चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.17

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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आधी रात का समय है। तिलिस्मी बाग में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। इमारत के ऊपरी हिस्से पर चन्द्रमा की कुछ थोड़ी-सी चाँदनी जरा झलक मार रही है बाकी सब तरफ अन्धकार छाया हुआ है। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह सोये हुए हैं और भैरोंसिंह एक खम्भे के सहारे बैठे हुए बारहदरी के सामने वाली इमारत को देख [ ६१ ]बारहदरी के सामने वाली इमारत दोमंजिली थी और उसकी लम्बाई तो बहुत ज्यादा मगर चौड़ाई बहुत कम थी। इमारत की ऊपर वाली मंजिल में बाग की तरफ छोटे-छोटे दरवाजे एक सिरे से दूसरे सिरे तक बराबर एक ही रंग-ढंग के बने हुए थे। दरवाजों के बीच में केवल एक खम्भे का फासला था और वे खम्भे भी सब एक ही ढंग के नक्काशीदार बने हुए थे जिसकी खूबी इस समय कुछ भी मालूम नहीं पड़ती थी मगर एक दरवाजे के अन्दर यकायक कुछ रोशनी की झलक पड़ जाने के कारण भैरोंसिंह एकटक उसी तरफ देख रहे थे।

थोड़ी ही देर बाद ऊपर वाली मंजिल का एक दरवाजा खुला और पीठ पर गठरी लादे हुए एक आदमी बाईं तरफ से दाहिनी तरफ जाता हुआ दिखाई दिया। भैरोंसिंह चैतन्य होकर सम्हलकर बैठ गये और बड़ी दिलचस्पी के साथ ध्यान देकर उस तरफ देखने लगे। कुछ देर बाद दरवाजा बन्द हो गया और उसके दाहिनी तरफ चार दरवाजे छोड़कर पांचवाँ दरवाजा खुला जिसके अन्दर हाथ में चिराग लिए हुए एक और आदमी इस तरह खड़ा दिखाई दिया जैसे किसी के आने का इन्तजार कर रहा हो। थोड़ी ही देर में चार-पाँच औरतें मिलकर किसी लटकते बोझ को लिए हुए उसी आदमी के पास से निकल गई जिसके हाथ में चिराग था और उन्हीं के पीछे-पीछे वह आदमी भी चिराग लिए चला गया। दरवाजा बन्द नहीं हुआ मगर उसके अन्दर अन्धकार हो गया।

भैरोंसिंह ने यह समझकर कि शायद हम और भी कुछ तमाशा देखें दोनों कुमारों को चैतन्य कर दिया और जो कुछ देखा था, बयान किया।

हम कह आये है कि इस बारहदरी की पिछली दीवार के नीचे बीचोंबीच में अर्थात् चबूतरे के सामने एक छोटा दरवाजा था जिसके अन्दर भैरोंसिंह ने जाने का इरादा किया था। इस समय यकायक उसी दरवाजे के अन्दर चिराग की रोशनी देखकर भैरोंसिंह और दोनों कुमार चौंक पड़े और उठकर दरवाजे के सामने जा झाँककर देखने लगे। मालूम हुआ कि इस छोटे से दरवाजे के अन्दर एक बहुत बड़ा कमरा है जिसके दोनों तरफ की लोहे वाली शहतीरें (बड़ी धरने) बड़े-बड़े चौखूटे खम्भों के ऊपर हैं और उसकी छत लदाव की बनी हुई है। उस कमरे के दोनों तरफ के खम्भों के बाद भी एक दालान बना है और दालान की दीवारों में कई बड़े दरवाजे बने हैं जिनमें कुछ खुले और कुछ बन्द हैं।

दोनों कुमारों और भैरोंसिंह ने देखा कि उसी कमरे के मध्य में एक आदमी जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी थी, हाथ में चिराग लिए हुए खड़ा छत की तरफ देख रहा है। कुछ देर तक देखने के बाद वह आदमी एक खम्भे के सहारे चिराग रखकर पीछे की तरफ लौट गया।

भैरोंसिंह और दोनों कुमार आड़ में खड़े होकर सब तमाशा देख रहे थे और जब वह आदमी चिराग रखकर हट गया तब भी यह सोचकर खड़े ही रहे कि जब चिराग रखकर गया है तो पुन आवेगा।

उस नकाबपोश को चिराग रखकर गये हुए दस-बारह पल से ज्यादा न बीते होंगे कि दूसरी तरफ वाले दरवाजे के अन्दर से कोई दूसरा आदमी निकलकर तेजी से साथ इस कमरे के मध्य में आ पहुँचा और हाथ की हवा देकर उस चिराग को बुझा दिया जिसे [ ६२ ]पहला आदमी एक खम्भे के सहारे रखकर चला गया था, और इसके बाद कमरे में अन्धकार हो जाने के कारण कुछ मालूम न हुआ कि यह दूसरा आदमी चिराग बुझाकर चला गया या उसी जगह कहीं आड़ देकर छिप रहा।

यह दूसरा आदमी भी जिसने कमरे में आकर चिराग बुझा दिया था, अपने चेहरे पर स्याह नकाब डाले हुए था, केवल नकाब ही नहीं, उसका तमाम बदन भी स्याह कपड़े से ढंका हुआ था और कद में छोटा होने के कारण इसका पता नहीं लग सकता था कि वह मर्द है या औरत।

थोड़ी ही देर बाद दोनों कुमार और भैरोंसिंह के कान में किसी के बोलने की आवाज सुनाई दी जैसे किसी ने उस अंधेरे में आकर ताज्जुब के साथ कहा हो कि "हैं! चिराग कौन बुझा गया?"

इसके जवाब में किसी ने कहा, "अपने को सम्हाले रहो और जल्दी से हट जाओ, कोई दुश्मन न आ पहुँचा हो।"

इसके बाद चौथाई घड़ी तक न तो किसी तरह की आवाज ही सुनाई दी और न कोई दिखाई ही पड़ा मगर दोनों कुमार और भैरोंसिंह अपनी जगह से न हिले।

आधी घड़ी के बाद वह पुनः हाथ में चिराग लिए हुए आया जो पहले खम्भे के सहारे चिराग रखकर चला गया था। इस आदमी का बदन गठीला और फुर्तीला मालूम पड़ता था। इसका पायजामा, अंगा; पटूका, मुंडासा और नकाब ढीले कपड़े का बना हुआ था। अबकी दफे वह बायें हाथ में चिराग और दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए हुए था, शायद उसे पहले दुश्मन का खयाल था जिसने चिराग बुझा दिया था, इसलिए उसने चिराग जमीन पर रख दिया और तलवार लिए चारों तरफ घूमकर किसी को ढूँढने लगा। वह आदमी जिसने चिराग बुझा दिया था एक खम्भे की आड़ में छिपा हुआ था। जब पीले कपड़े वाला उस खम्भे के पास पहुँचा तो उस आदमी पर निगाह पड़ी, उसी समय वह नकाबपोश भी सम्हल गया और तलवार खींचकर सामने खड़ा हो गया। पीले कपड़े वाले ने तलवार वाला हाथ ऊँचा करके पूछा, "सच बता, तू कौन है?"

इसके जवाब में स्याह नकाबपोश ने यह कहते हुए उस पर तलवार का वार किया कि "मेरा नाम इसी तलवार की धार पर लिखा हुआ है।"

पीले कपड़े वाले ने बड़ी चालाकी से दुश्मन का वार बचाकर अपना वार किया और इसके बाद दोनों में अच्छी तरह लड़ाई होने लगी

दोनों कुमार और भैरोंसिंह लड़ाई के बड़े ही शौकीन थे, इसलिए बड़ी चाह से ध्यान देकर उन दोनों की लड़ाई देखने लगे। निःसन्देह दोनों नकाबपोश लड़ने में होशियार और बहादुर थे, एक-दूसरे के वार को बड़ी खूबी से बचाकर अपना वार करता था जिसे देख इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "दोनों अच्छे हैं, चिराग की रोशनी एक ही तरफ पड़ती है दूसरी तरफ सिवाय तलवार की चमक के और कोई सहारा वार बचाने के लिए नहीं हो सकता, ऐसे समय में इस खूबी के साथ लड़ना मामूली काम नहीं है!"

इसी बीच यकायक स्याह नकाबपोश ने अपने हाथ की तलवार जमीन पर फेंक दी और एक खम्भे की आड़ में घूमता हुआ खंजर खींच और उसका कब्जा दबाकर बोला, [ ६३ ]"अब तू अपने को किसी तरह नहीं बचा सकता।"

निःसन्देह वह तिलिस्मी खंजर था जिसकी चमक से उस कमरे में दिन की तरह उजाला हो गया। मगर पीले नकाबपोश ने भी उसका जवाब तिलिस्मी खंजर ही से दिया क्योंकि उसके पास भी तिलिस्मी खंजर मौजूद था। तिलिस्मी खंजरों से लड़ाई अभी पूरी तौर से होने भी न पाई थी कि एक तरफ से आवाज आई, "पीले मरकंद, लेना जाने न पावे! अब मुझे मालूम हो गया कि भैरोंसिंह के तिलिस्मी खंजर और बटुए का चोर यही है, देखो इसकी कमर से वह बटुआ लटक रहा है! अगर तुम इस बटुए के मालिक बन जाओगे तो फिर इस दुनिया में तुम्हारा मुकाबला करने वाला कोई भी न रहेगा क्योंकि यह तुम्हारे ही ऐसे ऐयारों के पास रहने योग्य है!"

यह एक ऐसी बात थी जिसने सबसे ज्यादा भैरोंसिंह को चौंका ही नहीं दिया बल्कि बेचैन कर दिया। उसने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "बस आप कृपा करके अपना तिलिस्मी खंजर मुझे दीजिए, मैं स्वयं इसके पास जाकर अपनी चीज ले लूँगा, क्योंकि यहां पर तिलिस्मी खंजर के बिना काम न चलेगा और यह मौका भी हाथ से गंवा देने के लायक नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, बेशक ऐसा ही है, अच्छा चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।

आनन्दसिंह––और मैं?

इन्द्रजीतसिंह––तुम इसी जगह खड़े रहो, दोनों भाइयों का एक साथ वहाँ चलना ठीक नहीं, अकेला मैं ही उन दोनों के लिए काफी हूँ।

आनन्दसिंह––फिर भैरोंसिंह जाकर क्या करेंगे? तिलिस्मी खंजर की चमक में इनकी आँख खुली नहीं रह सकती।

इन्द्रजीतसिंह––सो तो ठीक है।

भैरोंसिंह––अजी, आप इस समय ज्यादा सोच-विचार न कीजिए! आप अपना खंजर मुझे दीजिये, बस मैं निपट लूँगा।

इन्द्रजीत ने खंजर जमीन पर रख दिया और उसके जोड़ की अंगूठी भैरोंसिंह की उँगली में पहना देने के बाद खंजर उठा लेने के लिए कहा। भैरोंसिंह ने तिलिस्मी खंजर उठा लिया और उस छोटे दरवाजे के अन्दर जाकर बोला, "मैं भैरोंसिंह स्वयं आ पहुँचा!"

भैरोंसिंह के अन्दर जाते ही दरवाजा आप-से-आप बन्द हो गया और दोनों कुमार ताज्जुब से एक-दूसरे की तरफ देखने लगे।