चन्द्रकांता सन्तति 4/16.9

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी है और दोनों कुमार बाग के बीचवाले उसी दालान में सोये हुए हैं। यकायक किसी तरह की भयानक आवाज सुनकर दोनों भाइयों की नींद टूट गई और वे दोनों उठकर जंगले के नीचे चले आये, चारों तरफ देखने पर जब इनकी निगाह उस तरफ गई, जिधर वह पिण्डी थी, तो कुछ रोशनी मालूम पड़ी, दोनों भाई उसके पास गये तो देखा कि उस पिण्डी में से हाथ भर ऊँची लौ निकल रही है। यह लौ (आग की ज्योति) नीले और कुछ पीले रंग की मिली-जुली थी। साथ ही इसके यह भी मालूम हुआ कि लाह या राल की तरह वह पिण्डी गलती हुई जमीन के अन्दर धंसती चली जा रही है। उस पिण्डी में से जो धूआँ निकल रहा था उसमें धूप या लोबान की-सी खूशबू आ रही थी।

थोड़ी देर तक दोनों कुमार वहाँ खड़े रहकर यह तमाशा देखते रहे। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह यह कहते हुए बँगले की तरफ लौटे, “ऐसा तो होना ही था, मगर उस भया- नक आवाज का पता न लगा, शायद इसी में से वह आवाज भी निकली हो।" इसके जवाब में आनन्दसिंह ने कहा, "शायद ऐसा ही हो!"

दोनों कुमार अपने ठिकाने चले आए और बची हुई रात बातचीत में काटी क्यों कि खटका हो जाने के कारण फिर उन्हें नींद न आई। सवेरा होने पर जब वे दोनों पुनः उस पिण्डी पास गये, तो देखा कि आग बुझी हुई है और पिण्डी की जगह बहुत-सी पीले रंग की राख मौजूद है। यह देख दोनों भाई वहाँ से लौट आये और नित्यकर्म से छुट्टी पा पुनः वहाँ जाकर उस पीले रंग की राख को निकाल वह जगह साफ करने लगे। [ २२७ ]मालूम हुआ कि वह पिण्डी जो जल कर राख हो गई है लगभग तीन हाथ के जमीन के अन्दर थी और इसीलिए राख साफ हो जाने पर तीन हाथ का गड़हा इतना लम्बा-चौड़ा निकल आया कि जिसमें दो आदमी बखूबी जा सकते थे। गड़हे के पेंदे में लोहे का एक तख्ता था, जिसमें कड़ी लगी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने कड़ी में हाथ डाल कर वह लोहे का तख्ता उठा लिया और आनन्दसिंह को देकर कहा, "इसे किनारे रख दो।"

लोहे का तख्ता हटा देने के बाद ताले के मुंह की तरह एक सूराख नजर आया, जिसमें इन्द्रजीतसिंह ने वही तिलिस्मी ताली डाली जो पुतली के हाथ में से ली थी। कुछ तो वह ताली ही विचित्र बनी हुई थी और कुछ ताला खोलते समय इन्द्रजीतसिंह को बुद्धिमानी से भी काम लेना पड़ा। ताला खुल जाने के बाद जब दरवाजे की तरह का एक पल्ला हटाया गया तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नजर आईं। तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई नीचे उतरे और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया, क्यों- कि ताले का छेद दोनों तरफ था और वही ताली दोनों तरफ काम देती थी।

पन्द्रह या सोलह सीढ़ियां उतर जाने के बाद दोनों कुमारों को थोड़ी दूर तक एक सुरंग में चलना पड़ा। इसके बाद ऊपर चढ़ने के लिए पुनः सीढ़ियां मिली और तब उसी ताली से खुलने लायक एक दरवाजा मिला। सीढ़ियां चढ़ने और दरवाजा खोलने के बाद कुमारों को कुछ मिट्टी हटानी पड़ी और इसके बाद वे दोनों जमीन के बाहर निकले।

इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक और ही बाग में पाया जो लम्बाई-चौड़ाई में उस बाग से कुछ छोटा था, जिसमें से कुमार आये थे। पहले बाग की तरह यह बाग भी एक प्रकार से जंगल हो रहा था। इन्दिरा की माँ अर्थात् इन्द्रदेव की स्त्री इसी बाग में मुसीबत की घड़ियां काट रही थी और इस समय भी इसी बाग में मौजूद थी इसलिए बनिस्बत पहले बाग के इस बाग का नक्शा कुछ खुलासा तौर पर लिखना आवश्यक है।

इस बाग में किसी तरह की इमारत न थी, न तो कोई कमरा था और न कोई बँगला या दालान था, इसलिए बेचारी सरयू को जाड़े के मौसम की कलेजा दहलाने वाली सर्दी, गर्मी की कड़कड़ाती हुई धूप और बरसात का मूसलाधार पानी अपने कोमल शरीर के ऊपर ही बर्दाश्त करना पड़ता था। हां, कहने के लिए ऊँचे बड़े और पीपल के पेड़ों का कुछ सहारा हो तो हो, मगर बड़े प्यार में पली दिन-रात सुख में ही बितानेवाली एक पतिव्रता के लिए जंगलों और भयानक पेड़ों का सहारा सहारा नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह भी उसके लिए डराने और सताने का सामान माना जा सकता है। हां, वहाँ थोड़े से ऐसे पेड़ भी जरूर थे जिनके फलों को खाकर पति-मिलाप की आशा-लता में उलझी हुई अपनी जान को बचा सकती थी और प्यास दूर करने के लिए उस नहर का पानी भी मौजूद था, जो मनुवाटिका में से होती हुई इस बाग में भी आकर बेचारी सरयू की जिन्दगी का सहारा हो रहा था। पर तिलिस्म बनाने वालों ने उस नहर को इस योग्य नहीं बनाया था कि कोई उसके मुहाने को दम भर के लिए सुरंग मानकर एक बाग से दूसरे बाग में जा सके। इस बाग की चहारदीवारी में भी विचित्र कारीगरी की गई थी। दीवार कोई छू भी नहीं सकता था, कई प्रकार की धातुओं से इस बाग की सात हाथ ऊंची [ २२८ ]दीवार बनाई गई थी। जिस तरह रस्सियों के सहारे कनात खड़ी की जाती है, शक्ल-सूरत में वह दीवार वैसी ही मालूम पड़ती थी अर्थात् एक-एक दो-दो कहीं-कहीं तीन-तीन हाथ की दूरी पर दीवार में लोहे की जंजीरें लगी हुई थीं, जिनका एक सिरा तो दीवार के अन्दर घुस गया था और दूसरा सिरा जमीन के अन्दर था। चारों तरफ की दीवार में से किसी भी जगह हाथ लगाने से आदमी के बदन में बिजली का असर हो जाता था और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ता था। यही सबब था कि बेचारी सरयू उस दीवार के पार हो जाने के लिए कोई उद्योग न कर सकी, बल्कि इस चेष्टा में उसे कई दफे तकलीफ भी उठानी पड़ी।

इस बाग के उत्तर की तरफ की दीवार के साथ सटा हुआ एक छोटा सा मकान था। इस बाग में खड़े होकर देखने वालों को यह मकान ही मालूम पड़ता था, मगर हम यह नहीं कह सकते कि दूसरी तरफ से उसकी क्या सूरत थी। इसकी सात खिड़कियाँ इस बाग की तरफ थीं जिनसे मालूम होता था कि यह इस मकान का एक खुलासा कमरा है। इस बाग में आने पर सबके पहले जिस चीज पर कुंअर इन्द्रजीतसिंह की निगाह पड़ी वह यही कमरा था और उसकी तीन खिड़कियों में से इन्दिरा, इन्द्रदेव और राजा गोपालसिंह इस बाग की तरफ झाँककर किसी को देख रहे थे, और इसके बाद बाद जिस पर उनकी निगाह पड़ी, वह जमाने के हाथों से सताई हुई बेचारी सरयू थी। मगर उसे दोनों कुमार पहचानते न थे।

जिस तरह कुंअर इन्द्रजीतसिंह और उनके बताने से आनन्दसिंह ने राजा गोपाल- सिंह, इन्द्रदेव और इन्दिरा को देखा, उसी तरह उन तीनों ने भी दोनों कुमारों को देखा और दूर ही से साहब-सलामत की।

इन्दिरा ने हाथ जोड़कर और अपने पिता की तरफ बताकर कुमारों से कहा, "आप ही के चरणों की बदौलत मुझे अपने पिता के दर्शन हुए।"