेंगे?

सहसा जालपा बोली——मुझे कुछ रुपये दे तो दो, शायद वहाँ कुछ जरूरत पड़े। रमा ने चौंककर कहा——रुपये ! रुपये इस वक्त तो नहीं है?

जालपा——हैं, हैं, मुझसे बहाना कर रहे हो। बस, मुझे दो रुपये दे दो, और ज्यादा नहीं चाहती।

यह कहकर उसने रमा के जेब में हाथ डाल दिया, और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी निकाल लिया।

रमा ने हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा के हाथ से छीनने की चेष्टा करते हुए कहा——कागज मुझे दे दो, सरकारी कागज है।

जालपा——किसका खत है, बता दो?

जालपा में तह किये पुरजे को खोलकर कहा——यह सरकारी कागज है ! झूठे कहीं के। तुम्हारा ही लिखा....

रमा०——दे दो, क्यों परेशान करती हो?

रमा ने फिर कागज छीन लेना चाहा; पर जालया ने हाथ पोछे फेरकर कहा——मैं बिना पढ़े न दूंगी। कह दिया, ज्यादा जिद करोगे, तो फाड़ डालू डालूंगी।

रमाल–अच्छा फाड़ डालो।

जालपा तब मैं जरूर पढ़ूँगी।

उसमे दो कदम पीछे हटकर फिर खत को खोला, और पढ़ने लगी।

रमा ने फिर उसके हाथ से काग़ज़ छीनने की कोशिश नहीं की। उसे जान पड़ा, आसमान फट पड़ा है. मानो कोई भयंकर जंतु उसे निगलने के लिए बढ़ा चला आता हैं। वह घड़-घड़ करता हुआ ऊपर से उतरा और घर के बाहर निकल गया। कहाँ अपना मुंह छिपा ले? कहाँ छिप जाम कि कोई उसे देख न सके। उसकी दशा वही थी जो किसी नंगे आदमी की होती है। वह सिर से पांव तक कपड़े पहने हुए भी नंगा था। वाह ! सारा परदा खुल गया ! उसकी सारी करट लोला खुल गयी ! जिन बातों को छिपाने की उसमें इतने दिनों चेष्टा की, जिनको गुप्त रखने के लिए उसने कौन-कौन सी कठिनाइयाँ नहीं झेली, उन सबों ने आज मानों उसके मुंह पर कालिख पोत दी। वह अपनी आँखों से नहीं देख सकता। जालपा की सिसकियाँ, पिता की झिड़कियाँ, पड़ोसियों की कानाफूसियां सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा। जब वह संसार में न रहेगा, तो उसे इसकी क्या परवा होगी,
कोई उसे क्या कह रहा है। हाय! केवल तीन सौ रुपये के लिए उसका.सर्वनाश हुआ जा रहा है। लेकिन ईश्वर की इच्छा है तो यह कर क्या सकता है। प्रियजनों की नजरों से गिरकर जिये तो क्या जिये !

जालपा उसे कितना नीच, कितना कपटी, कितना धूर्त, कितना गपोड़िया समझ रही होगी। क्या वह अपना मुंह उसे दिखा सकता है?

क्या संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वह नये जीवन का सूत्र-पात कर सके, जहाँ वह संसार से अलग-थलग सबसे मुंह मोड़कर अपना जीवन काट सके, जहाँ वह इस तरह छिप जाय कि पुलिस उसका पता न पा सके? गंगा की गोद के सिवा ऐसी जगह और कहाँ थी? अगर जीवित रहा तो महीने-दो महीने में अवश्य पकड़ लिया जायगा। उस समय क्या दशा होगी-यह हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ पहने अदालत में खड़ा होगा ! सिपाहियों का एक दल उसके ऊपर सवार होगा। सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जायेंगे। जालपा भी जायगी। रतन भी जायगी। उसके पिता, सम्बन्धी, मित्र, अपने-पराये सभी भिन्न-भिन्न भावों से उसकी दुर्दशा का तमाशा देखेंगे। नहीं, वह अपनी मिट्टी को न खराब करेगा, न करेगा। इससे कहीं अच्छा है, डूब मरे।

मगर फिर खयाल आया कि जालपा किसकी होकर रहेगी? हाय, मैं अपने साथ उसे भी ले डूबा ! बाबूजी और अम्मा जी तो रो-धोकर सब्र कर लेंगे; परं उसकी रक्षा कौन करेगा? क्या वह छिपकर नहीं रह सकता? क्या शहर से दूर किसी छोटे-से गाँव में वह अज्ञातवास नहीं कर सकता? संभव है, कभी जालपा को उस पर याद आये; उसके अपराधों को क्षमा कर दे। सम्भव है, उसके पास धन भी हो जाय; पर यह असम्भव है कि वह उसके सामने आँखें सीधी कर सके। न जाने इस समय उसको क्या दशा होगी? शायद मेरे पत्र का प्राशय समझ गई हो। सायद परिस्थिति का उसे कुछ ज्ञान हो गया हो। शायद उसने अम्मा को मेरा पत्र दिखाया हो और घबराई हुई मझे खोज रही हो। शायद पिता जी को बुलाने के लिए लड़कों को भेजा गया हो। चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी। कहीं कोई इनर भी न आता हो। कदाचित् मौत को देखकर भी वह इस समय इतना भयभीत न होता, जितना किसी परिचित को देखकर। प्रागे-पीछे चौकन्नी आँखों से ताकता हुया, वह उस
जलती हुई धूप में चला जा रहा था——कुछ खबर न थी, किधर। सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे ! मैं इतनी दूर निकल आया ! रेलगाड़ी सामने खड़ी थी। उसे उस पर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई, मानों उसमें बैठते ही वह सारी बाधाओं से मुक्त हो जायगा। मगर जेब में रुपये न थे। उँगली में अंगुटी पड़ी हुई थी। उसने कुलियों के जमादार को बुलाकर कहा——कहीं यह अँगूठी बिकवा सकते हो? एक रुपया तुम्हें दूँगा। मुझे गाड़ी में जाना है। रुपये लेकर घर से चला था, पर मालूम होता है, कहीं गिर गये ! फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बड़ा भारी नुकसान हो जायेगा।

जमादार ने सिर से पाँव तक देखा, अंगूठो ली, और स्टेशन के अन्दर चला गया। रमा टिकट घर के सामने टहलने लगा। आँखें उसी ओर लगी हुई थी। दस मिनट गुजर गये और जमादार का कहीं पता नहीं। अंगूठी लेकर कहां गायब तो नहीं हो जायगा? स्टेशन के अन्दर जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा। उसने पूछा——जमादार का नाम क्या है? रमा ने जबान दांतों से काट ली। नाम तो पूछा ही नहीं। बतलाये क्या? इतने में गाड़ी ने सीटी दी, रमा अधीर हो उठा। समझ गया, जमादार ने चकमा दिया। बिना टिकट लिये ही गाड़ी में जा बैठा। मन में निश्चय कर लिया, साफ कह दूँगा, मेरे पास टिकट नहीं है। अगर उतरना भी पड़ा, तो यहाँ से दस-पाँच कोस तो चला ही जाऊँगा।

गाड़ी चल दी तो उस वक्त रमा को अपनी दशा पर रोना आ गया। हाय, न जाने उसे कभी लौटना नसीब भी हो या नहीं। फिर ये सुख के दिन कहाँ मिलेंगे? यह दिन तो गये, हमेशा के लिये गये। इसी तरह सारी दुनिया से मुंह छिपाये, वह एक दिन मर जायगा। कोई उसकी लाश पर आंसू बहाने वाला भी न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप ही रहेंगे। केवल थोड़े-से संकोच के कारण उसकी यह दशा हुई। उसने शुरू ही से जालपा से अपनी सच्ची हालत कह दो होती, तो आज उसे मुंह पर कालिख लगा- कर क्यों भागना पड़ता? मगर कहता कैसे? वह अपने को अभागिनी न समझने लगती? कुछ न सही; कुछ दिन तो उसने जालपा को सुखी रखा। उसकी लालसाओं की हत्या तो न होने दी। रमा के संतोष के लिए अब इतना ही काफ़ी था।
अभी गाड़ी को चले दस मिनट भी न बीते होंगे। गाड़ी का दरवाजा खुला, और टिकट बाबू अन्दर आये। रमा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जायेगा। इतने आदमियों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक-धक करने लगा। ज्यों-ज्यों टिकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी नाड़ी को गति तीव्र होती जाती थी। आखिर बला सिर पर आ ही गयी। टिकट बादू ने पूछा——यापका टिकट?

रमा ने जरा सावधान होकर कहा——मेरा टिकट तो कुलियों के जमादार के पास ही रह गया। उसे टिकट लाने के लिए रुपये दिये थे न जाने किधर निकल गया।

टिकट बाबू को यकीन न आया, बोला——मैं यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टेशन पर उतरना होगा। आप कहाँ जा रहे है?

रमा०——सफर तो बड़ी दूर का है, कलकत्ते तक जाना है।

टिकट बाबू——भागे के स्टेशन पर टिकट ले लीजियेगा।

रमा०——यही तो मुश्किल है। मेरे पास पच्चीम का नोट था। खिड़की पर बड़ी भीड़ थी। मैंने नोट उस जमादार को टिकट लाने के लिए दिया; पर वह ऐसा गायब हुआ कि लौटा ही नहीं। शायद आप उसे पहचानते हैं। लम्बा-लम्बा चेनकरू आदमी है।

टिकट बाबू——इस विषय में आप लिखा-पढ़ी कर सकते हैं। मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।

रमा ने बिनती के भाव से कहा—— भाई साहब, आपसे क्या छिपाऊँ? मेरे पास और रुपये नहीं हैं। आप जैसा मुनासिब सबमें, करें।

टिकट बाबू——मुझे अफसोस है बाबू सहब, कायदे से मजदूर हुँ।

कमरे के सारे मुसाफिर आपस में कानाफली करने लगे। तीसरा दरजा था, अधिकांश मजदूर बैठे हुए थे, जो नजूरी को टोह में पूरब जा रहे थे। वे एक बाबू जाति के प्राणी को इस भांति अपमानित होते देखकर आनन्द पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्के देकर उतार दिया होता तो और भी खुश होते। रमा को जीवन में कभी इतनी मैप न हई थी। चुपचाप सिर झुकाये खड़ा था। अभी तो जीवन की इस नयी यात्रा का प्रारम्भ हुआ है। न जाने आगे क्या-क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेगी। किसकिसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा। उसके जी में आया——गाड़ी से कूद पड़े,इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा। उसकी आँखें भर आयी,उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा।

सहसा एक बूढ़े आदमी ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा—कलकत्ते में कहाँ जाओंगे बाबूजी?

रमा में समझा यह गंवार मुझे बना रहा है, झुंझलाकर बोला- तुमसे मतलब, मैं कहीं जाऊँगा।

बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ व्यान भी न दिया, बोला——मैं भी वहीं चलूंगा। हमारा तुम्हारा साथ हो जाएगा। फिर धीरे से बोला——किराये रुपये मुझसे ले लो, वहाँ दे देना।

अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई ६०-७० साल का बूढा घुला हुआ आदमी था। मांस तो बना हड्डियां तक गल गयी थी। मूंछ और सिर की बाल मुड़े हुए थे। एक छोटी-शी वकुची के सिवा उसके पास और कोई असवाव भी न था।

रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह फिर बोला-आप हबड़े ही उतरेंगे या और कहीं जायेंगे?

रमा में एहसान के भार से दबकर कहा-बाबा, आगे में उतर पडूंगा। रुपये का कोई वन्दोबस्त करके फिर आऊँगा।

बुढ़ा——तुम्हें कितने रुपये चाहिए, मैं भी तो नहीं चल रहा है। जब चाहे दे देना। क्या मेरे दस-पाँच रुपये लेकर भाग जाओगे? कहाँ घर है?

रमा——यहीं प्रयाग ही में रहता हूँ।

बुढ़े ने सरल भाव से कहा——धन्य है प्रयाग ! धन्य है ! मैं भी त्रिवेणो का स्नान करके आ रहा हूँ, सचमुच देवताओं को पुरी है। तो के रुपये निकालू?

रमा ने सकुचाते हुए कहा——मैं चलते-ही-चलते रुपया न दे सकूगा, यह समझ लो।

बूढ़े ने सरल भाव से कहा——अरे बाबूजी, मेरे दस-पांच रुपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो देखा, प्रयाग के परदे यात्रियों को बिना लिखाये-पढ़ाये रुपये दे देते हैं। दस रुपये से तुम्हारा काम चल जायगा?

