चन्द्रकांता सन्तति 4/15.10

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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अब हम अपने पाठकों को काशीपुरी में एक चौमंजिले मकान के ऊपर ले चलते हैं। यह निहायत संगीन और मजबूत बना हुआ है। नीचे से ऊपर तक गेरू से रँगे रहने के कारण देखने वाला तुरन्त कह देगा कि यह किसी गुसाईं का मठ है, काशी के मठधारी गुसाईं नाम ही के साधु या गुसाईं होते हैं। वास्तव में तो उनकी दौलत, उनका व्यापार, उनका रहन-सहन और बर्ताव किसी तरह गृहस्थों और बनियों से कम नहीं होता बल्कि दो हाथ ज्यादा ही होता है। अगर किसी ने धर्म और शास्त्र पर कृपा करके गुसाईंपने की कोई निशानी रख भी ली तो केवल इतनी ही कि एक टोपी गेरुए रंग की सिर पर या गेरुए रंग का एक दुपट्टा कन्धे पर रख लिया, सो भी भरसक रेशमी और बेशकीमत [ १७५ ]तो होना ही चाहिए, बस ! अतः इस समय जिस मकान में हम अपने पाठकों को ले चलते हैं, देखनेवाले उस मकान को भी किसी ऐसे ही साधु या गुसाईं का मठ कहेंगे पर वास्तव में ऐसा नहीं है। इस मकान के अन्दर कोई विचित्र मनुष्य रहता है और उसके काम भी बड़े ही अनूठे हैं।

यह मकान भी कई मंजिल का है। नीचे वाली तीनों मंजिलों को छोड़कर इस समय हम ऊपर वाली चौथी मंजिल पर चलते हैं जहाँ एक छोटे-से कमरे में तीन औरतें बैठी हुई आपस में बातें कर रही हैं। रात दो पहर से कुछ ज्यादा जा चुकी है। कमरे के अन्दर यद्यपि बहुत से शीशे लगे हैं मगर रोशनी सिर्फ एक शमादान और एक दीवारगीर की ही हो रही है। शमादान फर्श के ऊपर जल रहा है जहाँ तीनों औरतें बैठी हैं। उनमें एक औरत तो निहायत हसीन और नाजुक है और यद्यपि उसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष के पहुंच गई होगी मगर उसकी नजाकत, सुडौली और चेहरे का लोच अभी तक कायम है, उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में अभी तक गुलाबी डोरियाँ और मस्तानापन मौजूद है, सिर के बड़े-बड़े और घने बालों में चांदी की तरह चमकने वाले बाल दिखाई नहीं देते और न अलग से देखने में ज्यादा उम्र की ही मालूम पड़ती है, साथ ही इसके बाली-पत्ते-गोप-सिकरी-कड़े-छन्द और अंगूठियों की तरफ ध्यान देने से वह रुपये वाली भी मालूम पड़ती है। उसके पास बैठी हुईं दोनों औरतें भी उसी की तरह कमसिन और खूबसूरत नहीं तो कुछ बदसूरत भी नहीं हैं। जो बहुत हसीन और इस मकान की मालिक औरत है उसका नाम बेगम1 है और बाकी दोनों में एक औरतों का नाम नौरतन और दूसरी का जमालो है।

बेगम--चाहे जयपालसिंह गिरफ्तार हो गया हो मगर भूतनाथ उसका मुकाबल नहीं कर सकता और न भूतनाथ उसे अपनी हिफाजत ही में रख सकता है।

जमालो--ठीक है, मगर जब लक्ष्मीदेवी और राजा वीरेन्द्र सिंह को यह मालूम हो गया कि यह असली बलभद्रसिंह नहीं और इसने बहुत बड़ा धोखा देना चाहा था तो वे उसे जीता कब छोड़ेंगे!

बेगम--तो क्या वह खाली इतने ही कसुर पर मारा जायगा कि उसने अपने को बलभद्रसिंह जाहिर किया?

जमालो--क्या यह छोटा-सा कसूर है ! फिर असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए भी तो लोग उसे दिक करेंगे।

बेगम--अगर इन्साफ किया जायगा तो जयपाल गदाधरसिंह से ज्यादा दोषी न ठहरेगा, ऐसी अवस्था में मुझे यह आशा नहीं होती कि राजा वीरेन्द्र सिंह उसे प्राणदण्ड देंगे।

नौरतन--राजा वीरेन्द्रसिंह चाहे उसे प्राथदण्ड की आज्ञा न भी दें मगर इन्द्रदेव उसे कदापि जीता न छोड़ेगा और यह बात बहत बुरी हुई कि राजा वीरेन्द्रसिंह ने उसे इन्द्रदेव के हवाले कर दिया।


1. बेगम नाम मे मुसलमान न समझना चाहिए। [ १७६ ]बेगम--जो हो मगर जिस समय मैं उन लोगों के सामने जा खड़ी होऊँगी उस समय जयपाल को छुड़ा ही लाऊँगी, क्योंकि उसी की बदौलत मैं अमीरी कर रही हूँ और उसके लिए नीच से नीच काम करने को भी तैयार हैं।

जमालो--सो कैसे? क्या तुम असली बलभद्रसिंह के साथ उसका बदला करोगी?

बेगम--हाँ, मैं इन्द्रदेव और लक्ष्मीदेवी से कहँगी कि तुम जयपाल सिंह को मेरे हवाले करो तो असली बलभद्रसिंह को मैं तुम्हारे हवाले कर दूंगी। अफसोस तो इतना ही है कि गदाधरसिंह की तरह जयपालसिंह दिलावर और जीवट का आदमी नहीं है। अगर जयपालसिंह के कब्जे में बलभद्रसिंह होता तो वह थोड़ी ही तकलीफ में इन्द्रदेव या लक्ष्मीदेवी को उसका हाल बता देता।

जमालो--ठीक है मगर जब बलभद्रसिंह तुम्हारे कब्जे से निकल जायगा, तब जयपालसिंह तुम्हारी इज्जत और कदर क्यों करेगा और क्यों दबेगा ? सिवाय इसके अब तो दारोगा भी स्वतंत्र नहीं रहा जिसके भरोसे पर जयपाल कूदता था और तुम्हारा घर भरता था।

बेगम--(कुछ सोचकर) हाँ बहिन, सो तो तुम सच कहती हो। और बलभद्रसिंह को छोड़ने से पहले ही मुझे अपना घर ठीक कर लेना चाहिए, मगर ऐसा करने में भी दो बातों की कसर पड़ती है।

जमालो--वह क्या?

बेगम--एक तो वीरेन्द्रसिंह के पक्ष वाले मुझ पर यह दोष लगावेंगे कि तूने बलभभद्रसिंह को क्यों कैद कर रक्खा था, दूसरे, जब से मनोरमा के हाथ तिलिस्मी खंजर लगा है तब से उसका दिमाग आसमान पर चढ़ गया है, वह मुझसे कसम खाकर कह गई है कि 'थोड़े ही दिनों में राजा वीरेन्द्र सिंह और उनके पक्ष वालों को इस दुनिया से उठा दंगी। अगर उसका कहना सच हुआ और उसने फिर मायारानी को जमानिया की गद्दी पर ला बैठाया तो मायारानी मुझ पर दोष लगावेंगी कि तूने जयपाल को इतने दिनों तक क्यों छिपा रक्खा और दारोगा से मिलकर मुझे धोखे में क्यों डाला।

नौरतन--बेशक ऐसा ही होगा, मगर इस बात को मैं कभी नहीं मान सकती कि अकेली मनोरमा एक तिलिस्मी खंजर पाकर राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करेगी और उनके पक्ष वालों को इस दुनिया से उठा देगी। क्या उन लोगों के पास तिलिस्मी खंजर न होगा?

जमालो--मैं भी यही कहने वाली थी, मैंने इस विषय पर बहुत गौर किया मगर सिवा इसके मेरा दिल और कुछ भी नहीं कहता कि राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके लड़के और उनके ऐयारों का मुकाबला करने वाला आज दिन इस दुनिया में कोई भी नहीं है, और एक बड़े भारी तिलिस्म के राजा गोपालसिंह भी प्रकट हो गये हैं। ऐसी अवस्था में मायारानी और उनके पक्ष वालों की जीत कदापि नहीं हो सकती।

बेगम--ऐसा ही है, और गदाधरसिंह भी किसी-न-किसी तरह अपनी जान बचा ही लेगा। देखो, इतना बखेड़ा हो जाने पर भी लोगों ने गदाधरसिंह को, जिसने

च० स०-4-11

[ १७७ ]अपना नाम अब भूतनाथ रख लिया है छोड़ दिया और अब वह चारों तरफ उपद्रव मचा रहा है। ताज्जुब नहीं कि वह जमीन की मिट्टी सूंघता हुआ मेरे घर में भी आ पहुंचे ! यद्यपि उसे मेरा पता कुछ भी मालूम नहीं है मगर वह विचित्र आदमी है, मिट्टी और हवा में मिल गई चीज का भी पता लगा लेता है। (ऊँची साँस लेकर) अगर मुझसे और उससे लड़ाई न हो गई होती तो आज मैं भी तीन हाथ की ऊँची गद्दी पर बैठने का साहस करती, मगर अफसोस, भूतनाथ ने मेरे साथ बहुत ही बुरा सलूक किया ! (कुछ सोचकर) यदि बलभद्रसिंह को लेकर मैं राजा वीरेन्द्रसिंह के पास चली जाऊँ और भूतनाथ के ऊपर नालिश करूँ तो मैं बहुत अच्छी रहूँ ! मेरे मुकदमे की जवाबदेही भूतनाथ कदापि नहीं कर सकता और राजा साहब उसे जरूर प्राणदण्ड की आज्ञा देंगे। बलभद्रसिंह को छिपा रखने का यदि मुझ पर दोष लगाया जायगा तो मैं कह सकूँगी कि जिस जमाने में जो राजा होता है प्रजा उसी का पक्ष करती है। अगर मैंने मायारानी और दारोगा के जमाने में उन लोगों का पक्ष किया तो कुछ बुरा नहीं किया। मैं इस बात को बिल्कुल नहीं जानती थी बल्कि दारोगा भी नहीं जानता था कि राजा गोपालसिंह को मायारानी ने कैद कर रक्खा है, अतः अब आपका राज्य हआ है तो मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ।

जमालो--बात तो बहुत अच्छी है, फिर इस बात में देर क्यों कर रही हो? इस काम को जितना जल्द करोगी, तुम्हारा भला होगा।

बेगम--(कुछ सोचकर) अच्छी बात है, ऐसा करने के लिए मैं कल ही यहाँ से रवाना हो जाऊँगी।

इतने ही में दरवाजे के बाहर से यह आवाज आई, "मगर भूतनाथ को भी तो अपनी जान प्यारी है, वह ऐसा करने के लिए तुम्हें जाने कब देगा?"

तीनों ने चौंककर दरवाजे की तरफ निगाह की और भूतनाथ को कमरे के अन्दर आते हुए देखा।

बेगम--(भूतनाथ से) आओ जी मेरे पुराने दोस्त, भला तुमने मेरे सामने आने का साहस तो किया!

भूतनाथ--साहस और जीवट तो हमारा असली काम है।

बेगम--(अपनी बाईं तरफ बैठने का इशारा करके) इधर बैठ जाओ। मालूम होता है कि पुरानी बातों को तुम बिल्कुल ही भूल गये।

भूतनाथ--(बेगम की दाहिनी तरफ बैठकर)हम दुनिया में आने से भी छ: महीने पहले की बात याद रखने वाले आदमी हैं, आज वह दिन नहीं है जिस दिन तुम्हें और जयपाल को देखने के साथ ही डर से मेरे बदन का खून रगों के अन्दर ही जम जाता था, बल्कि आज का दिन उसके बिल्कुल विपरीत है।

बेगम–-अर्थात् आज तुम मुझे देखकर खुश होते हो।

भूतनाथ--बेशक!

बेगम--क्या आज तुम मुझसे बिल्कुल नहीं डरते?

भूतनाथ--रत्ती भर नहीं! [ १७८ ]बेगम-- क्या अब मैं अगर राजा वीरेन्द्रसिंह के यहाँ तुम पर नालिश करूँ तो मेरा मुकदमा सुना न जायगा और तुम साफ छूट जाओगे!

भूतनाथ--मगर अब तुम्हें राजा वीरेन्द्रसिंह के सामने पहुँचने ही कौन देगा?

बेगम--(क्रोध से) रोकेगा ही कौन?

भूतनाथ--गदाधरसिंह, जो तुम्हें अच्छी तरह सता चुका है और आज फिर सताने के लिए आया है!

बेगम--(क्रोध को पचाकर और कुछ सोचकर) मगर यह तो बताओ कि तुम बिना इत्तिला कराये यहाँ चले क्यों आये ? और पहरे वाले सिपाहियों ने तुम्हें आने कैसे दिया?

भूतनाथ--तुम्हारे दरवाजे पर कौन है जिसकी जुबानी मैं इत्तिला करवाता या जो मुझे यहां आने से रोकता?

बेगम--क्या पहरे के सिपाही सब मर गये ?

भूतनाथ--मर ही गये होंगे !

बेगम--क्या सदर दरवाजा खुला हुआ और सुनसान है ?

भूतनाथ–-सुनसान तो है मगर खुला हुआ नहीं है, कोई चोर न घस आवे इस खयाल से आते समय मैं सदर दरवाजा भीतर से वन्द करता आया हूँ। डरो मत, कोई तुम्हारी रकम उठाकर न ले जायगा।

बेगम--(मन-ही-मन चिढ़ के) जमालो, जरा नीचे जाकर देख तो सही कम्बख्त सिपाही सब क्या कर रहे हैं।

भूतनाथ--(जमालो से) खबरदार, यहाँ से उठना मत, इस समय इस मकान में मेरी हुकूमत है, बेगम या जयपाल की नहीं ! (बेगम से) अच्छा, अब सीधी तरह से बता दो कि बलभद्रसिंह को कहाँ पर कैद कर रक्खा है ?

बेगम--मैं बलभद्रसिंह को क्या जानूं?

भूतनाथ--तो अभी किसको लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह के पास जाने के लिए तैयार हो गई थी।

बेगम--तेरे बाप को लेकर जाने वाली थी!

इतना सुनते ही भूतनाथ ने कस के चपत बेगम के गाल पर जमाई जिससे वह तिलमिला गई और कुछ ठहरने के बाद तकिये के नीचे से छरा निकालकर भूतनाथ पर झपटी। भूतनाथ ने बाएं हाथ से उसकी कलाई पकड़ ली और दाहिने हाथ से तिलिस्मी खंजर निकाल कर उसके बदन में लगा दिया, साथ ही इसके फुर्ती से नौरतन और जमालो के बदन में भी तिलिस्मी खंजर लगा दिया जिससे बात-की-बात में तीनों बेहोश होकर जमीन पर लम्बी हो गई। इसके बाद भूतनाथ ने बड़े गौर से चारों तरफ देखना शुरू किया। इस कमरे में दो आलमारियाँ थीं जिनमें बड़े-बड़े ताले लगे हुए थे, भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर मार कर एक आलमारी का कब्जा काट डाला और आलमारी खोल कर उसके अन्दर की चीजें देखने लगा। पहले एक गठरी निकाली, जिसमें बहुत से कागज बँधे हुए थे। शमादान के सामने वह गठरी खोली और एक-एक करके कागज [ १७९ ]देखने और पढ़ने लगा यहाँ तक कि सब कागज देख गया और शमादान में लगा-लगा कर सब जला के खाक कर दिये। इसके बाद एक सन्दूकड़ी निकाली जिसमें ताला लगा हुआ था। इस सन्दूकड़ी में भी वागज भरे हुए थे, भूतनाथ ने उन कागजों को भी जला दिया। इसके बाद फिर आलमारी में ढूंढ़ना शुरू किया मगर और कोई चीज उसके काम की न निकली।

भूतनाथ ने अब उस दूसरी आलमारी का कब्जा भी खंजर से काट डाला और अन्दर की चीजों को ध्यान देकर देखना शुरू किया। इस आलमारी में यद्यपि बहुत-सी चीजें भरी हुई थीं मगर भूतनाथ ने केवल तीन चीजें उसमें से निकाल लीं। एक तो दसबारह पन्ने की छोटी-सी किताब थी जिसे पाकर भूतनाथ बहुत खुश हुआ और चिराग के सामने जल्दी-जल्दी पलट कर दो-तीन पन्ने पढ़ गया, दूसरा एक ताली का गुच्छा था, भूतनाथ ने उसे भी ले लिया, और तीसरी चीज एक हीरे की अंगूठी थी जिसके साथ एक पुर्जा भी बंधा हुआ था। यह अंगूठी एक डिविया के अन्दर रक्खी हुई थी। भूतनाथ ने अँगूठी में से पुर्जा खोलकर पढ़ा और इसके पाने से बहुत प्रसन्न होकर धीरे से बोला, "बस, अब मुझे और किसी चीज की जरूरत नहीं है।"

इन कामों से छुट्टी पाकर भूतनाथ बेगम के पास आया जो अभी तक बेहोश पड़ी हुई थी और उसकी तरफ देखकर बोला, "अब यह मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती, ऐसी अवस्था में एक औरत के खून से हाथ रँगना व्यर्थ है।"

भूतनाथ हाथ में शमादान लिए निचले खण्ड में उतर गया जहां उसके साथी दो आदमी हाथ में नंगी तलवार लिये हुए मौजूद थे। उसने अपने साथियों की तरफ देख कर कहा, "बस हमारा काम हो गया। बलभद्रसिंह इसी मकान में कैद है, उसे निकाल कर यहाँ से चल देना चाहिए।" इतना कहकर भूतनाथ ने शमादान अपने एक साथी के हाथ में दे दिया और एक कोठरी के दरवाजे पर जा खड़ा हुआ जिसमें दोहरा ताला लगा हुआ था। तालियों का गुच्छा जो ऊपर से लाया था, उसी में से ताली लगा कर ताला खोला और अपने आदमियों को साथ लिए हुए कोठरी के अन्दर घुसा। वह कोठरी खाली थी मगर उसमें से एक दूसरी कोठरी में जाने के लिए दरवाजा था और उसकी जंजीर में भी ताला लगा हुआ था। ताली लगा कर उस ताले को भी खोला और दूसरी कोठरी के अन्दर गया। इसी कोठरी में लक्ष्मी देवी, कमलिनी और लाड़िली का बाप वलभद्रसिंह कैद था।

दरवाजा खोलते समय जंजीर खटकने के साथ ही बलभद्रसिंह चैतन्य हो गया था। जिस समय उसकी निगाह यकायक भूतनाथ पर पड़ी वह चौंक उठा और ताज्जुबभरी निगाहों से भूतनाथ को देखने लगा। भूतनाथ ने भी ताज्जुब की निगाह से बलभद्रसिंह को देखा और अफसोस किया, क्योंकि बलभद्रसिंह की अवस्था बहुत ही खराब हो रही थी, शरीर सूख के काँटा हो गया था, चेहरे पर और बदन में झुर्रियां पड़ गई थीं, सिर, मूंछ और दाढ़ी के बाल तथा नाखून इतने बढ़ गये थे कि जंगली मनुष्य में और उसमें कुछ भी भेद न जान पड़ता था, अँधेरे में रहते-रहते कुल बदन पीला पड़ गया था, सूरत-शक्ल से भी बहुत ही डरावना मालूम पड़ता था। एक कम्बल, मिट्टी की ठिलिया, [ १८० ]और पीतल का लोटा बस यही उसकी बिसात थी। कोठरी में और कुछ भी न था। भूतनाथ को देख कर यह जिस ढंग से चौका और काँपा, उसे देखकर भूतनाथ ने गर्दन नीची कर ली और तब धीरे से कहा, "आप उठिये और जल्दी निकल चलिये, मैं आपको छुड़ाने के लिए आया हूँ।"

बलभद्रसिंह--(आश्चर्य से) क्या तू मुझे छुड़ाने के लिए आया है ! क्या यह बात सच है?

भूतनाथ जी हाँ।

बलभद्रसिंह--मगर मुझे विश्वास नहीं होता।

भूतनाथ–-खैर, इस समय आप यहाँ से निकल चलिये, फिर जो कुछ सवालजवाब या सोच-विचार करना हो, कीजियेगा।

बलभद्रसिंह--(खड़े होकर) कदाचित् यह बात सच हो ! और अगर झूठ भी हो तो कोई हर्ज नहीं, क्योंकि मैं इस कैद में रहने के बनिस्बत जल्द मर जाना अच्छा समझता हूँ!

भूतनाथ ने इस बात का कुछ जवाब न दिया और बलभद्रसिंह को अपने पीछेपीछे आने का इशारा किया। बलभद्रसिंह इतना कमजोर हो गया था कि उसे मकान के नीचे उतरना कठिन जान पड़ता था इसलिए भूतनाथ ने उसका हाथ थाम लिया और नीचे उतार कर दरवाजे के बाहर ले गया। मकान के दरवाजे के बाहर बल्कि गली भर में सन्नाटा छाया हुआ था क्योंकि यह मकान ऐसी अँधेरी और सन्नाटे की गली में था कि वहाँ शायद महीने में एक दफे किसी भले आदमी का गुजर नहीं होता होगा। दरवाज पर पहुँच कर भूतनाथ ने बलभद्रसिंह से पूछा, "आप घोड़े पर सवार हो सकते हैं!"

इसके जवाब में बलभद्रसिंह ने कहा, "मुझे उचक कर सवार होने की ताकत तो नहीं, हाँ अगर घोड़े पर बैठा दोगे तो गिरूँगा नहीं!"

भतनाथ ने शमादान मकान के भीतर चौक में रख दिया और तब बलभद्रसिह को आगे बढ़ा लेगया। थोड़ी ही दूर पर एक आदमी दो कसे-कसाये घोड़ों की बागडोर थामे बैठा हुआ था। भूतनाथ एक घोड़े पर बलभद्रसिंह को सवार करा के दूसरे घोड़े पर आप जा बैठा और अपने तीनों आदमियों को कुछ कहकर वहां से रवाना हो गया।