चन्द्रकांता सन्तति 4/16.10

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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अब हम अपने पाठकों को फिर उसी सफर में ले चलते हैं जिसमें चुनार जाने वाले राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर पड़ा हुआ हैं। पाठकों को याद होगा कि कम्बख्त मनो- रमा ने तिलिस्मी खंजर से किशोरी, कामिनी और कमला का सिर काट डाला और खुशी भरी आवाज में कुछ कह रही थी कि पीछे की तरफ से आवाज आई, "नहीं-नहीं, ऐसः न हुआ है, न होगा!"

आवाज देने वाला भैरोंसिंह था जिसे मनोरमा के खोज निकालने का काम सुपुर्द किया गया था। वह मनोरमा की खोज में चक्कर लगाता और टोह लेता हुआ उसी जगह जा पहुंचा था, मगर उसे इस बात का बड़ा ही अफसोस था कि उन तीनों का सिर कट जाने के बाद वह खेमे के अन्दर पहुंचा। [ २२९ ]हमारे ऐयार की आवाज सुनकर मनोरमा चौंकी और उसने घूमकर पीछे की तरफ देखा तो हाथ में खंजर लिए हुए भैरोंसिंह पर निगाह पड़ी। यद्यपि भैरोंसिंह पर नजर पड़ते ही वह जिन्दगी से नाउम्मीद हो गई, मगर फिर उसने तिलिस्मी खंजर का वार भैरोंसिंह पर किया, मगर भैरोंसिंह पहले ही से होशियार था और उसके पास भी तिलिस्मी खंजर मौजूद था, अतः उसने अपने खंजर पर इस ढंग से मनोरमा के खंजर का वार रोका कि मनोरमा की कलाई भैरोंसिंह के खंजर पर पड़ी और वह कट कर तिलिस्मी खंजर सहित दूर जा गिरी। भैरोंसिंह ने इतने ही पर सब्र न करके उसी खंजर से मनोरमा की एक टाँग काट डाली और इसके बाद जोर से चिल्लाकर पहरे वालों को आवाज दी।

पहरे वाले तो पहले ही से बेहोश पड़े हुए थे, मगर भैरोंसिंह की आवाज ने लौंडियों को होशियार कर दिया और बात की बात में बहुत-सी लौंडियाँ उस खेमे के अन्दर आ पहुँची जो वहाँ की अवस्था देखकर जोर-जोर से रोने और चिल्लाने लगीं।

थोड़ी देर में उस खेमे के अन्दर और बाहर भीड़ लग गई। जिधर देखिये उधर मशाल जल रही है और आदमी पर आदमी टूटा पड़ता है। राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी उस खेमे में गये ओर वहाँ की अवस्था देखकर अफसोस करने लगे। तेजसिंह ने हुक्म दिया कि तीनों लाशें उसी जगह ज्यों की त्यों रहने दी जायें और मनोरमा, (जो कि चेहरा धुल जाने कारण पहचानी जा चुकी थी) वहाँ से उठवाकर दूसरे खेमे में पहुंचाई जाय, उसके जख्म पर पट्टी लगाई जाय और उस पर सख्त पहरा रहे। इसके बाद भैरों- सिंह और तेजसिंह को साथ लिये राजा वीरेन्द्रसिंह अपने खेमे में आये और बातचीत करने लगे। उस समय खेमे के अन्दर सिवाय इन तीनों के और कोई भी न था। भैरोंसिंह ने अपना हाल बयान किया और कहा, "मुझे इस बात का बड़ा दुःख है कि किशोरी, कामिनी और कमला का सिर कट जाने के बाद मैं उस खेमे के अन्दर पहुँचा !"

तेजसिंह-अफसोस की कोई बात नहीं है, ईश्वर की कृपा से हम लोगों को यह बात पहले ही मालूम हो गई थी कि मनोरमा हमारे लश्कर के साथ है।

भैरोंसिंह-अगर यह बात मालूम हो गई थी तो आपने इसका इन्तजाम क्यों नहीं किया और इन तीनों की तरफ से बेफिक्र क्यों रहे?

तेजसिंह-हम लोग बेफिक्र नहीं रहे बल्कि जो कुछ इन्तजाम करना वाजिब था किया गया। तुम यह सुनकर ताज्जुब करोगे कि किशोरी, कामिनी और कमला मरी नहीं बल्कि ईश्वर की कृपा से जीती हैं, और लौंडी की सूरत में हर दम पास रहने पर भी मनोरमा ने धोखा खाया।

भैरोंसिंह-मनोरमा ने धोखा खाया और वे तीनों जीती हैं ? तेजसिंह हाँ, ऐसा ही है। इसका खुलासा हाल हम तुमसे कहते हैं, मगर पहले यह बताओ कि तुमने मनोरमा को कैसे पहचाना? हम तो कई दिनों से पहचानने की फिक्र में लगे हुए थे, मगर पहचान न सके। क्योंकि मनोरमा के कब्जे में तिलिस्मी खंजर का होना हमें मालूम था और हम हर लौंडी की उंगलियों पर तिलिस्मी खंजर जोड़ की अंगूठी देखने की नीयत से निगाह रखते थे। [ २३० ]भैरोंसिंह--मैं उसका पता लगाता हुआ इसी लश्कर में आ पहुंचा था। उस समय टोह लेता हुआ जब मैं किशोरी के खेमे के पास पहुंचा तो पहरे के सिपाही को बेहोश और खेमे का पर्दा हटा हुआ देख मुझे किसी दुश्मन के अन्दर जाने का गुमान हुआ और मैं भी उसी राह से खेमे के अन्दर चला गया। जब वहाँ की अवस्था देखी और उसके मुंह से निकली हुई बातें सुनीं, तब शक हुआ कि यह मनोरमा है, मगर निश्चय तब ही हुआ जब उसका चेहरा साफ किया गया और आपने भी पहचाना। अब आप कृपा कर यह बताइए कि किशोरी, कामिनी और कमला क्योंकर जीती बची और जो तीनों मारी गई वे कौन थीं?

तेजसिंह-हमें इस बात का पता लग चुका था कि भेष बदले हुए मनोरमा हमारे लश्कर के साथ है, मगर जैसा कि तुमसे कह चुके हैं, उद्योग करने पर भी हम उसे पह- चान न सके। एक दिन हम और राजा साहब संध्या के समय टहलते हुए खेमे से दूर चले गये और एक छोटे टीले पर चढ़कर अस्त होते हुए सूर्य की शोभा देखने लगे। उस समय कृष्ण जिन्न का भेजा हुआ एक सवार हमारे पास आया और उसने एक चिट्ठी राजा साहब के हाथ में दी, राजासाहब ने चिट्ठी पढ़कर मुझे दे दी। उसमें लिखा था--'मुझे इस बात का पूरा-पूरा पता लग चुका है कि कई सहायकों को साथ लिए और भेष बदले हुए मनोरमा आपके लश्कर में मौजूद है और उसके अतिरिक्त और भी कई दुष्ट किशोरी और कामिनी के साथ दुश्मनी करना चाहते हैं। इसलिए मेरी राय है कि बचाव तथा दुश्मनों को धोखा देने के लिए कामिनी और कमला को कुछ दिन तक छिपा देना चाहिए और उनकी जगह सूरत बदलकर दूसरी लौंडियों को रख देना चाहिए। इस काम के लिए मेरा एक तिलिस्मी मकान, जो आपके रास्ते में ही कुछ दूर हटकर पड़ेगा मुनासिब है, और मैंने इस काम के लिए वहाँ पूरा इन्तजाम भी कर दिया है। लौंडियाँ भी सूरत बदलने और खिदमत करने के लिए भेज दी हैं, क्योंकि आपकी लौंडियों की सूरत बदलना ठीक न होगा और लश्कर में लौंडियों की कमी से लोगों को शक भी हो जायगा। अब आप बहुत जल्द इन्तजाम करके उन तीनों को वहाँ वहुँचायें, मैं भी इन्त- जाम करने के लिए पहले ही से उस मकान में जाता हूँ-" इत्यादि, इसके बाद उस मकान का पूरा-पूरा पता लिखकर अपना दस्तखत एक निशान के साथ कर दिया था जिसमें हम लोगों को चिट्ठी लिखने वाले पर किसी तरह का शक न हो, और उस मकान के अन्दर जाने की तरकीब भी लिख दी थी।

कृष्ण जिन्न की राय को राजा साहब ने स्वीकार किया और पत्र का उत्तर देकर वह सवार बिदा कर दिया गया। रात के समय किशोरी, कामिनी और कमला को ये बातें समझा दी गयीं और उन्होंने उसी दुष्ट मनोरमा की जुबानी दोपहर के बाद यह कहला भेजा कि 'हमने सुना है कि यहाँ से थोड़ी ही दूर पर कोई तिलिस्मी मकान है, यदि आप चाहें तो हम लोग इस मकान की सैर कर सकती हैं' इत्यादि। मतलब यह कि इसी बहाने से मैं खुद उन तीनों को रथ पर सवार करा के उस मकान में ले गया और कृष्ण जिन्न को वहां मौजूद पाया। उसने अपने हाथ से अपनी तीन लौंडियों को किशोरी, कामिनी और कमला बना हमारे रथ पर सवार कराया और हम उन्हें लेकर इस लश्कर

च० स०-4

[ २३१ ]में लौट आये। तुम जानते ही हो कि कृष्ण जिन्न कितना बुद्धिमान और होशियार तथा

हम लोगों का दोस्त आदमी है।

भैरोंसिंह--बेशक, उनकी हिफाजत में किशोरी, कामिनी और कमला को किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती और यह आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, मगर मैं समझता हूँ कि इन भेदों को अभी आप गुप्त रखेंगे और यह बात जाहिर नहीं होने देंगे कि वे तीनों, जो मारी गई हैं, वास्तव में किशोरी, कामिनी और कमला न थीं।

तेजसिंह--नहीं-नहीं, अभी इस भेद का खुलना उचित नहीं है। सभी को यही मालूम रहना चाहिए कि वास्तव में किशोरी, कामिनी और कमला मारी गईं। अच्छा, अब दो-चार बातें तुम्हें और कहनी हैं, वह भी सुन लो।

भैरोंसिंह--जो आज्ञा।

तेजसिंह--कृष्ण जिन्न तो कामकाजी आदमी ठहरा और वह ऐसे-ऐसे बखेड़ों में फंसा है कि कि उसे दम मारने की फुर्सत नहीं।

भैरोंसिंह--निःसन्देह ऐसा ही है। इतना काम जो वह करते हैं सो भी उन्हीं की बुद्धिमानी का नतीजा है, दूसरा नहीं कर सकता।

तेजसिंह–-अब कृष्ण जिन्न तो ज्यादा दिनों तक उस मकान में रह नहीं सकता जिसमें किशोरी, कामिनी और कमला हैं। वह अपने ठिकाने चला गया होगा। मगर उन तीनों की हिफाजत का पूरा-पूरा बन्दोबस्त कर गया होगा। अब तुम भी इसी समय उस मकान की तरफ चले जाओ और जब तक हमारा दूसरा हुक्म न पहुँचे या कोई आवश्यक काम न आ पड़े तब तक उन तीनों के साथ रहो, हम उस मकान का पता तथा उसके अन्दर जाने की तरकीब तुम्हें बता देते हैं।

भैरोंसिंह--जो आज्ञा, मैं अभी जाने के लिए तैयार हूँ।

तेजसिंह ने उस मकान का पूरा-पूरा हाल भैरोंसिंह को बता दिया और भैरों- सिंह उसी समय अपने बाप के चरण छूकर बिदा हुए।

भैरोंसिंह के जाने के बाद सवेरा होने पर एक ब्राह्मण द्वारा नकली किशोरी, कामिनी और कमला के मृत देह की दाह-क्रिया कर दी गई। इसके पहले ही लश्कर में जितने पढ़े-लिखे ब्राह्मण थे, सभी को बटोरकर तेजसिंह ने यह व्यवस्था करा ली थी कि इन तीनों का कोई नातेदार यहां मौजूद नहीं है, इसलिए किसी ब्राह्मण द्वारा इनकी क्रिया करा देनी चाहिए। इस काम से छुट्टी पाने के बाद लश्कर ने कूच कर दिया और सब कोई धीरे-धीरे चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए।