ग़बन/भाग 9

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १८५ ]देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा——क्या करोगी पूछकर, एक अखबार के दफ्तर में तो गया था। जो चाहे कर ले।

बुढ़िया ने माथा ठोंककर कहा——तुमने फिर वही लत पकड़ी? तुमने कान पकड़ा था कि अब कभी अखबारों के नगीच न जाऊँगा। बोलो, यही मुँह था कि कोई और ?

'तू बात तो समझती नहीं, बस बिगड़ने लगती है।'

'खूब समझती हूँ। अखबार वाले दंगा मचाते हैं और गरीबों को जेहल ले जाते हैं। आज बीस साल से देख रही हूँ। वहाँ जो आता-जाता है, पकड़ लिया जाता है। तलासी तो आये-दिन हुआ करती है। क्या बुढ़ापे में जेहल की रोटियां तोड़ोगे?'

देवीदीन ने एक लिफ़ाफ़ा रमानाथ को देकर कहा यह रुपये हैं, भैया, गिन लो। देख, यह रुपये वसूल करने गया था। जी न मानता हो, तो, आधे ले लो। बुढ़िया ने आँख फाड़कर कहा—— अच्छा ! तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो ? तुम्हारे रुपये में आग लगा दूँगी। तुम रुपये मत लेना भैया। जान से हाथ धोओगे। अब सेतमेत आदमी नहीं मिलते, तो लालच दिखाकर लोगों को फँसाते हैं। बाजार में पहरा दिलबावेंगे, अदालत में गवाही करावेंगे। फेंकदो उसके रुपये। जितने रुपये चाहो, मुझसे ले जाओ।


जब रमानाथ ने सारा वृत्तान्त कहा तो बुढ़िया का चित्त शांत हुआ। तनी हुई भवें ढीली पड़ गयी, कठोर मुद्रा नर्म हो गयी। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हँस पड़ा। विनोद करके बोली—इसमें से मेरे लिए क्या लाओगे बेटा?

रमा ने लिफ़ाफ़ा उसके सामने रखकर कहा——तुम्हारे तो सभी हैं अम्मा, मैं रुपये लेकर क्या करूँगा?

'घर क्यों नहीं भेज देते ? इतने दिन आये हो गये, कुछ भेजा नहीं।'

'मेरा घर यही है, अम्मा। कोई दूसरा घर नहीं है।'

बुढ़िया का वंचित हृदय गद्गद हो उठा। इस मातृ-भक्ति के लिए कितने दिनों से उसकी आत्मा तड़प रही थी। इस कृपण हृदय में जितना प्रेम संचित हो रहा था, वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भांति निकलने के लिए आतुर हो गया। [ १८६ ]उसने नोटों को गिनकर कहा——पचास है बेटा ! पचास मुझसे और ले लो। चाय का पतीला रखा हुआ है। चाय की दुकान खोल दो। यहीं एक तरफ पाँच-चार मीढ़े और एक मेज रख लेना। दो-दो घंटे साँझ सबेरे बैठ जाओगे तो गुजर भर को मिल जायगा। हमारे जितने गाहक आवेंगे, उनमें से कितने ही चाय भी लेंगे।

देवीदीन बोला——तब चरस के पैसे मैं इस दुकान से लिया करूंगा। बुढ़िया ने विहंसित और पुलकित नेत्रों से देखकर कहा- कौड़ी कौड़ी का हिसाब लूँगी। इस फेर में न रहना।

रमा अपने कमरे में गया, तो उसका मन बहुत प्रसन्न था। आज उसे कुछ वह आनन्द मिल रहा था, जो अपने घर भी कभी न मिला था। घर पर जो स्नेह मिलता था, वह उसे मिलना ही चाहिए था। यहाँ जो स्नेह मिला, वह मानो आकाश से टपका था।

उसने स्नान किया, माथे पर तिलक लगाया और पूजा का स्वांग भरने बैठा कि बुढ़िया आकर बोली——बेटा, तुम्हें रसोई बनाने में बड़ी तकलीफ़ होती है, मैंने एक बाह्मनी ठीक कर दी है। बेचारी गरीब है। तुम्हारा भोजन बना दिया करेगी। उसके हाथ का तुम खा लोगे। धर्म-कर्म से रहती है बेटा, ऐसी बात नहीं है। मुझसे रुपये-पैसे उधार ले जाती है, इसी से राजी हो गयी है।

उन बुद्ध आँखों से प्रगाढ़, अखण्ड मातृत्व झलक रहा था—कितना विशुद्ध कितना पवित्र ! ऊंच-नीच और जाति की मर्यादा का विचार आप ही-आप मिट गया। बोला——जब तुम मेरी माता हो गयीं, तो फिर काहे का छूत-विचार? मैं तुम्हारे हाथ का खाऊँगा।

बुढ़िया ने जीभ दांतों से दबाकर कहा——अरे नहीं बेटा, मैं तुम्हारा धरम न लूँगी। कहाँ तुम ब्राह्मन और कहाँ हम खटिक ! ऐसा कहीं हुआ है?

मैं तो तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खटिक हैं, तो बेटा भी खटिक है। जिसको आत्मा बड़ी हो, वही ब्राह्मण है।'

'और जो तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें!'

'मुझे किसी के कहने-सुनने की चिन्ता नहीं है, अम्मा। आदमी पाप से
[ १८७ ]नीच होता है, खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है, वह पवित्र होता है। उसे तो देवता, भी खाते हैं।'

बुढ़िया के हृदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली——बेटा, खटिक कोई नीच जात नहीं हैं। हम लोग ब्राह्मन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछली हाथ से नहीं छूते। कोई कोई शराब पीते हैं, मुदा लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोड़ा बेटा। बड़े-बड़े तिलकधारी गटागट पीते हैं ! लेकिन मेरी रोटियाँ अच्छी लगेंगी ?

रमा ने मुसकराकर कहा-प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है अम्मा, चाहे गेहूँ की हो या बाजरे की।

बुढ़िया यहाँ से चली तो मानों अंचल में आनन्द की निधि भरे हो।

२८

जब से 'रमा चला गया, रतन को जालपा के विषय में बड़ी चिन्ता हो गयी थी। वह किसी बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि जालपा किसी तरह ताड़ने न पाये। अगर कुछ रुपया खर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहर्ष खर्च कर देती। जालपा की रोती हुई आँखें देखकर उसका दिल मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्न मुख देखना चाहती थी। अपने अँधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली जाया करती। वहाँ घड़ी भर हँस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था। अब वहाँ भी वही नहूसत छा गयी। यहाँ आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हूँ उस संसार में जहाँ जीवन है, लालसा है, प्रेम है, बिनोद है। उसका अपना जीवन तो व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी; पर शिव-लिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नाद है जो सरिता में है ? वह शिव के मस्तक को शीतल करता रहे, यही उसका काम है। लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप हो गया है?

इसमें सन्देह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और सम्पन्न घरों से रतन का परिचय था; लेकिन जहाँ प्रतिष्ठा थी, वहाँ तकल्लुफ या, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निन्दा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरुचि हो गयी थी। वहाँ विनोद अवश्य था, क्रीड़ा अवश्य थी, किन्तु पुरुषों के आतुर नेत्र भी थे, विकल हृदय,
[ १८८ ]उन्मत्त शब्द भी। जालपा के घर अगर वह शान न थी, वह दौलत न थी, तो वह दिखावा भी न था, वह ईर्ष्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान था, चाहे रसिक भी हो; पर रतन को अभी तक उसके विषय में सन्देह करने का कोई अवसर न मिला था, और जालपा जैसी सुन्दरी के रहते हुए उसको सम्भावना भी न थी। जीवन के बाजार में और सभी दुकानदारा की कुटिलता और ज़टूपन से तंग आकर उसने इस छोटी दूकान का आश्रय लिया था, किन्तु यह दुकान भी टूट गयी। अब वह जीवन की सामग्रियाँ कहाँ बेसाहेगी, सच्चा माल कहाँ पायेगी ?

एक दिन वह ग्रामोफोन लायी और शाम तक बजाती रही। दूसरे दिन ताजे मेवों की एक टोकरी लाकर रख गयी। जब आती कोई न कोई सौगात लिये आती। अब तक रामेश्वरी से बहुत कम मिलती थी, पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती। कभी-कभी उसके सिर में तेल डालती और बाल गूंथती। गोपी और विश्वम्भर से भी अब उसे स्नेह हो गया। कभी-कभी दोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती स्कूल से आते ही दोनों उसके बंगले पर पहुँच जाते और कई लड़कों के साथ वहाँ खेलते। उनके रोने चिल्लाने और झगड़ने में रतन को हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था। वकील साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गयी थी। बार-बार कहते——रमा बाबू का कोई खत आया ? कुछ पता लगा? उन लोगों को कोई तकलीफ़ तो नहीं है ?

एक दिन रतन आयी, तो चेहरा उतरा हुआ था, आँखें भारी हो रही थीं। जालपा ने पूछा- आज जी अच्छा नहीं है क्या ?

