ग़बन/ भाग 2

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरो पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था, मानों फांसी पाने जा रहा हूँ, अगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं हैं। मैं सब ठीक कर दूंगा।

रमा-अापको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गये होंगे?

रमेश-पूरे पच्चीस हो गये साहब बीस बरस तो स्त्री का देहान्त हुए हो गये। दस रुपये पर नौकर हुआ था।

रमा-आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की ? तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।

रमेश ने हंसकर कहा- बरफी खाने के बाद गुड़ खाने का किसको जी चाहता है ? महल का सुख भोगने के बाद झोपड़ा किसे अच्छा लगता है ? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया है, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूँ, इस विधुर जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर अाँख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुन्दरियाँ देखीं, कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी; लेकिन इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे लिए प्रेम का सजीव आनन्द भरा हुआ है।

यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुँच गये।

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रमा दफ्तर से घर पहुँचा, तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आये। पानी आया ही चाहता था; पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रुका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक क्षण में वह लथ पथ हो गया। फिर भी वह कहीं रुका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनन्द इस दौगड़े की क्या परवा कर सकता था ? वेतन तो केवल तीस रुपये थे; पर जगह आमदानी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था, कि कितनी मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रुपये महीने भी बच जाये, तो पांच साल में जालपा गहनों से लद जायेगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान

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कर लिया था। घर पहुँचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथ-पथ जालपा के कमरे में पहुँच गया।

जालपा उसे देखते ही बोली-यह भींग कहाँ गये, रात कहाँ गायब थे?

रमा०-इसी नौकरी की फिक्र में पड़ा हुआ हूँ ! इस वक्त दफ्तर से चला आता हूँ। म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में मुझे एक जगह मिल गयी !

जालपा ने उछलकर पूछा-~-सच, कितने की जगह है ?

रमा को ठोठ-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नेत्रों में तुच्छ बनना कौन चाहता है ? बोला-अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदनी की है।

जालपा ने उसके लिए किसी बड़े पद को कल्पना कर रखी थी। बोली -चालीस में क्या होगा! भला सत्तर तो होते ?

रमा०--मिल तो सकती थी सौ रुपये की भी; पर यहाँ रोब है, और आराम है। पचास-साठ रुपये ऊपर से मिल जायेंगे।

जालपा-तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे ?

रसा ने हँसकर कहा-नहीं त्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बड़े महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशो से गले लगायेंगे। मैं जिसे चाहूँ दिन भर दफ्तर में खड़ा रखूँ। महाजनों का एक-एक मिनट अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसा भी देंगे।

जालपा सन्तुष्ट हो गयी, बोली-हाँ, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।

रमा०-वह तो करूंगा ही।

जालपा-अम्माजी से तो नहीं कहा ? जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बड़ी खुशी यही है कि मालूम होगा कि यहाँ मेरा भी कोई अधिकार है।

रमा-हां, जाता हूँ: मगर उनसे तो मैं बीस ही बताऊँगा।

जालपा ने उल्लसित होकर कहा-हाँ जी; बल्कि पन्द्रह कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा हो करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब से ले सकते हैं। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊँगी।

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[ ४५ ]इतने में डाकिये ने पुकारा। रमा ने दरवाजे पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पारसल आया हुआ था। महाशब दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश पर में आये और जालपा के हाथों में रखकर बोले-तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है।

रमा ने चटपट कैची निकाली और पारसल खोला। उसमें देवदार की एक डिबिया निकली, उसमें एक चन्द्रहार रखा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हँसकर बोला-ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली; चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।

जालपा ने कुण्ठित स्वर में कहा- अम्माजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।

रमा ने विस्मित होकर कहा-लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?

जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा-मेरी बला से, रानी रूठेगी अपना सुहाग लेंगो। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूँ। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आयी है। उस वक्त दया न आयी थी, जब मैं उनके घर से बिदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके प्रोढ़ने पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जायेंगे। मैं अम्माजी को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूस्त्री नहीं है।

रमा ने सांत्वना देते हुए कहा- मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए ! सोचो, उन्हें कितना दुःख होगा। बिदाई के समय यदि न दिया, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

जालपा–में इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।

रमा०-आखिर क्यों ?

जालपा-मेरी इच्छा !

रमा०-इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

जालपा रुंधे हुए स्वर में बोलो-कारण यही है कि अम्माजी इसे

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[ ४६ ]खुशी से नहीं दे रही हैं। बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह हो नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनन्द होगा। देनेवाले का हृदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दोनों हाथों से ले लूँ। जब दिल पर बन करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।

माता के प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ कह न सका द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया, और चारपाई से उठता हुआ बोला-जरा अम्मा और बाबूजी को तो दिखा दूँ। कम-से-कम उमसे पूछ तो लेना ही चाहिए।

जालपा ने हार उसके हाथ से छीन लिया, ओर बोली- वे लोग मेरे कौन होते हैं, जो उनसे पूछूँ? केवल एक घर में रहने का नाता है। जब मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।

यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपढा़ लपेटकर सीने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कहा-ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना : उन लोगों की भी खातिर हो जायेगी।

इस पर जालपा से कठोर नेत्रों से देखकर कहा-जब तक मैं इसे लौटा न दूंगी, मेरे दिल को चैन न पायेगा। मेरे हृदय में काँटा-सा खटकता रहेगा। अभी पारसल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो।

एक क्षण में पारसल तैयार हो गया और रना उसे लिये हुए चिन्तित भाव से नीचे चला।

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महाशय दयानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ तो बहुत खुश हुए। विवाह होते ही वह इतनी जल्दी चेतेगा इसकी उन्हें आशा न थी। बोले-जगह तो अच्छी है। ईमानदारी से काम करोगे, तो किसी अच्छे पद पर पहुँच जाआगे। मेरा यही उपदेश है कि पराये पैसे को हराम समझना।

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[ ४७ ]रमा के जी में तो आया कि साफ कह दूँ-अपना उपदेश आप अपने ही लिए रखिए, यह मेरे अनुकूल नहीं है! मगर इतना बेहया न था।

दयानाथ ने फिर कहा-यह जगह तो तीस रुपये की थी, तुम्हें बीस क्यों मिले?

रमा॰--नये आदमी को पूरा वेतन कैसे देते? शायद साल छः महीने में बढ़ जाये। काम बहुत है।

दया॰--तुम जवान आदमी हो, काम से न घबड़ाना चाहिये।

रमा ने दूसरे दिन नया सूट बनवाया, और फैशन की कितनी ही चीजें खरीदीं । ससुराल से मिले हुए रुपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्रों से उधार ले लिये। वह साहबी ठाट बना कर सारे दफ्तर पर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं; महाजन लोग उसका ठाट-बाट देख कर सहम जायेंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है, जब अच्छा ठाट बाट हो सड़क के चौकीदार को एक पैसा काफी समझा जाता है, लेकिन उसकी जगह सार्जन्ट हो, तो किसी की हिम्मत न पड़ेगी कि उसे एक पैसा दिखाये। फटेहाल भिखारी के लिए एक चुटकी बहुत समझी जाती है; लेकिन गेरुये रेशम धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लजाते भी एक रुपया देना ही पड़ता है। भेख और भीख में सनातन से मित्रता है।

तीसरे दिन रमा कोट पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला तो उसकी शान ही कुछ और हो गई। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किये। रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियां साहब सन्दूक पर रजिस्टर फैलाये बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे बड़े हैं। सामने गाड़ियों, ठेलों और इक्कों का बाजार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में गाली-गलौज हो रही है, कहीं चपरासियों में हत्ती-दिल्लगी सारा काम बड़े ही अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी-मैली दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला-क्या मुझे भी इसी मैली दरी पर बैठाना चाहते हैं। एक अच्छी-सी मेज और कई कुसियाँ भेजवाइए और चपरासियों को [ ४८ ]हुक्म दीजिए कि एक आदमी से ज्यादा मेरे सामने न आने पावे। रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज और कुसियाँ भिजवा दी। रमा शान से कुर्सी पर बैठा। बूढ़े मुंशीजी उसकी उच्छृंखलता पर दिल में हंस रहे थे। समझ गये, अभी नया जोश है, नई सनक है। चार्ज दे दिया! चार्ज में था क्या, केवल आज की आमदनी का हिसाब समझा देना था। किस जिन्स पर किस हिसाब से चुंगी ली जाती है, इसकी छपी हुई तालिका मौजूद थी, रमा आध घंटे में अपना काम समझ गया। बूढ़े मुंशीजी ने यद्यपि खुद ही यह जगह छोड़ी थी; पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुःख हो रहा था। इसी जगह वह ३० साल से बराबर बैठते आये थे। इसी जगह की बदौलत उन्होंने धन और यश दोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न दुःख होता? चार्ज देकर जब वह बिदा होने लगे तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया। खाँ साहब उसकी इस नम्रता से प्रसन्न हो गये। मुसकराकर बोले--हर एक बिल्टी पर एक पाना बंधा हुआ है, खुली हुई बात है! लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी है; मगर रस्म न बिगाड़िएगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका फिर बंधना मुश्किल हो जाता हैं। इस एक पाने में चपरासियों का हक है। जो बड़े बाबू पहले थे, वह पचीस रुपया महीना लेते थे, मगर यह कुछ नहीं लेते।

रमा ने अरुचि प्रकट करते हुए कहा--गंदा काम है, मैं सफाई से काम करना चाहता हूँ।

बूढ़े मियां ने हँसकर कहा--अभी गन्दा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मजा आयेगा।

खाँ साहब को विदा करके रमा अपनी कुर्सी पर आ बैठा और एक चपरासी ले बोला--इन लोगों से कहो, बरामदे के नीचे जायें। एक-एक करके नम्बरवार आवें; एक कागज पर सबके नाम नम्बरवार लिख लिया करो।

एक बनिया जो दो घंटे से खड़ा था, खुश होकर बोला--हाँ सरकार यह बहुत अच्छा होगा।

रमा--जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना नम्बर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे, वाले शोर [ ४९ ]
मचाकर पहले आ जाये और पहले वाले खड़े मुँह ताकते रहें।

कई व्यापारियों ने कहा--हाँ बाबूजी, यह इंतजाम हो जाय तो बहुत अच्छा हो। भम्भड़ में बड़ी देर हो जाती है।

इतना नियंत्रण रमा का रोब जमाने के लिए काफी था। वरिषक् समाज में ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कालेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्र भर में न मिलती।

दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दांव-पात मालूम हो गये। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गयीं जो खां साहब को ख्वाब में भी न सूझी थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धांधली थी, जिसकी कोई हद नहीं। जब इस बांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाये, जिसमें आध आना चपरासियों का है? माल का तौल और परख में नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति, दोनों ही कमा सकता है। यह अवसर बह क्यों छोड़ने लमा? विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे! रमेश बाबू इस नवे रङ्गख्ट की कार्य पटुता पर मुग्ध हो गये! उसकी पीठ ठोंककर बोले-कायदे के अन्दर रहो और जो चाहो करो, तुम पर आंच तक न आने पावेगी।

रमा को आमदनी तेजी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखो कलम घिसनेबाले दफ़्तर के बाबुओं को सिगरेट, पान, चाय या जलपान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो ठीकरा समझता है। क्या दिल है कि वाह! और जैसा दिल है, वैसी ही जबान भी। मालूम होता है नस-नस में शराफत भरी हुई है। वांबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहरिरों का पूछना ही क्या! सब-के-सब रमा के बिना दामों के गुलाम थे। उन गरीबों को प्रामदमी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गयी थी। जहाँ गाढ़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहाँ अब अच्छे-अच्छे की गर्दम पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।

मगर जालपा की अभिलाषा अभी एक भी न पूरी हुई। नागपंचमी
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के दिन मुहल्ले की कई युवतियां जालपा के साथ कजली खेलने आयीं; मगर जापला अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। भादों में जन्माष्टमी का उत्सव पाया। पड़ोस ही में एक सेठ जी रहते थे, उनके यहाँ बड़ी धूम-धाम से उत्सव मनाया जाता था। वहाँ से सास और बहू को बुलावा आया। जागेश्वरी गयी, जालपा ने जाने से इनकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से एक बार भी आभूषण की चर्चा न की; पर उसका एकान्त प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक था। इससे ज्यादा उत्तेजक वह पुराना सूचीपत्र था जो एक दिन रमा कहीं से उठा लाया था। इसमें भाँति-भांति के सुन्दर आभूषणों के नमूने बने हुए थे। उनके मूल्य भी लिखे हुए थे। जालपा एकान्त में इस सूचीपत्र को बड़े ध्यान से देखा करती। रमा को देखते ही वह सूचीपत्र छिपा लेती थी। इस हार्दिक कामना को प्रकट करके वह अपनी हंसी न उड़वाना चाहती थी।

रमा आधी रात के बाद लौटा, तो देखा जालपा चारपाई पर पड़ी है। हँसकर बोला-बड़ा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गयीं, बड़ी गलती की।

जालपा ने मुंह फेर लिया, कोई उत्तर न दिया।

रमा ने फिर कहा--यहाँ अकेले पड़े-पड़े तुम्हारा जी घबराता रहा होगा?

जालपा में तीव्र स्वर में कहा--तुम कहते हो, मैंने गलती की। मैं समझती हूँ, मैंने अच्छा किया। वहाँ किसके मुंह में कालिख लगती?

जालमा ताना तो न देना चाहती थी; पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तेजित कर दिया। रोष का एक कारण यह भी था कि उसे अकेला छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया था। अगर उन लोगों के हृदय होता, तो क्या वहाँ जाने से इन्कार न कर देते?

रमा ने लज्जित होकर कहा--कालिख लगाने की कोई बात न थी, सभी जानते हैं कि चोरी हो गयी है, और इस जमाने में दो-चार हजार के गहने बनवा लेना मुंह का कौर नहीं है।

चोरी का शब्द जबान पर लाते हुए रमा का हृदय धड़क उठा। जालपा पति की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर रह गयी। और कुछ बोलने
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से बात बढ़ जाने का भय था, पर रमा को उसकी दृष्टि से ऐसा भासित हुआ, मानो उसे चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के कारण उसे खोलकर नहीं कह रही है। उसे स्वप्न की बात भी याद आई, जो जालपा ने चोरी की रात को देखा था। वह दृष्टि वाण के समान उसके हृदय को छेदने लगी; उसने सोचा शायद मुझे भ्रम हुआ। इस दृष्टि में रोष के सिवा और कोई भाव नहीं है; मगर यह बोलती क्यों नहीं? चुप क्यों हो गयी! उसका चुप हो जाना हो गजब था। अपने मन का संशय मिटाने और जालपा के मन की थाह लेने के लिए रमा ने मानो डुबकी मारी-यह कौन जानता था कि डोली से उतरते ही यह विपत्ति सुम्हारा स्वागत करेगी।

जालपा आँखों में आँसू भरकर बोली--तो मैं तुमसे गहने के लिए रोती तो नहीं हूँ। भाग्य में जो लिखा था वह हुआ; आगे भी वही होगा, जो लिखा है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं, क्या उनके दिन नहीं कटते?

इस वाक्य ने रमा का संशय तो मिना दिया; पर इसमें जो तीव्र वेदना छिपी हुई थी, वह छिपी न रही। इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रुपये से अधिक संग्रह न कर सका था। बाबू लोगों के आदरसत्कार में उसे बहुत-कुछ गलना पड़ता था; मगर बिना खिलाये-पिलाये काम भी तो न चल सकता था। सभी उसके दुश्मन हो जाते और उखाड़ने की बात सोचने लगते। मुफ्त का धन अकेले नहीं हजम होता, वह वह अच्छी तरह जानता था। वह स्वयं एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करता। चतुर व्यापारी की भाँति वह जो कुछ खर्च करता था, वह केवल कमाने के लिए। आश्वासन देते हुए बोला--ईश्वर ने चाहा, तो दो-एक महीने में कोई चीज बन जायेगी।

जालपा--मैं उन स्त्रियों में नहीं हूँ, जो गहनों पर जान देती है। हाँ, इस तरह किसी के घर आते-जाते शर्म माती ही है।

रमा का चित्त ग्लानि से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्द से निराशा टपक रही थी। इस अपार वेदना का कारण कौन था? क्या यह भी उसी का दोष न था, कि इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चर्चा नहीं की? जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी
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तो रमा की उसके आँसू पोंछने के लिए, क्या मौन के सिवा दूसरा उपाय न था? मुहल्ले में रोज ही एक न-एक उत्सव होता रहता है, रोज ही पास-पड़ोस की औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते ही हैं, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती रहेंगी? हँसने बोलने को किसका जी नहीं चाहता, कौन कैदियों की तरह अकेला पड़ा रहना पसन्द करता है? मेरे ही कारण तो इसे यह भोषण यातना सहनी पड़ रही है।

उसने सोचा, क्या किसी सराफ से गहने उधार नहीं लिए जा सकते?

कई बड़े सराफों से उसका परिचय था; लेकिन उनसे वह यह बात कैसे कहता? कहीं वे इन्कार कर दें तो? या संभव है, बहाना करके टाल दें। उसने निश्चय किया कि अभा उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रुपये न दे सका, तो व्यर्थ में थुक्का-फजीहत होगी। लज्जित होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन और धैर्य से काम लेना चाहिये।

सहसा उसके मन में आया, इस विषय में जालपा की राय लूं। देखूं वह क्या कहती है। अगर उसको इच्छा है तो किसी सराफ से वादे पर चीजे ले ली जायें; मैं इस अपमान और संकोच को सह लूंगा। जालपा को संतुष्ट करने के लिए उसे गहनों की कितनी फिक्र है! बोला-तुमसे एक सलाह करना चाहता हूँ। पूछ्रे या न पूछूँ।

जालपा को नींद पा रही थी। आँखें बन्द किये बोली--अब सोने दो भई, सबेरे उठना है।

रमा--अगर तुम्हरी राय हो, तो किसी सराफ से वादे पर गहने बनवा लाऊँ। इसमें कोई हर्ज तो नहीं?

जालपा की आँखें खुल गयीं। कितना कठोर प्रश्न था? किसी मेहमान से पूछना--कहिए तो आपके लिये भोजन लाऊँ, कितनी बड़ी अशिष्टता है! इसका तो आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यह कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूँ तब वह अलबत्ता खुश होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना पाव पर नमक छिड़कना था। रमा को और अविश्वास की प्रांखों से देखकर बोली--मैं तो
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गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ।

रमा०--नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है। किसी सराफ से चीजें ले लूं, धीरे-धीरे उसके रुपये चुका हूँ।

जालपा ने दृढ़ता से कहा--नहीं, मेरे लिए कर्ज की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता लूं। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बेगहनों के रहना पड़े, तो भी मैं कर्ज लेने को न कहंगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होती। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगो; लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखयी नहीं देती।

रमा०--बचत तो जरूर होती, और अच्छी होती; लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाये। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले नहीं मालूम था कि यहाँ इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।

जालया--तो अभी कौन-सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धोरे।

रमा--खैर, तुम्हारी सलाह है तो एक-आध महीने और चुप रहता हूँ। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊंगा।

जालपा ने गद्गद् होकर कहा--तुम्हारे पास अभी उतने रुपये कहाँ होंगे?

रमा०--इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसन्द है? जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलभारी में से आभूषणों का सूचीपत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना आकर रखा हुआ है, सुतार बैठा हुआ है, केवल डिजाइन ही पसन्द करना बाकी है। उसने सूची के दो डिजाइन पसन्द किये। दोनों वास्तव में बहुत ही सुन्दर थे। पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक, एक हजार का था, दूसरा आठ सौ का।

रमा०--ऐसी चीज तो शायद यहाँ बन भी न सके; मगर कल मैं जरा सराफे की सेर करूँगा।

जालपा ने पुस्तक बन्द करते हुए करण स्वर में कहा--इतने रुपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है। [ ५४ ]रमा को आज इसो जधेडधुन में बड़ी रात तक नींद न आयी। ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयां पर कितने खिलेंगे! यह मोह स्वप्न देखते-देखते‌ उसे न जाने कब नींद आ गयी।

१२

दूसरे दिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिवा। उनके यहाँ भी जन्माष्टमी में झांकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था: पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थीं, उसी को यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते जाते थे। रमा को देखकर बोले--आओजी; रात क्यों नहीं आये? मगर यहाँ गरीबों के घर क्यों आते? सेठ जी को झाँकी कैसे छोड़ देते? खूब बहार रही होगी!

रमा०--आपकी-सी सजावट तो न थी, हाँ और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक और वेश्याएँ भी आयी थी! मैं तो चला पाया था, मगर सुना रात भर गाना होता रहा। रमेश०--सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएँ न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया! इन मूखों के हाथों हिन्दू-धर्म का सर्वनाश हो जायेगा। एक तो वेश्याओं का नाच यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में! छिः छिः! न जाने इन गधों को कब अक्ल आयेगी!

रमा०--वेश्याएँ न हों, तो झाँकी देखने जाये ही कौन? सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं हैं।

रमेश०--मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बन्द कर दूँ। वर, फुरसत हो, तो आओ एक-साथ बाजी हो जाये।

रमा०--और आया किसलिए है; मगर आज आपको मेरे साथ जरा सराफ़े तक चलना पड़ेगा। यों कई बड़ी-बड़ी कोठियों से गेरा परिचय है। मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।

रमेश०--चलने को चला चलूंगा; मगर इस विषय में मैं बिलकुल कोरा हूँ? न कोई चीज बनवायो, न खरीदो। तुम्हें क्या कुछ लेना है?

रमा०--लेना-देना क्या है, जरा भाव-ताव देखूँगा।

रमेश०--मालूम होता है, घर मैं फटकार पड़ी है।

रमा०--जी, बिलकुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती।
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मैं कभी पूछता भी हूँ; तो मना करती है; लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है? जब से गहने चोरी चले गये, एक बोज़ भी नहीं बनी।

रमेश०--मालूम होता है, कमाने का दंग आ गया। क्यों न हों, कायस्थ के बच्चे हो। कितने रुपये जोड़ लिये?

रमा०--रुपये किसके पास हैं, वादे पर लूँगा?

रमेश०-–इस खब्त में न पड़ो! जब तक रुपये हाथ में न हों, बाजार की तरफ जाओ ही मत। गहनों से बुड्ढे नयो बीबियों का दिल खुश किया करते हैं। उन बेचारों के पास गहनों के सिदा होता ही क्या है। जवानों के लिए और बहुत से लटके हैं। यों मैं चाहूँ, तो दो-चार हजार का माल दिलबा सकता हूँ, मगर भाई, कर्ज की लत बुरी है।

रमा०--मैं दो-तीन महीनों में सब रुपये चुका दूँगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता।

रमेश०--तो वो-तीन महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं। न इससे बड़ी विपत्ति दूसरी है। जहाँ एक बार धड़का खुला कि तुम आये दिन सराफ की दुकान पर खड़े नजर आओगे। दुरा न मानना। मैं जानता हूँ, तुम्हारी आमदनी अच्छी है, पर भविष्य के भरोसे पर और चाहे जो काम करो, लेकिन कर्ज कभी मत लो। गहनों का मरज न जाने इस दरिद्र देश में कैसे फैल गया। जिन लोगों को भोजन का ठिकाना नहीं, वे भी गहनों के पीछे प्राण देते हैं। हर साल अरबों रुपये केवल सोना-चाँदी खरीदने में व्यय हो जाते हैं। संसार के और किसी देश में इन धातुओं की इतनी खपत नहीं। तो बात क्या है? उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है, जिससे लोगों की परवरिश होती है, और धन बढ़ता है। यहाँ धन श्रंगार में खर्च होता है, उसमें उन्नति और उपकार की जो महान शक्तियाँ हैं, उन दोनों का हो अन्त हो जाता है। बस वही समझ लो कि जिस देश के लोग जितने ही मूर्ख होंगे, वहाँ जेवरों का प्रचार भी उतना ही अधिक होगा। यहाँ तो खैर नाक-कान छिदाकर ही रह जाते हैं, मगर कई ऐसे देश भी हैं, जहाँ ओठ छेदकर लोग गहने पहनते हैं।

रमा ने कौतूहल से पूछा--वह कौन-सा देश है?

रमेश--इस समय ठीक याद नहीं आता, पर शायद अफीका हो। [ ५६ ]
हमें यह सुनकर अचम्भा होता है: लेकिन अन्य देश वालों के लिए नाक-कान का छिदामा कुछ कम अचम्भे की बात न होगा। बुरा सरज है, बहुत ही बुरा। वह धन जो भोजन में खर्च होना चाहिए, बाल-बच्चों का पेट काटकर गहनों की भेंट कर दिया जाता है। बच्चों को दूध न मिले, न सही। घी की गंध तक उनकी नाक में न पहुँचे न सही। मेवों और फलों के दर्शन उन्हें न हों, कोई परावह नहीं। पर देवी जी गहने जरूर पहनेंगी और स्वमीजी गहने जरूर बनवाएंगे। दस-दस, बीस-बीस रुपये पाने वाले बलकों को देखता हूँ, जो सड़ी हुई कोठरियों में पशुओं की भाँति जीवन काटते हैं, जिन्हें सबेरे का जलपान तक मयस्सर नहीं होता, उन पर भी गहनों की सनक सवार रहती है। इस प्रथा से हमारा सर्वनाश होता जा रहा है। मैं तो कहता हूँ, यह गुलामी पराधीनता से कहीं बढ़कर है। इसके कारण हमारा कितना आत्मिक, नैतिक, दैहिक, आर्थिक और धार्मिक पतन हो रहा है, इसका अनुमान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते!

रमा०--मैं तो समझता हूँ, ऐसा कोई भी देश नहीं, जहाँ स्त्रियाँ गहने न पहनती हो। क्या योरप में गहनों का रिवाज नहीं है?

रमेश०--तो तुम्हारा देश योरप नहीं है। वहाँ के लोग धनी है। वह धन लुटायें, उन्हें शोभा देता है। हम दरिद्र हैं, हमारी कमाई का एक पैसा भी फजूल न खर्च होना चाहिये।

रमेश बाबू इस वाद विवाद में शतरंज भूल गये। छुट्टी का दिन था ही, दो-चार मिलनेबाले और आ गये, रमानाय चुपके से खिसक आया। इस बहस में एक बात ऐसी थी, जो उसके दिल में बैठ गयी। उधार गहने लेने का विचार उसके मन से निकल गया। कहीं वह जल्दी रुपया न चुका सका तो कितनी बड़ी बदनामी होगी। सराफ़े तक गया अवश्य; पर किसी दुकान में घुसने का साहस न हुना। उसने निश्चय किया अभी तीन-चार महीने तक गहनों का नाम न लूँगा।

वह घर पहुँचा तो नौ बज गये थे। दयानाथ ने उसे देखा तो पूछा--आज सवेरै-सबेरै कहाँ चले गये थे?

रमाo--जरा बड़े बाबू से मिलने गया था।

दया०--घंटे-आध के लिये पुस्तकालय क्यों नहीं चले जाया करते?
[ ५७ ]
गप-शप में दिन गदाँ देते हो। अभी तुम्हारी पढ़ने-लिखने की उम्र है। इम्तहान न सही, अपनी योग्यता तो बढ़ा सकते हो। एक सीधा-सा खत लिखना पड़ जाता है तो बगलें झांकने लगते हो। असली शिक्षा स्कुल छोड़ने के बाद ही शुरू होती है; और वही हमारे जीवन में काम भी आती है। मैंने तुम्हारे विषय में कुछ ऐसी बातें सुनी हैं, जिनसे मुझे बहुत खेद हुआ है और तुम्हें समझा देना मैं अपना धर्म समझता हूँ। मैं यह हरगिज नहीं चाहता कि मेरे घर में हराम की कौड़ी भी आये। मुझे नौकरी करते तीस साल हो गये। चाहता लो अब तक हजारों रुपये जमा कर लेता; लेकिन मैं कसम खाता हूँ कि कभी एक पैसा भी हराम का नहीं लिया। तुममें यह आदत कहाँ से आ गई, यह मेरी समझ में नहीं आता।

रमा ने बनाबटी क्रोध दिखाकर कहा--किसने आपसे कहा है? जरा उसका नाम तो बताइये? मूझे उखाड़ लूँ उसकी!

दया०--किसी ने भी कहा हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम उसकी मुझे उखाड़ लोगे, इसलिए बताऊँगा नहीं, लेकिन बात सच है या झूठ, मैं इतना ही पूछना चाहता हूँ।

रमा०--बिलकुल झूठ!

दया०--बिलकुल झूठ?

रमा०--जी हाँ, बिलकुल झूठ!

दया०--तुम दस्तूरी नहीं लेते?

रमा०--दस्तूरी रिश्वत नहीं है, सभी लेते हैं और खुल्लमखुल्ला लेते हैं। लोग बिना माँगे आप-ही-आप देते हैं, मैं किसी से मांगने नहीं जाता।

दया०--सभी खुल्लमखुल्ला लेते है, और लोग बिना माँगे देते हैं, इससे तो रिश्वत की बुराई कम नहीं हो जाती।

रसा०--दस्तुरी को बन्द कर देना मेरे वश की बात नहीं। मैं खुद न लूं, लेकिन चपरासी और मुहरिर का हाथ तो नहीं पकड़ सकता। आठ-आठ नौ-नौ पाने वाले नौकर अगर न लें, तो उनका काम नहीं चल सकता। मैं खुद न लूं, पर उन्हें नहीं रोक सकता।

दयानाथ ने उदासीन भाव से कहा--मैंने समझा दिया, मानने न भानने का अख्यातिर तुम्हें है। [ ५८ ] यह कहते हुए दयानाथ दफ्तर चले गये। रमा के मन में आया, साफ कह दे, आपने निस्पृह बनकर क्या कर लिया, जो मुझे दोष दे रहे हैं? हमेशा पैसे पैसे को मुहताज रहे। लड़कों को पढ़ा तक न सके। जूते-कपड़े तक न पहना सके। यह डींग मारना तब शोभा देता, जब कि नीयत भी साफ रहती, और जीवन भी सुख से कटता।

रमा घर में गया तो माता ने पूछा--आज कहाँ चले गये थे बेटा, तुम्हारे बाबू जी इसी पर बिगड़ रहे थे?

रमा०--इस पर तो नहीं बिगड रहे थे; हाँ, उपदेश दे रहे थे कि दस्तूरी मत लिया करो, इससे आत्मा दुर्बल होती है और बदनामी होती है।

जागे--तुमने कहा नहीं, आपने बड़ी ईमानदारी की तो कौन-से झंडे गाड़ दिये। सारी जिन्दगी पेट पालते रहे।

रमा०--कहना तो चाहता था, पर चिढ़ जाते। जैसे आप कौड़ो-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं। आपको लेने का शऊर तो है नहीं। जब देखा कि यहाँ दाल नहीं गलती, तो भगत बन गये। यहाँ ऐसे घोंघावसन्त नहीं हैं। बनियों के रुपये ऐंठने के लिए अक्ल चाहिये, दिल्लगी नहीं है। जहाँ किसी ने भगतपन किया और मैं समझ गया बुद्ध है। लेने की तमीज नहीं, क्या करे बेचारा। किसी तरह आँसू तो पोंछे।

जागे०--बस-बस यही बात है, बेटा! जिसे लेना आवेगा, वह जरूर लेगा। इन्हें तो बस घर में कानून बघारना पाता है। और किसी के सामने बात तक तो मुंह से निकलती नहीं, रुपये निकाल लेना तो मुश्किल है।

रमा दफ्तर जाते समय ऊपर कपड़े पहनने गया तो जालपा ने उसे तीन लिफाफे डाक में छोड़ने के लिए दिये। उस वक्त उसने तीनों लिफाफे जेब में डाल लिये, लेकिन रास्ते में उन्हें खोलकर चिट्ठियां पढ़ने लगा। चिट्ठियाँ क्या थी विपत्ति और वेदना का करुण विलाप था जो उसने अपनी तीनों सहेलियों को सुनाया था। तीनों का विषय एक ही था। केवल भावों का अन्तर था--'जिन्दगी पहाड़ हो गयी है, न रात को नींद आती है, न दिन को आराम; पतिदेव को प्रसन्न करने के लिए कभी-कभी हँस-बोल लेती हूँ; पर दिल हमेशा
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रोया करता है। न किसी के घर जाती हूँ, न किसी को मुँह दिखाती हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि यह शोक मेरी जान ही लेकर छोड़ेगा। मुझसे वादे तो रोज किये जाते हैं, रुपये जमा हो रहे हैं, सुनार ठीक किया जा रहा है, डिजाइन तय किया जा रहा है। पर यह सब धोखा है और कुछ नहीं।

रमा ने तीनों चिट्ठियां जेब में रख लो 1 डाकखाना सामने ले निकल गया, पर उसने उन्हें छोड़ा नहीं। यह अभी तक यही समझती है कि मैं इसे धोखा दे रहा हूँ ! क्या कारूँ, कैसे विश्वास दिलाऊँ? अगर अपना बश होता तो इसी वक्त भाभूषशों के टोकरे भर-भर जालपा के सामने रख देता; उसे किसी बड़े सराफ़ की दूकान पर ले जाकर कहता, तुम्हें जो-जो चीजें लेनी हों, ले लो। इतनी अपार वेदना है, जिसने विश्वास का भी अपहरण कर लिया! उसको आज उस चोट का सच्चा अनुभव हुआ, जो उसने झूठी मर्यादा की रक्षा ले उसे पहुँचाई थी। अगर वह जानता, उस अभिनय का यह फल होगा, तो कदाचित् अपनी डोंगों का परदा खोल देता। क्या ऐसी दशा में भी, जब जालपा इस शोक-ताप से फुँकी जा रही थी, रमा को कर्ज लेने में संकोच करने की जगह थी? उसका हृदय कातर हो उठा। उसने पहली बार सच्चे हृदय से ईश्वर से याचना को--भगवान्, मुझे बाहे जो दंड देना, पर मेरी जालपा को मुझसे मत छीनना। इसके पहले मेरे प्राण हर लेना। उसके रोम-रोम से आत्मध्वनि निकलने लगी--ईश्वर, ईश्वर, मेरी दीन दशा पर क्या करो!

लेकिन इसके साथ ही उसे जालपा पर क्रोध भी आ रहा था। जालपा ने क्यों मुझसे यह बात नहीं कही? मुझसे क्यों परदा रखा और मुझसे परदा रखकर अपनी सहेलियों से यह दुखड़ा रोया?

बरामदे में माल तौला जा रहा था। मेज पर रुपये-पैसे रखे जा रहे थे और रमा चिन्ता में डूबा बैठा हुआ था। किससे सलाह ले। उसने विवाह ही क्यों किया? सारा दोष उसका अपना था। जब वह घर की दशा जानता था, तो क्यों उसने विवाह करने से इन्कार नहीं कर दिया? आज उसका मन काम में नहीं लगता था। समय से पहिले हो उठकर चला आया।

जालपा ने उसे देखते ही पूछा--मेरी चिट्टियाँ छोड़ तो नहीं दीं?
[ ६० ] रमा ने बहाना किया-अरे इनकी तो याद हो नहीं रही। जेब में पड़ी रह गयीं।

जालपा- यह बहुत अच्छा हुआ। लाओ मुझे दे दो, अब न भेजूंगी।

रमा० -क्यों, कल भेज दूंगा!

जालपा-नहीं अब मुझे भेजना ही नहीं है, कुछ ऐसी बातें लिख गयी थी, जो मुझे न लिखना चाहिये था। अगर तुमने छोड़ दी होती, तो मुझे दुःख होता। मैंने तुम्हारी निन्दा की थी।

वह कह कर वह मुस्कराई।

रमा० -जो बुरा है, दग़ाबाज़ है, धूर्त्त है, उसकी निंदा होनी ही चाहिए।

जालपा ने व्यग्र होकर पूछा-तुमने चिट्ठियाँ पढ़ ली क्या?

रमा ने निःसंकोच भाव से कहा- हाँ, यह कोई अक्षम्य अपराध है? जालपा कातर स्वर में बोली-तब तो तुम मुझसे बहुत नाराज होगें?

आँसुओ के आवेग से जालपा की आवाज रुक गयी। उसका सिर झुक गया और झूकी हुई आँखों से आंसुओं की बूंदें अञ्चल पर गिरने लगी। 'एक क्षण में उसने स्वर को संभाल कर कहा-मुझसे बड़ा भारी अपराध हुआ है। जो चाहो सजा दो; पर मुझसे अप्रसन्न मत हो। ईश्वर जानते हैं, तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दुःख हुआ। मेरी कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें निकल गयीं।

जालपा जातती थी कि रमा को आभूषणो की चिन्ता मुझसे कम नहीं है लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दुःख बढ़ा कर कहते हैं। जो बातें परदे की समझी जाती हैं, उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपमान जाहिर होता है। हमारे मित्र' समझते हैं, हमसे जरा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो जाती है। अपनापन दिखाने की यह आदत औरतों में कुछ अधिक होती है।

रमा जालपा के आँसू पोछते हुए बोला-मैं तुमसे अप्रसन्न नहीं हूँ प्रिये, अप्रसन्न होने की तो कोई बात ही नहीं है। आशा का विलम्ब ही दुराशा है। क्या मैं इतना नहीं जानता ? अगर तुमने मुझे मना न कर दिया होता, तो अब तक मैंने किसी-न-किसी तरह एक-दो चीजें अवश्य ही बनवा दी होती। मुझसे भूल यही हुई कि तुमसे सलाह ली। यह तो वैसा ही है जैसे मेहमान
[ ६१ ]को पूछ-पूछकर भोजन दिया जाये। उस वक्त मुझे ध्यान न रहा कि संकोच में आदमी इच्छा होने पर भी 'नहीं नहीं' करता है। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें बहुत दिन तक इन्तजार न करना पड़ेगा। ‌ जालपा ने सचिन्त नेत्रों से देखकर कहा- सो क्या उधार लाओगे?

रमा- हाँ, उधार लाने में कोई हर्ज नहीं है। जब सूद नहीं देना है, तो जैसे नकद वैसे उधार! ऋण से दुनिया का काम चलता है। कौन ऋण नहीं लेता ? हाथ में रुपया आ जाने से अलल्ले-सलल्ले खर्च हो जाते हैं। कर्ज सिर पर सवार रहेगा तो उसकी चिन्ता हाथ रोके रहेगी।

जालपा- मैं तुम्हें चिन्ता में नहीं डालना चाहती। अब मैं भूलकर भी गहनों का नाम न लूंगी।

रमा०- नाम तो तुमने कभी नहीं लिया, लेकिन तुम्हारे नाम न लेने से मेरे कर्तव्य का अन्त नहीं हो जाता। तुम कर्ज से व्यर्थ इतना डरती हो। रुपये जमा होने के इन्तजार में बैठा रहूँगा, तो शायद कभी न जमा होंगे। इसी तरह लेते देते साल में तीन-चार बार चीजें बन जायेंगी।

जालपा- मगर पहले कोई छोटी-सी चीज लाना।

रमा०- हाँ,ऐसा तो करूँगा ही।

रमा बाजार चला सो खूब अँधेरा हो गया था। दिन रहते जाता तो संभव था, मित्रों में किसी की निगाह उस पर पड़ जाती। मुंशी दयानाथ ही देख लेते ! वह इस मामले को गुप्त ही रखना चाहता था।

१३

सराफ़े में गंगू की दुकान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राहाण, पर बड़ा हो व्यापार-कुशल। उसको दुकान पर नित्य ग्राहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कर्म-निष्ठा ग्राहकों में विश्वास पैदा करती थी। और दुकानों पर ठगे जाने का भय था। वहाँ किसी तरह का धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुस्कराकर कहा-आइये बाबूजी, ऊपर आइए। बड़ी दया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मँगवाओ! क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझसे नाराज़ हैं। कभी आते ही नहीं, गरीबों पर कभी-कभी दया किया कीजिये।

गंगू की शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह
[ ६२ ]से न बुलाया होता, तो शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दूकान पर जाकर बोला- यहाँ हम जैसे मजदूरों का कहाँ गुज़र है, महाराज ! गाँठ में कुछ हो भी तो!

गंगू- यह आप क्या कहते हैं सरकार ! आपकी दूकान है, जो चीज चाहिये ले जाइए। दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धन्य भाग कि आप हमारी दुकान पर आये तो। दिखाऊँ कोई जड़ाऊ चीजें? कोई कंगन, कोई हार। अभी हाल ही में दिल्ली से माल आया है।

रमा- कोई हल्के दामों का हार दिखाइए।

गंगू- यही कोई सात-आठ सौ तक ?

रमा०- अजी नहीं, हद चार सौ तक।

गंगू- मैं आपको दोनों दिखाये देता हूँ। जो पसन्द आये, ले लीजिएगा। हमारे यहाँ किसी तरह का दगल-फसल नहीं, बाबू साहब। इसकी आप जरा भी चिन्ता न करें। पाँच बरस का लड़का हो, या सौ बरस का बूढ़ा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुँह दिखाना है, बाबू जी!

संदूक सामने आया; गंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किये। रमा की आँखें खुल गयीं, जी लोट पोट हो गया। क्या सफाई थी ! नगीनों की कितनी सुन्दर सजावट! कैसी आब-साब ! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था, सौ रुपये से ज्यादा उधार न लगाऊँगा, लेकिन चार सौ वाला हार आँखों में कुछ जँचता न था। और जेब में कुल तीन सौ रुपये थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसन्द न किया, तो फायदा ही क्या। ऐसी चीज ले जाऊँ कि वह देखते ही फड़क उठे। यह जड़ाऊ हार उसकी गर्दन में कितना शोभा देगा। यह हार एक सहस्र मणि-रंजित नेत्रों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था; पर मुँह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपये उधार लगाने से इनकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा- आपके लायक तो बाबूजी यही चीज है, अँधेरे घर में रख दीजिए तो उजाला हो जाये !