रमा ने सिर झुकाकर कहा——हाँ, बहुत है। टिकट बाबु को किराया देकर रमा सोचने लगा——यह बूढ़ा कितना सरल, कितना परोपकारी, कितना निष्कपट जीव है। जो लोग सभ्य कह- लाते है, उनमें कितने आदमी ऐसे निकलेंगे, जो बिना जान पहचान किसी यात्री को उबार लें। गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे।

रमा को बूढ़े की बातों से मालूम हुआ कि वह जाति का खटिक है; कलकते में उसकी शाक-भाजी की दुकान है। रहनेवाला तो बिहार का है; पर चालीस साल से कलकत्ते ही में रोज़गार कर रहा है। देवीदीन नाम है। बहुत दिनों से तीर्थयात्रा की इच्छा थी, बद्रीनाथ की यात्रा करके लौटा जा रहा है।

रमा ने आश्चर्य से पुछा——तुम बद्रीनाथ की यात्रा कर आये? वहाँ तो पहाड़ों की बड़ी-बड़ी चढाइयाँ हैं।

देवी०——भगवान् की दया होती है तो सब कुछ हो जाता है, बाबूजी ! उनकी दया चाहिए।

रमा——तुम्हारे बाल-बच्चे कलकत्ते ही में होंगे।

देवीदीन ने रूखी हँसी हंसकर कहा——बाल-बच्चे तो सब भगवान् के घर गये। चार बेटे थे। दो का ब्याह हो गया था। सब चल दिये। मैं बैठा हुआ हूँ। मुझी से तो सब पैदा हुए थे ! अपने बोये हुए बीज को किसान ही तो काटता है।

यह कहकर वह फिर हंसा। जरा देर बाद बोला—— बुढिया अभी जीती है। देखें, हम दोनों में पहले कौन चलता है। वह कहती है, पहले मैं जाऊँगी, मैं कहता हूँ पहले मैं जाऊँगा। देखो, किसकी टेक रहती है। बन पड़ा तो तुम्हें दिखलाऊँगा ! अब भी गहने पहनती है। सोने की बालियाँ और सोने की हंसली पहने दुकान पर बैठी रहती है ! जब कहा कि चल तीर्थ कर आयें, तो बोली——तुम्हारे तीर्थ के लिए दूकान मिट्टी में मिला दूँ? यह है जिन्दगानी का हाल। आज मरे कि कल मरे; मगर दूकान न छोड़ेगी। न कोई आगे न कोई पीछे, न रोनेवाला न कोई हंसने वाला; मगर माया बनी हुई है। अब भी एक-न-एक गहना बनवाती ही रहती है। जाने कब उसका पेट भरेगा। सब घरों का यही हाल है। जहाँ देखो-हाय गहने! गहने के पीछे

जान दे दे; घर के आदमियों को भूखी मारें; घर की चीजें बेचे। और कहाँ तक कहूँ, अपनी आबरू तक बेच दें। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है। कलकत्ते में कहाँ काम करते हो भैया?

रमा-अभी तो जा रहा। देखूँ कोई नौकरी-चाकरी मिलती है या नहीं?

देवी०——तो फिर मेरे ही घर ठहरना। दो कोठरियाँ हैं, सामने दलान है, एक कोठरी ऊपर है। आज बेचूं तो दस हजार मिलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूँगा। जब वहीं काम मिल जाय तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए घर से भाग कर हबड़े गया था, तब से सुख भी देखे और दुःख भी देखे। अब मना रहा हूँ, भगवान ले चलो। हाँ बुढ़िया को अमर कर दो,नहीं उसकी दुकान कौन खोलेगा, घर कौन लेगा और गहने कौन लेगा!

यह कहकर देवीदीन फिर हँसा। वह इतना हंसोड़, प्रसन्न-चित्त था कि रमा को आश्चर्य हो रहा था। बेबात की बात पर हँसता था। जिस बात पर और लोग रोते हैं उस पर उसे हंसी आती थी। किसी जवान को भी रमा ने यौं हंसते न देखा था। इतनी ही देर में उसने अपनी सारी जीवन-कथा कह सुनायी। कितने ही लतीफ़े याद थे। मालूम होता था, रमा से वर्षों की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढन्त कथा कहनी पड़ी।

देवीदीन——तो तुम भी घर से भाग आये हो? समझ गया। घर में झगड़ा हुआ होगा। बहू कहती होगी—— मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास-बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा।

रमा——हाँ बाबा, बात यही है; तुम कैसे जान गये?

देवीदीन हंसकर बोला—— यह बड़ा भारी मन्त्र है भैया। इसे तेली को खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लड़के-बाले तो नहीं हैं न?

रमा०——नहीं अभी तो नहीं हैं।

देवी०——छोटे भाई भी होंगे?

रमा चकित होकर बोला——हाँ दादा, ठीक कहते हो। तुमने कैसे जाना?

देवीदीन फिर ठट्टा मारकर बोला——यह सब मन्त्रों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों?