ग़बन/भाग 10

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २०३ ]रतन अभी तक कविराज को बाट जोह रही थी ! टीमल के मुख से यह शब्द सुनकर उसे धक्का-सा लगा। उसने उठकर पति की छाती पर हाथ रखा। साठ वर्ष तक अविश्राम गति से चलने के बाद वह अब विश्राम कर रही थी। फिर उसे माथे पर हाथ रखने की हिम्मत न पड़ी। उस देह का स्पर्श करते हुए, उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हए, उसे ऐसा विराग हो रहा था, जो ग्लानि से मिलता था। अभी जिन चरणों पर सिर रखकर वह रोयी थी, उसे छूते हुए उसकी उँगलिया-सी कटी जाती थीं। जीवन-सूत्र इतना कोमल है, उसने कभी न समझा था। मौत का खयाल कभी उसके मन में न आया था। उस मौत ने आँखों के सामने उसे लूट लिया !

एक क्षण के बाद टीमल ने कहा-बहुजी, अब क्या देखती हो, खाट के नीचे उतार दो, जो होना था हो गया।

उसने पैर पकड़ा, रतन ने सिर पकड़ा और दोनों ने, शब को नीचे लिटा दिया और वहीं जमीन पर बैठकर रतन रोने लगी, इसलिए नहीं कि संसार में अब उसके लिए कोई अवलम्ब न था, बल्कि इसलिए कि वह उनके साथ अपने कर्तव्य को पूरा न कर सकी।

उसी वक्त मोटर की आवाज आयी और कविराज ने पदार्पण किया।

कदाचित् अब भी रतन के हृदय में कहीं आशा की कोई बुझती हुई चिनगारी पड़ी हुई थी। उसने तुरन्त आँखें पोंछ डालों; सिर का अंचल सँभाल लिया , उलझे हुए केश समेट लिये और खड़ी होकर द्वार की ओर देखने लगी। प्रभात ते आकाश की अपनी सुनहरी किरणों से रंजित कर दिया था। क्या इस आत्मा के नव-जीवन का भी यही प्रभात था ?

३१

उसी दिन शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दाह-क्रिया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे में रहते थे। उन्हें तार देकर बुला लिया गया। दाह-क्रिया उन्होंने की। रतन को चिता के दृश्य की कल्पना ही से रोमांच होता था। वहाँ पहुँचकर शायद वह बेहोश हो जाती।

जालपा आजकल प्रायः सारे दिन उसी के साथ रहती। शोकातुर रतन को न घर-बार की सुधि थी, न खाने-पीने की। नित्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात याद आ जाती. जिस पर वह घण्टों रोती! पति के साथ उसका
[ २०४ ]जो धर्म था, उसके एक अंश का भी उसने पालन किया होता, तो उसे बोध होता। अपनी कर्त्तव्यहीनता, अपनी निष्ठुरता, अपनी श्रृंगार-लोलुपता की चर्चा करके वह इतना रोती कि हिचकियाँ बँध जाती। वकील साहब के सद्गुणो की चर्चा करके ही वह अपनी आत्मा को शान्ति देती थी। जब तक जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था, उसे किसी कुत्ते या बिल्ली या चोर-चकोर की चिन्ता न थी। लेकिन अब द्वार पर कोई रछक न था, इसलिए वह सजग रहती थी-पति का गुणगान किया करती। जीवन का निर्वाह कैसे होगा, नौकर-चाकरों में किन-किन को जवाब देना होगा, घर का कौन कौन सा खर्च कम करना होगा, इन प्रश्नों के विषय में दोनों में कोई बात न होती, मानो यह चिन्ता मृत आत्मा के प्रति श्रद्धा होगी। भोजन करना, साफ़ वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुचित जान पड़ता था। श्राद्ध के दिन उसने अपने सारे वस्त्र और आभूषण महापात्र को दान कर दिये। इन्हें लेकर अब वह क्या करेंगी ? इनका व्यवहार करके क्या वह अपने जीवन को कलंकित करेगी? इसके विरुद्ध पति की छोटी-सी-छोटी वस्तु को भी स्मृति-चिह्न समझकर वह देखती भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना कोमल हो गया था कि कितनी ही बड़ी हानि हो जाय, उसे क्रोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर गिर पड़ा; पर रतन के माथे पर बल तक न आया। पहले एक दावात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी तरह डाँट बतायी थी,निकाले देती थी; पर आज उस से कई गुने नुकसान पर उसने जबान तक न खोली। कठोर भाव उसके हृदय में आते हुए मानों डरते थे, कि कहीं उसे आघात न पहुँचे या शायद पति शोक और पति-गुणगान के सिवा और किसी विचार को मन में लाना वह पाप समझती थी।

वकील साहब के भतीजे का नाम था मणिभूषण। बड़ा ही मिलनसार, हँसमुख,कार्य-कुशल। इसी एक महीने में उसने सैकड़ों मित्र बना लिये। शहर में जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था, उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की, कि रतन' को खबर तक नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हजार रुपये जमा थे। उस पर
[ २०५ ]तो उसने कब्जा कर ही लिया, मकानों के किराये भी वसूल करने लगा, गांवों की तहसील भी खुद ही शुरू कर दी, मानो रतन से कोई मतलब ही नहीं।

एक दिन टीमल ने आकर रतन से कहा-बहुजी, जानेवाला तो चला गया, अब घर-द्वार की भी कुछ खबर लीजिए। मैंने सुना है, भैयाजी ने बैंक का सब रुपया अपने नाम करा लिया।

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नेत्रों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। उसी दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया-चोरी का इलज़ाम लगाकर, जिसमें रतन कुछ काह भी न सके।

अब केवल महाराज रह गये। उन्हें मरिणभूषण ने भंग पिला पिलाकर ऐसा मिलाया, कि वह उन्हीं का दम भरने लगे। महरी से कहते, बाबूजी का बड़ा रईसाना मिजाज हैं; कोई सौदा ला़ओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाये। बड़ों के घर में बड़े ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थी, यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुंह पहले ही सी दिया गया था। वह एक-न-एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मँडलाया करती। रतन को जरा भी खबर न थी, किस तरह उसके लिये व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा——काकीजी, अब तो मुझे यहाँ रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचता हूँ, अब आपको लेकर घर चला जाऊँ। वहां आपकी बहु आपकी सेवा करेगी, बाल-बच्चों में आप का जी बहल जायगा और खर्च भी कम हो जायगा। आप कहें तो यह बँगला बेच दिया जाय। अच्छे दाम मिल जायेंगे।

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूच्छी भंग हो गयी हो, मानो किसी ने उसे झंझोड़कर जगा दिया हो। सकपकाई हुई आँखो से उसकी ओर देखकर बोली——क्या मुझसे कुछ कह रहे हो ?

मणि०——जी हाँ, कह रहा था कि अब हम लोगों का यहां रहना व्यर्थ हैं। आपको लेकर चला जाऊँ, तो कैसा हो?

रतन ने उदासीनता से कहा——हाँ, अच्छा तो होगा। [ २०६ ]मणि——काकाजी ने कोई वसीयतनामा 'लिखा हो, तो लाइए देखूँ। उनकी इच्छाओं के आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।

रतन ने उसी भाँति आकाश पर बैठे हुए, जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो, जवाब दियाव—सीयत तो नहीं लिखी। और क्या जरूरत थी ?

मणिभूषण ने फिर पूछा——शायद कहीं लिखकर रख गये हों ?

रतन——मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कभी जिक्र नहीं किया।

मणिभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहामे——री इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाय।

रतन ने उत्सुकता से कहा——हाँ, हाँ, मैं भी चाहती हूँ

मणि——गाँव की आमदनी कोई तीन हजार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था। मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो-सौ ढाई सौ से किसी महीने में कम नहीं है। मेरी सलाह है कि वह ज्यों-का-त्यों बना रहे।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा-हाँ, और क्या।

मणि-तो गाँव की आमदनी तो धर्मार्थ पर अर्पण कर दी जाय। मकानों का किराया कोई सौ रुपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटी-सी संस्कृत पाठशाला खोल दी जाय। रतन-बहुत अच्छा होगा।

मणि——और यह बँगला बेंच दिया जाय। इस रुपये को बैंक में रख दिया जाय।

रतन——बहुत अच्छा होगा। मुझे रुपय-पैसे की अब क्या जरूरत है।

मणि——आपकी सेवा के लिए तो हम सब हाजिर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाय ? अभी से यह फिक्र को जायगी, तो जाकर कहीं दो तीन महीने में फुरसत मिलेगी।

रतन ने लापरवाही से कहा——अभी जल्दी क्या है। कुछ रुपये बैंक में तो है ?

मणि——बैंक में कुछ रुपये थे, मगर महीने भर से खर्च भी तो हो रहे हैं। हजार-पांच सौ पड़े होंगे। यहाँ तो रुपये जैसे हवा में उड़ जाते हैं। गबन [ २०७ ]
'मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जायगा। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया--अच्छा तो होगा। वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। आभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिन्तक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और खिन्नता मानों भस्म हो गयी थी, वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर सन्देह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित् उसके सामने कोई चोर भी उसकी सम्पत्ति का अपहरण करता, तो वह शोर न मचाती।

३२

षोड़शी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो-घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को जरा ज्वर आता तो वह बक-झक करने लगते थे। कभी भाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे; सम्बन्धियों को भी बुला लिया जाय जिसमें वह सबसे अन्तिम भेंट कर लें, क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं सामने विमान लिये खड़े थे। रामेश्वरी और सब कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती ! उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था।

मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों के फ़ाइल थे। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहाँ बैठे-बैठे घबराने लगता, तो इन फाइलों को उलट-पलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रखा था। उसे ख्याल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की विसात और मोहरे रखे हुए हैं, उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिये हुए हैं। वह तुरंत

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गबन
 
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दौड़ी हुई गयी और वह कापी उठा लायी ! यह नक्शा उस कापी में मौजूद था, और नक्शा ही न था, उसका हल भी दिया हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पड़ा, इस नक्शे को किसी पत्र में छपा दूँ तो कैसा हो। शायद उनकी निगाहें पड़ जाय। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब कोई उनका सानी नहीं है, तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सकें। कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल कर दिया है, तो इसे देखते ही फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे, उन्हें एक-दो दिन सोचने में लग जायेंगे। मैं लिख दूँगी, कि जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाय। जुमा तो है ही ! उन्हें रुपये न भी मिलें, तो भी इतना सम्भव है हो कि हल करने वालों में उनका नाम भी हो। कुछ पता तो लग जायगा। कुछ भी न हो, तो रुपये ही तो जायेंगे। दस रुपये का पुरस्कार रख दूँ। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बड़ा खिलाड़ी इधर ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के हित की होगी।

इसी उधेड़बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिन भर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गयी, तो उससे न रहा गया। आज वह प्रतिशोध के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह तांगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सड़क के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दी और उसे चार आने दे दिये। कुछ आगे और बढ़ी, तो दो कांस्टेबुल एक कैदी को लिये जा रहे थे। उसने मोटर रोककर एक कांस्टेबुल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा——इस कैदी को मिठाई खिला देना। कांस्टेबुल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में खुश हुआ, आज किसी भाग्यवान् का मुंह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा——क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी, दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।

रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा- यहीं है न ? तुमने मुझसे न कहा। [ २०९ ]मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले——बड़ा दुःख हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाब लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बन सकता। बड़ी प्यास है; जैसे छाती में कोई भटी जल रही हो। फुँँका जाता हूँ। कोई अपना नहीं होता बहूजी ! संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय, हाय ! लड़का था, वह भी हाथ से निकल गया। न जाने कहाँ" गया। आज होता, तो एक चुल्लू पानी देनेवाला तो होता। यह दो लौंडे हैं. इन्हें कोई फिक्र नहीं, मैं मर जाऊँ या जी जाऊं। इन्हें तीन दफे खाने को चाहिए, तीन दफे पानी पीने को। बस, और किसी काम के नहीं। यहाँ बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूँ ! अबकी न बचूँगा।

रतन ने तस्कीन दी-यह मलेरिया है, दो चार दिन में आप अच्छे हो जायेंगे, घबराने की बात नहीं।

मुन्शीजी ने दीन नेत्रों से देखकर कहा——बैठ जाइए बहूजो, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है तो शायद बच जाऊँ, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोंके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूँ। अब उनके घर मेहमानी खाऊँगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा ! ऐसा-ऐसा रगेदूँ, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहां भी आत्माएँ इसी तरह रहती हैं ! इसी तरह वहाँ भी कचहरियां हैं, हाकिम है, राजा है, रक हैं, न्याख्यान होते हैं, समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिन्ता है, वहां भी अहलमद हो जाऊँगा। मजे से अखबार पढ़ा करूंगा।

रतन को ऐसी हँसी छूटी कि वहाँ खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से यह बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गम्भीर विचार की रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हँसी, और इस असामयिक हसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आयी। उसके साथ जालपा भी बाहर आ गयी।

रतन ने अपराधी नेत्रों से उसकी मोर देखकर कहा——दादाजी' ने मन' मैं क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूँ और इसे हँसी सुझाता है। अब वहां न जाऊँगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे, [ २१० ]तो मैं बिना हँसे न रह सकूँगी। देखो, तो आज कितनी बे-मौके हँसी आयी है।

वह अपने मन को इस उच्छ जलता के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा——मुझे भी अक्सर इनकी बातों पर हँसी आ जाती है, बहन ! इस वक्त तो इनका ज्वर कुछ हलका है। जव जोर का ज्वर होता है, तब तो वह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हँसी रोकनी मुश्किल हो जाती है ! आज सबेरे कहने लगे——मेरा पेट भक हो गया, मेरा पेट भक हो गया ! इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकी, न अम्मा समझ सकी; पर वह बराबर यही रटे जाते थे-पेट भक हो गया ! आओ कमरे में चलें।

रतन'——मेरे साथ न चलोगी?

जालपा——आज तो न चल सकूंगी, बहन।

'कल आओगी?

'कह नहीं सकती। दादाजी का जी बुछ हलका रहा, तो आऊँगी।'

'नहीं भाई जरूर आना ! तुमसे एक सलाह करनी है।'

'क्या सलाह है?'

'मुणि कहते है, यहाँ अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बँगले को बेंच देने को कहते हैं।'

जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली——यह तो तुमने बुरी खबर सुनायी, बहन ! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर। चली जाओगी ? मैं न जाने दूंगी। मुणि से कह दो, बँगला बेंच दें; मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जायगा, मैं तुम्हें न छोड़ेंगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं। मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊँ। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अभी जाने का नाम न लेना।

रतन की आँखे भर आयी बोली——मुझसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूँ। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है। जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गयी और उसके गले में हाथ डालकर बोली——कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी। [ २११ ]रतन ने उसे अंकवार में लेकर कहा——लो, कलम खाती हूँ, न जाऊँगी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मेरे लिए वहाँ क्या रखा हैं। बँगला भी क्यों बेंचू। दो-ढाई सौ मकानों का किराया है ! हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मुणि से कह दूँगी—— मैं न जाऊँगी।

सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा—— यह शतरंज किसके साथ खेल रही थी?

जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पासा फेंकने की जो बात सोची थी, वह सब उससे कह सुनाई। मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझज, पागलपन न खयाल करे; लेकिन रतन सुनते ही बाग-बाग हो गयी। बोली——दस रुपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपये कर दो, मैं देती हूँ।

जालपा ने शंका—— कीलेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे अच्छे शतरंजबाजों ने मैदान में कदम रखा तो?

रतन ने दृढ़ता से कहा——कोई हरज नहीं। बाबुजी की निगाह पड़ गयी. तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आयेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही जायगा। प्रखबार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जाचगा। तुमने बहुत प्रच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा। मैं आप की प्रेरणा की कायल हो गयी हूँ। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ते चली गयी थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, वहाँ जाना अच्छा न होगा।

जालपा——तो तुम्हें आशा है ?

'पूरी। मैं कल सबेरे रुपये लेकर आऊँगी।'

'तो मैं नाज खत लिख रखूगी। किसके पास भेजूं ? वहाँ का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिये।'

'वहाँ तो 'प्रजा-मित्र' की बड़ी चर्चा थी। पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पड़ते नजर पाते थे।'

'तो 'प्रजा-मित्र' ही को लिखूगी, लेकिन रुपये हड़प कर जाय और नकशा न छापे तो क्या हो ?'

'हो क्या, पचास रुपये ही तो ले जायगा। दमड़ों की हँडिया खोकर कुत्ते
[ २१२ ]की जात तो पहचान ली जायगी। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता।जो लोग देश-हित के लिये जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आधे घण्टे के लिये चलो, तो तुम्हें इसी वक्त रुपये दे दूं।'

जालपा ने मोमराजी होकर कहा——इस वक्त कहाँ चलूँ। कल ही आऊँगी।

उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे-बहू ! बहू !

जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन शहर जा रही थी कि रामेश्वरी पंखा लिये अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गयी। रतन ने पूछा——तुम्हें गरमी लग रही है अम्मांजी ! मैं तो ठण्ड के मारे कांप रही हूँ। अरे ! तुम्हारे पावों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है ? क्या आटा पीस रही थी?

रामेश्वरी ने लज्जित होकर कहा——हां, वैद्यजी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहाँ मयस्सर ? मुहल्ले में कोई पिसनहारिन नहीं मिलती। मजूरिने तक चक्की से आटा पिसवा लेती है। मैं तो एक आना सेर देने को राजी हूँ पर कोई मिली नहीं।

'रतन ने अचम्भे से कहा-तुमसे चक्की चल जाती है ?

रामेश्वरी ने झेप से मुसकराकर कहा——कौन बहुत था। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी। वह पीसने जा रही थी, लेकिन फिर भी मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जाँत के पास एक मिनट खड़ी रही, मुसकराकर माची पर बैठ गयी और बोली-तुमसे तो अब जाँत न चलता होगा, मांजी। लाओ, थोड़ा-सा गेहूँ मुझे दो, देखूं तो।

रामेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा——अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी। चलो यहाँ से।

रतन ने प्रमाण दिया-मैंने बहुत दिनों तक पीसा है माँजी। जब मैं अपने घर थी तो रोज पीसती थी। मेरो अम्मि, लाओ थोड़ा-सा गेहूँ।

'हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जायेंगे।' [ २१३ ]
'कुछ नहीं होगा माँँ जी, आप गेहूँ तो लाइए।'

रामेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा— —गेहूँ घर में नहीं है। अब इस वक्त बाजार से कौन लाये।

'अच्छा चलिए, मैं आपके भण्डारे में देखूँ। गेहूँ होगा कैसे नहीं। रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अन्दर चली गयी और हांडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांड़ी में गेहूँ निकल आये। बड़ी खुश हुई, बोली——देखो माँ जी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं।

उसने एक टोकरी में थोड़ा गेहूँ निकाल लिया और खुश-खुश चक्की पर जाकर पीसने लगी। रामेश्वरी ने जाकर जलपा से कहा——बहु, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही है। उठाती हूँ, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे ?

जलपा ने मुंशी जी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा——यह तुमने क्या गजब किया अम्माजी। सचमुच, कोई देख ले तो नाक कट जाय ! चलिए, जरा देखूं।

रामेश्वरी ने विवशता से कहा——क्या करूँ, मैं तो समझा के हार गयी, मानती ही नहीं।

जलपा ने जाकर देखा तो रतन गेहूँ पीसने में मग्न थी। बिनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुया था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गयी थी। उसके बलिष्ठ हाथों जांत लट्टू के समान नाच रहा था।

जलपा ने हँसकर कहा——ओ री, आटा महीन नहींं पीसे तो, पैसे न मिलेंगे !

रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुसकुराई। जलपा ने और जोर से कहा——आटा, खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाऐगी ! रतन ने भी हंसकर कहा——जितना महीन कहिए उतना महीन पीस , बहू जी पिसाई अच्छी मिलनी चाहिये !

जलपा——घेले सेर।

रतनघे——ले सेर नहीं ?

जालपा——मुंह धो आओ! धेले सेर मिलेंगे। [ २१४ ]रतन—— मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहाँ क्यों खड़ी हो ?

जालपा——आ जाऊँ मैं भी खिंचा हूँ?

रतन——जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊँ!

जालपा——अकेली गाओगो ? (रामेश्वरी से) अम्मा, आप जरा दादाजी के पास बैठ जायें, मैं अभी आती हूँ।

जालपा भी जातं पर जा बैठी, और दोनों जाँत का यह गीत गाने लगी—

मोहि जोगिन बनाय के कहो गये, जोगिया !

दोनों के स्वर मधुर थे। जाँत को घुमर-घुमर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जाती, तो जॉल का स्वर मानो कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनन्द से पूर्व थे—— न शोक का भार था, न बियोग का दुःख। जैसे दो चिडिया प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

३३

रमा की चाय की दुकान खुल तो गई; पर केवल रात को खुलती थी, दिन भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही की दूकान पर, बैठता। पर विक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आये, दूसरे दिन से चार-पांच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहाँ चाय पी लेता, फिर दूसरी दुकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दी। कुछ रुपये जमे हो गये, तो उसने सुन्दर मेज ली। चिराग जलने के बाद सागभाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अन्दर रख देता और वरामदे में वह मेज लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो दैनिक-पत्र भी' मँगाने लगा। दूकान चल निकली। उन्हीं तीन चार घण्टों में छः सात रुपये आ जाते थे और सब खर्च निकालकर तीन चार रुपये बच रहते थे।

इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचण्ड कर दिया। जब तक हाथ में रुपये न थे, वह मजबूर था। रुपये आते ही सैर-सपाटे की धुन सवार हो गई। सिनेमा की याद भी आयी। [ २१५ ]
रोज़ के व्यवहार की मालूली चीजें जिन्हें अब तक बह टालता आता था, अब अबाध रूप से आने लगी। देवीदीन के लिए वह एक सुन्दर रेशमी चादर लाया। जन्गो के सिर में पीड़ा होती रहती थी। एक दिन सुगन्धित तेल की दो शीशियाँ लाकर उसे दे दी। दोनों निहाल हो गये। अब बुढ़िया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो उसे डाँटता, काकी, अब तो मैं चार पैसे कमाने लगा, अब तू क्यों जान देती है। अगर फिर कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी, तो कहे देता हूँ, दुकान उठाकर फेंक दूँँगा। फिर मुझे जो सज़ा चाहे दे देना। बुढ़िया बेटे की डांट सुनकर गद्गद् हो जाती। मण्डी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दूकान पर तो नहीं है ! अगर वह बैठा होता, तो किसी कुली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती ! वह न होता, तो लपकी हुई आती और जल्द से बोझ, उतारकर शान्ति से बैठ जाती, जिसमें रमा भाँप न सके।

एक दिन 'मनोरमा थियेटर' में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगह रक्षित करा रहे थे। रमा को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा, कहीं रात को टिकट न मिला, तो टापते रह जायेंगे। तमाशे की बड़ी तारीफ है। उस वक्त एक के दो से देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुकता ने पुलीस के भय को पीछे डाल दिया। आफत नहीं आयी है कि घर से निकलते ही पुलीस पकड़ लेगी। दिन को न सही, रात को तो निकलता ही हूँ। पुलीस चाहती तो क्या रात को न पकड़ लेती, फिर मेरा वह हुलिया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदल लेने के लिए काफी है। यौं मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन कहीं गया हुआ था। बुढ़िया ने पूछा——कहाँ जाते हो बेटा ? रमा ने कहा——कहीं नहीं काकी, अभी आता हूँ।

रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस हिम की भाँति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई कांसटेबिल न आ रहा हो। उसे विश्वास था कि पुलीस का एक-एक चौकीदार भी उसका हुलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाये चल रहा था। सहसा उसे खयाल आया, गुप्त पुलीसवाले सादे
[ २१६ ]कपड़े पहने इधर-उधर घूमा करते हैं। कौन जाने जो आदमी मेरी बग़ल में आ रहा है, कोई जासूस ही हो। मेरी ओर कितने ध्यान से देख रहा है। यह सिर झुकाकर चलने से ही तो नहीं उसे संदेह हो रहा है। यहाँ ओर सभी सामने ताक रहे हैं। कोई यों सिर झुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों के इन रेलपेल में सिर झुकाकर चलना मौत को नेयता देना है। पार्क में कोई इस तरह चहलकदमी करे तो कर सकता है ! यहाँ तो सामने देखना चाहिए। लेकिन वग़ल वाला आदमी अभी तक मेरी ही तरफताक रहा है। शायद कोई कुफ़िया हो। उसका साथ छोड़ने के लिए वह एक तमोली की दूकान पर पान खाने लगा। वह आदमी मागे निकल गया। रमा ने आराम की लम्बी सांस ली।

अब उसने सिर उठा लिया और मजबूत दिल करके चलने लगा। इस वक्त ट्रामे का भी कहीं पता न था, नहीं उसी पर बैठ लेता। थोड़ी दूर चला होगा कि तीन कांसटेवल आते दिखाई दिये। रमा ने सड़क छोड़ दी और पटरी पर चलने लगा। ख्वाहमख्वाह साँप के बिल में ऊँगली डालना कौन-सी बहादुरी है। दुर्भाग्य की बात, तीनो कांस्टेबलों ने भी सड़क छोड़कर वही पटरी ले ली। मोटरों के आने-जाने से बार बार इधर-उधर दौड़ना पड़ता था। रमा का कलेजा धक-धक करने लगा। दूसरी पटरी पर जाना तो सन्देह को और भी बढ़ा देगा। कोई ऐसी गली भी नहीं, जिसमें घुस जाऊँ। अब तो सब बहुत समीप' आ गये। क्या बात है, सब मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मैंने बड़ी हिमाकत की कि यह पगड़ बाँध लिया, और बाँधी भी कितनी बेलुकी ! एक टोले-सा ऊपर उठ गया है। यह पगड़ी आज मुझे पकड़ायेगी। बांधी थी कि इससे सूरत बदल जायगी। यह उलटे और तमाशा बन गयी। हाँ, तीनों मेरी ही ओर ताक रहे हैं। आपस में बात भी कर रहे हैं। रमा को ऐसा जान पड़ा, पेरों में शक्ति नहीं है। शायद सब मन में मेरा हुलिया मिला रहे हैं। अब नहीं बच सकता ! घरवालों को मेरे पकड़े जाने की "खबर मिलेगी तो कितना लज्जित होंगे ! जालपा तो रो-रोकर प्राण दे देगी। पांच साल से कम सजा न होगी। आज इस जीवन का अन्त हो रहा है।

इस कल्पना ने उसके ऊपर ऐसा आतंक जमाया कि उसके औसान जाले रहे। जब सिपाहियों का दल समीप आ गया, तो उसका चेहरा भय से कुछ ऐसा विकृत हो गया, और आँखें कुछ ऐसी सशंक हो गयी, और अपने का
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उनकी आँखों सेचाने के लिए वह कुछ इस तरह दूसरे आदमियो की आड़ खोजने लगा कि मामूली आदमी को भी उस पर सन्देह होना स्वाभाविक था। फिर पुलिसवालों की मँजो हुई आँखें क्यों चूकती ? एक ने अपने साथी से कहा——यो मनई चोर न होय, तो तुमरी टांगन ते निकर जाई। कस चोरन को नाई ताकत है। दूसरा बोला——कुछ सन्देह हमऊ का हुद रहा है। फुरे कहो पाँडे, असली चोर है।

तीसरा आदमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा——ओ जी, ओ पगड़ी, जरा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है ?

रमानाथ ने सीनाजोर के भाव से कहा——हमारा नाम पूछकर क्या करोगे ? क्या मैं चोर हूँ?

'चोर नहीं, तुम साड हो, नाम क्यों नहीं बताते ?'

रमा ने एक क्षण आगा-पीछा किया और फिर हड़बड़ाकर कहा हीरालाल।

'घर कहाँ है ?'

'हाँ, घर पूछते हैं ! '

'शाहजहाँपुर।'

'कौन मुहल्ला ?'

रमा शाहजहाँपुर न गया था, न कोई कल्पित नाम ही उसे याद आया कि बता दे। दुस्साहस के साथ बोला——तुम मेरा हुलिया लिख रहे हो।

कांसटेबल ने भबकी दी-तुम्हारा हुलिया पहले से ही लिखा हुआ है। नाम झूठ बताया, सकूमत झूठ बतायी, मुहल्ला पूछा तो बगलें झांकने लगे। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है, आज जाकर मिले हो। चलो थाने पर।

यह कहते हुए उसने रमानाथ का हाथ पकड़ लिया। रमा ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा करके कहा—— वारंट लाओ, तब हम चलेंगे। क्या मुझे। कोई देहाती समझ लिया है ?

कांस्टेबल ने एक सिपाही से कहा——पकड़ लो जी इनका हाथ, वहीं थाने पर वारंट दिलाया जायगा।

शहरों में ऐसी घटनाएं मदारियों के तमाशे से भी ज्यादा मनोरंजक
[ २१८ ]
होती है। सैकड़ों आदमी जमा हो गये। देवीदीन इसी समय अफीम लेकर लोट आ रहा था, जमाव देखकर वह भी आ गया। देखा कि तीन कांसटेवल रमानाथ को घसीटे लिये जा रहे हैं। आगे बढ़कर बोला- हैं हैं, जमादार, यह क्या करते हो? यह पंडित तो हमारे मिहमान हैं, इन्हें कहाँ पकड़े लिये जाते हो?

तीनों कांसटेबल देवीदीन से परिचित थे, रुक गये। एक ने कहा—— तुम्हारे मिहमान है यह ? कब से ?

देवीदीन ने मन में हिसाब लगा कर कहा——चार महीने से कुछ ज्यादा हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गये। रहनेवाले भी वहाँ के हैं। मेरे साथ ही तो आये थे।

मुसलमान सिपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा—— इनका नाम क्या है ?

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा——नाम इन्होंने बताया न होगा?

सिपाहियों का सन्देह दृढ़ हो गया। पांडे ने आँखें निकालकर कहा——जान परत है, तुमहे मिले हो, नाँव काहे नहीं वताबत हो इनका?

देवीदीन ने साधारहीन साहस के भाव से कहा—— मुझसे रोब न जमाना पांडे, समझे ! यहाँ धमकिया में नहीं आने के !

मुसलमान सिपाही ने मानों मध्यस्थ बनकर कहा——बूढ़े बाबा, तुम तो ख्वाहमख्या बिगड़ रहे हो। इनका नाम क्यों नहीं बतला देते ?

देवीदीन ने कातर नेत्रों से रमा की ओर देखकर कहा——हम लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और, यह हम नहीं जानते।

पाँडे ने आँखे निकालकर हथेली को सामने करके कहा——बोलो पण्डित जी, क्या नाम है तुम्हारा ? रमानाथ या हीरालाल ? या दोनों एक घर का एक ससुराल का?

तीसरे सिपाही ने दर्शकों को सम्बोधित करके कहा——नौव है रमानाथ, बतावत है हीरालाल। सबूत हुइ गया। दर्शकों में कानाफूसी होने लगी शुबहे की बात तो है।

'साफ़ है, नाम और पता दोनों गलत बता दिया।'

एक मारवाड़ी सज्जन बोले——उचक्को सी है।

एक मौलवी साहब ने कहा——कोई इश्तिहारी मुलजिम है। [ २१९ ]
जनता को अपने साथ देखकर सिपाहियों को और भी जोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ चुपचाप चले जाने ही में अपनी कुशल दिखायी दी। इस तरह सिर झुका लिया, मानो उसे इसकी विल्कुल परवा नहीं है कि लाठी पड़ती है या तलबार। इतना अपमानित वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी ग्लानि न उत्पन्न करती।

थोड़ी देर में पुलिस स्टेशन दिखायी दिया। दर्शकों की भीड़ बहुत कम हो गयी थी। रमा ने एक बार उनकी ओर लज्जित आशा के भाव से ताका। देवीदीन का पता न था ! रमा के मुँह से एक लम्बी साँस निकल गयी। इस विपत्ति में क्या यह सहारा भी हाथ से निकल गया ?

३४

पुलिस स्टेशन के दफ्तर में इस समय एक बड़ी मेज के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोगा थे, गोरे, शौकीन, जिनकी बड़ी-बड़ी आँखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बगल में नायब दारोगा थे। यह सिख केशे, बहुत ही हँसमुख. सजीवता के पुतले, गेहुँना रंग, सुडौल, सुगठित शरीर, सिर पर केश थे, हाथ में कड़ा, पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज की दूसरी तरफ इन्सपेक्टर और डिप्टी सुपरिटेंडेंट बैठे हुए थे। इन्पेक्टर अधेड़, साँवला आदमी था, कौड़ी की-सी आँखे, फूले हुए गाल और ठिगना कद। डिप्टी सुपरिटेंडेंट लम्बा छरहा जबान' था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषी। इसकी लम्बी नाक और ऊँचा मस्तक कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार का कश लेकर कहा——बाहरी गवाही से काम नहीं चलने सकेगा। इसमें से किसी को 'अप्रवर बनाना होगा। और कोई 'माल्टरनेटिव' नहीं है।  

इन्सपेक्टर ने दारोगा की ओर देखकर कहा——हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रखी, हलफ से कहता हूँ। सभी तरह के लालच देकर हार गये। सभी ने ऐसी गुट कर रखी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया; पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।

डिप्टी——उस मारवाड़ी को फिर आजमाने होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद उसका कुछ दबाव पड़े। [ २२० ]
इन्स्पेक्टर——हलफ से कहता हूँ, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लड़के के पैरों पर गिरा; पर लड़का किसी तरह राजी नहीं होता।

कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मग्न बेठे रहे। अन्त में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा——मुकदमा नहीं चलने सकता। मुफ्त का बदनाम हुआ।

इन्स्पेक्टर——एक हफ्ते की मुहलत और लीजिये, शायद कोई टूट जाय। यह निश्चय करके दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए। छोटे दारोगा भी उनके साथ ही चले गए। दारोगाजी ने हुक्का मंगवाया, कि सहसा एक मुसलमान सिपाही ने आकर कहा-दारोगाजी लाइए, कुछ इनाम दिलबाइए। एक मुलज़िम को शुवहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ। पहले नाम और सकूमत दोनों गलत बतलाई थी। देवीदीन खटीक जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर टहरा हुआ है। जरा डाँट बताइयेगा, तो सब कुछ उगल देगा।

दारोगा देवादीन वही है न, जिसके दोनों लड़के....

सिपाहो-जी हाँ, वही है।

इसने में रमानाथ भो दारोगा के सामने हाजिर किया गया। दरोगा में उसे सिर से पाँव तक देखा मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले——अच्छा यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छः महीने से परेशान कर रहे हो। कैसा साफ हुलिया है कि अन्धा भी पहचान ले ! यहाँ कब से आये हो?

कांसटेबल ने रमा को परामर्श दिया——सब हाल सच-सच कह दो तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी।

रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा——अब तो आपके हाथ में हैं, रियायत कीजिए या सस्ती कीजिए। इलाहाबाद को म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, के चार सौ रुपये मुझसे खर्च हो गये। मैं वक्त पर रुपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा। नहीं तो इतने रुपये का इन्तजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ वश न चला तो वहां से भागकर यहाँ चला आया। इसमें एक हर्फ भी गलत नहीं है। [ २२१ ]
दारोगा ने गम्भीर भाव से कहा——मामला कुछ संगीन है, क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया था ?

'मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी शराब मुंह से लगायी हो।'

कांसटेबल : विनोद करके कहा——मुहब्बत के बाजार में लुट गये होंगे हजूर !

रमाने मुस्कराकर कहा——मुझसे फाकामस्तों का वहाँ कहाँ गुजर ?

दारोगा——तो क्या हुआ ? खेल डाला ? या बीबी के लिए जेबर बनवा डाला?

रमा झेंंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी

दारोगा——अच्छी बात है, तुम्हें भी यहाँ खासे मोटे जेवर मिल जायेंगे। एकाएक बूढ़ा देवीदीन आकर खड़ा हो गया

दारोगा ने कठोर स्वर में कहा——क्या काम है यहाँ ?

देवी——हुजूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारे पर दया को नजर रहे हुजूर, बेचारे बड़े सीधे आदमी हैं।

दारोगा——बचा, सरकारी मुलजिम को घर में छिपाते हो, उस पर सिफारिश करने आये हो?

देवी——मैं क्या सिफारिश करूँगा हुजूर, दो कौड़ी का आदमी।

दारोगा——जानता है इन पर वारंट है. सरकारी रुपये गबन कर गये हैं।

देवी——हुजूर, भूल-चूक आदमी से ही तो होती है। जवानी की उम्र है ही, खरच हो गये होंगे।

यह कहते हुए देवीदीन ने पांच गिल्लियां कमर से निकालकर मेज पर रख दी।

दरोगा ने तड़पकर कहा——यह क्या है ?

देवी——कुछ नहीं है, हुजूर पान खाने को।

दारोगा——रिश्वत देना चाहता है, क्यों ? कहो तो बचा इसी इलजाम मे भेज दूँ।

देवी०——भेज दीजिये सरकार ! घरवाली लकड़ी-कफन की फिकर से छूट जायगी। वहीं बैठा आपको दुआ दूँँगा। गबन [ २२२ ]दारोगा——अबे इन्हें छोड़ाना है, तो पचास मिनियाँ लाकर सामने रखा। जानते हो, इनकी गिरफ्तारी पर पांच सौ रुपये का इनाम है।

देवी——पाप लोगों के लिए इतना इनाम क्या है। यह गरीब परदेसी आदमी हैं, जब तक जियेंगे आपको याद करेंगे।

दारोगा——बक-बक मत कर। यहाँ धरम कमाने नहीं पाया हूँ।

देवी——बहुत तंग हूँ हुजूर। दुकान-दौरी तो नाम की है।

कांसटेबल——बुढ़िया से माँग जाके !

देवो०——कमानेवाला तो मैं हूँ भैया, लड़कों का हाल जानते ही हो। तन पेट काटकर कुछ रुपये जमा कर रखे थे, सो अभी सात धाम किये चला अाला हूँ। बहुत तंग हो गया हूं।

दारोगा—— तो अपनी गिन्नियाँ ऊन ले। इसे बाहर निकाल दो जी।

देवी——पापका हुकम, तो लीजिए जाता है। धक्के क्यों दिलवाइगो ?

दारोगा——(कांसटेबल) इन्हें हिरासत में रखो। मुंशी से कहो, इनका वयान लिन लें।

देवीदीन के होंठ पावेश से कांप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी अग्रता रमा ने कभी नहीं देखी थी, जैसे कोई चिड़िया अपने घोंसले में कौवे को धुसते देखकर विह्वल हो गयी हो। वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खड़ा रहा, फिर पीछे फिरा और एक सिपाही से कुछ कहा, तब लपका हुमा सड़क तक चला गया मगर एक ही पम में फिर लौटा और दारोगा से बोला-हुजूर दो घंटे की मुहलत न दीजिएगा ?

रमा अभी वहीं खड़ा था। उसकी यह मनता देखकर रो पड़ा। बोला——दादा, अव तुम हैरान न हो, मेरै भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होने दो। मेरे पिता भी यहाँ होते तो इससे ज्मादा और क्या करते। मैं मरते दम तक तुम्हारा उपकार....

देवीदीन ने प्राखें पोंछते हुए कहा——कैसी बात करते हो, भैया ? जब रुपयों पर आई, तो देवीदीन पीछे हटने वाला प्रादमी नहीं है। इतने रुपये तो 'एक-एक दिन जुए में हार-जीत गया हूँ। अभो घर बेच हूँ. तो दस हजार को मालियत है। क्या सिर पर लादकर ले जाऊँगा ! दारोगाजो, अभी भैया गबन [ २२३ ]
को हिरासत में न भेजो। मैं रुपये की फिकर करके अभी थोड़ी देर में आता हूँ।

देवीदीन चला गया तो दारोगाओं ने सहृदयता से भरे हुए स्वर में कहा——है तो खुरांद, मगर बड़ा नेक। तुमने कौन बूटी सुंघा दी?

रमा ने कहा——गरीबों पर सभी को रहम आता है।

दारोगा ने मुस्कराकर कहा——पुलिस को छोड़कर, इतना और कहिए ! मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिनियां लाये।

रमा०——अगर लाये भी तो उससे इतना बड़ा तादान नहीं दिलाना चाहता। आप मुझे शौक से हिरासत में ले लें।

दारोगा——मुझे पाँच सौ के बदले साढ़े छ: सौ मिल रहे हैं, का कहूँ! तुम्हारी गिरफ्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे भाई को मिल जाय तो क्या बुराई है।


रमा०——जब मुझे चक्की पीसनी है, तो जितनी जल्दी पीस लू उतना ही अच्छा। मैंने समझा था, मैं पुलिस की नजरों से बनकर रह सकता हूँ। अब मालूम हुआ कि यह बेअकली और आठों पहर पकड़ लिये जाने का खौफ़ तो जेल से कम जानलेवा नहीं।


दारोगाजी को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। मेज के दराज से एक मिसल निकाली, उसके पन्ने इधर उधर उल्टे, तब नम्रता से बोले——अगर मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊँ कि देवीदीन के रुपये भी बच जाय और तुम्हारे ऊपर भी हर्फ न आये तो कैसा?

रमा ने अविश्वास के भाव से कहा——ऐसी कोई तरकीब है, मुझे तो आशा नहीं।

दारोगा——अजी, साई के सौ खेत है। इसका इन्तजाम में कर सकता हूँ। आपको महज एक मुकदमे में शहादत देनी होगी।

रमा——झूठी शहादत होगी!

दारोगा——नहीं, बिल्कुल सच्ची। बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे। म्युनिसिलिटी के पंजे से तो छूट ही जाओगे, शायद सरकार परवरिश भी करे। जो अगर चालान हो गया, तो पाँच साल से कम की सजा न होगी। मान लो, इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की माँ कब तक खैर मना
[ २२४ ]येगी। जिन्दगी खराब हो जायगी। तुम अपना नफा-नुकसान खुद समझ लो। मैं जबरदस्ती नहीं करता।

दारोगाजी ने डकेती का वृत्तान्त कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदमे समाचार-पत्रों में पढ़ चुका था। संशय के भाव से बोला——तो मुझे मुखबिर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि मैं भी इन डकैतियों में शरीक था? यह तो झूठी शहादत हुई।

दारोगा——मुआमला बिलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फंसायेंगे। वही लोग जेल जायेंगे जिन्हें जाना चाहिए ! फिर झूठ कहाँ रहा। डाकुओं के डर से वहाँ के लोग शहादत देने पर राजी नहीं होते। बस और कोई बात नहीं। यह मैं मानता हूँ कि आपको कुछ झूठ बोलना पड़ेगा; लेकिन आपकी जिन्दगी बनी जा रही हैं। इसके लिहाज से तो झूठ कोई चीज नहीं। खुब सोच लीजिये। शाम तक जवाब दीजिएगा।

रमा के मन में बात बैठ गई। अगर एक बार झूठ बोलकर वह अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित कर सके और अपना भविष्य भी सुधार ले, तो पूछना ही क्या। जेल से तो बच जायगा। इसमें बहुत आगा-पीछा करने की जरूरत ही न थी। हाँ, निश्चय हो जाना चाहिए कि उस पर फिर म्युनिसिपलिटी अभियोग न चलायेगी और उसे कोई अच्छी जगह मिल जायेगी। वह जानता था, पुलिस को गरज है और वह मेरी वाजिव शर्त अस्वीकार न करेगी। इस तरह बोला, मानो उसकी आत्मा धर्म और अधर्म के संकट में पड़ी हुई है। मुझे यही डर है कि कहीं मेरी गवाही से बेगुनाह लोग न फंस जायें।

दारोगा——इसका मैं आपको इतमीनान दिलाता हूँ।

रमा——लेकिन कल को म्टी म्युनिसिपैलिटी मेरी गर्दन नापे तो मैं किसे पुकारूंगा?

दारोगा——मजाल है, म्युनिसिपैलिटी भी कर सके। फौजदारी के मुकदमे में मुहई तो सरकार होगी। जब सरकार आपको मुसाफ कर देगी, तो मुकदमा कैसे चलायेगी। आपको तहरोरी मुआफी-नामा दे दिया जायगा, साहब।

रमा०——और नौकरी?

दरोगा-वह लरकार आप इन्तजाम करेगी। ऐले आदमियों को गबन
[ २२५ ]
सरकार खुद अपना दोस्त बनाये रखना चाहती है। अगर आपकी शहादत बढ़िया हुई और आप उस फरीक की जिरहों की जाल से निकल गये, तो फिर आप पारस हो जायेंगे।

दारोगा जी ने उसी वक्त मोटर मँगवायी और रमा को साथ लेकर डिप्टी साहब से मिलने चल दिये। इतनी बड़ी कारगुजारी दिखाने में विलम्ब क्यों करते? डिप्टी से एकान्त में खुब ज़ीट उड़ायी। इस आदमी का यों पता लगाया। उसकी सूरत देखते ही भांप गया कि मफ़रूर है। बस गिरफ्तार हो तो कर लिया। बात सोलहों आने सच निकली, निगाह कहीं चूक सकती है? हुजूर, मुजरिम की आँखें पहचानता हूँ। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी के रुपये ग़बन कर के भागा है। इस मामले में शहादत देने को तैयार है। आदमी पढ़ा-लिखा, सूरत का शरीफ़ और ज़हीन है।

डिप्टी ने सन्दिग्ध भाव से कहा--हाँ, आदमी तो होशियार मालूम होता है।

'मगर मुआफ़ी-नामा लिये बगैर इसे हमारा एतबार न होगा। कहीं इसे यह शुबहा हुआ, कि हम लोग इसके साथ कोई चाल चल रहे हैं, तो साफ़ निकल जायगा।'

डिप्टी--यह तो होगा ही। गवर्नमेंट से इसके बारे में बात-चीत करना होगा। आप टेलीफोन मिलाकर इलाहाबाद पुलिस से पूछिये कि इस आदमी पर कैसा मुकदमा है। यह सब तो गवर्नमेंट को बतलाना होगा। दारोगाजी ने टेलीफोन डाइरेक्टरो देखी, नम्बर मिलाया और बात-चीत शुरू हुई।

डिप्टी--क्या बोला?

दारोगा--कहता है, यहाँ इस नाम के किसी आदमी पर मुकदमा नहीं है।

डिप्टी--यह कैसा बात है भाई, कुछ समझ में नहीं आता। इसने नाम तो नहीं बदल दिया?

दारोगा--कहता है, म्युनिसिपैलिटी में किसी ने रुपये ग़बन नहीं किये। कोई मामला नहीं है।

डिप्टी--यह तो बड़ा ताज्जुब की बात है। आदमी बोलता है, हम रुपया लेकर भागा । म्युनिसिपैलिटी बोलता है, कोई रुपया ग़बन नहीं किया। यह आदमी पागल तो नहीं है?