चन्द्रकांता सन्तति 4/13.12

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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हम ऊपर लिख आये हैं कि इन्द्रदेव ने भूतनाथ को अपने मकान से बाहर न जाने दिया और अपने आदमियों को यह ताकीद करके कि भूतनाथ को हिफाजत और खातिर- दारी के साथ रक्खें, रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गया। [ ५९ ]यद्यपि भूतनाथ इन्द्रदेव के मकान में रोक लिया गया और वह भी उस मकान से बाहर जाने का रास्ता न जानने के कारण लाचार और चुप हो रहा, मगर समय और आवश्यकता ने वहाँ उसे चुपचाप बैठने न दिया और मकान से बाहर निकलने का मौका उसे मिल ही गया।

जब इन्द्रदेव रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गया, उसके दूसरे दिन दोपहर के समय सरयूसिंह, जो इन्द्रदेव का बड़ा विश्वासी ऐयार था, भूतनाथ के पास आया और बोला, "क्यों भूतनाथ, तुम चुपचाप बैठे क्या सोच रहे हो हो?'

भूतनाथ--बस मैं अपनी बदनसीबी पर रोता और झख मारता हूँ, मगर इसके साथ ही इस बात को सोच रहा हूँ कि आदमी को दुनिया में किस ढंग से रहना चाहिए।

सरयूसिंह--क्या तुम अपने को बदनसीब समझते हो?

भूतनाथ--क्यों नहीं ! तुम जानते हो कि वर्षों से मैं राजा वीरेन्द्रसिंह का काम कैसी ईमानदारी और नेकनीयती के साथ कर रहा हूँ। और क्या यह बात तुमसे छिपी हुई है कि उस सेवा का बदला आज मुझे क्या मिल रहा है?

सरयूसिंह--(पास बैठकर) मैं सब-कुछ जानता हूँ, मगर भूतनाथ, मैं फिर भी यह कहने से बाज न आऊँगा कि आदमी को कभी हताश न होना चाहिए और हमेशा बुरे कामों की तरफ से अपने दिल को रोककर नेक काम में तन-मन-धन से लगे रहना चाहिए। ऐसा करने वाला निःसन्देह सुख भोगता है चाहे बीच-बीच में उसे थोड़ीबहुत तकलीफ उठानी पड़ी परंतु आजकल के दुखों से तुम हताश मत मुझे और राजेंद्र सिंह तथा उनकी तरह सच्चे लोगों के साथ नेकी करने से अपने दिल को लेकर तुम ऐसे तैयार हो और यादों में नाम है या फिर भी दो चार दृष्टो की आगे की कार्रवाई से आप पढ़ने वाली आशा का खुलासा कर उदास हो जाओ तो बड़े आश्चर्य की बात है।

भूतनाथ--नहीं मेरे दोस्त, मैं हताश होने वाला आदमी नहीं हूँ, मैं तो केवल समय का हेर-फेर देखकर अफसोस कर रहा हूं। निःसंदेह मुझसे दो-एक काम बुरे हो गए और उसका बदला भी मैं पा चुका हूं मगर फिर भी मेरा दिल यह कहने से बाज नहीं आता कि मेरे माथे से कलंक का टीका अभी तक साफ नहीं हुआ, अतएव तू नेकी करता था और भूलता जा।

सरयूसिंह--शाबाश, मैं केवल तुम्ही को नहीं बल्कि तुम्हारे दिल को भी अच्छी तरह जानता हूँ और वे बातें भी मुझसे छिपी हुई नहीं हैं जिनका इलजाम तुम पर लगाया गया है। यद्यपि मैं एक ऐसे सरदार का ऐयार हूँ जो किसी के नेक-बद से सरो- कार नहीं रखता और इस स्थान को देखने वाला कह सकता है कि वह दुनिया के पर्दे के बाहर रहता है मगर फिर भी मैं काम ज्यादा न होने के सबब से घूमता-फिरता और नामी ऐयारों की कार्रवाइयों को देखा-सुना करता हूँ और यही सबब है कि मैं उन भेदों को भी कुछ जानता हूँ जिसका इल्जाम तुम पर लगाया गया है।

भूतनाथ--(आश्चर्य से) क्या तुम उन भेदों को जानते हो?

सरयूसिंह--बखूबी तो नहीं, मगर कुछ-कुछ। [ ६० ]भूतनाथ--तो मेरे दोस्त, तुम मेरी मदद क्यों नहीं करते ? तुम मुझे इस आफत से क्यों नहीं छुड़ाते ? आखिर हम तुम एक ही पाठशाला के पढ़े-लिखे हैं, क्या लड़क- पन की दोस्ती पर ध्यान देते तुम्हें शर्म आती है या क्या तुम इस लायक नहीं हो ?

सरयूसिंह--(हँसकर) नहीं-नहीं, ऐसा खयाल न करो, मैं तुम्हारी मदद जरूर करूँगा, अभी तक तो तुम्हें किसी से मदद लेने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी थी और जब आवश्यकता आ पड़ी है तो मदद करने के लिए हाजिर भी हो गया हूँ।

भूतनाथ--(मुस्कुरा कर) तब तो मुझे खुश होना चाहिए, मगर जब तक तुम्हारा मालिक रोहतासगढ़ से लौटकर न आ जाये, तब तक हम लोग कुछ भी न कर सकेंगे।

सरयू--क्यों न कर सकेंगे?

भूतनाथा--इसलिए कि तुम्हारा मालिक मुझे यहाँ कैद कर गया है। मैं इसे कैद ही समझता हूँ, जब कि यहाँ से बाहर निकलने की आज्ञा नहीं है।

सरयू--यह कोई बात नहीं है, अगर जरूरत आ पड़े तो मैं तुम्हें इस मकान के बाहर कर दूंगा, चाहे बाहर होने का रास्ता अपने मालिक के नियमानुसार न बताऊँ।

भूतनाथ--(प्रसन्नता से हाथ उठाकर) ईश्वर, तू धन्य है। अब आशा-लता ने जिसमें सुन्दर और सुगन्धित फूल लगे हुए हैं, मुझे फिर घेर लिया। (सरयू से) अच्छा दोस्त, तो अब बताओ कि मुझे क्या करना चाहिए?

सरयू--सबके पहले मनोरमा को अपने कब्जे में लाना चाहिए।

भूतनाथ--(कुछ सोच कर) ठीक कहते हो, मेरी भी एक दफे यही इच्छा हुई थी, मगर क्या तुम इस बात को नहीं जानते कि शिवदत्त, मनोरमा और-

सरयू-–(बात काट कर) मैं खूब जानता हूँ कि शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को कमलिनी के कैदखाने से निकल भागने का मौका मिला और वे लोग भाग गए।

भूतनाथ--तब ?

सरयू--मगर आज एक खबर ऐसी सुनने में आई है जो आश्चर्य और उत्कंठा बढ़ाने वाली है और हम लोगों को चुपचाप बैठे रहने की आज्ञा नहीं देती।

भूतनाथ--वह क्या?

सरयू--यही कि कम्बख्त मायारानी की मदंद पाकर शिवदत्त, माधवी और मनोरमा ने, जो पहले ही अमीर थे, अपनी ताकत बहुत बढ़ा ली और सबके पहले उन्होंने यह काम किया कि राजा दिग्विजयसिंह के लड़के कल्याणसिंह को कैद से छुड़ा लिया, जिसकी खबर राजा वीरेन्द्रसिंह को अभी तक नहीं हुई, और यह भी तुम जानते ही हो कि रोहतासगढ़ के तहखाने का भेद कल्याणसिंह उतना ही जानता है जितना उसका बाप जानता था।

भूतनाथ--बेशक-बेशक, अच्छा तब ?

सरयू--अब उन लोगों ने यह सुनकर कि राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह इत्यादि ऐयार तथा किशोरी, कामिनी, कमलिनी, कमला और लाड़िली वगैरह सभी रोहतासगढ़ में मौजूद हैं, गुप्त रीति से रोहतासगढ़ पहुँचने का इरादा किया है। [ ६१ ]भूतनाथ–बेशक कल्याणसिंह उन लोगों को तहखाने की गुप्त राह से किले के अन्दर ले जा सकता है और उसका नतीजा निःसन्देह बहुत बुरा होगा।

सरयू--मैं भी यही सोचता हूँ, तिस पर मजा यह है कि वे लोग अकेले नहीं हैं, बल्कि हजार फौजी सिपाहियों को भी उन लोगों ने अपना साथी बनाया है।

भूतनाथ--और रोहतासगढ़ के तहखाने में इससे दूने आदमी भी हों, तो सहज ही में समा सकते हैं, मगर मेरे दोस्त, यह खबर तुमने कहाँ से और क्योंकर पाई ?

सरयू--मेरे चेलों ने जो प्रायः बाहर घूमा करते हैं, यह खबर मुझे सुनाई है।

भूतनाथ–तो क्या यह मालूम नहीं हुआ कि शिवदत्त, माधवी, मनोरमा और कल्याणसिंह तथा उनके साथी किस राह से जा रहे हैं और कहाँ हैं ?

सरयू--हाँ, यह भी मालूम हुआ है, वे लोग बराबर घाटी की राह से और जंगल ही जंगल जा रहे हैं।

भूतनाथ—(कुछ देर तक गौर करके)मौका तो अच्छा है!

सरयू--बेशक अच्छा है।

भूतनाथ--तब?

सरयू-चलो, हम-तुम दोनों मिलकर कुछ करें !

भूतनाथ--मैं तैयार हूँ, मगर इस बात को सोच लो कि ऐसा करने पर तुम्हारा मलिक्का रंज तो नहीं होगा!

सरयू--सब सोचा-समझा है, हमारा मालिक भी रोहतासगढ़ ही गया हुआ है और वह भी राजा वीरेन्द्रसिंह का पक्षपाती है।

भूतनाथ--खैर, तो अब विलम्ब करना अपने अमूल्य समय को नष्ट करना है। (ऊंची साँस लेकर) ईश्वर न करे शिवदत्त के हाथ कहीं किशोरी लग जाये, अगर ऐसा हुआ तो अबकी दफे वह बेचारी कदापि न बचेगी।

सरयू--मैं भी यही सोच रहा हूँ, अच्छा तो अब तैयार हो जाओ, मगर मैं नियमा- नुसार तुम्हारी आँखों पर पट्टी बाँध कर बाहर ले जाऊँगा।

भूतनाथ--कोई चिन्ता नहीं, हाँ, यह तो कहो कि मेरे ऐयारों के बटुए में कई मसालों की कमी हो गई है, क्या तुम उस पूरा कर सकते हो?

सरयू--हाँ-हाँ, जिन-जिन चीजों की जरूरत हो ले लो, यहाँ किसी बात की कमी नहीं है।