रतन ने कुण्ठित स्वर में कहा——जी तो अच्छा है; पर रात-भर जागना पड़ा। रात से उन्हें बा कष्ट है। जाड़ों में उनको दमे का दौरा हो जाता है। बेचारे जाड़ों भर एमलशन और सनाटोजन और न जाने कौन से रस खाते रहते हैं। पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्ते में एक नामी वैद्य हैं। अवको उन्हीं से इलाज कराने का इरादा है। कल चली जाऊँगो। मुझे ले तो नहीं जाना चाहते, कहते हैं, वहाँ बहुत कष्ट होगा, लेकिन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलनेवाला तो होना चाहिए। वहाँ दो बार ही आयी हूँ और जब-जब गयी हैं बीमार हो गयी है। मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता; लेकिन
[ १८९ ]अपने आराम को देखूँ या उनकी बीमारी को देखूँ। बहन, कभी-कभी ऐसा जी ऊब जाता है कि थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूँ। विधाता से इतना भी नहीं देखा जाता। अगर कोई मेरा सर्वस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दे कि इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो मैं खुशी से दे दूँगी।

जालपा ने सशंक होकर कहा-यहाँ किसी बैद्य को नहीं बुलाया?

'यहाँ के वैद्यों को देख चुकी हूँ, बहन। वैद्य-डाक्टर सबको देख चुकी !'

'तो कब तक आओगी?

'कुछ ठीक नहीं। उनकी बीमारी पर है ! एक सप्ताह में आ जाऊँ, महीने दो महीने लग जाये, क्या ठीक है। मगर जब तक बीमारी की जड़ न टूट जायेगी न आऊँगी।

विधि अन्तरिक्ष में बैठी हँस रही थी! जालपा मन में मुसकायी। जिस बीमारी की जड़ जवानी में न टूटी, बुढ़ापे में क्या टूटेगी। लेकिन इस सदिच्छा से सहानुभूति न रखना असम्भव था। बोली——ईश्वर चाहेंगे, तो वह वहाँ से जल्द अच्छे होकर लौटेंगे, बहन।

'तुम भी चलती तो बड़ा आनन्द आता।'

जालपा ने करुण भाव से कहा——क्या कहू बहन, जाने भी पाऊँ। यहाँ दिन भर यह आशा लगी रहती है कि कोई खबर मिलेगी। वहाँ मेरा जी और घबराया करेगा।

"मेरा दिल कहता है कि बाबु जी कलकत्ते में हैं।'

'तो जरा इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता मिले तो मुझे तुरंत खबर देना।'

यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है, जालपा !'

'यह मुझे मालूम है, खत तो बराबर भेजती रहोगी ?

हाँ अवश्य, रोज नहीं तो अंतरे दिन जरूर लिखा करूंगी। मगर तुम भी जवाब देना।'

जालपा पान बनाने लगी। रतन उसके मुँह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा——क्या है बहन, क्या कह रही हो ? [ १९० ]रतन——कुछ नहीं, मेरे पास कुछ रुपये हैं, तुम रख लो। मेरे पास रहेंगे तो खर्च हो जायेंगे।

जालपा ने मुसकराकर आपत्ति की-और जो मुझसे खर्च हो जाये तो?

रतन ने प्रफुल्ल मन से कहा——तुम्हारे ही तो हैं बहन, किसी गैर के तो हैं नहीं !

जालपा विचारों में डूबी हुई जमीन की तरफ ताकती रही। कुछ जबाब न दिया। रतन ने शिकवे के अन्दाज से कहा——तुमने कुछ जवाब नहीं दिया बहन। मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे खिंची क्यों रहती हो। मैं चाहती हूँ, हममें और तुममें ज़रा भी अन्तर न रहे, लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो ! अगर मान लो मेरे सौ-पचास रुपये तुम्हीं से खर्च हो गये, तो क्या हुआ ? बहनों में ऐसा कौड़ी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता !

जालपा ने गम्भीर होकर कहा-कुछ कहूँ, बुरा तो न मानोगी ?

'बुरा मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूँगी।'

'मैं तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती। संभव है, तुम्हें बुरी बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस बहनापे में दया का भाव मिला हुआ है या नहीं ? तुम मेरी गरीबी पर तरस खाकर...

रतन ने लपककर दोनों हाथों से उसका मुँह बन्द कर दिया और बोली-बस, अब रहने दो। तुम चाहे जो ख्याल करो, मगर वह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं जानती हूँ, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन, मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूँ।

जालपा ने उसी निर्ममता से कहा——इस समय ऐसा कह सकती हो। तुम जानती हो किसी दूसरे समय तुम पुरियाँ क्या रोटियों के बदले मेवे खिला सकती हो; लेकिन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आये जब तुम्हारे घर में रोटी का टुकड़ा न हो, तो शायद तुम इतनी निस्संकोच न हो सको।

रतन ने दृढ़ता से कहा——मुझे उस दशा में भी तुमसे मांगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे, तो समझ लो, मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बन्द कर रही हो। मैने मन में समझा था, तुम्हारे साथ जीवन के दिन काट दूंगी; लेकिन तुम अभी से चेतावनी दिये देती हो ! अभागों को प्रेम की मिक्षा भी नहीं मिलती। [ १९१ ]यह कहते-कहते रतन की आँखें सजल हो गयीं। जालपा अपने को दुखिनी समझ रही थी और दुखी जनों को निर्भय कहने की स्वाधीनता होती है; लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं विदारक थी। जालपा के पति के लौट आने की आशा अभी थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा की ये बुरे दिन भूल जायेंगे। उसकी आशाओं का सूर्य फिर उदय होगा। इसकी इच्छाएं फिर फूँलेगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था-विशाल, उज्ज्वल, रमणीक। रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं, शून्य. अन्धकार !

जालपा आँखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली-पत्रों के जवाब देती रहना। रुपये देती जाओ।

रतन ने पर्स से नोटों का एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया; पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी।

जालपा ने सरल भाव से कहा- क्या बुरा मान गयीं ?

रतन ने रूठे हुए शब्दों में कहा-बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूँगी।

जालपा ने उसके गले में बाँहें डाल दीं। अनुराग से उसका हृदय गद्गद हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उसको अब तक खिंचती थी, ईर्ष्या करती थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखायी दिया, यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर।एक क्षण बाद, रतन आँखों में आँसू और हँसी एक साथ भरे विदा हो गयी।

२८

कलकते में वकील साहब ने ठहरने का पहले ही इन्तजाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महाराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के-से आदमी हो गये थे। शहर के बाहर एक बंगला था ! उसके कमरे मिल गये। इससे ज्यादा जगह की वहाँ जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के फूल-पौधे लगे हुए थे। स्थान बहुत सुन्दर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बँगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरा के लिए जाया करते थे, और
[ १९२ ]हरे होकर लौटते थे; पर रतन को वह जगह काड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिये स्वर्म भी उदास है !

सफ़र ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था ! दो-तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी खराब रही, जैसी प्रयाग में थी लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ समलने लगे। रतन सुबह से आयी रात तक उनके पास कुर्सी डाले बैठी रहती। स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहाँ से हट जाय तो दिल खोल कर कराहें। उसे तसकीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्टा करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है ? तो वह फीकी मुसकराहट के साथ कहते——आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है। बेचारे सारी रात करवटें बदल कर काटते थे, पर रतन पूछती—रात नींद आयी थी ? तो कहते——हाँ, खूब सोया। रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरुचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराजजी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे।

एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा——मझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा——इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर' से मनाती हूँ कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें।

'शाम को घुम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।'

कहाँ जाऊँगी, मेरा कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता है।'

वकील साहब को एकाएक रमानाथ का ख्याल आ गया। बोले—जरा शहर के पार्को में घूम-घूम कर देखो, शायद रमानाथ का पता चल जाय।

रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को आ जाने की आनन्दमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे 'मिल जायें, तो पूछूँ, कहिये बाबूजी, अब कहाँ भाग कर जाइयेगा ? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली——जालपा से मैंने वादा किया था कि पता लगाऊँगी; पर यहाँ आकर भूल गयी। [ १९३ ]वकील साहब ने आग्रह कहा——आज चली जाओ। आज क्या, शाम को रोज घण्टो-भर के लिए निकल जाया करो।

रतन ने चिन्तित होकर कहा——लेकिन चिन्ता तो लगी रहेगी।

वकोल साहब ने मुसकराकर कहा——मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा है।

रतन ने सन्दिग्ध भाव से कहा——अच्छा, चली जाऊँगी।

रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे न दिखायी देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन पीला पड़ता जाता है ? इनकी आँखें क्यों हरदम बन्द रहती हैं ? देह क्यों दिन-दिन धुलती जाती है ? महाराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी। कविराजजी से पूछते उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा मिल जाते, तो उनसे पूछती। वह इतने दिनों से यहाँ हैं किसी दूसरे डाक्टर को दिखाती। इन कविराजजी से उसे कुछकुछ निराशा हो चली थी।

जब रतन चले गयी तो वकील साहब ने टीमल से कहा——मुझे जरा उठा बिठा दो टीमल पडे-पड़े कमर सीधी हो गयी। एक प्याला चाय पिला दो। कई दिन हो गये चाय की सुरत नहीं देखी। यह पथ्य मुझे मारे डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है; पर उनकी खातिर से पी लेता है। मुझे तो इस कविराज की दवा से कोई फायदा नहीं मालूम होता। तुम्हें क्या मालूम होता है ?

टीमल ने वकील साहब को तकिये के सहारे बैठाकर कहा——बाबूजी, सो देख लेव, यह तो मैं पहले ही कहने वाला था। सो देख लेव, बहूजी के डर के मारे नहीं कहता था।

वकील साहब ने कई मिनट चुप रहने के बाद कहा——मैं मौत से डरता नहीं, टीमल। बिल्कुल नहीं। मुझे स्वर्ग और नरक पर बिल्कुल विश्वास नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदमी को जन्म लेना पड़ता है तो मुझे विश्वास है, मेरा जन्म किसी अच्छे घर में होगा। फिर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूँ, मर गया तो क्या होगा।

टीमल ने कहा——बाबूजी, सो देख लेव,आप ऐसी बातें न करें। भगवान चाहेंगे, तो अच्छे हो जायेंगे। किसी दूसरे डाक्टर को बुला लाऊँ ? आप
[ १९४ ]लोग तो अगंरेजीं पढ़ें है, सो देख लेव, कुछ मानते ही नहीं। मुझे तो कुछ और ही सन्देह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों को भी सुन लिया करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक ने को लाऊँगा। बंगला के ओझे सयाने मसहूर हैं।

वकील साहब ने मुँह फेर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मजाक उड़ाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका ख्याल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है; लेकिन इस वक्त उनमें शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुँह फेर लिया।

महाराज ने चाय लाकर कहा——सरकार चाय लाया हूँ।

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नेत्रों से देखकर कहा——ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालून होगा, तो दु:खी होंगी। क्यों महाराज, जब से मैं आया हूँ मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है ?

महाराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। खुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल में उसके असमंजस को भापकर कहा——हरा क्यों नहीं हुआ है। हाँ जितना होना चाहिये उतना नहीं हुआ।

महाराज बोले——हाँ, कुछ हरा जरूर हुआ है मुदा बहुत कम।

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पाँच मिनट शान्त अचेत पड़े रहने थे। कदाचित् उन्हें अपनी यथार्थ दशा का ज्ञान हो चुका था। उनके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थी। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो। उनका दम अब पहले से ज्यादा फूलने लगा था, कभी-कभी तो ऊपर की साँस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस प्राण निकला।

भीषण प्राण-वेदना होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अन्त कर दे। [ १९५ ]सामने उद्यान में चाँदनी कुहरे की चादर ओढ़े जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। फूल और पौधे मलिन मुख, सिर झुकाये, आशा और भय से विकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह का स्पर्श करते थे और आँसू की दो बूंदें गिराकर फिर उसी भाँति देखने लगते थे।

सहसा वकील साहब ने आँखें खोली। आँखों के कोने में आँसू की दो बूँदें मचल रही थी।

क्षीण स्वर में बोले—— टोमल ! क्या सिद्धू आये थे ?

फिर इस प्रश्न पर आप ही लज्जित होकर मुसकराते हुए बोले-मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैस सिद्धू आये हों।

फिर गहरी साँस लेकर चुप हो गये और आँखें बन्द कर लो।

सिद्धू उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालकपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखायी देने लगता कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी।

कई मिनट के बाद उन्होंन फिर आँख खोली और इधर-उधर खोई हुई आँखों से देखा। उन्हे अभी ऐसा जान पड़ा था कि मेरी माता आकर पूछ रही है, बेटा, तुम्हारा जी कैसा है ?

सहसा उन्होने टीमल से कहा——यहाँ आओ। किसी वकील को बुला लाओ। जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती होगी।

इतने में मोटर का हॉर्न सुनाई दिया और एक पल में रतन आ पहुँची। वकील को बुलाने की बात उड़ गयी।

वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा-कहाँ-कहाँ गयीं ? कुछ उनका पता मिला?

रतन ने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा-कई जगह देखा। कहीं न दिखायी दिये। इतने बड़े शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता नहीं, वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय तो हो गया न ?

वकील साहब ने दबी जबान से कहा—— लाओ, खा लूँ।

रतन ने दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलायी। इस समय वह न,
[ १९६ ]जाने कुछ भयभीत-सी हो रही थी। एक अस्पष्ट, अज्ञात, शंका उसके हृदय को दबाये हुए थी।

एकाएक उसने कहा—— उन लोगों में से किसी को तार दे दूँ?

वकील साहब ने प्रश्न की आँखों से देखा। फिर आप-ही-आप उसका आशय समझकर बोले——नहीं, नहीं, किसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूँ।

फिर एक क्षण के बाद सावधान होने की चेष्टा करके बोले——मैं चाहता हूँ कि अपनी वसीयत लिखवा हूँ।

जैसे एक शीतल, तीव्र दासा रतन के पैर से धूसकर सिर से निकल गया; मानो उसकी देह के सारे बन्धन खुल गये, सारे अवयव बिखर गये। उसके मस्तिष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गये, मानो नीचे से धरती निकल गयी, ऊपर से आकाश निकल गया, और अब वह निराधार, निःस्पन्द, निर्जीव खड़ी है ! अवरुद्ध, अश्रु कंपित कंठ से बोली-घर से किसी को बुलाऊँ ? यहाँ किससे सलाह ली जाय ? कोई भी तो अपना नहीं है।

अपनों के लिए इस समय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता, जिस पर वह विश्वास कर सकती, जिससे सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दौड़-धूप करके किसी दूसरे डाक्टर को बुलाते। वह अकेली क्या-क्या करे ? आखिर भाई-बन्द और किस दिन काम आते ? संकट में हो तो अपने काम आते हैं। फिर यह क्यों कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ?

वसीयत की बात फिर उसे याद आ गयी। यह विचार क्यों इनके मन में आया ? वैद्यजी ने कुछ कहा तो नहीं ? क्या होनेवाला है भगवान् ! यह शब्द अपने सारे संसर्गों के साथ उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी माता याद आयी। उसके अंचल में मुँह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय अंचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को कितना संतोष होता था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। वाह ! वह आधार भी अब नहीं !

महाराज ने आकर कहा——सरकार, भोजन तैयार है; थाली परसूँ ? [ १९७ ]रतन ने उसकी ओर कठोर नेत्रों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किये चुपके से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महाराज पर दया आ गयी। उसने कौन-सी बुराई की, जो भोजन के लिए पूछने आया ? भोजन भी ऐसी चीज है, जिसे कोई छोड़ सके ? वह रसोई में जाकर महाराज से बोलो——तुम लोग खा लो, महाराज ! मुझे आज भूख नहीं लगी है।

महाराज ने आग्रह किया— दो ही फुलके खा लीजिए सरकार।

रतन ठिठक गयी ! महाराज के आग्रह में इतनी सहृदयता, इतनी समबेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहाँ कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महाराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में देखा था। वही स्थामिनी आज उसके सामने खड़ी, मानो सहानुभूति की भिक्षा मांग रही थी। उसकी सारी सवृत्तियाँ उमड़ उठी। रतन को उसके दुर्बल मुख' पर अनुराग का तेज नजर आया।

उसने पूछा——क्यों महाराज, बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है ?

महाराज ने डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिये जो वकील साहब से कहे थे——कुछ-कुछ तो हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं।

रतन ने अविश्वास के अन्दाज से देखकर कहा-तुम भी मुझे धोखा देते हो महाराज?——महाराज की आँखें डबडबा गयी। बोले-भगवान् सब अच्छा ही करेंगे बहुजी, घबराने से क्या होगा ! अपना तो कोई बस नहीं है।

रतन ने पूछा——यहाँ कोई ज्योतिषी न मिलेगा? जरा उनसे पूछते। कुछ पाठ-पूजा भी करा लेने से अच्छा होता है।

महाराज ने तुष्टि के भाव से कहा——यह तो मैं पहले कहने वाला था, बहुजी, लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो। इन बातों से वह कितना बिगड़ते हैं!

रतन ने दृढ़ता से कहा——सबेरे किसी को ज़रूर बुला लाना। 'सरकार चिढ़ेंगे।' [ १९८ ]मैं जो कहती हूँ।'

यह कहती हुई वह कमरे में आयी और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी---

'बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझे मालूम हुआ कि में अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक मुझसे अपनी दशा छिपाते थे; मगर आज यह बात उनके काबू के बाहर हो गई। तुमसे क्या कहूँ, आज वह वसीयत लिखाने की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबरा रहा है। बहन, जी चाहता है, थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूँ। विधाता को संसार दयालु, कृपालु, दीनबन्धु और जाने कौन-कौन-सी उपाधियाँ देता है। मैं कहती हूँ, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता। पूर्व जन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज है। जिस दण्ड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दण्ड का मूल्य ही क्या? वह तो जबरदस्त की लाठी है, जो अघात करने के लिए कोई कारण गड़ लेती है। इस अँधेरे, निर्जन, काँटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अंचल में छिपाये, विधि को धन्यवाद देती हुई, गाती चली जाती थी; पर वह दीपक भी मुझसे छीना जा रहा है ! इस अन्धकार में मैं कहाँ जाऊँगी, कौन मेरा रोना सुनेगा कौन मेरो बाँह पकड़ेगा?

'बहन, मुझे क्षमा करना। मुझे बाबू जी का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्कों में चक्कर लगा आयी, पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊंगी। माता जी को मेरा प्रणाम कहना।'

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आयी। शीतल पवन के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोगशय्या पर पड़ी सिसक रही थी।

३०

उसी वक्त वकील साहब की साँस वेग से चलने लगी।

रात में तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेटे ही लेटे झपकियाँ ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौंक पड़ी। उलटी साँसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गयी और उनका सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया। सभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज पर रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा:अभी तीन
[ १९९ ]बजे थे। सबेरा होने में अभी चार घण्टे की देर थी। कविराज कहीं नौ बजे आयेंगे। यह सोचकर वह हताश हो गयी। यह अभागिन रात क्या अपना काला मुँह लेकर विदा न होगी? मालूम होता है, एक युग हो गया।

कई मिनट के बाद वकील साहब की साँस रुकी; सारी देह पसीने से तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिये पर सिर रखकर फिर आँखें बन्द कर लींं।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा-रतन, अब विदाई का समय आ गया। मेरे अपराध....

उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिये और उसकी ओर दीन याचना की आँखों से देखा। कुछ कहना चाहते थे, पर मुँह से आवाज न निकाली।

रतन ने चीखकर कहा-टीमल! महाराज! क्या दोनों मर गये?

महाराज ने आकर कहा-मैं सोया थोड़े ही था, बहूजी! क्या बाबू जी....

रतन ने डाँटकर कहा-बको मत, जाकर कविराज को बुला लाओ। कहना, अभी चलिए।

महाराज ने तुरन्त अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी, कि शायद सेंक से कुछ फा़यदा हो। उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बलता सारा शोक मानो लुप्त हो गया। उसकी जगह एक प्रबल आत्मनिर्भरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने सारे अस्तित्व को सचेत कर दिया।

स्टोव जलाकर उसने रुई के गाले से छाती को सेंकना शुरू किया। कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी। आवाज काबू में हुई। रतन के दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले-तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है, मुन्नी! क्या जानता था इतनी जल्द यह समय आ जायेगा। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, प्रिये! ओह, कितना बड़ा अन्याय! मन की सारी लालसा मन में रह गयी। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया-क्षमा करना।

यही अन्तिम शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अंतिम सूत्र था, यही मोह का अन्तिम बन्धन था।

रतन न द्वार की ओर देखा। अभी तक महाराज का पता न था। हां, [ २०० ]टीमल खड़ा था और सामने अधाह अन्धकार जैसे अपने जीवन को अन्तिम वेदना में मूछित पड़ा था।

रतन ने कहा——टीमल, जरा पानी गरम करोगे?

टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा——पानी गरम करके क्या करोगी, बहूजी, गोदान करा दी। दो बूँद गंगाजल मुँह में डाल दो।

रतन ने पति की छाती पर हाथ रखा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महाराज न दिखायी दिये। वह अब भी सोच रही थी, कविराज जी आ जाते तो शायद इनकी हालत सँभल जाती। पछता रही थी, कि इन्हें यहाँ क्यों लावी। कदाचित् रास्ते की तकलीफ़ और जलवायु ने बीमारी को असाव्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं सन्ध्या समय क्यों घूमने चली गयी। शायद उतनी ही देर में इन्हें ठण्ड लग गयी। जीवन एक दीर्घ पश्चात्ताप के सिवा और क्या है !

पछतावे की एक-दो बात थी ? इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम पहुँचाया? वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तके देखते रहते थे, मैं पड़ी सोती रहती थी। वह सन्ध्या समय भी मुमक्किलों से मामले की बातें करते थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी, बाजारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के एक यन्त्र के सिवा और क्या समझा ! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैठे और बातें करूं; पर मैं भागती फिरती थी। मैंने कभी इनके हृदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनन्द उठाती फिरती—मनोरंजन के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन, यही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शान्त करके मैं सन्तुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों ने मुझे मिली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी।

आज रतन को उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इस विदा होनेवाली आत्मा को उससे था—— वह इस समय भी उसी की चिन्ता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनन्द था, कुछ रुचि थी, कुछ उत्साह था। इनके लिए जीवन में कौन-सा सुख था। न खाने-पीने का सुख, न [ २०१ ]मले–तमाशे का शौक। जीवन क्या एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य का पालन था। क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी ? क्या एक क्षण के लिए कठोर कर्तव्य की चिन्ताओ से उन्हें मुक्त न कर सकती थी? कौन कह सकता है कि बिराम' और विश्राम से वह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न' प्रकाशमान रहता ? लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा। उसको अन्तरात्मा सदैव विद्रोह करती रही, केवल इसलिए कि इनसे मेरा सम्बन्ध क्यों हुआ। क्या उस विषय में सारा अपराध इन्हीं का था ? कौन कह सकता है कि दरिद्र माता-पिता ने मेरी भी दुर्गति न की होती-जवान आदमी भी सब-के-सब क्या आदर्श ही होते हैं ? उनमें भी तो व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी, सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय में किस दिशा में होती। रतन का एक-एक रोम इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था। उसने पति के शीतल चरणों पर सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थे, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे, इस समय सैकड़ों बिच्छुओ के समान डंक मार रहे थे। हाय ! मेरा यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की भांति गम्भीर था। इस हृदय में कितनी कोमलता थी, कितनी उदारता ! मैं एक बीड़ा पान दे देती थी तो कितने प्रसन्न हो जाते थे, जरा हँसकर बोल देती थी, तो कितने तृप्त हो जाते थे; पर मुझसे इतना भी न होता था। इन बातों को याद करके उसका हृदय फटा जाता था। उसे प्रबल आकांक्षा हो रही थी कि इन चरणों पर सिर रखे हुए मेरे प्राण इसी क्षण निकल जायें। उन चरणों को मस्तक से स्पर्श करके आज उसके हृदय में कितना अनुराग उमड़ा आता था, मानो एक युग की संचित मित्रि को वह आज ही', इसी क्षण लुटा देगी ! मृत्यु की दिव्य ज्योति के सम्मुख उसके अन्दर का सारा मालिन्य, सारी दुर्भावना, सारा विद्रोह मिट गया।

वकील साहब की आँखें खुली हुई थी, पर मुख पर किसी भाव का चिह्न न था। रतन को विह्वलता भी अब उनकी बुझती हुई चेतना को प्रदीप्त न कर सकती थी। हर्ष और शोक के बन्धन' से वह मुक्त हो गये थे, कोई रोये तो ग़म नहीं, हँसे तो खुशी नहीं। [ २०२ ] टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुँह में डाल दिया। आज उन्होंने कुछ बाधा न दी। वह जो पाखंडों और रूढ़ियों का शत्रु था, इस समय शान्त हो गया था; इसलिए नहीं कि उसमें धार्मिक विश्वास का उदय हो गया था, बल्कि इसलिए कि उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदासीनता से वह विष का घूंट पी जाता।

मानव-जीवन की सबसे महान् घटना कितनी शान्ति के साथ घटित हो जाती है। वह विश्व का एक महान् व्यंग, वह महत्वाकांक्षाओं का प्रचण्ड सागर, वह उद्योग का अनन्त भन्डार, वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुःख का लीला-क्षेत्र, वह बुद्धि और बल को रंगभूमि न जाने कब और कहाँ लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती। एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छवास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती ! सागर को हिलोरी का कहाँ अन्त होता है, कौन बता सकता है ? ध्वनि कहाँ वायुमग्न हो जाती है, कौन जानता है ? मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और क्या है ? उसका अबसान भी उतना ही शान्त, उतना ही अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है ? भूतों के भक्त पूछते हैं, क्या वस्तु निकल गयी ? कोई विज्ञान का उपासक कहता है, एक क्षोण ज्योति निकल जाती है। कपोल-विज्ञान के पुजारी कहते हैं, आँखों से प्राण निकले, मुँह से निकले, ब्रह्माण्ड से निकले ! कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है ? ध्वनि लीन होते समय बधा मूर्तिमान् हो जाती है ? यह उस अनन्त यात्रा का एक विश्राम मात्र है जहाँ यात्रा का अन्त नहीं, नया उत्थान होता है !

कितना महान परिवर्तन है ! वह जो मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था, अब उसे चाहे मिट्टी में दबा दो, चाहे अग्नि-चित्ता पर रख दो, उसके माथे पर बल तक न पड़ेगा। टीमल ने वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा-बहूजी, आइए खाट से उतार दें। मालिक चले गये !

यह कहकर वह भूमि पर बैठ गया और दोनों आँखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस वर्ष का साथ छूट गया। जिसने कभी आधी बात नहीं कही, कभी तू करके नहीं पुकारा, बह मालिक अब उसे छोड़े चला जा रहा था।